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9/05/2011

सब धंधा है उर्फ़ नेटवर्क का ज़हर

चेख़व की कहानी पर ''गाढ़ी आंखें'' सी फ़रेबी फ़िल्‍म बनानेवाले, और ''सूरज की आंच में'' की मशहूरी पाये निकिता मिख़ालकोव ने अपने हालिया मैग्‍नम-ऑपस से कुछ वर्षों पहले, 2007 में इन फैक्‍ट, ''12'' नामकी फ़िल्‍म बनाई थी, वही, अपनी सिडनी लुमेट वाली पुरानी का री-मेक, डील-डौल दुरुस्‍त-सी ही फ़िल्‍म है, मगर सिडनी लुमेट और हेनरी फोंडा वाली मार्मिक दादागिरी, कसी नाटकीय बुनावट, के आगे वह कहीं नहीं ठहरती. 1957 में लुमेट के करियर की वह ब्रिलियेंट बिगनिंग थी. 1962 में लुमेट ने एक और मशहूर नाटक, इस मर्तबा यूजीन ओ'नेल के मशहूर- लांग डेज़ जर्नी इनटू नाईट- को फ़िल्‍मबंद किया था. कसे हुए परफॉरमेंस और घने दृश्‍यों की प्‍यारी फ़िल्‍म है (लगे हाथ याद दिलाता चलूं, नेल के चार नाटकों को जोड़कर एक और फ़िल्‍म बनी थी, लुमेट एक्‍सरसाइज़ से बाईस साल पहले, 1940 में जवान जॉन वेन को लेकर जॉन फॉर्ड ने बनाई थी, इन फैक्‍ट वह भी अभी बासी नहीं हुई. लेकिन फोर्ड का क्‍या काम बासी हुआ है? कुछ समय पहले 'द सर्चर्स' देखी थी, नहीं लगा था कहीं भी कुछ फीका हुआ है.).

मगर मैं यहां फोर्ड, नेल, चेख़व और रेजिनाल्‍ड रोज़ की याद पर जमी धूल उठाने नहीं आया. प्रसंग लुमेट की सन् छहत्‍तर में बनी एक अन्‍य फ़िल्म‍ है, टीवी रेटिंग को लेकर चैनल के भीतर के मालिकान की महीन गुंडइयां और मनूवरिंग की होनहारी, बरखाधारी निर्मम खौफ़नाक़ खेल. टेलीविज़न की बरखाओं को देखकर बड़े होने वाले (और अन्‍ना के पीछे वापस टेलीविज़न को विश्‍वसनीयता दिये देने वाले) बहुत सारे शराफ़त के धनी बच्‍चे तब नेटवर्क के ज़माने में पैदा नहीं हुए होंगे. मज़ेदार है कि मगर तभी, खाते-पीते और वियतनाम-अघाये मुल्‍क अमरीका में ही सही, वाजिब तरीके से सामाजिक सरोकारों की ऑलरेडी टीवी ऐसी की तैसी बजाने लगा था. जिसके भीतर कैसी भी सामाजिक हिस्‍सेदारी, आक्रामक होने के सारे स्‍वांगों के बावज़ूद, का मतलब रेटिंग सहेजने की तिलकुट हरकतों से और ज़्यादा कभी भी कुछ नहीं था. यू-ट्यूब पर एक ट्रेलर देखने से पहले पीटर फिंच का पहले यह एक उच्‍छावास देख लीजिए, उसके बाद यहां देखिए, ऊपर बैठे मालिकान किस नज़ाकत, और भाषा में टीवी पर लोकप्रिय हीरो हुए एक बुर्जूग एंकर की कैसी, क्‍या ख़बर लेते हैं. फ़िल्‍म देखने की एक तुरत वाली बेचैनी होती हो तो उसका एक तुरत समाधान यहां है.

8/18/2011

खूबसूरत अजनबी (पहचाने निहायते विरूप)..

वर्षों पहले किसी दूतावासी स्क्रिनिंग में एक रूसी फ़ि‍ल्म‍ देखकर दंग हुआ था, इतने अर्से बाद दुबारा देखकर फिर सन्‍न होता रहा. यह सोचकर और सन्‍नाता रहा कि मैं ही नहीं, फिल्‍मों में रुचि रखनेवाले ढेरों और लोग होंगे जो उन्‍चालीस वर्ष की कम उम्र में गुज़र गई रूसी फिल्‍ममेकर लारिसा शेपित्‍को के नाम-काम से परिचित न होंगे! दुनिया और राजनीति के खेल अनोखे होते हैं, कुछ लोगों को, और कुछ कृतियों को दुनिया इस छोर से उस ओर तक जान जाती है और कुछ विरल मार्मिकताअें के सघन पाठ होते हैं पढ़नेवालों तक उनका ''क'' तक नहीं पहुंचता. (अंग्रेजी में शीर्षक) ''द एसेंट'' जैसी फ़ि‍ल्‍म बनाने, व बर्लिन में उसके लिए गोल्‍डर बीयर का पुरस्‍कार से नवाजे जाने के बावजूद लारिसा को अब जबकि सोवियत शासन भी सुदूर का किस्‍सा हुआ क्‍यों ज्‍यादा नहीं जाना गया की कहानी ''गार्डियन'' में उनके स्‍मरण पर छपी इस छोटी टिप्‍पणी से कुछ पता चलती है. एक छोटी याद यह यू-ट्यूब के पन्‍ने पर है. लारिसा का यह आईएमडीबी पेज़ का लिंक है, जिन भाइयों से जितनी और जो लहे, फ़ि‍ल्‍में देखकर खुद को धन्‍य करें.

पिछले साल एक और रूसी फ़ि‍ल्‍म (''आओ और देखो'') देखकर दांत और उंगली दबाता रहा था, अभी जानकर फिर दबा रहा हूं कि उस फ़ि‍ल्‍म को बनानेवाले एलेम क्‍लि‍मोव लारिसा के पति थे. एक और फिल्‍म, ईरानी, देखकर लाजवाब हुआ, यहां भी मज़ेदार है कि बहराम बेज़ई के नाम से भी नहीं ही वाक़ि‍फ था. एकदम दुलरिनी फ़ि‍ल्‍म है ''बाशु..''. 

हाल में दो हिन्‍दी फ़िल्‍में भी देखीं. पहली को देखकर (हांफ और कांख-कांखकर) दांतों के बीच उंगलियां दबाई ही नहीं थीं, काट भी ली थी (शर्म से), आश्‍चर्य की बात दूसरी फिल्‍म देखकर ऐसी कांखने किम्‍बा लजाने की नौबत नहीं आई..

3/12/2010

रोड मूवी एंड एटसेट्रा..

