tag:blogger.com,1999:blog-16550446542196127862024-03-14T08:57:34.924+05:30cinema- सिलेमाअंधेरों में उजाले भी होंगे..azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.comBlogger176125tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-68827812398326940422021-11-15T14:37:00.001+05:302021-11-15T14:37:26.886+05:30कूड़ंगल के कंकड़<p><span style="font-size: medium;"><span lang="HI" style="font-family: Mukta, "sans-serif";"></span></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="font-size: medium;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-1jQRezNYMmk/YZIjEPTWybI/AAAAAAAAS_o/NDUyqNtYm_krPfbvLhzCvLzVu9VRS8R3QCLcBGAsYHQ/s1080/peebles.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="626" data-original-width="1080" height="185" src="https://1.bp.blogspot.com/-1jQRezNYMmk/YZIjEPTWybI/AAAAAAAAS_o/NDUyqNtYm_krPfbvLhzCvLzVu9VRS8R3QCLcBGAsYHQ/s320/peebles.jpg" width="320" /></a></span></div><span style="font-size: medium;">इस वर्ष भारत से ऑस्कर नॉमिनेशन में भेजी गई फ़िल्म में मदुरई के देहातों के सूखे मैदान हैं। दो-तीन किरदार
हैं उनके साथ कैमरा आगे-पीछे<span style="font-family: Mukta, "sans-serif";">, <span lang="HI">लिंगर करता</span>, <span lang="HI">चलता रहता
है. हैंड-हेल्ड और स्टेडीकैम के लंबे-लंबे शॉट्स हैं. ग़रीबी की दुनिया है तो मोस्टली
किरदारों के पैर नंगे हैं</span>, <span lang="HI">नंगे पैरों के बलुआही सूखी ज़मीन पर
चलने का धम्-धम् कुछ गूंजता-सा बजता रहता है. यही आवाज़ें हैं</span>, <span lang="HI">या फिर गुस्से</span>, <span lang="HI">झुंझलाहट और झगड़ों की गूंजें. संवाद
बहुत ज़्यादा नहीं हैं</span>, <span lang="HI">शायद फ़िल्म की एक-चौथाई भी न हो. पसीने
और ग़रीबी में सुनसान व पत्थर हो रहे चेहरों की ठहरी हुई दुनिया है. देहाती ग़रीबी
के सुनसान और चेहरों का लैंडस्कैप मन में बनता</span>, <span lang="HI">मथता रहता है.</span></span></span><p></p>
<p class="MsoNormal"><span style="font-size: medium;"><span lang="HI" style="font-family: "Mukta","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">सात-आठ साल का बच्चा है वेलु</span><span style="font-family: "Mukta","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;">, <span lang="HI">मां
गोद की बेटी को लेकर नैहर निकल आई है</span>, <span lang="HI">बेवड़ा बाप बीवी की गुस्ताखी
पर तिलमिलाया हुआ है</span>, <span lang="HI">नाराज़ है</span>, <span lang="HI">बेटे से</span>,
<span lang="HI">ससुराल से</span>, <span lang="HI">पूरी दुनिया से</span>, <span lang="HI">बेटे पर अपनी भड़ासों का बोझ लादे</span>, <span lang="HI">बेटे को साथ लेकर
बीवी की खोज में निकला है</span>, <span lang="HI">यही इतनी-सी फ़िल्म की कहानी है.<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>सात साल के ज़रा-से बच्चे के चेहरे पर जो असमंजस
का सुनसान तना रहता है</span>, <span lang="HI">वही फ़िल्म की कविता है. बहुत दुर्भाग्यपूर्ण
है हिन्दी फ़िल्मों में ऐसी रियलिस्टिक कास्टिंग नहीं होती.<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>बेमतलब की अमीरी के हज़ारों होंगे</span>, <span lang="HI">ग़रीबी के चेहरे हिन्दी के कास्टिंग डायरेक्टरों के पास नहीं. </span><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal"><span lang="HI" style="font-family: "Mukta","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><span style="font-size: medium;">फ़िल्म का कैमरावर्क बहुत सधे हाथों का नहीं</span></span><span style="font-family: "Mukta","sans-serif"; mso-bidi-language: HI;"><span style="font-size: medium;">, <span lang="HI">बहुत
सारे फ्रेम्स अटपटी नाटकीयताओं में उलझते रहते हैं. मगर लैंडस्कैप के रंगों में
संवेदना और गहराई है. चेहरों में है. और दूसरी अच्छी बात ग़रीबी के सुनसान का साउंड
ट्रैक है</span>, <span lang="HI">अनावश्यक बैकग्राउंड स्कोर की कैसी</span>, <span lang="HI">किसी भी तरह की </span>‘<span lang="HI">भराई</span>’ <span lang="HI">नहीं. और
एक घंटे तेरह मिनट की फ़िल्म की लंबाई दुरुस्त है. <b>पीएस विनोथराज</b> की पहली फ़िल्म
है</span>, <span lang="HI">आगे वे और अच्छा करें इसकी उन्हें बहुत शुभकामनाएं. </span></span><o:p></o:p></span></p>azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-54270345874930659112021-11-08T19:54:00.000+05:302021-11-08T19:54:10.963+05:30द ग्रेट व्हॉट, नो क्लू<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-i5nk_2XWCAc/YYkyP7vjt1I/AAAAAAAAS-8/uKer3j-21zMpVdD22-blQ0aUQxLpNwfQQCLcBGAsYHQ/s293/Bawarchi1972.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="293" data-original-width="220" height="293" src="https://1.bp.blogspot.com/-i5nk_2XWCAc/YYkyP7vjt1I/AAAAAAAAS-8/uKer3j-21zMpVdD22-blQ0aUQxLpNwfQQCLcBGAsYHQ/s0/Bawarchi1972.jpg" width="220" /></a></div>देह पर 'बावर्ची' का कॉस्ट्यूम चढ़ाये वैसे भी तबीयत किसी को थप्पड़ मारने को मचल रही थी. थप्पड़ नहीं मारा, किताब हवा में उछाल दिया. पतला-सा नॉवल था, अंग्रेजी में, बेशऊर उड़ा, बेहया तरीके से जया के पैरों के पास गिरकर ढेर हुआ. जया सूती फूलदार सिंपल साड़ी में थी, घुटनों पर हाथ जोड़े, बरामदे की सीढ़ियों पर गुमसुम बैठी, सामने तकती जाने क्या सोच रही थी, गिरी किताब का नहीं सोचा. किताब गिरी रही. पेपरबैक. अंग्रेजी की. राजेश झींकता, आकर सीढ़ियों के पहलू खड़ा हो गया. जया अपने में थी, नहीं ली नोटिस. स्टार को तक़लीफ़ हुई. स्टार को हमेशा तकलीफ़ होती रहती थी. तक़लीफ़़ होने के पहले ही वह बेचैन होने लगता कि हो रही है, और आस-पास दूसरे परेशान कैसे नहीं हो रहे? दूसरों की परेशानी की स्टार बहुत सोचता. फ़िलहाल वह जया के परेशान नहीं होने से परेशान था. <p></p><p>राजेश : तुम्हारे लंबू ने पढ़ी है ये किताब?</p><p>राजेश ने ज़मीन पर बेमतलब हो रही पेपरबैक की तरफ़ इशारा किया. जया ने इशारा देखा, किताब नहीं देखी. </p><p>जया : प्लीज़, काका, मैं फिर कह रही हूं, आप अमित जी को लंबू मत बुलाया करो! </p><p>काके ने जवाब नहीं दिया. लेने का काका को शौक था, देना, साधारण जवाब भी, काका को बेचैन और परेशान करता. ऋषि दा को भी शिकायत थी काका आनसर क्यूं नई करता? माथाये पाथर कलेक्शन किया है, क्या रे? नो जवाब. नथिंग. तुमारा आगे मैं टोटल टायर हो जाता, काका, सच्ची! </p><p>अमित जी लंच के बाद अनवर अली और जलाल आगा के साथ जलाल की फियट में आये. फुसफुसाकर जया से कहा आपके हीरो ने मुझे हलो नहीं कहा. फिर. जया ने हाथ की किताब अमित के हाथ थमाते सवाल किया, ये पढ़ा है आपनेे?