
चेख़व की कहानी पर ''गाढ़ी आंखें'' सी फ़रेबी फ़िल्म बनानेवाले, और ''सूरज की आंच में'' की मशहूरी पाये निकिता मिख़ालकोव ने अपने हालिया मैग्नम-ऑपस से कुछ वर्षों पहले, 2007 में इन फैक्ट, ''12'' नामकी फ़िल्म बनाई थी, वही, अपनी सिडनी लुमेट वाली पुरानी का री-मेक, डील-डौल दुरुस्त-सी ही फ़िल्म है, मगर सिडनी लुमेट और हेनरी फोंडा वाली मार्मिक दादागिरी, कसी नाटकीय बुनावट, के आगे वह कहीं नहीं ठहरती. 1957 में लुमेट के करियर की वह ब्रिलियेंट बिगनिंग थी. 1962 में लुमेट ने एक और मशहूर नाटक, इस मर्तबा यूजीन ओ'नेल के मशहूर- लांग डेज़ जर्नी इनटू नाईट- को फ़िल्मबंद किया था. कसे हुए परफॉरमेंस और घने दृश्यों की प्यारी फ़िल्म है (लगे हाथ याद दिलाता चलूं, नेल के चार नाटकों को जोड़कर एक और फ़िल्म बनी थी, लुमेट एक्सरसाइज़ से बाईस साल पहले, 1940 में जवान जॉन वेन को लेकर जॉन फॉर्ड ने बनाई थी, इन फैक्ट वह भी अभी बासी नहीं हुई. लेकिन फोर्ड का क्या काम बासी हुआ है? कुछ समय पहले 'द सर्चर्स' देखी थी, नहीं लगा था कहीं भी कुछ फीका हुआ है.).
मगर मैं यहां फोर्ड, नेल, चेख़व और रेजिनाल्ड रोज़ की याद पर जमी धूल उठाने नहीं आया. प्रसंग लुमेट की सन् छहत्तर में बनी एक अन्य फ़िल्म है, टीवी रेटिंग को लेकर चैनल के भीतर के मालिकान की महीन गुंडइयां और मनूवरिंग की होनहारी, बरखाधारी निर्मम खौफ़नाक़ खेल. टेलीविज़न की बरखाओं को देखकर बड़े होने वाले (और अन्ना के पीछे वापस टेलीविज़न को विश्वसनीयता दिये देने वाले) बहुत सारे शराफ़त के धनी बच्चे तब नेटवर्क के ज़माने में पैदा नहीं हुए होंगे. मज़ेदार है कि मगर तभी, खाते-पीते और वियतनाम-अघाये मुल्क अमरीका में ही सही, वाजिब तरीके से सामाजिक सरोकारों की ऑलरेडी टीवी ऐसी की तैसी बजाने लगा था. जिसके भीतर कैसी भी सामाजिक हिस्सेदारी, आक्रामक होने के सारे स्वांगों के बावज़ूद, का मतलब रेटिंग सहेजने की तिलकुट हरकतों से और ज़्यादा कभी भी कुछ नहीं था. यू-ट्यूब पर एक ट्रेलर देखने से पहले पीटर फिंच का पहले यह एक उच्छावास देख लीजिए, उसके बाद यहां देखिए, ऊपर बैठे मालिकान किस नज़ाकत, और भाषा में टीवी पर लोकप्रिय हीरो हुए एक बुर्जूग एंकर की कैसी, क्या ख़बर लेते हैं. फ़िल्म देखने की एक तुरत वाली बेचैनी होती हो तो उसका एक तुरत समाधान यहां है.