थोड़ा अर्सा हुआ अलेक्‍सेई बालबानोव की एक फ़ि‍ल्‍म देखी थी, अंग्रेजी में रिलीज़ का नाम था- 'ऑफ़ फ्रीक्‍स एंड मेन', 1998 की बनी सीपिया रंगों की एक बड़ी ही अजीब दुनिया थी, पहचानी रुसी फ़ि‍ल्‍मों के अनुभवों से एकदम जुदा. फिर हुआ कि बालबानोव की एक और फ़ि‍ल्‍म हाथ चढ़ी, यह ज़रा और पहले '91 की बनी थी, काली-सफ़ेद, अंग्रेजी में 'हैप्‍पी पीपुल', देखकर फिर सन्‍न हो रहा था कि सिनेमा का यह कैसा मुहावरा, ठेठ रुसी तर्जुमा, जो अभी तक नेट पर की हमारी घुमाइयों के नक़्शे से ओझल बना रहा, (ऐसी अभी कितनी फ़ि‍ल्‍में और फि‍ल्‍ममेकर होंगे..) नेट पर खोज-बीज करते नज़र गई कि बालबानोव ने काफ़ी फ़ि‍ल्‍में बनाई हैं, और अपनी तरह से लोकप्रियता भी हासिल की है..

कुछ ऐसे ही संयोग में एक और रुसी फ़ि‍ल्‍म हाथ आई, एलेम क्लिमोव की 1965 की बनी 'एडवेंचर्स ऑफ़ ए डेंटिस्‍ट', बहुत कुछ ज़ाक ताती और आस्‍सेलियानी की दुनिया के गिर्द घूमती- मुलायम, महीन, सिनेमैटिक. (2003 में क्लिमोव की मृत्‍यु हुई, यह उनके साथ इंटरव्‍यू का एक लिंक है). उनकी फ़ि‍ल्‍में कहीं से हाथ लगें, तो ज़रुर देखें..

इसी तरह की भटकन में दो डॉक्‍यूमेंट्री पर भी नज़र गई, एक इंटरनेट से लहे होने का अमरीकी किस्‍सा, 'गूगल मी', तो दूसरी एक्‍स्‍टेसी ड्रम से लसने की इज़रायली कहानी, 'अटैक ऑफ़ द हैप्‍पी पीपुल'. बाकी फिर दो दिन पहले हमने भी 'रोड मूवी' देखी थी, मानकर चलते हुए कि रोड और मूवी के बीच का कौमा देव बेनेगल की फकत अदा है, अंतत: वह राजस्‍थानी लैंडस्‍केप की भटकनों की सिनेमाई, एक्‍ज़ॉटिक पैकेजिंग होगी, चूंकि फिरंगी कंस्‍पशन के लिए तैयार की गई होगी, यहां के कुछ दर्शकों के लिए काम करेगी, कभी नहीं भी करेगी. जैसे अभय के लिए मुंह के बल गिरी, मेरे लिए नहीं गिर रही थी, मिशेल आमाथियु के कैमरा और माइकल ब्रुक के बैकग्राउंड स्‍कोर में रमे हुए बीच-बीच में मैं भूल जा रहा था कि फ़ि‍ल्‍म सचमुच क्‍यों और कितनी बेमतलब है.

11/16/2008

आकी, आमिर और दोस्‍त का गुस्‍सा..

हमारे मेलबॉक्‍स में हमारे एक कैमरामैन नौजवान मित्र हैं, उनका एक मेल पड़ा था. फि़नलैण्‍ड के फ़ि‍ल्‍मकार आकी काउरिसमाकी की एक फ़ि‍ल्‍म देख लेने का आह्लाद था- हम सबों को होता है- नीचे कैज़ुअल तरीके से एक गुस्‍सा भी ज़ाहिर था जिस कॉलोनाइज़्ड पीटी मानसिकता के बारे में हम शायद ही कभी सोच पाते हैं..

नीचे मित्र की चिट्रूठी चिपका रहा हूं:
saw drifting clouds on a channel called world movies the other day. achhi channel hai.. something interesting keeps coming every now and then

read this about kaurismaki... .
bande mein dam hai...

In terms of awards, Kaurismäki's most successful movie to date has been The Man Without a Past. It won the Grand Prix and the Prize of the Ecumenical Jury at the Cannes Film Festival in 2002 and was nominated for an Academy Award in the Best Foreign Language Film category in 2003. However, Kaurismäki refused to attend the gala, noting that he didn't particularly feel like partying in a nation that is currently in a state of war. Kaurismäki's next film Lights in the Dusk was also chosen to be Finland's nominee in the category for best foreign film. Kaurismäki again decided to boycott the Awards and refused the nomination as a protest against US President George W. Bush's foreign policy [1].
In 2003, in one of his most famous protests, Kaurismäki boycotted the 40th New York Film Festival backing his Iranian fellow director, Abbas Kiarostami who was not given a US visa in time for the festival.

compare that with your favorite directors like amir khan who go running off to hollywood for the oscars. kya pramod? kuchh karo yaar!

9/27/2008

दु:ख की छंटती बदलियां..

पीटूपी की मेहरबानी कि रहते-रहते फ़ि‍ल्‍मी नगीने हाथ लगते रहते हैं, और यह बात, शिद्दत से, भूलती नहीं कि हिंदी फ़ि‍ल्‍में क्‍यों और कैसे इतनी अझेल हैं. आज सुबह की अच्‍छी शुरुआत फ़ि‍निश निर्देशक आकि कॉउरिसमाकी की ‘ला विये दि बोहेम’ (1992) और ‘ड्रिफ्टिंग क्‍लाउड्स’ (1996) के रतन से हुई है. कॉउरिसमाकी की ज़्यादातर फ़ि‍ल्‍मों की तरह, यहां भी, कहानी के किरदार बहुत सहज-स्‍वाभाविक तरीके से, दु:ख के हदों को छूते हुए कहीं बहुत उसके पार निकल जाते हैं, और हमेशा की तरह, मज़ा यह कि सिर गिराकर रोते-गिड़गिड़ाते नहीं, उलटे, बड़ी मासूमियत से, अच्‍छे वक़्त की वापसी का अपने दु:स्‍साहसी तरीकों से इंतज़ार करते हैं. उनके दुस्‍साहस की हद होती है कि कभी-कभी सचमुच दु:ख ही गिड़गिड़ाता उनके रास्‍ते से हट जाता है..

लड़ि‍याहट में कॉउरिसमाकी और उनकी फ़ि‍ल्‍मों पर फिर कभी लिखूंगा, फ़ि‍लहाल ‘ड्रिफ्टिंग क्‍लाउड्स’ के एंड क्रेडिट का गाना ठेल रहा हूं.



फ़ि‍निश गाने का एक बेसिक अंग्रेजी तर्ज़ुमा यह रहा:
I didn't know what I'd found
when I asked you for a dance.
They played a song with a beat,
you said: come closer.

Everything hid away
when the moon got lost in the clouds -
and the park got dark
and there's always a reason why.