</p><p>फित्ज़जैरल्ड . ग्रेट गेट्सबाई. अमित ने सवा सौ पृष्ठों के पेपरबैक के पेज़ उलटे-पुलटे. जया को बुक बैक किया, मुंह फेरकर कहीं और देखने लगेे. </p><p>उस लड़की को नहीं देख रहेे थे जिसे उड़ती नज़रों से 555 के तीन कश लेते एक भरी नज़र काका ने देखा और थोड़ा असमंजस में परेशान होते रहे कि शायद बंगाली है. शायद ऋषि दा के पीछे-पीछे आई है. मगर अभी तक ऑटोग्राफ़ के लिए मेरे पास क्यों नहीं आई? इसने पढ़ी होगी किताब? चूमना जानती है? रियल चुम्मी ? तब तक फिर किताब का ख़याल आया और शक्ति (सामंत) से झुंझलाहट हुई. क्या सोचकर दी थी किताब? या सचिन (भौमिक) ने दी थी? राजेश को याद नहीं. राजेश याद करना चाहता है सुबह सात बजे किसी प्रोड्यूसर का फ़ोन आया था. गुजरात में प्रापर्टी खरीद देगा जैसी बकवास बातें कर रहा था. राजेश ने गालियां देकर उसका मुंह बंद किया था. या गालियां रुपेश (कुमार) ने दी थी? राजेश को याद नहीं. </p><p>दादा का एक असिसटेंट भागता आया, सुरेश, या दिनेश. काका, आपके लिए फ़ोन है- नंदा मैम का! </p><p>ये क्या चाहती है? मैं इसके साथ अब और फिल्म करना नहीं चाहता! </p><p>राजेश ने कहा जाकर बोलो, शॉट चल रहा है. </p><p>सुरेश, या दिनेश, पलटकर जाने को हुआ, काका ने पीछे से आवाज़ दी, सुन! गाना जानता है?</p><p>लड़का अब लड़का नहीं रहा था, फिर भी काका को हमेशा समझ लेना उसी के क्या, उसके उस्ताद के भी वश की बात न थी. </p><p>हां और ना और हां के बीच की किसी मुद्रा में उसने सिर हिलाया. </p><p>राजेश ने एकदम से गाना शुरु किया. तुझपे फ़िदा, मैं क्यूँ हुआ, आता है गुस्सा मुझे प्यार पे, मैं लुट गया.. मान के दिल का कहा, मैं कहीं का ना रहा, क्या कहूँ मैं दिलरुबा, बुरा ये जादू तेरी आँखों का, ये मेरा क़ातिल हो गया. गुलाबी आँखें, जो तेरी देखी, शराबी ये दिल हो गया. </p><p>जा, नंदा से बोलना काका इज़ मिसिंग यू! और सुन, ये किताब लिये जा, पूछना उसने पढ़ी है?</p><p>(किताब अंजू महेन्द्रू ने भी कहां पढ़ी थी? मुमताज़ का मानना है उसने काका को भी ठीक से नहीं पढ़ा. शशि कपूर का मानना रहा खन्ना वॉज़ अ बैड बुक. यू कुड गो ऑन रीडिंग हिम फॉर आवर्स, दैन रियलाइज़ यू वर नॉट रीडिंग, द बुक वॉज़ नेवर देयर, इन फैक्ट देयर वॉज़ नथिंग देयर. डिंंपल कहती हि वॉज़ अ बैड एक्टर, शशि कपूर, एक्सेप्टेड. बट द मैन वॉज़ अ ग्रेट चार्मर. एंड अ गुड रीडर ऑफ पीपल. शशि साहब ने ही कहा तुम सत्यदेव दुबे के नाटकों से दूर रहो, बच्ची हो, बरबाद हो जाओगी.) </p>azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-82449304383275459702021-11-08T19:48:00.002+05:302021-11-08T19:48:16.919+05:30भीम की जय<p><span style="font-size: medium;"></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="font-size: medium;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-KnoWnuHSADI/YYkxlUQmxJI/AAAAAAAAS-0/C4BdehCnlcM_kLNhhhvNBQwUZxZbBB7IgCLcBGAsYHQ/s237/jaibhim.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="237" data-original-width="190" height="237" src="https://1.bp.blogspot.com/-KnoWnuHSADI/YYkxlUQmxJI/AAAAAAAAS-0/C4BdehCnlcM_kLNhhhvNBQwUZxZbBB7IgCLcBGAsYHQ/s0/jaibhim.jpg" width="190" /></a></span></div><span style="font-size: medium;">यह जिस पर लोग बहुत ‘जय’, ‘जय’ कर रहे हैं, मेरे पास लिखने को कुछ नहीं है, सिवाय इसे याद करने को कि राष्ट्रीय हिंदी सिनेमा से क्षेत्रीय, और ख़ास तौर पर दक्षिण का सिनेमा आत्मविश्वास से चार कदम आगे चलने लगा है. मगर इतना ही, इससे आगे कहने पर मुंह बंध जाता है. ‘सरदार उधम’ के बारे में भी नहीं था. हां, उसमें यह बात थोड़ी बेहतरी वाली थी कि ड्रामा के तत्व ज़रा कम, अंडरप्लेड थे. एक सुर में कहानी आगे-पीछे घूमती चलती थी, <b>सुजीत सरकार</b> का सिनेमा हालांकि निजी तौर पर मुझे पसंद है, मगर 'उधम' में दिलचस्पी बनाये रखना मेरे लिए मुश्किल काम हो रहा था. ख़ैर, उधम के बरक्स ‘जय जय’ में ड्रामा बहुत-बहुत है. शुरुआती पंद्रह मिनटों के बाद बाकी के एक सौ पचास मतलब खालिस ढाई घंटे, एक लूप की तरह पलट-पलटकर दलितों की पिटाइयां हैं. उनकी चीख़-चीत्कार, दुर्गति, तबाहियों की रीपीटिटीव तस्वीरें हैं, लोगों के जीवन में झांकने, समझने की कोई इन्वॉल्विंग अंतरंगता नहीं है, न पिटते दलितों की बाबत, न उन्हें पीटनेवालों की दुनिया के बारे में. जो है वह बड़ा संक्षिप्त और वन लाईनर नुमा है, ज़्यादा सारा कुछ नुक्कड़ नाटक की बुनावट-सा है. प्रतिकारी, क्रांतिकारी नायक वक़ील चंद्रु के चेहरे पर कभी भाव नहीं आते, एक बेजान मुर्दनगी तनी रहती है, सोच के पेचीदा क्षणों में वह दीवार पर बॉल फेंककर उसे कैच करता रहता है, मैं भी रह-रहकर फिल्म कैच करने की कोशिश कर रहा था, थोड़ी देर बाद हिम्मत ने जवाब दे दिया.</span><p></p>azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-27345134481251901492021-11-04T12:05:00.004+05:302021-11-04T15:26:02.399+05:30हैप्पी दीवाली<p><span style="font-size: medium;"><span face="Mukta, "sans-serif"" lang="HI"></span></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="font-size: medium;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-swDmpfGEhR4/YYN94yT6hYI/AAAAAAAAS9g/I6MxHmk4hlYPdoqqFmEiPB7Anlz__Av8wCLcBGAsYHQ/s445/perfume.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="445" data-original-width="315" height="320" src="https://1.bp.blogspot.com/-swDmpfGEhR4/YYN94yT6hYI/AAAAAAAAS9g/I6MxHmk4hlYPdoqqFmEiPB7Anlz__Av8wCLcBGAsYHQ/s320/perfume.jpg" width="227" /></a></span></div><span style="font-size: medium;">राजू का रोज़ी से एक <a href="https://www.facebook.com/pramosing/videos/10200952122859579" target="_blank">वादा</a> रहा होगा<span face="Mukta, "sans-serif"">, <span lang="HI">मेरा
<a href="https://www.imdb.com/name/nm0222922/?ref_=tt_ov_st" target="_blank">एमानुएल देवोस</a> से नहीं रहा। कभी नौबत नहीं आई। </span>“<span lang="HI"><a href="https://www.imdb.com/title/tt0993789/?ref_=nm_flmg_act_36" target="_blank">एक क्रिसमस कथा</a></span>”
<span lang="HI">देखते समय यह बात ख़याल में आई थी कि फुसफुसाकर एमानुएल से कह दूं</span>,
<span lang="HI">कि <a href="https://www.imdb.com/name/nm0221611/?ref_=tt_ov_dr" target="_blank">आरनॉ देस्प्लेंसां</a> ने फ़िल्म में इतना ज़रा-सा रोल दिया</span>,
<span lang="HI">और उसमें भी तुमने चार चांद लगा दिया</span>, <span lang="HI">कैसे किया
भला</span>? <span lang="HI">एमानुएल कुछ नहीं बोली। अच्छे एक्टर बहुत बार बहुत देर
बाद बोलते हैं। कथा के कुछ वर्षों पहले ज़ाक ऑदियार की एक फ़िल्म आई थी</span>, “<span lang="HI"><a href="https://www.imdb.com/title/tt0274117/?ref_=nm_knf_t2" target="_blank">मेरे होंठ पढ़ो</a></span>”, <span lang="HI">इस बार भी एमानुएल थी</span>, <span lang="HI"><b>विन्सेंट कासेल</b> के साथ। मैं कहीं नहीं था। कहीं का नहीं था। आवाज़ नहीं थी।
शोर और तोड़-फोड़</span>, <span lang="HI">घबराहटों की थी</span>, <span lang="HI">एमानुएल
के नहीं थी। उसका किरदार ही </span>‘<span lang="HI">म्युटेड</span>’ <span lang="HI">था</span>, <span lang="HI">कुर्सी पर बैठी वह दूर से तकती रहती और लोगों के
होंठ पढ़कर उन्हें सुन लेती। लोगों को उसके सुनने के भावों को पढ़ते हुए मैं सन्न
होता रहा। इस तरह से भी एक्टिंग होती है</span>? <span lang="HI">मगर फ्रेंच सिनेमा के
बहुत सारे एक्टरों में ऐसा बहुत कुछ है कि आप देखकर सन्न होते रहें। मैं जब दुनिया
में नहीं आया था तब से रहा है। किसी अगले पोस्ट में नाम गिनाऊंगा।</span></span></span><p></p>
