तो रिलीज़ के बाद आज यह पांचवा दिन है और अपनराम अभी तलक जो है 'एल एस और डी' का सेवन नहीं कर सके हैं, मतलब फ़िल्म नहीं देख सके हैं. घर पर बैठे हुए एलेम क्लिमोव की युद्ध-विभिषका के विहंगम, दु:स्वप्नी वृतांत (द हर्ट लॉकर मुझे पसंद है, लेकिन रुसी 1985 की बनी 'आओ और देखो' की एंटी-वॉर ऊंचाई की बात ही कुछ और है..) और इंडस्ट्रियल फार्मिंग के जीव-वध के नारकीय दृश्यों के आनंद में अटका रह गया. बड़े दु:ख की बात है. दूसरी दु:ख की बात है कि बीबीसी हिन्दी की प्रतीक्षा घिल्डियाल को अभी तक प्रतीक्षा ही करते रहना चाहिए था, बातचीत का यह सुख प्रमुदित होते हुए मुझे लेना चाहिए था, लेकिन हुआ इसके उलट है (जैसा जीवन में होता ही है) कि दिबाकर से बतरस का सुख प्रतीक्षीत कुमारी उठा रही हैं. ऑस्कर पुरस्कारों के भी बायस वाला मसला इसके पहले कि मैं उस पर कोई राय क्या बनाऊं, 'अवतार' अभी तक देख ही सकूं, स्लावो जीज़ू साहब राय सजाकर फिर से डाल पर जाये बैठे हैं.
फिर सबसे मज़ेदार बात यह कि गर्मी के इस सुहाने समय मेरे पंखे ने काम करना बंद कर दिया है, तो सवाल नैचुरली उठता ही है कि जीवन इतना मुश्किल क्यों है? और उसके आगे यह कि फिर सिनेमा इतना आसान और स्टुपिड?
1 comment:
..उफ़..’कम-एंड-सी’ वार-मूवीज (अगर ऐसा कोई जेनर होता है) या होलोकास्ट-मूवीज (कोई फ़र्क नही पड़ता कि होता है या नही) मे मेरी लिस्ट मे सबसे ऊपरी पायदान की फ़िल्म है..इसकी हिला कर रख देने वाली कहानी तो आपका निहत्थे शिकार करती ही है..बल्कि इसके टेक्निकल-डिटेल्स भी दिमाग को चींथ के रख देते हैं..जैसे कि इसका साउंड मिक्सिंग.मूवी देखने के कई दिनों बाद तक भी कानों मे सीटियों सा भमकता रहता है..इसी तर्ज पर कुछ और फ़िल्मे जो मुझे याद आती हैं उनमे से कोरियन ’ब्रदरहुड ऑफ़ वार’ (ताइगुक्गी) और कुर्दिश ’टर्टल्स कैन फ़्लाइ’ जेहन के दरवाजे पर किसी तालिबानी पोस्टर सी आज तक चिपकी हुई हैं..ये फ़िल्में टिपिकल हालीवुडिया पिक्चरों की तरह कुँएं की जगत पर बैठ कर युद्ध की प्रासंगिकता और उसके समाजशास्त्रीय आदि प्रभावों पर दर्शन नही झाड़ती..न उसको ग्लैमराइज करती हैं..वरन् कुएँ मे आपको सीधे धक्का दे देती हैं..कि खुद देख लो आप अपने आप डूब कर...
देखा मै भी सेंटिया गया..;-)
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