The band takes a break
and I ask to walk you home.
You just laugh in silence,
others turn to watch.

The night's not over,
the record plays forever-
all I can do is wait.
But the clouds are drifting far away,
you try to reach them in vain -
the clouds are drifting far away,
and so am I...
कॉउरिसमाकी की फ़ि‍ल्‍मों पर ज़रा एक डिटेली नज़र मारना चाहते हैं तो उसका लिंक यह रहा.

9/26/2008

तीन बंदर

आमतौर पर होता यह है कि काम लायक किसी निर्देशक की पहली फ़ि‍ल्‍म में स्‍पार्क होता है, बाद में, धीरे-धीरे फिर निर्देशक मियां फ़ि‍ल्‍म बनाने की नौकरी बजाने लगते हैं. तुर्की के नूरी चेलान की तीसरी व अपने लिए पहली फ़ि‍ल्‍म ‘उज़ाक’ मैंने कुछ वर्ष हुए देखी थी, उसके बाद ‘मौसम’ और कल, एनडीटीवी-लुमियेर व पीवीआर की मेहरबानी से, ‘तीन बंदर’ देखी, देखकर लगा चेलान हर नयी फ़ि‍ल्‍म के साथ अपने माध्‍यम के कलात्‍मक नियंत्रण की नयी ऊंचाइयां छू रहे हैं. टाईट शॉट्स में असहज चेहरों पर कैमरा होल्‍ड किये आत्‍मा के पतन को देखने का, यूं लगता है, चेलान ने एक नया स्‍टाईल इवॉल्‍व कर लिया है. चेलान के बारे में फिर कहूंगा, फ़ि‍लहाल इतना ही कि आप पीवीआर वाले सिनेमा के किसी महानगर में बसते हैं तो ज़रा सा उसका फ़ायदा उठाइये और इसके पहले कि दूसरे तमाशों में ‘तीन बंदर’ सिनेमाघरों से उठ जाये, जाकर चोट खाये चार क़ि‍रदारों के आत्‍मा के पतन की यह गहरी, गूढ़ सिनेमाई कविता देख आईये.

9/23/2008

किसे ज़रूरत है फ़ि‍ल्‍म समीक्षकों की?

किसी फ़ि‍ल्‍म की किस्‍मत का फ़ैसला उसकी समीक्षा करनेवालों की लिखायी से होना धीमे- धीमे क्रमश: हुआ है. ब्रितानी फ़ि‍ल्‍म पत्रिका साइट एंड साऊंड के ताज़ा अंक में निक जेम्‍स इस पर कुछ विस्‍तार से बता रहे हैं..

“We live in a culture that is either afraid or disdainful of unvarnished truth and of sceptical analysis. The culture prefers, it seems, the sponsored slogan to judicious assessment. Given that the newspapers are so in thrall to marketing, you might think that they would feel responsible for their own decline. But plenty of veteran hacks claim it was always like this…”

पूरा लेख यहां पढ़ें.

6/18/2008

एबीसी अफ्रीका

अब्‍बास क्‍यारोस्‍तामी की डॉक्‍यूमेंट्री ‘एबीसी अफ्रीका’ नयी फ़ि‍ल्‍म नहीं है (2001 में बनी थी, उसके बाद से वह सात और फ़ि‍ल्‍में सिरज चुके हैं, कोई फ़ि‍ल्‍मकार इससे ज़्यादा प्रॉलिफिक और क्‍या होगा?).. मगर एबीसी अफ्रीका की खासियत इसका डिजिटल फॉरमेट (मिनी डीवी) में शूट किया होना है, तो इस लिहाज़ से क्‍यारोस्‍तामी के स्‍तर के निर्देशक की हम यहां दूसरे किस्‍म की सक्रियता को देखने का सुख पाते हैं..

यूगांडा के एआईडीएस पी‍ड़ि‍त परिजनों के अनाथ बच्‍चों की मदद करनेवाली अंतर्राष्‍ट्रीय एजेंसी के सहयोग से बनी फ़ि‍ल्‍म अभागे बच्‍चों की इसी दुनिया में घूमती है, लिटरली; कुछ ऐसा, इतना ही सरल फ़ि‍ल्‍म का ढांचा है: बीच-बीच में पीछे छूटती सड़कों का भव्‍य, अनूठा लैंडस्‍केप है, और फिर नाचते, ठुमकते, कैमरे के आगे आ-आकर मुंह बिराते बच्‍चों की हुड़दंग है.. ओर-छोर तक फैली गरीबी, असहाय सामाजिक लोक व उसमें असहाय कभी भी आते रहनेवाली मृत्‍यु का अनाटकीय डॉक्‍यमेंटेशन है.

एबीसी अफ्रीका व उसके प्रति क्‍यारोस्‍तामी के नज़रिये के बारे में दिलचस्‍पी रखनेवाले तत्‍संबंधी सामग्री यहां और यहां पढ़ सकते हैं.

12/23/2007

दो फ़ि‍ल्‍म और आधी..

Two and Half Films…

Having been stuck by monetary troubles, later on rescued and taken to theatres by UTV ‘Khosla ka Ghosla’ (2006) is quite an amusing and titillating film about life and living in Delhi. Other than the last half an hour or so when the elder son plans and executes to get back the money stolen from his family by the baddie land mafia, the film runs pretty smoothly with nice character etchings and intelligent dialogues. Till date the six films that Jaideep Sahni has written, three (Company, Chak de! India and Khosla ka Ghosla) are quite decent accomplishment. Even actors do their part pretty all right. Its first film for director Dibakar Banerjee. We should hope to see more interesting outputs from him in coming years.

The second film, ‘Manorama Six Feet Under’ is a also a first film for director Navdeep Singh written with Devika Bhagat. Though considering it to be a thriller, the writing could have been more tight and intriguing. Writers mix up the laid back set-up with the story telling as well and the ploy kills the viewers’ interest for the whole two-third of the film. The film moves tiredly and a flat performance by Abhay Deol hardly infuses with any warmth or intelligence. Though it’s a pleasing to watch Vinay Pathak, Gul Panag and Raima Sen in cameo roles. The camerawork by Arvind Kannabiran is very impressive. But watching the film one feels one is in company of a good and sensitive director. Lets wait and see what twists and turns Navdeep gives us in future.

The remaining half film that I am going to write about is not by a first timer. Its more expensive, more ambitious but after first three minutes or so, one realizes its going to be a hopeless journey. In fact it doesn’t even become any journey as it just refuses to go anywhere. Whatever the prmos, producer say or media blabbers about, the film doesn’t have a story. It doesn’t even have a sequence worth mentioning about. The whole thing is just a compilation of glossy images hopelessly going nowhere. Well, it’s pretty ‘Khoya Khoya…’ whatever.

By Jainarain

12/06/2007

प्‍यार करने के ख़तरनाक नतीजे..