<p class="MsoNormal"><span style="font-size: medium;"><span face=""Mukta","sans-serif"" lang="HI" style="mso-bidi-language: HI;">क्रिसमस कथा से पहले देसप्लेसां की एक और फ़िल्म थी</span><span face=""Mukta","sans-serif"" style="mso-bidi-language: HI;">, “<span lang="HI"><a href="https://www.imdb.com/title/tt0344273/?ref_=nm_knf_t1" target="_blank">राजा और रान</a>ी</span>”, <span lang="HI">उसमें एमानुएल को देखने जीभ पर शराब रखकर ख़ुद को
भूलने जैसा था। तब भी मन में ख़याल आया था अब एक वादा कर ही लूं। मगर एमानुएल मुझे
देख नहीं रही थी। मेरे होंठ पढ़ना तो बहुत दूर की बात। मैं ही लौट-लौटकर उसे पढ़ता
रहा। एक के बाद एक दिलचस्पी का रहस्यलोक बुननेवाली कई फ़िल्में थीं </span>– “<span lang="HI"><a href="https://www.imdb.com/title/tt0382691/?ref_=nm_flmg_act_46" target="_blank">ज़ील की औरत</a></span>”, “<span lang="HI"><a href="https://www.imdb.com/title/tt2073016/?ref_=nm_flmg_act_24" target="_blank">दूसरा बेटा</a></span>”, “<span lang="HI"><a href="https://www.imdb.com/title/tt2659190/?ref_=nm_flmg_act_22" target="_blank">फुसफुसाहट</a></span>”<span lang="HI">। और फिर कल रात</span>, <span lang="HI">मुंह में छेना-पायस और एमानुएल के अभिनय
का स्वाद गुनता मैं </span>“<a href="https://www.imdb.com/title/tt11748354/?ref_=nm_flmg_act_6" target="_blank">परफ़्यूम्स</a>” <span lang="HI">देखकर देर
तक सन्न होता रहा। तो आदमी (या औरत) इस तरह से भी महकों में गुम सकता/सकती है। और अपने
दर्शकों को गुमा। सकती है</span>? <span lang="HI">इम्पोस्सिब्ल</span>! <o:p></o:p></span></span></p>
<span style="font-size: medium;"><span face="Mukta, "sans-serif"" lang="HI" style="line-height: 107%;">सोचकर दंग और तंग अभी भी हो
रहा हूं कि मैंने एमानुएल से कभी कोई वादा कैसे नहीं किया। क्या वादा किया होता और
करके उसे फिर निभा नहीं पाया होता वह दूसरी कहानी होती</span><span face="Mukta, "sans-serif"" style="line-height: 107%;">, <span lang="HI">मगर वादा
कर सकता था</span>, <span lang="HI">और किया नहीं। इसकी टीस मन से जाएगी नहीं। फ्रेंच
सिनेमा और एमानुएल देवोस की एक्टिंग ही नहीं</span>, <span lang="HI">मन में हज़ार और
टीसें हैं</span>, <span lang="HI">कुछ भी कहीं नहीं जाने को। छेना पायस से मुक्ति नहीं
मिलती</span>, <span lang="HI">नौ मिनट की बहक और संतोष का एक छद्म भले मिलता हो। सिनेमा
भी क्या है</span>, <span lang="HI">एक समानान्तर संसार की भुलावे की छायाएं ही तो
हैं</span>? <span lang="HI">फिर भी</span>, <span lang="HI">एमानुएल</span>, <span lang="HI">स्टिल नॉट नोइंग तुम्हारा पारिवारिक</span>, <span lang="HI">सामाजिक सीन क्या
है</span>, <span lang="HI">आई टेरिबली मिस यू। फ़ील ए हॉरिबल होल इनसाइड माई हार्ट।
और वादा-सादा तो चलो उसके बारे में अपने दोष क्या गिनायें</span>, <span lang="HI">एक
हल्का कोई जेस्चर तक टुवर्डस यू कुछ नहीं किया</span>, <span lang="HI">आयम सो टेरिबली
सॉरी</span>, <span lang="HI">रियली। आठ और बारह साल पहले एक </span>‘<span lang="HI">हैप्पी
दीवाली</span>’<span lang="HI"> तो कह ही सकता था</span>? <span lang="HI">बट सी</span>,
<span lang="HI">नहीं कहा। ठीक है</span>, <span lang="HI">अब कह रहा हूं</span>, <span lang="HI">मुंह पर हाथ धरकर ही सही। सुन रही हो</span>? </span></span>azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-91489114796199518302021-11-03T17:14:00.004+05:302021-11-04T12:18:54.665+05:30कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे..<p><span style="font-size: medium;"></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="font-size: medium;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-3Zo8egFYdfc/YYOBkvEJFZI/AAAAAAAAS9o/XHnrd9XRfo4YMFRgHO3LOyi-8iarB-yYACLcBGAsYHQ/s1200/neeraj.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="900" data-original-width="1200" height="240" src="https://1.bp.blogspot.com/-3Zo8egFYdfc/YYOBkvEJFZI/AAAAAAAAS9o/XHnrd9XRfo4YMFRgHO3LOyi-8iarB-yYACLcBGAsYHQ/s320/neeraj.jpg" width="320" /></a></span></div><span style="font-size: medium;">गोपालदास नीरज पर फ़िल्म डिविज़न ने आधे घंटे की एक <a href="https://www.youtube.com/watch?v=bvaYzXMpIz4" target="_blank">डॉक्यूमेंट्री</a> चढ़ाई है। </span><p></p><p class="MsoNormal"><span face=""Mukta","sans-serif"" lang="HI" style="mso-bidi-language: HI;"><span style="font-size: medium;">जैसा आमतौर पर समाज कवियों को बरतकर निकल लेता है</span></span><span face=""Mukta","sans-serif"" style="mso-bidi-language: HI;"><span style="font-size: medium;">, <span lang="HI">लद्धड़-सा
ही काम है</span>, <span lang="HI">मगर फ़ुरसत लगे तो कभी एक झलक ले लीजिए। कवि के बचपन
की ग़रीबी और इटावा का पास-पड़ोस दिखेगा। कवि ख़ुद दोस्तों के साथ उम्र की थकान ओढ़े
ताश की एक बाजी खेलते दिखेंगे। अपने ख़ास शब्दों के चयन और रवानी की टेकनीक पर कुछ
बोलते-बतियाते भी.. </span></span><o:p></o:p></span></p>azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-66599614733177492622021-10-15T15:43:00.004+05:302021-10-15T16:39:53.596+05:30बाप के दर्द होता है<p><span face="Mukta, sans-serif" lang="HI"><b></b></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><a href="https://1.bp.blogspot.com/-ZuEH9MOLLmc/YWlUNZDuQ2I/AAAAAAAAS7o/X_xqmki03QsZXcDGj-i2te5JlYcoGcb2QCLcBGAsYHQ/s1429/power.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1429" data-original-width="1000" height="320" src="https://1.bp.blogspot.com/-ZuEH9MOLLmc/YWlUNZDuQ2I/AAAAAAAAS7o/X_xqmki03QsZXcDGj-i2te5JlYcoGcb2QCLcBGAsYHQ/s320/power.jpg" width="224" /></a></b></div><span style="font-size: medium;"><b>नेटफ्लिक्स</b> पर एक रुमानियन फ़िल्म है<span face="Mukta, sans-serif">, ‘<span lang="HI"><a href="https://www.imdb.com/title/tt8886670/" target="_blank">पापा पहाड़ हटाते हैं</a></span>’, <span lang="HI">सरकारी इंटैलिजेंस की नौकरी से बाहर आया मीरचा
पहाड़ क्या</span>, <span lang="HI">पहाड़ के बापों को हटा सकता है</span>, <span lang="HI">देश जितना पिछड़ा और संस्थागत तौर पर जर्जर हो</span>, <span lang="HI">पहाड़
हटाने</span>, <span lang="HI">तथ्यों को दबाने</span>, <span lang="HI">संस्थाओं का
अपने हित व स्वार्थ में बरतने की ताक़त उतनी ही बढ़ भी जाती है। </span>1989 <span lang="HI">में <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Nicolae_Ceau%C8%99escu" target="_blank">निकोलाय चायचेस्कू</a> के तख्ता-पलट से रुमानिया तानाशाही के पाप से मुक्त
नहीं हो गया। समाज से एक तानाशाही हटती है तो समाज दूसरी महीन तानाशाहियों को जगह देने
की ज़मीन निकाल लेता है</span>, <span lang="HI">मीरचा जैसे लोग ऐसी ज़मीनों के नेटवर्क
से बेहतर वाकिफ़ हैं</span>, <span lang="HI">इसलिए गर्लफ्रेंड के साथ पहाड़ों की तफरीह
पर गया बेटा जब उन पहाड़ी तूफ़ानों में ऊपर की बर्फीली दुनिया में गुम गया है</span>,
<span lang="HI">मीरचा इसको ठेलता</span>, <span lang="HI">उसको धकेलता बेटे की खोज में
पहाड़ों को हिलाने</span>, <span lang="HI">बेटा पाने पहुंचता है। और रुमानिया की पिछड़ी
दुनिया में ताक़त और पहुंचदारी के संसार को हम धीरे-धीरे खुलता देखते हैं। मतलब नेगोशियेसन