सत्‍तर के दशक के फ्रंचेस्‍को रोज़ी, बेर्तोलुच्‍ची के इतालवी सिनेमा का वर्तमान बेहद निराशाजनक है. पिछले तीसेक वर्षों से रहा है. मोनिका बेलुच्‍ची और जुसेप्‍पे तोरनातोरे के सेंसुअस सिनेमा (‘इल चिनेमा परादिज़ो’, ‘मलेना’) ने भले अपने चहेते बनाये हों, आठवें दशक की शुरुआत से- नान्‍नी मोरेत्‍ती और फ्रांको मरेस्‍कोदनियेले चिप्री जैसे चंद नामों से अलग शायद ही ऐसे इतालवी निर्देशक बचे हों, फ़ि‍ल्‍म-लुभैयों की अंतर्राष्‍ट्रीय बिरादरी जिसका बेसब्री से इंतज़ार करती हो. जो कुछेक महत्‍वपूर्ण काम हुआ है, सब मुख्‍यधारा और रोम के दक्षिण में हुआ है. साऊथ का सिसिलियन कनेक्‍शन. प्राचीनता की जड़ों व उत्‍तर-औद्योगिक समाज के पेचिदे रिश्‍तों की अपने-अपने तरीकों से, इ‍तमिनान से पड़ताल करता सिनेमा. दक्षिण के इन नये निर्देशकों में पाओलो सोर्रेंतिनो भी एक ख़ास नाम है (पैदाइश नेपल्‍स, 1970). अब तक छह फ़ि‍ल्‍में बनाई हैं. मैंने जो देखी, ‘द कन्सिक्‍वेंसेज़ ऑव लव’ (अंतर्राष्‍ट्रीय अंग्रेजी शीर्षक) वह 2004 में बनाई थी. रोमन भराव के मध्‍य अकेलापन. प्रेम का अकाल और प्रेमजन्‍य दुस्‍साहस की धीमे-धीमे बुनती सनसनियों के आधुनिक बिम्‍ब.

पिछले दिनों मिली-जुली कुछ और फ़ि‍ल्‍में देखीं. 1973, पैरिस, फ्रांस में जन्‍मे डैनिश सिनेकार दागुर कारि की 2005 में बनाई ‘डार्क हॉर्स’ (अंतर्राष्‍ट्रीय अंग्रेजी शीर्षक). कुछ-कुछ जिम जारमुश की काली-सफ़ेद फ़ि‍ल्‍मों के असर वाली कारि की फ़ि‍ल्‍म ज्‍यादा सरल व कॉमिक है. साधारणता का औसत जीवन जीते नायक की छोटी-छोटी अस्तित्‍ववादी परेशानियां एक खूबसूरत ग्राफ़ खड़ा करती हैं.

फिर ऑरसन वेल्‍स की ‘मिस्‍टर अर्काडिन’. लम्‍बी अवधि तक शूटिंग व हॉलीवुड स्‍टुडियो के टंटों में फंसी रही मुश्किल और परतदार फ़ि‍ल्‍म (जैसीकि वेल्‍स की फ़ि‍ल्‍में होती हैं. बहुतों को बहुत अच्‍छी लगती है तो ऐसे भी ढेरों स्‍वर हैं जो अर्काडिन को ‘सिटिज़न केन’ का कमतर ऑफ़शूट बताते हैं. पर्सनली मेरे लिए अच्‍छी कसावट की अच्‍छी वेल्सियन फ़ि‍ल्‍म.

जर्मनी के हरज़ोग की 1977 की ‘स्‍त्रोज़ेक’. दो लात खाये चरित्रों का इस उम्‍मीद में अमरीका पलायन कि वह उन्‍हें अमीर व सुखी कर देगा. फिर सपनों के देश का दु:स्‍वप्‍न में बदलना. टिपिकल, रिच हर्जोगियन ईनसाइट.

9/13/2007

इकिरू




साल: 1952
भाषा: जापानी
डायरेक्‍टर: अकिरा कुरोसावा
लेखक: शिनोबू हाशिमोतो, अकिरा कुरोसावा
रेटिंग: ***



काफ़ी सारे लोग इकिरू को कुरोसावा की सबसे अच्छी कृति मानते हैं। जबकि कुरोसावा की बनाई गई इकत्तीस फ़िल्मों में रोशोमॉन, मदादायो, रान, देरसू उज़ाला, कागेमुशा, योजिम्बो, स्ट्रे डॉग और सेवेन समुराई शामिल हैं- सब मास्टरपीस। अगर मैंने इनमें से कोई फ़िल्म नहीं देखी होती तो मैं विश्वास से कह देता कि इकिरू ही कुरोसावा की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म होगी। आधार यह होता कि इससे बेहतर क्या बनाएगा कोई। मगर मैंने इनमें से कुछ फ़िल्में देखीं है और मैं फ़ैसला नहीं कर सकता कि कौन सी सबसे अच्छी है।

न दिलचस्प है न मज़ेदार बस निहायत मामूली आदमी- जिसने तीस बरस तक बिलानागा सिटी हॉल में एक सेक्शन चीफ़ की नौकरी बजाई है- कहानी है इस आदमी की जिसे पता चलता है कि उसके जीवन के सिर्फ़ छै माह और बचे हैं। मृत्यु को अपने इतना करीब पा कर इस आदमी के भीतर यह एहसास जागता है कि उसने अभी तक कितना अर्थहीन जीवन जिया है या जिया ही नहीं है। पहले ही जीने की कला भूल चुका यह आदमी अब अपने बचे हुए जीवन को पूरी उमंग से जीना चाहता है लेकिन नहीं जानता कैसे!


हम देखते हैं उसे रात की रंगीनियों में ज़िन्दगी को खोजते, शराब पीते, लहराते, गिरते, वेश्याओं के बीच चिल्लाते.. मगर जीवन नहीं मिलता उसे। मिलता है एक ऐसी जगह जहाँ उसने उम्मीद न की थी.. और वहीं से मिलती है प्रेरणा अपने शेष दिनों को एक सार्थक रूप देने की।

इकिरू का यह अभिशप्त नायक आधी फ़िल्म में ही मर जाता है और उसके बाद भी फ़िल्म एक घण्टे तक जारी रहती है। आप पहले से भी ज़्यादा साँस साध कर देखते रहते हैं उसकी मृत्यु पर आयोजित शोक-सभा का कार्य-व्यापार। उस लम्बे सीक्वेन्स को देखते हुए मुझे मुहर्रम की याद हो आई है- इमाम हुसेन की शहादत को आँखों से देखने वालों का कलेजा इतना नहीं कटा होगा, जितना उनकी कहानी को साल-दर-साल सुनते हुए कटता है। ये कहानी सुनाने की ताक़त ही होती है जो पत्थर-दिल मर्दों को भी सिनेमा हॉल के भीतर आँसुओं में पिघला देती है।