ऑफ़ पॉवर इन अ नट-शेल।</span></span></span><p></p>azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-3110669970610231422021-10-15T14:22:00.003+05:302021-10-15T16:40:18.803+05:30द कोमी रूल<p><span face="Mukta, sans-serif" lang="HI"><a href="https://www.imdb.com/title/tt9174536/" target="_blank"></a></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-6WxewVjtyMw/YWlBIvq0usI/AAAAAAAAS7Y/UEJO1XIpVyUSmJm3wDVjJQHXOmmZ0RDdACLcBGAsYHQ/s1280/The%2BComey%2BRule.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="640" data-original-width="1280" height="160" src="https://1.bp.blogspot.com/-6WxewVjtyMw/YWlBIvq0usI/AAAAAAAAS7Y/UEJO1XIpVyUSmJm3wDVjJQHXOmmZ0RDdACLcBGAsYHQ/s320/The%2BComey%2BRule.jpg" width="320" /></a></div><span style="font-size: medium;">कहानी डेढ़ और लगभग दो घंटों के दो एपिसोड्स में है। एफबीआई
का डायरेक्टर <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/James_Comey" target="_blank">जेम्स कोमी</a> (कार्यकाल : 2013<span face="Mukta, sans-serif">-2017) <span lang="HI">अपने को </span>‘<span lang="HI">अपोलिटिकल</span>’
<span lang="HI">कहता है</span>, <span lang="HI">संस्थागत नैतिकता और ईमानदारी से काम
करने में यकीन रखता है। मगर कोमी और उसके मातहती में रात-दिन मेहनत करनेवाले देख रहे
हैं कि पुतिन का झूठतंत्र</span>, <span lang="HI">हिलरी क्लिंटन के ई-मेल्स की </span>‘<span lang="HI">हैकिंग</span>’ <span lang="HI">और तत्संबंधी दुष्प्रचार अमरीकी लोकतंत्र में
कैसे न केवल घुसपैठ कर चुका है</span>, <span lang="HI">उसने एक ऐसा डरावना रास्ता खोल
दिया है जहां अमरीकी शासकीय संस्थाएं ख़तरनाक तरीकों से </span>‘<span lang="HI">कॉम्प्रोमाइस</span>’
<span lang="HI">हो सकती हैं</span>, <span lang="HI">हो सकती हैं नहीं हो रही हैं। इसे
रोकने का एक ही तरीका है कि प्रशासन अपनी पूरी ताक़त से पुतिन और पुतिन की </span>‘<span lang="HI">कठपुतलियों</span>’ <span lang="HI">के खिलाफ़ मोर्चा खोले</span>, <span lang="HI">मगर कैसे मोर्चा खोले जब नवनियुक्त राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ख़ुद पुतिन
और उसके लुटेरे ओलिगार्कों के आर्थिक अहसानों और राजनीतिक </span>‘<span lang="HI">मैनिपुलेशंस</span>’
<span lang="HI">व </span>‘<span lang="HI">मनुवरिंग</span>’ <span lang="HI">से सत्तासीन
हुआ है</span>! <span lang="HI">सीधी लीक के सीधे विश्वासों पर चलनेवाले जिम कोमी के
काम का रास्ता बड़ा टेढ़ा व संकरा हो रहा है। वह अपने काम में ईमानदारी की बात करता
है</span>, <span lang="HI">उसका राष्ट्रपति उससे </span>‘<span lang="HI">निष्ठा</span>’
<span lang="HI">और </span>‘<span lang="HI">भक्ति</span>’ <span lang="HI">चाहता है। और
जैसाकि लगभग पूरी तरह बदल चुके और </span>‘<span lang="HI">मैनिपुलेटेड</span>’ <span lang="HI">अमरीकी शासन के गंवरपने और दबंगई में स्वाभाविक था</span>, <span lang="HI">चुन-चुनकर ट्रंप की निष्ठा से बाहर के लोगों को बाहर किया जा रहा था</span>,
<span lang="HI">जिम कोमी भी बाहर हुए। उनकी पूरी टीम बाहर हुई। शासन की मशीनरी के इस
तिया-पांचा की ताक-झांक और प्रशासकीय नैतिकताओं के जंतर-मंतर की ये टहल दिलचस्प है।
कोमी का रोल <b>जैफ डैनियलस</b> ने किया है</span>, <span lang="HI">और ट्रंप का अभिनय आईरिश
एक्टर <b>ब्रैंडन ग्लीसन</b> ने। दोनों ऊंचे पाये के अभिनेता हैं। शोटाईम के बनाये इस <a href="https://www.youtube.com/watch?v=Dc8XsWQMcs8" target="_blank">मिनी-सीरीज़</a>
को डायरेक्ट बिली रे ने किया है।</span></span></span><p></p>azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-75115448512239141292021-09-18T15:16:00.006+05:302021-09-18T15:47:22.285+05:30मध्यांतर <p><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span lang="HI" style="line-height: 107%;"></span></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-a3Az8sEOS1c/YUW1a_WDniI/AAAAAAAAS4Y/etHdmNQpvQMXMJPz-fgrnvEiQ89G1eqrACLcBGAsYHQ/s346/no%2Bpresent.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="346" data-original-width="236" height="320" src="https://1.bp.blogspot.com/-a3Az8sEOS1c/YUW1a_WDniI/AAAAAAAAS4Y/etHdmNQpvQMXMJPz-fgrnvEiQ89G1eqrACLcBGAsYHQ/s320/no%2Bpresent.jpg" width="218" /></a></span></div><span style="font-family: inherit; font-size: medium;">एक <a href="https://www.theguardian.com/film/2021/aug/27/the-nest-review-jude-law-sean-durkin" target="_blank">फ़िल्म</a> पर कुछ लिखना चाह रहा था<span style="line-height: 107%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">मगर माथे में ताक़त नहीं बन रही। शायद कुछ दिनों में बने
तब लौटूंगा </span><span style="line-height: 107%;">‘</span><span lang="HI" style="line-height: 107%;"><b><a href="https://www.imdb.com/title/tt8338762/" target="_blank">द नेस्ट</a></b></span><span style="line-height: 107%;">’ </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">पर। फ़िलहाल नेटफ्लिक्स की </span><span style="line-height: 107%;">‘</span><span lang="HI" style="line-height: 107%;"><b><a href="https://www.imdb.com/title/tt15250998/?ref_=ttfc_fc_tt" target="_blank">अनकही कहानियां</a></b></span><span style="line-height: 107%;">’ </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">की तीन कहानियों में से बीच की एक कहानी की ओर उंगली पकड़कर आपको ले चलने की कोशिश
करता हूं। कहानी पुरानी</span><span style="line-height: 107%;">, 1986 </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">की लिखी है</span><span style="line-height: 107%;">, 2018 </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">में कन्नड से अंग्रेजी में अनुदित <a href="https://www.deccanherald.com/entertainment/entertainment-news/jayant-kaikini-a-hit-song-gave-me-a-new-career-at-50-882625.html" target="_blank">जयंत कैकिनी</a> की कहानियों
को <a href="https://www.dscprize.com/2018archive" target="_blank">डीसीबी पुरस्कार</a> से पुरस्कृत किया गया था</span><span style="line-height: 107%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">किताब का शीर्षक है</span><span style="line-height: 107%;">, ‘’</span><span lang="HI" style="line-height: 107%;"><a href="https://www.amazon.in/No-Presents-Please-Mumbai-Stories/dp/9352645871" target="_blank">नो प्रसेंट प्लीज़</a></span><span style="line-height: 107%;">’ (</span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">एक उपशीर्षक भी है</span><span style="line-height: 107%;">, ‘</span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">मुंबई स्टोरीज़</span><span style="line-height: 107%;">’), </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">किताब में काफ़ी मज़ेदार कहानियां
हैं</span><span style="line-height: 107%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">उस लिहाज़ से <b>अभिषेक चौबे</b>
ने </span><span style="line-height: 107%;">‘</span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">मध्यांतर</span><span style="line-height: 107%;">’ </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">नाम की जिस कहानी को अपनी फ़िल्म के लिए चुना है</span><span style="line-height: 107%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">वह अपेक्षाकृत कुछ ढीली और कमज़ोर कहानी है</span><span style="line-height: 107%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">मगर इसलिए भी अभिषेक की तारीफ़ की जानी चाहिए कि उन्होंने
अपनी स्क्रिप्टिंग</span><span style="line-height: 107%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">सिनेमाकारी से उसमें एक भरा-पूरापन</span><span style="line-height: 107%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">एक ज़िंदा ऊर्जा भर दी है। महानगर के उपनगरीय जीवन की
बदहाल</span><span style="line-height: 107%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">असंवेदन उदास संसार में सपनों
को सहेजने के कोमल तिलिस्म को <b>रिंकी राजगुरु</b> का चेहरा अपनी मार्मिकताओं में निखारता
चलता है। खुद को हीरो-हिरोईन की कल्पनाओं में बहलाने की चार-पांच मिनट की अदाबाजियां हैं, अदरवाइस कहानी के पैर कायदे से ज़मीन पर बने रहते हैं। 'अनकही..' की बाकी दोनों कहानियों पर कुछ नहीं कहुंगा</span><span style="line-height: 107%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">मगर मौका लगे तो बीच की </span><span style="line-height: 107%;">‘</span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">मध्यांतर</span><span style="line-height: 107%;">’ </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">देख डालिये।</span></span><p></p>azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-4715968474473930682021-09-10T14:00:00.001+05:302021-09-10T14:00:37.573+05:30लघुकाय भेदकारी दिलदारियां<p><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"> </span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-Sl_jizL1dFw/YTsVHiMuUxI/AAAAAAAAS3g/jvuZ0luUuTcutji5yW1fhV7QPr3a3c5CwCLcBGAsYHQ/s574/letters.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="574" data-original-width="400" height="320" src="https://1.bp.blogspot.com/-Sl_jizL1dFw/YTsVHiMuUxI/AAAAAAAAS3g/jvuZ0luUuTcutji5yW1fhV7QPr3a3c5CwCLcBGAsYHQ/w223-h320/letters.jpg" width="223" /></a></span></div><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span style="line-height: 107%;">तीन फ़िल्मों की तीन रातें। बहुत देर और बहुत दूर तक आपकों फंसाये रहती हैं। जैसे अफ़ग़ानिस्तान पर <a href="https://www.newyorker.com/magazine/2021/09/13/the-other-afghan-women" target="_blank">आनंद गोपाल</a> की 2015 की <a href="https://www.amazon.in/No-Good-Men-Among-Living/dp/0805091793" target="_blank">किताब</a>। किताब पढ़ते हुए बार-बार होता है कि आप हाथ की किताब कुछ दूर रखकर सोचने लगते हैं। और देर तक सोचते रहते हैं कि इस दुनिया का हिसाब-किताब चलता कैसे है। या राजनीति का कूट संसार चलानेवालों को किसी गहरे कुएं में धकेलकर हमेशा-हमेशा के लिए उन्हें वहां छोड़ क्यों नहीं दिया जाता?</span></span><p></p><p><span style="font-family: inherit; font-size: medium;"><span lang="HI" style="line-height: 107%;"><a href="https://www.imdb.com/title/tt1492841/?ref_=nv_sr_srsg_0" target="_blank">'फिरंगी चिट्ठियां</a></span><span style="line-height: 107%;"><a href="https://www.imdb.com/title/tt1492841/?ref_=nv_sr_srsg_0" target="_blank">, 2012</a>’, </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">बचपन की दोस्तियों की दिलतोड़ तक़लीफ़ों की मन में
खड़खड़ाती आवाज़ करती</span><span style="line-height: 107%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">और फिर किसी घने</span><span style="line-height: 107%;">, </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">विराट</span><span lang="HI" style="line-height: 107%;"> </span><span lang="HI" style="line-height: 107%;">छांहदार वृक्ष के दुलार
में समेटती दुलारी फ़िल्म है। </span>‘<a href="https://www.imdb.com/title/tt11136276/?ref_=nv_sr_srsg_0" target="_blank"><span lang="HI">अज़ोर</span>, 2021</a>’, <span lang="HI"><b>अंद्रेयास फोंताना</b> की पहली
फ़िल्म। प्रकट तौर पर कोई हिंसा नहीं</span>,
<span lang="HI">मगर समूचे समय एक दमघोंट किस्म का तनाव आपको दबोचे रहता है। क्या है
यह तनाव</span>? <span lang="HI">यह अस्सी के दशक का अर्जेंटीना है। अंद्रेयास का काम
घातक तरीके का दिलफरेबी सिनेमा है</span>, <span lang="HI">जैसे 2019 की <b>शाओगांग गु</b> की
<a href="https://www.imdb.com/title/tt10219146/?ref_=nv_sr_srsg_0" target="_blank">चीनी फ़िल्म</a> है।</span></span></p>azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-62455886452811588792021-08-15T00:55:00.000+05:302021-08-15T00:55:14.099+05:30वेटिंग फॉर जी.. <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-k-Vd2SrMc-w/YRgX0JZyyEI/AAAAAAAAS0k/JL9GfD81mF4uoRrr5-_ULP-c3lRCRizRACLcBGAsYHQ/s580/waiting_for_godot_15_390h.jpg__50000x390_q85_subsampling-2.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="390" data-original-width="580" height="215" src="https://1.bp.blogspot.com/-k-Vd2SrMc-w/YRgX0JZyyEI/AAAAAAAAS0k/JL9GfD81mF4uoRrr5-_ULP-c3lRCRizRACLcBGAsYHQ/s320/waiting_for_godot_15_390h.jpg__50000x390_q85_subsampling-2.jpg" width="320" /></a></div>कुछ लिखे जाने और न लिखे जाने का भेदिल संसार महिनों, या कहें तो सालों-साल का हो सकता है। जैसे ख़यालों में एक फ़िल्म का घरघराता रील घूमता रहता है, अंदाज़ होता है प्रोजेक्शन अब और तब शुरु हुुआ, और फ़िल्म जो है, वह खुलती नहीं। बरसते पानी की आवाज़ आती है। कोई औरत अपना काम समेटकर रसोई के बाहर झाड़ू घुमाती, आंगन के नल के नीचे पैर धोती दिखती है। एक आदमी घर लौटता है, एक घिसी पुरानी कुर्सी खींचकर सिर नवाये, गर्दन पर हाथ फेरता आवाज़ देता है, ''घर पे हो?" <p></p><p>बच्चे बंद स्कूलों के मुहानों का ख़याली चक्कर लगाकर उन दोस्तों से कुछ पूछना चाह रहे हैं, जिनसे इन दिनों उनकी बात नहीं हो रही, लड़कियां हैं कहते-कहते ठहर गई हैं। सबकुछ वैसा ही कुछ अटका-अटका है जैसे न पहुंच पा रही फ़िल्म की कहानी के फीतों का खुलना है, जो नहीं ही खुलती। </p><p>कब शुरु होगी। फ़िल्म। कभी होगी? </p><p>होगी। फिर सुबह होगी हुई है तो फ़िल्म का होना भी होगा। इंतज़ार कीजिए। मैं ज़माने से करता रहा हूं। 'वेटिंग फॉर गोदो' का हिन्दी अनुवाद है आपके पास? किसी दोस्त के पास होगा। एक मेरी दोस्त थी उसके पास हुआ करता था, मगर इन दिनों उससे मेरी बात नहीं हो रही। मज़ा यह कि हम दोनों ही बहुत समयों तक गोदो का इंतज़ार करते रहे। </p>azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-58627716185237007462020-01-11T15:44:00.000+05:302020-01-11T15:44:00.434+05:30नए रूस में..<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-2ELmd3sjYGo/XhmfVgXzGvI/AAAAAAAAQW8/VjpirN-jBmciRwHnGUmukvWK35oubO_cQCLcBGAsYHQ/s1600/sergei.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="169" data-original-width="298" src="https://1.bp.blogspot.com/-2ELmd3sjYGo/XhmfVgXzGvI/AAAAAAAAQW8/VjpirN-jBmciRwHnGUmukvWK35oubO_cQCLcBGAsYHQ/s1600/sergei.jpg" /></a></div>