इकिरू का अंग्रेज़ी नाम मिलता है- टु लिव। समझ में आता है- मगर किस तरह जिया जाय इस बात को कुरोसावा कहीं किसी संवाद में किसी किरदार से कहलाते नहीं। जीवन के प्रति उनका विचार इकिरू देखने के अनुभव के बाद स्वतः उपज आता है आप के मन में।

आज की तारीख में भी लोग इस तरह का स्क्रिप्ट डिज़ाइन अपनाने में घबराएंगे उस समय तो यह निश्चित ही क्रांतिकारी रहा होगा। कुरोसावा कहानी सुनाते-दिखाते हुए कभी हड़बड़ी में नहीं रहते। जिस पल में रहते हैं, उस में रमे रहते हैं और अपने दर्शक को भी रमा देते हैं। समय को साधने की यह कला ही उन्हे एक महान निर्देशक बना देती है।

इकिरू व्यक्ति, समाज और जीवन तीनों के भीतर एक गहन दृष्टि डालती है। ऋत्विक घटक की सुबर्णरेखा का एक महत्वपूर्ण सीक्वेन्स और ऋषिकेश मुखर्जी की आनन्द इकिरू के प्रभाव में बनाई गई थी।

-अभय तिवारी

9/07/2007

द ब्‍लैक डाहलिया

साल: 2006
भाषा: अंग्रेज़ी
डायरेक्‍टर: ब्रायन द पाल्‍मा
लेखक: जोश फ्रायडमान, जेम्‍स एलरॉय
रेटिंग: **

बेबात की सत्रह अदायें हिंदी फ़ि‍ल्‍मों का ही दुर्गुण हो, ऐसा नहीं.. हॉलीवुड में ये नौटंकियां ज़मीन-आसमान एक करने लगती हैं, इसलिए भी कि उनके पास फूंकने को ज़्यादा पैसा है.. लगातार मोबाइल कैमरे से मिज़ानसेन रचने में ‘स्‍कारफेस’, ‘द अनटचेबल्‍स’, ‘मिशन इम्‍पॉसिबल’ जैसी बड़ी व सफल फ़ि‍ल्‍मों के निर्देशक ब्रायन द पाल्‍मा विशेष आनन्‍द लेते हैं.. बहुत बार सीन बड़ा महत्‍वपूर्ण होने जा रहा है इसका भरम भी बनता है.. मगर फिर धीमे-धीमे आप समझने लगते हैं ये अदायें हैं.. और अदायें सिर्फ़ अदायें होती हैं..

2006 में बनी ‘द ब्‍लैक डाहलिया’ चालीस के दशक में एलिज़ाबेथ शॉर्ट नामकी एक अभिनेत्री के मर्डर की सच्‍ची हटना पर लिखे जेम्‍स एलरॉय के उपन्‍यास का फ़ि‍ल्‍मी रूपान्‍तर है.. थ्रिलर.. ब्रायन द पाल्‍मा का हमेशा का पसंदीदा जानर.. विल्‍मोस सिगमोंद की अच्‍छी सिनेमाटॉग्राफ़ी है.. बीच-बीच में अच्‍छे चुटीले वाक्‍य सुनने को मिलते हैं.. लगता है मज़ेदार पॉप फ़ि‍लॉसफ़ी की पंक्तियां बरसीं.. जोश हार्टनेट और स्‍कारलेट जोहानसन का अभिनय भी बीच-बीच में आपको लपेटता है.. मगर फिर आप थकने लगते हैं.. और राह तकते हैं कि ठीक है, भाई, अब फ़ि‍ल्‍म खत्‍म हो.. मगर होती नहीं.. प्‍याज़ की परतों की तरह, और ‘देखो, दुनिया में कितना गंध है!’ वाले अंदाज़ में एक के बाद एक जाने कैसे-कैसे उलझे भेद खुलते रहते हैं.. आपको बस यही समझ आता है देखने में अच्‍छी, मगर अंतत: सुगधिंत मूर्खता है.. हॉलीवुडियन एक्‍स्‍ट्रावैगांज़ा है, विशुद्ध इंडलजेंस है.

9/04/2007

रैटाटुई

साल: 2007
भाषा: अंग्रेज़ी
लेखक व डाइरेक्टर: ब्रेड बर्ड
अवधि: 110 मिनट
रेटिंग: ****

आसपास किसी सिनेमा में लगी हो तो बीच में कभी फुरसत लहाकर ‘रैटाटुई’ देख आइए. बेसिक इमोशंस को झिंझोड़ने, ज़रा बेहतर इंसान बना सकने की सिनेमा की ताक़त पर एक बार फिर भरोसा जगेगा (जो विशेषता आजकल आमतौर पर फ़ि‍ल्‍मों से क्रमश: छिनती गई है; सिनेमा हॉल में बैठे हुए व बाहर निकलकर आप थोड़ा और विवेक व समझदारी लेकर बाहर निकलें, ऐसा अब होता भी है तो बहुत कम होता है)..

रैटाटुई पिक्‍सार की एनिमेशन फ़ि‍ल्‍म है जो उन्‍होंने वॉल्‍ट डिज़्नी के लिए बनाई है. कहानी ये है.. कहानी रहने दीजिए, मैं कहानी सुनाने लगूंगा और आप खामख्वाह बैठके बोर होइएगा! कथासार का लब्‍बौलुवाब यह है कि समाज और दुनिया की बनाई पूर्वाग्रही तस्‍वीरों में उलझने और जकड़कर रह जाने की जगह अपनी आत्‍मा की राह पर निकलना चाहिए.. देर-सबेर उसे पहचाना जाता है.. प्रशस्ति मिलती है.. यहां संदर्भ रेमि नाक के एक चूहे की है जो अपनी बिरादरी के ‘चुराके खाओ और अपनी औकात में रहो’ के मुल्‍य की जगह अपनी खोज व सिरजने की राह पर निकलता है, व तमाम अवरोधों के पश्‍चात पाक विद्या के गढ़ में स्‍नेह व इज़्ज़त हासिल करके रहता है.

कहानी अच्‍छी चाल से आगे बढ़ती है, बच्‍चे हंसते रहते हैं तो लगता है सबका मनोरंजन हो रहा है.. मगर फिर, बीच-बीच में ढेरों ऐसे मौके बनते हैं जब फ़ि‍ल्‍म का स्‍वर अचानक एकदम ऊपर उठकर विशुद्ध सिनेमा हो जाता है, और आपके मन के गहरे कोनों में अंतरंगता व समझ की मीठी थपकियां छोड़ जाता है! काफी सारे प्रसंग हैं जब रैटाटुई का लेखन और किरदारों की डेलिवरी बड़ी उम्‍दा महसूस होती है. आंतोन इगो व लिंग्विनी की आवाज़ों के लिए क्रमश पीटर ओ’टूल और लू रोमानो का काम दाद के काबिल है.

सोचिए मत, जाकर फ़ि‍ल्‍म देख आइए.

8/25/2007

चक दे! इंडिया

साल: 2007
भाषा: हिंदी
डायरेक्‍टर: शिमित अमीन
लेखक: जयदीप साहनी
रेटिंग: ***

डिसग्रेस्‍ड हीरो की शुरुआत हमेशा फ़ि‍ल्‍म को एक अच्‍छी बिगनिंग देती है.. आगे इस तनाव का सस्‍पेंस खिंचा रहता है कि हीरो के ग्रेस की वापसी कैसे होगी.. होगी या नहीं (होगी कैसे नहीं, भई, फ़ि‍ल्‍म है, वास्‍तविक जीवन नहीं?). उस लिहाज़ से ‘चक दे! इंडिया’ की शुरुआत तनी और कसी हुई नहीं.. लिखाई में भी इकहरापन है.. मगर उसके बाद फ़ि‍ल्‍म एकदम-से अपनी चाल पकड़ लेती है.. आमतौर पर हिंदी फ़ि‍ल्‍मों के घटियापे से अलग कैरेक्‍टराइज़ेशन पर ध्‍यान देती दिखती है.. चरित्रों के अंर्तलोक की जटिल परतों को बीच-बीच में मज़ेदार तरीके से पकड़ती है.. दर्शकों की दिलचस्‍पी बांधे रखती है.. और बड़ी मस्‍तानी चाल से आगे दौड़ती रहती है.. बीच-बीच में ऐसे डायलॉग आते रहते हैं कि आपको हिंदी फ़ि‍ल्‍मों के लेखन को दो कौड़ी का तय करने के फ़ैसले में असुविधा हो.

सबसे मज़ेदार है चक दे! इंडिया की लड़कियां.. कोमल चौटाला, प्रीति सबरवाल, विद्या शर्मा, बिंदिया नायक ऐसी लड़कियां है जिन्‍हें सोचते और अपनी बात कहता देख खुशी होती है.. कभी-कभी आगे बढ़कर उनसे हाथ मिलाने का मन करता है.. वे ऐसी लड़कियां हैं जिन्‍हें आप शायद आगे किसी फ़ि‍ल्‍म में न देखें.. क्‍योंकि वे ख़ूबसूरत और सेक्‍सी- कोई प्रीति झिंटा या रानी मुखर्जी नहीं.. अपने पैरों व दिमाग़ पर खड़ी आज की ज़िंदा लड़कियां हैं.. चक दे! इंडिया की व्‍यावसायिक सफलता के पीछे भी शायद दर्शकों का इन लड़कियों में अपना अक़्स देख लेना ही है.

लड़कियां कमाल की हैं, शाहरूख नहीं, जैसाकि प्रैस फ़ि‍ल्‍म के बारे में लिखते-बताते हुए बार-बार बोलती रही है.. हिंदी फ़ि‍ल्‍मों के ढेरों दुर्गुणों से मुक्‍त चक दे! की लिखाई, कैरेक्‍टराइज़ेशंस, अच्‍छी कास्टिंग फ़ि‍ल्‍म का अच्‍छे पहलू हैं.. तो कुछ बुरे पहलू भी हैं.. मसलन पूरी फ़ि‍ल्‍म में अनाप-शनाप बजता सलीम-सुलैमान का बैकग्राउंड स्‍कोर और वैसे ही ऊटपटांग गाने.. आप उसपर कान न दीजिए तो बाकी फ़ि‍ल्‍म फिट है.. हिट तो है ही.

ट्रेड के लिहाज़ से यह तथ्‍य भी मज़ेदार है कि यशराज की ज़्यादा महात्‍वाकांक्षी, मुख्‍यधारा के टंटों में ज़्यादा रची-बसी ‘झूम बराबर झूम’ बाज़ार से हवा हो जाती है.. और शिमित अमीन जैसे एक ‘अब तक छप्‍पन’ के ऑफ़बीट, अनफमिलियर निर्देशक की लाटरी निकल पड़ती है.

8/20/2007

जर्मनी ईयर ज़ीरो

साल: 1948
भाषा: इतालवी
डाइरेक्टर: रॉबर्तो रोस्सेलिनि
अवधि: 71 मिनट
रेटिंग: ****

रोस्सेलिनि नियो रियलिस्ट सिनेमा के बड़े हस्ताक्षर हैं. रोम ओपेन सिटी और पैसान के साथ यह फ़िल्म उनकी युद्ध त्रयी का आखिरी भाग है.

दूसरा विश्व युद्ध खत्म हो चुका है. जरमनी खण्डहर बन चुका है. उस पर विजेता अलाइड फ़ोर्सेज़ काबिज़ हैं. जिनके घर नष्ट हो गए हैं वे सरकार द्वारा दूसरों के घरों में ठूँस दिए गए हैं. ऐसे ही एक छोटे से परिवार की कहानी है यह फ़िल्म. फ़िल्म की क्रूर और नंगी सच्चाई को हम 12 साल के एदमन्द की आँखों से देखते हैं. पिता बीमार हो कर खाट पकड़े हुए है. नाज़ी सेना का लड़ाका रह चुका भाई छुप कर रहा है. डरता है कि उसे डण्डित किया जाएगा. चार मुँह भरने की जिम्मेदारी बड़ी बहन पर है जो रातों को एलाईड फ़ोर्सेज़ के सैनिकों के दिल बहला कर कुछ कमाई करती है. और एदमन्द पर जो कम उमर होने पर भी कब्रें खोद कर और काला बाज़ार में घर का सामान बेच कर अपने परिवार की अस्तित्व रक्षा करना चाहता है. हालात कठिन हैं. पर एदमन्द सीखने को तैयार है. वह अपने पुराने शिक्षक के द्वारा कामुक पुचकार भी सहने को तैयार है, अगर कुछ कमाई होती हो. मगर पिता का दर्द और परिवार की भूख उस से देखी नहीं जाती.. और वह कुछ ऐसा अप्रत्याशित कर बैठता है जो शायद पूरी जर्मन जाति द्वारा अपने इतिहास को नकारने के प्रतीक तुल्य है.

बिना किसी भावुकता के फ़िल्माई यह श्याम श्वेत फ़िल्म आप को अन्तर को गहरे तक चीरती चली जाती है और कुछ मूलभूत सवाल खड़े करती है.