समाज का क्या कह कर लेंगे का <a href="https://www.latimes.com/world-nation/story/2019-08-29/how-russias-biggest-rock-star-gets-away-with-speaking-truth-to-power-aka-putin" target="_blank">सेर्गेई शुरोव</a> का रास्ता..<br />
<br />
तीन झलकियां:<br />
<br />
वीडियो <a href="https://www.youtube.com/watch?v=xscYDQGsZIU" target="_blank">एक</a>,<br />
वीडियो <a href="https://www.youtube.com/watch?v=et281UHNoOU" target="_blank">दो</a>,<br />
वीडियो <a href="https://www.youtube.com/watch?v=1ugivNRYfjc" target="_blank">तीन</a>..azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-56142809642427622052019-11-04T00:29:00.001+05:302019-11-04T00:42:03.326+05:30ज़िंंदगी तमाशा.. <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-ePsfdeZSCIQ/Xb8g8_rjV8I/AAAAAAAAQSo/GPnliib6bmUSaFPq4pz41gSlX4jlFI_4ACLcBGAsYHQ/s1600/zindagi%2Btamasha.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1054" data-original-width="734" height="320" src="https://1.bp.blogspot.com/-ePsfdeZSCIQ/Xb8g8_rjV8I/AAAAAAAAQSo/GPnliib6bmUSaFPq4pz41gSlX4jlFI_4ACLcBGAsYHQ/s320/zindagi%2Btamasha.jpg" width="222" /></a></div>
<a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Najam_Sethi" target="_blank">नजम सेठी</a> के यूट्ययूब चैनल पर बतकही के एक <a href="https://www.youtube.com/watch?v=k5l0qztRl_w&t=327s" target="_blank">शो में बात करती एक जवान लड़की</a> दिखी. <b>एमान सुलेमान</b>. लम्बा चेहरा. छोटे-छोटे बाल. अटक-अटककर बोलना, मगर ठहरी हुई अपनी तरह की एक बेचैनी. बातों के दरमियान पता चला मॉडलिंग तो ठीक-ठाक करती ही रही है, हाल में एक फ़िल्म की है. तो यह उस फ़िल्म का ट्रैलर है. थोड़ा अलग सा है, इससे ज्यादा इसे यहां चढ़ाने की और वज़ह नहीं.<br />
हां, एक वज़ह और यह थी कि शायद इसी बहाने सिलेमा के बंद पड़े ताले पर धूल-सूल झाड़ते रहने की हमें आदत पड़ जाये. मालूम नहीं पड़ेगी, नहीं पड़ेगी. पड़ेगी तो कितनी पड़ेगी. फ़िलहाल आप ट्रेेेेलर देखिए. यूट्यूूूब पर ट्रेलर का लिंक <a href="https://www.youtube.com/watch?v=bAYXVRQeT5U" target="_blank">यह</a> रहा. azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-32826531657470146272016-07-07T11:01:00.002+05:302016-07-07T11:01:44.622+05:30फिल्मी बातें.. <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://2.bp.blogspot.com/-P8fCyTHCMjE/V33o0-b7IGI/AAAAAAAAILw/SBCN1zAMf4U2daW41rBgZSWE8Oc89EdaACLcB/s1600/The_Fundamentals_of_Caring_poster.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://2.bp.blogspot.com/-P8fCyTHCMjE/V33o0-b7IGI/AAAAAAAAILw/SBCN1zAMf4U2daW41rBgZSWE8Oc89EdaACLcB/s320/The_Fundamentals_of_Caring_poster.jpg" width="215" /></a></div>
कभी इटली में कुछ समय गुज़रा था, तो रह-रहकर वहां की फिल्मों में झांक आने का मोह स्वाभाविक है. कभी-कभी कुछ अच्छा हाथ चढ़ता भी है, लेकिन मोस्टली, ऐसे सिरजनहारे दिखते हैं कि दिल फांक-फांक हो जाता है. अभी <a href="http://www.imdb.com/title/tt3734678/?ref_=fn_al_tt_1" target="_blank">एक</a>, <a href="http://www.imdb.com/title/tt0122648/?ref_=nm_flmg_wr_15" target="_blank">दो</a> और <a href="http://www.imdb.com/title/tt0366287/?ref_=nm_flmg_wr_10" target="_blank">तीन</a> दिखे ये.. दिक्कत क्या है? <b><a href="http://www.imdb.com/name/nm0899501/?ref_=nv_sr_1" target="_blank">पाओलो विर्जी</a></b> की इटली में साख है, काफी सारे पुरस्कार मिलते रहे हैं, फिल्में दर्शकों में सराही जाती रही हैं, समीक्षकों का भी भाव मिलता रहा है, तो फिर..? वह पाओलो की ही नहीं, थोड़ा डिटैच होकर सोचने पर पूरे इटैलियन सिनेमा की दिक्कत लगती है. कि इतिहास, संवेदना, मन की उछाल, सबकुछ जैसे देश और समय की इतनी लकीरें खींच दी गई हों, उस समय-स्थान के खिंचे हुए दड़बे में बंद हो. कोई वृहत्तर विकलता, उक्षृंखलता उसे हवा में उछालकर पूरी दुनिया का होने से रोके रखती हो. मालूम नहीं, दुनिया भर में फिल्में स्थान-बद्ध होती हैं, अंग्रेजी में जिसे हम रूटेड कहते हैं, और जो हिन्दी सिनेमा का सबसे बड़ा दोष है कि वह स्वित्ज़रलैंड घूम आती है, छत्तीसगढ़िया गाना आती है, सब कहीं फैली होती है मगर उसके किरदार, और न फिल्म, कहीं रूटेड होती है. तो स्थान-बद्धता तो अच्छा और फ़ायदे की चीज़ होनी चाहिए, मगर इटैलियन सिनेमा के लिए वह रेत में कुछ मुंह छुपाये की कला होकर रह गई है. पिछले बीस वर्षों से तो बहुत कुछ यही दुनिया देख रहा हूं. <br /><br />जबकि थोड़े कम बजट और कम कमाई वाले अभिनेताओं की बुनावट की छोटी अमरीकी फिल्में कुछ इन्हीं गुणों की वजह से बार-बार दिखता रहा है कि कुछ स्पेशल एंटरटेनमेंट में बदलती रहती हैं. अभी हाल की देखी कुछ ऐसों की गिनती गिनाता हूं, इनमें से किसी फिल्म के पास बहुत पैसा नहीं था, कुछ लोग और कुछ जरा-सी स्थितियों की बतकहियां थीं, मगर ज़रा-सी स्थितियों की बतकहियों को गढ़ने का यह विशिष्ट अमरीकी सिनेमाई कौशल ओवरव्हेल्मिंगली इम्प्रेस करता रहता है. <a href="http://www.imdb.com/title/tt2452386/?ref_=nv_sr_1" target="_blank">फंडामेंटल्स ऑफ केयरिंग</a>, <a href="http://www.imdb.com/title/tt1067765/?ref_=nm_flmg_act_11" target="_blank">एडल्ट वर्ल्ड</a>, <a href="http://www.imdb.com/title/tt1645080/?ref_=nm_knf_t4" target="_blank">द आर्ट ऑफ गेटिंग बाइ</a>, <a href="http://www.imdb.com/title/tt2205697/?ref_=tt_rec_tt" target="_blank">स्टक इन लव</a> सारी ऐसी फिल्में हैं जिसमें लोग सिर उठाकर ठीक से जीवन कैसे जियें की कला सीखने को कभी हल्के कभी ज़ोर से सिर फोड़ रहे हैं, और उनकी गुफ्तगू में आपका मन फंसा रहता है, वो कहीं का <b>उड़ता जुलाब</b> और <b>खून खराब</b> के ऊटपटांग अमानवीय कृ
त्य होने को नहीं छटपटाते रहते. azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-20205353568663965572016-05-26T14:26:00.002+05:302016-05-26T14:26:46.510+05:30कुछ फिल्में क्यों अच्छी लगती हैं?<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://4.bp.blogspot.com/-koaQmp-NqE0/V0a6KoZ8uPI/AAAAAAAAIHo/GJEyke8fQSUFb03NIWo78l8tE8Q0DBGTQCLcB/s1600/aparajito.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="180" src="https://4.bp.blogspot.com/-koaQmp-NqE0/V0a6KoZ8uPI/AAAAAAAAIHo/GJEyke8fQSUFb03NIWo78l8tE8Q0DBGTQCLcB/s320/aparajito.jpg" width="320" /></a></div>
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 11.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-fareast-font-family: Calibri; mso-fareast-language: EN-US; mso-fareast-theme-font: minor-latin; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">लगभग, अच्छे संगीत की ही तरह, यह ऐसी चीज़ है जिसे आम तौर पर बोल कर बताया नहीं
जा सकता. (बोलने वाले बहुत-बहुत कुछ बोलते ही रहते हैं, मगर इन पंक्तियों के
लिखनेवाले को हमेशा लगता है टाकिंग अबाउट द एक्सपीरियंस इस नॉट द एक्सपीरियंस.