- अभय तिवारी

8/06/2007

ला पेतित जेरुसलेम

डाइरेक्टर: कारिन आलबू
साल: 2005
अवधि: 96 मिनट
रेटिंग: ***

पैरिस के सबर्ब का एक निम्‍नवित्‍तीय हिस्‍सा है जिसे छोटे जेरुसलेम का नाम मिला हुआ है. टाइटल्‍स के बाद कैमरा धीमे-धीमे, पियानो के दबे संगीत के साथ, इसी दुनिया में उतरता है. छोटे, घेट्टोआइज़्ड ज्‍युइश समुदाय के रीत-रिवाज़ों से गहरे जुड़ी, अट्ठारह वर्षीय लौरा दर्शन की स्‍टूडेंट है, कांट के नक़्शे-कदम पर रोज़ एक तयशुदा रास्‍ते पर बिला नागा अपने टहल के लिए निकलती है. ट्युनिशिया से फ्रांस आकर अपनी दुनिया खड़ी करने की कोशिश में जुटे इस परिवार में धर्म और विश्‍वास का विशेष महत्‍व है. चार छोटे-छोटे बच्‍चों की मां- लौरा की बड़ी बहन मातिल्‍दे का पति आरियल समुदाय की चर्यायों में विशेष सक्रिय भी है. मां ट्युनिशिया के अपने बचपन वाले दिनों के ढेरों विश्‍वास को इतनी दूर पैरिस के सबर्ब में अब भी जिलाये रखने के तरीके जानती है. मगर परंपरा के इन भारी तानेबानों के बीच- खुद काफ़ी मज़बूत धार्मिक आस्‍था रखनेवाली लौरा की दुनिया, एक अनपेक्षित अश्‍वेत (लड़का अल्‍जीरिया से भागकर आया अश्‍वेत ग़ैरक़ानूनी आप्रवासी है) प्रेम के राह में चले आने पर अचानक कैसे तक़लीफ़देह सवालों का सामने करने का सबब बनती है, ‘ला पेतित जेरुसलेम’ इसी का एक्‍सप्‍लोरेशन है.

एक सधी, दुरुस्‍त अनाटकीय चाल में चलता अच्‍छा-प्‍यारा-सा मानवीय सिनेमेटिक दस्‍तावेज़. 2005 में फ़ि‍ल्‍म फ्रेंच सिंडिकेट ऑव सिनेमा क्रिटिक्‍स की ओर से श्रेष्‍ठ पहली फ़ि‍ल्‍म व कान फ़ि‍ल्‍म समारोह में श्रेष्‍ठ पटकथा के पुरस्‍कार से नवाजी जा चुकी है. फ़ि‍ल्‍म की निर्देशिका कारिन आलबू के मां-पिता अल्‍जीरिया से थे. ‘ला पेतित जेरुसलेम’ उनकी पहली फ़ि‍ल्‍म है. एक करियर की बहुत ही अच्‍छी शुरुआत.

7/14/2007

मास्क्ड एंड एनॉनिमस

डाइरेक्टर: लैरी चार्ल्स
लेखक: बॉब डिलन और लैरी चार्ल्स
संगीत: बॉब डिलन
साल: 2003
अवधि: 101 मिनट
रेटिंग: ***

टैगलाइन: Would you reach out your hand to save a drowning man if you thought he might pull you in?



सितारों की चकाचौंध को मैनेज करते, अपने बचाव में हर प्रकार का भाषाई तर्क गढ़ते और शराब पी-पी कर कंगाल हो चुके ईवेन्ट प्रोड्यूसर जॉन गुडमैन.. राजनीति की दलाली में नोट गिनने वाले टी वी चैनल मालिकों से फटकार पाने और अपने नीचे वालों पर रौब गाँठने के बीच खोखली हो चुकी टी वी एक्ज़ीक्यूटिव जेसिका लैंग.. सारे संसार से जवाबदेही करने को तैयार, मनुष्यता की गंद में लिथड़ने वाला पत्रकार जेफ़ ब्रिजेस.. संगीत की सच्चाई के सहारे दुनिया में एक सपनीले जीवन की रूमानियत लिए फ़िरते संगीत प्रेमी ल्यूक विलसन.. धैर्य, तिकड़म और बारूद तीनों के इस्तेमाल से सड़क से शीर्ष तक का सफ़र करने वाले सत्ता के लालची मिकी रूर्क.. हर बुरे प्रभाव को श्रद्धा और भक्ति से भगा देने में तत्पर भयाकुल पेनोलूप क्रूज़.. इन के अलावा वैल किल्मर, क्रिस्चिअन स्लेटर, एंजेला बेसेट, जोवान्नी रिबिसी और एड हैरिस एक साथ एक फ़िल्म में कर क्या रहे हैं?..

मुख्य भूमिका निभा रहे बॉब डिलन के इर्द-गिर्द छोटे-मोटे किरदार कर रहे हें..

बॉब अपने वास्तविक जीवन की तरह फिल्म में भी एक रॉक म्यूज़िक लीजेंड की भूमिका में हैं.. जिसका करियर सालों पहले समाप्त हो चुका है..

अभिनय के इन तमाम दिग्गजों का शानदार अभिनय.. आत्मिक आनन्द देने वाला मिज़ान-सेन.. गहरी परतदार स्क्रिप्ट.. और आपके अन्दर गहरे तक उतरते रहनेवाला संगीत.. और क्या उम्मीद करते हैं आप एक फ़िल्म से..? ख़ासतौर पर तब जब वह किसी निर्देशक की पहली फ़ि‍ल्‍म हो!.. हो सकता है आप को पहले दफ़े आनन्द तो भरपूर आये मगर हर बात समझ न आय.. तो दुबारा देखियेगा.. समझ में भी आयेगी और आनन्द भी बढ़ जाएगा..

- अभय तिवारी

7/08/2007

एलविरा मादिगन..

डायरेक्टर: बो वाइडरबर्ग
अवधि: 90 मिनट
साल: 1967

रेटिंग: ***

एक निहायत ही खूबसूरत फ़िल्म.. स्कैन्डिनेवियन समर के जादुई उजाले में फ़िल्माई हुई यह फ़िल्म दरअसल 1889 की एक सच्ची घटना पर आधारित है.. अपने सौतेले पिता के सर्कस में रस्सी पर चलने वाली लड़की का नाम था एलविरा मादिगन.. जिसे प्यार हो जाता है सिक्सटेन स्पारै नाम के एक आर्मी अफ़सर से..

फ़ौज से भागा हुआ दो बच्चों का बाप सिक्सटेन और एलविरा एक मास तक यहाँ वहाँ घूमते हैं.. जंगल.. गाँव कस्बे.. अपने प्यार को पूरी शिद्द्त से जीते.. पैसों की कमी की परवाह न करते.. और आखिर में एक ऐसी नौबत को पहुँचते जब उन्हे पेट भरने के लिए बीन बीन कर फल फूल खाने पड़े.. एक दूसरे को छोड़ कर समाज में लौट कर उसकी दी हुई सजाओं को भोगना.. इसे स्वीकार करने में असहाय ये दो प्रेमी.. आखिर में अपनी तरह का जीवन ना जी पाने की असहायता में खुद्कुशी कर लेते हैं.. सिक्सटेन, एलविरा को गोली मार के खुद भी मर जाता है.. उस वक्त सिक्सटेन 35 बरस का और अलविरा 21 बरस की थी.. डेनमार्क में मौजूद उनकी कब्र पर प्रेमियों का मेला आज भी लगता है..