इट्स समथिंग रियली सबलाइम.) वही पहचानी दुनिया एकदम नए ढंग में आपके सामने खुलती,
और आपको चमत्कृत करती है. उन्हीं पहचाने रंगों में एकदम अनएक्सपेक्टेड से
सामना करने जैसा एक्सपीरियेंस. <br />
<br />
द फिल्म यू सी इज़ नॉट द फिल्म आई सी, एंड फनीली, वी आर वाचिंग इट टुगेदर.
सिनेमा हॉल में बैठे हुए सैकड़ों लोग एक ही फिल्म में बहुत सारी फिल्में देख रहे
हैं. और बहुत बार, निर्देशक की अपेक्षाओं के परे भी देख रहे हैं. देखते हुए एक बार
दिखता है, मगर वह 'दीखना' बाद में धीरे-धीरे, और काफी समय तक, खुलता रहता है. मन
में उसकी एक स्वतंत्र दुनिया बन जाती है, और रहते-रहते, बाज मर्तबा आपके अजाने
भी, आपकी उससे एक गुफ़्तगू चलती रहती है. <br />
<br />
एक दूसरी मज़ेदार बात, वह ख़ास चाक्षुस, सिनेमैटिक एक्सपीरियंस, शब्दों में व्यक्त
करना, कर पाना, ऑलमोस्ट 'असंभव' जान पड़ता है. खेल में तनाव का एक ख़ास क्षण, या
प्रेम में सुख, या तक़लीफ़, या सांगीतिक अनुभूति की तरल विरलता पर देर तक कोई बातें
करता रह सकता है, मगर ठीक-ठीक उसका कहा जाना फिर भी रह ही जाता है. <br />
<!--[if !supportLineBreakNewLine]--><br />
<!--[endif]--></span>azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-23199241364000690462016-05-24T11:25:00.002+05:302016-05-24T13:27:20.196+05:30हुर्राट<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://2.bp.blogspot.com/-CZFiQcai7KM/V0Pstb3H3mI/AAAAAAAAIHY/lNNQ2yvecUEXOp8nUI3yHgdjvnnazBxfQCLcB/s1600/Sairat-kh8G--621x414%2540LiveMint.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="213" src="https://2.bp.blogspot.com/-CZFiQcai7KM/V0Pstb3H3mI/AAAAAAAAIHY/lNNQ2yvecUEXOp8nUI3yHgdjvnnazBxfQCLcB/s320/Sairat-kh8G--621x414%2540LiveMint.jpg" width="320" /></a></div>
पिछले चौबीस घंटों में एक के बाद एक तीन फिल्में देखीं. घर पर <a href="http://www.imdb.com/title/tt4991384/?ref_=fn_al_nm_1a" target="_blank">तमिल</a> देखी, सिनेमा में जाकर पहले <a href="http://www.imdb.com/title/tt5458088/?ref_=fn_al_tt_1" target="_blank">मलयालम</a>, और उसके पीठ पीछे, <a href="http://www.imdb.com/title/tt5312232/?ref_=fn_al_tt_1" target="_blank">मराठी</a> देखी. बहुत दिनों बाद ऐसा पागलपन किया, अपने यहां की फिल्मों के साथ आठ और नौ घंटे गुज़ारना मज़ाक नहीं है. मगर फिर माथे में आखिरी फिल्म का ऐसा जायका बना रहा कि अपनी पहले की दाेेनों गलतियां भूल गईं.<br />
<br />
<b>सैराट</b> में यह अपनी ज़रा-ज़रा-सी की मामूली सोलह-साला <a href="http://timesofindia.indiatimes.com/entertainment/marathi/movies/news/Im-enjoying-this-moment-to-the-fullest-Rinku-Rajguru/articleshow/51596264.cms" target="_blank">हिरोईन</a> है, चेहरे और देह में हिरोईन वाला पाव भर का मटिरियल नहीं. थोड़ी थुलथुल, सांवली है, नैन-नक्श भी ऐसे नहीं कि ऊपरवाले की बहुत कल्पना और मेहरबानी दर्शाते हों, मगर कुछ निर्देशक मंजुले की लिखाई का धन है, और कुछ भली लड़की के अपने अरमानों की मार्मिकता, होनहार क्या ऊंची पतंग उड़ाती है अपने किरदार के साथ, देखकर जी सच्ची लाजवाब हो गया. अपने यहां लड़कियों को ऐसे देख लेने की भेदकारी और भारी नज़र सचमुच विरल है. <br />
<br />
प्रेम में ढेर हुए के डायलॉग बहुत सारी एक्ट्रेसेस के हाथ में धर दो, अच्छे से पढ़ देंगी, मगर जिस तरह से यह लड़की, रिंकु राजगुरु, उसे परदे पर जीती, एक्ट-आउट करती है, कि बड़े घर की बेटी हूं, ऐंठ में रहकर ही जीना सीखा है, लेकिन इस प्रेम में कैसी खुद से हारी हो गई हूं, और इस बदकार ने कैसे मेरी आत्मा में ऊष्मा का ताप और आग भर दिया है, और उस प्रेम के पीछे अपनी दुनिया फूंककर, सच्चाई से रुबरु होती, फिर कैसे खुद से भी परायी हुई जाऊंगी, सब जीती है यह ज़रा सी फुदनी लड़की, और क्या धमक और इलान से जीती है.<br />
<br />
दसेक दिनों से फिल्म जाने देखना टाल रहा था. ट्रेलर में दिखी लाल, पीले, नीले कपड़ों में सजी कुछ चिरकुट-सी दिखती यह हिरोईन भी एक वज़ह रही होगी कि फिल्म के लिए निकलते-निकलते निकलना स्थगित हो रहा था. उन्हीं लाल, पीले, नीले सलवार-कुर्तों वाले 'सूट' में यह एंटी-छप्पन छूरी रहते-रहते रॉयल एन्फििल्ड की सवारी करके कॉलेज पहुंच जाती है. कॉलेज ग्राउंड में लड़कियों के साथ खेल में बझी लड़के की नज़रों को अपने में अटका पाकर सधे कदमों से जवाब तलब करने पहुंच जाती है, 'तू क्या देख रहा है रे?' लड़का हकलाता जवाब देता है कि वह खेल देख रहा था. लड़की तमककर- 'मैं देख नहीं रही तू क्या देख रहा है?' और फिर उतने ही कैजुअलनेस से कहना, 'मैंने ये नहीं कहा तू देख रहा है मुझे पसंद नहीं!' और पलटकर निकल जातना.. <br /><br />ट्रैक्टर पर सवार लड़के की झोपड़ दुनिया में पहुंच जाती है, झोपड़े के बाहर बर्तन धोती 'संभावित' सास और तेरह-साला ननद के हाल-चाल लेती, मूलत: खुलेआम अपने दिल के लुटेरे को न्यौतने गई है, कि आकर उसकी संगत में उसके खेत टहल ले. यह जानते हुए कि घर पर किसी को खबर हुई, गुडा किस्म के भाई या रौबीले तबीयत के पाल्टिकल बाप के तो दोनों के लिए कितना खतरा होगा, फिर भी लड़की चार हाथ आगे निकलकर यह सब करती है, क्यों करती है? इसलिए कि प्रेम के हाथों बेसहारा हुई जाती है. वही बेसहारापन, अपने प्रेमी, और उसकी गरीबी की संगत में, उसकेे अमीर गुरुर के छाती पर सांप-सा लोटता उसे अब दूसरे छोर पर पराया और बेसहारा करके तोड़ता है तो लड़की उस टूट को भी उसी मार्मिकता से जीती है.<br />
<br />
इन मार्मिकताओं को एक्सप्रेस करनेवाले गाने भी कुछ उसी चाल में दौड़ते हैं. और दुनिया, लगभग, मन के थापों के अनुरुप ढलती चलती है, इसे सिनेमा में इस सहजभाव हासिल कर लेना आसान नहीं है.<br />
<br />
फिल्म में दसेक मिनट होंगे, मारा-मारी और लाचारी के कुछ मेनस्ट्रीम सिनेमाई लटके-झटके, बाकी खालिस सोना है. <a href="http://www.indiatimes.com/entertainment/celebs/sairat-director-nagraj-manjule-says-bollywood-has-taught-him-more-about-what-not-to-do-255391.html" target="_blank">नागराज पोपटराव मंजुलेे</a> की पहली, '<a href="http://www.imdb.com/title/tt2827320/?ref_=nm_knf_i2" target="_blank">फंड्री</a>' कहीं कोने में चुपचाप तैयार की गई, एक छोटी कलाकारी थी, 'सैराट' मेनस्ट्रीम के बीच मैदान में बजाया गया बड़ा वाला बाजा है, और बड़े अच्छे से बजाया गया है. मराठी लोग तो बढ़-बढ़कर देख ही रहे हैं, आप भी देख आइए.azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-201072182756785192016-03-08T19:07:00.001+05:302016-03-08T19:07:20.945+05:30लड़कियों की, संयोग ही होगा, सिनेमा होगा.. <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://2.bp.blogspot.com/-m8vABw1XpEY/Vt7VdO8cTGI/AAAAAAAAIBE/D-fJpiDP-ec/s1600/MY-BRILLIANT-CAREER-010.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="192" src="https://2.bp.blogspot.com/-m8vABw1XpEY/Vt7VdO8cTGI/AAAAAAAAIBE/D-fJpiDP-ec/s320/MY-BRILLIANT-CAREER-010.jpg" width="320" /></a></div>