कहानी जितनी दुखद है.. इस फ़िल्म का सिनेमैटिक अनुभव उतना नहीं.. डेढ़ घंटे की अवधि में अधिकतर समय आप दो प्रेमियों के प्रेम के मुक्त आकाश को देखते हैं.. खुली खूबसूरत आउटडोर सेटिंग्स में.. महसूस करते हैं उनके प्यार की गरमाहट को वार्म पेस्टल शेड्स में.. और मोज़ार्ट और अन्य मास्टर्स के संगीत और उनकी निश्छल खिलखिलाहटों में.. एक यादगार मुहब्बत का खूबसूरत सिनेमाई अनुभव..

इस फ़िल्म में एलविरा की भूमिका निभाने के लिए पिआ देगेरमार्क को कान फ़िल्म महोत्‍सव में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार दिया गया..

-अभय तिवारी

5/17/2007

गरीबी और भय के मेहनतनामे

सिलेमा में इन दिनों बड़ा सन्‍नाटा है. इसलिए नहीं है कि हमने फ़ि‍ल्‍में देखनी बंद कर दी हैं (भगवान न कराये ऐसा दिन आए! यह तो वही बात होगी कि हिंदीभाषी छोटे शहर के छोटे कवि को कह दिया जाए कि भइया, तुम कल से कविता पढ़ना बंद कर दो, और लिखना तो बंद कर ही दो! कैसी हदबद हालत हो जाएगी बिचारे की. तो हम इस उबलती गर्मी में अपनी हदबद हालत करवाना नहीं चाहते. हम फ़ि‍ल्‍म देख रहे हैं, और पहले से ज्‍यादा नहीं तो पहले से कम भी नहीं देख रहे..). दरअसल हमारे इस रेकॅर्ड को बजाने के पीछे की कहानी यह है कि एक साथी सिनेमाई ब्‍लॉगर ने आशंका ज़ाहिर की कि शायद अज़दक पर कथा और संस्‍मरण बांचने के चक्‍कर में हम सिनेमा भूल गए हैं. साथी, हम सिनेमा भूल जाएंगे तो फिर और क्‍या हमसे याद रखते बनेगा, इसका हमें ठीक-ठीक अंदाज़ा नहीं है. तो सिनेमा तो हम नहीं ही भूले हैं. बस दिक्‍कत सिर्फ़ यह है कि जो फ़ि‍ल्‍में हम देखते रहे हैं (आप कहेंगे कहां-कहां की अटरम-पटरम में हम दबे-धंसे रहते हैं!), उसके बारे में लगा नहीं कि बहुतों की दिलचस्‍पी बनेगी. उनपर हम कुछ लिखें तो शायद ज्ञानदत्‍त जी की प्रवीण लेखनी उसको अपने ज्ञानी ऐनक से जांचकर ‘गुरुवाई’ ठेलने का हमपर नया इल्‍ज़ाम मढ़ दे! क्‍या फ़ायदा ज्ञानी जी को, या किसी को भी दुखी करने का. और चूंकि चाहकर भी हम ‘गुड ब्‍वॉय बैड ब्‍वॉय’, ‘तारारमपम’ और ‘मेट्रो’ के मोह में उलझकर सिनेमा का रुख कर नहीं सके, सिलेमा में चुपाये रहना ही हमें सही नीति लगी.

काम की बताने लायक बात निकलेगी तो हम पाती लिखेंगे. फ़ि‍लहाल के लिए उन थोड़ी फ़ि‍ल्‍मों की फेहरिस्‍त जिनकी गंगा में डुबकी मारते हुए हम यह गर्मी झेलते रहे हैं:

1. द जैकेल ऑव नाहुयेलतोरो (मिगुएल ‍लितिन, चिले, 1969). लितिन का शुरुआती व बेहतरीन काम. डॉक्‍यूमेंट्री व फ़ीचर स्‍टाइल का एनर्जेटिक मिक्‍स. झारखंड, छत्‍तीसगढ़ व अन्‍य आदिवासी इलाकों में अगर कोई सार्थक, सामाजिक सिनेमाई आंदोलन होता तो यह फि‍ल्‍म वहां के लिए अच्‍छे उदाहरण का काम करती. भूखमरी में दर-दर की ठोकरें खा रहा फ़ि‍ल्‍म का नायक सहारा पाये एक परिवार की स्‍त्री और चार बच्‍चों की पीट-पीटकर इसलिए हत्‍या कर देता है क्‍योंकि रोज़ की यातना से उन्‍हें छुटकारा दिलाने की यही सूरत उसे दिखती व समझ आती है. उसकी गिरफ़्तारी पर मध्‍यवर्गीय समाज चीख-चीखकर उसे हत्‍यारा घोषित करता है. पुलिस जेल में उसके मानसिक ‘दिवालियेपन’ का सुधार करके उसे आदमी में बदलती है, और फिर जब वह सचमुच एक नए आदमी में तब्‍दील हो चुकता है, फांसी लगाके उसकी जान ले लेती है!
2. हाराकिरि (मसाकी कोबायासी, जापान, 1962). रोमांचक, लौमहर्षक, बड़े परदे पर देखा जानेवाला सनसनीखेज़ काला-सफ़ेद सिनेमा. सत्रहवीं शताब्‍दी के मध्‍य की गरीबी में समुराइ मुल्‍यों की निर्मम समीक्षा के बहाने समाजिक आस्‍थाओं की चीरफाड़.
3. वेजेस ऑव फीयर (हेनरी-जॉर्ज़ क्‍लूज़ो, फ्रांस, 1952). बेमिसाल, अद्भुत. क्‍लूज़ो ने ढेरों फ़ि‍ल्‍में नहीं बनाईं, मगर जितनी बनाईं वह थ्रिलर फ़ि‍ल्‍मों के तनाव को एक नई परिभाषा देती हैं. यह फ़ि‍ल्‍म उसका सर्वोत्‍तम उदाहरण है.
4. ला रप्‍चर (क्‍लॉद शाब्रोल, फ्रांस, 1970). हिचकॉकियन टेंशन का पैरिसियन इंटरप्रिटेशन. शाब्रोल के सिनेमा का अच्‍छा उदाहरण.
5. कार्ल गुस्‍ताव युंग: द मिस्‍ट्री ऑव द ड्रीम्‍स (डॉक्‍यूमेंट्री, घंटे-घंटे भर के तीन भागों में). जिनकी युंग और युंग के काम में दिलचस्‍पी है, उनकी खातिर अच्‍छी खुराक.