औरतों के जीवन पर दो टेढ़ी-मेढ़ी फ़िल्में देखकर मन लाजवाब हुआ. मज़ेदार यह कि रात-रात भर उनींदे में यहां-वहां इतना-इतना बीनते रहते हैं, मगर इन- <a href="http://www.imdb.com/name/nm0006889/?ref_=nv_sr_1" target="_blank">एक</a> और <a href="http://www.imdb.com/name/nm0000788/?ref_=tt_ov_dr" target="_blank">दो</a>- दोनों ही फ़िल्मकारों के काज से कभी भी पहले टकराहट नहीं हुई थी, और एक दूसरी वैसी ही मज़ेदार बात यह कि <a href="http://www.imdb.com/title/tt0112571/?ref_=nm_flmg_dr_1" target="_blank">बॉयज़ आन द साइड</a> हरबर्ट साहब की आखि़री फ़िल्म है (किसी करियर के अंत का फिर कैसा शानदार फिनिशिंग स्ट्रोक है, मेरी लुई पार्कर, व्हूपी गोल्डबर्ग और ड्रयू बैरिमोर की एक्टिंग के बाबत सोचता अभी भी भावुक हो रहा हूं, और फिर इतना तो सिनेमाई साउंड डिज़ाईन, और वैसी ही मन को ऊपर-नीचे करती उसकी साउंड-एडिटिंग), जैसेकि <a href="http://www.imdb.com/title/tt0079596/" target="_blank">माई ब्रिलियेंट करियर</a> <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/My_Brilliant_Career" target="_blank">माइल्स फ्रैंकलिन</a> की पहली <a href="http://www.theguardian.com/books/2013/sep/15/brilliant-career-miles-franklin-review" target="_blank">किताब</a> है, कहते हैं हंसते-खेलते उसने सोलह साल की अवस्था में लिख ली थी, और यह सोचकर लिखी थी कि दोस्तों का एंटरटेनमेंट करेगी. जिलियन आर्मस्ट्रॉंग की फ़िल्म ने तो मेरा किया ही, और ऐसा किया जो बहुत-बहुत समय से नहीं किया था. जियो, लइकियो.. azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-24479939677109377042015-05-14T09:34:00.002+05:302015-05-14T09:34:43.026+05:30देखना..कभी फुरसत में इसके साथ थोड़ा समय बिताइयेगा.. भारत में नृत्य, आधे-आधे घंटे के दो टुकड़ों में है..<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<iframe width="320" height="266" class="YOUTUBE-iframe-video" data-thumbnail-src="https://i.ytimg.com/vi/_rU-IN2-LuE/0.jpg" src="https://www.youtube.com/embed/_rU-IN2-LuE?feature=player_embedded" frameborder="0" allowfullscreen></iframe></div>
azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-44699481794703114032015-03-31T06:28:00.001+05:302015-03-31T06:40:08.710+05:30दो पुरानी और एक नई शैतानी, के सुख<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://2.bp.blogspot.com/-pSOSSNQtxzs/VRnw_aB9KAI/AAAAAAAAHP4/5NQC0oIWkK0/s1600/27_Down_Poster.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://2.bp.blogspot.com/-pSOSSNQtxzs/VRnw_aB9KAI/AAAAAAAAHP4/5NQC0oIWkK0/s1600/27_Down_Poster.jpg" height="320" width="228" /></a></div>
एक उम्र के बाद निर्मम होकर हिन्दी फिल्में देखनी बंद कर देनी चाहिये. मगर फिर, एक उम्र के बाद, निर्मम होकर आदमी गोलगप्पे और समोसे खाना नहीं बंद कर पाता तो खुद को बहलाने के लिए मन ही मन गुनगुनाता <i>‘जाने कहां गये वो दिन’</i> के रुमानी ख़्याल में फिल्म में जो नहीं है वैसे निहितार्थों को भी पढ़ता हुआ फ़िल्म के चैप्टर्स पलटने लगता है. और इस पुनर्दर्शन के बीस मिनट भी नहीं बीतते कि उसके लिए चोरी से गोलगप्पे खाने और बेहयायी से फ़िल्म देखने में कोई विशेष फर्क नहीं रह जाता. आज बहुत सारे फेसबुक कर रहे बच्चे उस वर्ष तक अभी पैदा नहीं हुए थे, तो 1970 की फिल्म है. राज कपूर का स्वान सॉंग जैसा कुछ था. कहानी-पटकथा अपने हमेशा के ज्वलनशील, प्रगतिशील अब्बास साहब की होशियारी थी, लेकिन फिल्म से शंकर सिंह रघुवंशी और जयकिशन दयाभाई पांचाल की धुनें और शैलेंद्र और हसरत बाबू के चार और पांच गानों को हटा दीजिये तो आज के दर्शक के लिए फिल्म में शायद ऐसी कोई गुफ्तगू नहीं बचती जिसके तारों में, कोशिश करके भी, वह कहीं उलझ, अटक सके. बारिश में कपड़े गीले करके दूर तक विरह गाती जाती पद्मिनी को 'मोहे अंग लग जा बालमा' को देखकर आप खुद को बहलाते रहते हैं, उसके सिवा बहुत सोचने को फिर बचता नहीं.. जय हो कपूर साहब और अब्बास साहेब का जा रे जमाना. <br />
<br />
‘27 डाऊन’ चार वर्ष बाद, 1974 में बनी थी और उसका हिसाब ‘मेरा नाम जोकर’ की मल्टी-स्टारर वाली बराबरी का नहीं है, फिर भी, चालीस वर्षों के अन्तराल पर उसे देखते हुए, किसी महीन गुफ्तगू के अभाव में, मन वहां भी उसी तेजी से उखड़ना शुरू करता है. प्रथम पुरुष में रह-रहकर नायक की सोलोलॉकी चलती रहती है और उसका स्तर पिटे अस्तित्वादी चिंताओं की तिलकुट बुनकारी व अदाओं से बहुत ऊपर नहीं उठता. एमके रैना ने तीन या चार हिन्दी फिल्मों में जो अभिनय किया है, उन फिल्मों से यही अहसास होता है कि अपने चेहरे के भावों से ज्यादा उन्हें अपनी फैली दाढ़ी का आत्मविश्वास रहा है. अलबत्ता यहां उस दौर के उपनगरीय बंबई की छटा अपूर्व किशोर बीर की सिनेकारी में जिस धज और निखार के साथ देखने को मिलती है, फिल्म का वह पहलू अभी भी डेटेड नहीं हुआ है. उसी तरह बंसी चंद्रगुप्त का प्रोडक्शन डिज़ाईन. बाकी फिल्म में याद रखने लायक कुछ नहीं है, मानकर चलिये ट्रेन आई थी और निकल गई. <br />
<br />
जैसे हाल में अभी एक और, सुचिंतित कलाकर्म, ‘बदलापुर’ की शक्ल में आई थी. फिल्म के आखिरी बीसेक मिनट के कसाव और लिखाई को हटा दें तो बकिया का डेढ़ घंटा आप गंभीरता से विचलित होते सोचने से नहीं ही बच पाते कि फिल्म के पीछे ऐसा चिंतन क्या है, और बदलापुर क्यों आई है, और उसमें दर्शक के तौर पर, हम क्यों आये हैं. पके और थके हुए लोग एक-दूसरे पर नीचता की हिंसा की तरकीबें आजमाते रहें का होनहार करम हमें क्या नई बात बता सकता है. नहीं ही बताता.<br />
<br />
मैं फिर सोच रहा हूं एक उम्र के बाद हिन्दी फिल्में देखनी बंद कर देनी चाहिये. सवाल यही है कि मालूम नहीं वह उम्र क्या है. <br />
<br />
<br />azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-66545648530198217592015-03-12T15:07:00.003+05:302015-03-12T15:12:36.550+05:30काली और सफ़ेद<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://3.bp.blogspot.com/-qHoI850lr1U/VQFeV3wQL_I/AAAAAAAAHM4/xcLjRcyXV9E/s1600/Set%2BFire%2Bto%2Bthe%2BStars.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://3.bp.blogspot.com/-qHoI850lr1U/VQFeV3wQL_I/AAAAAAAAHM4/xcLjRcyXV9E/s1600/Set%2BFire%2Bto%2Bthe%2BStars.jpg" /></a></div>
धूप में चुनचुनाते माथे, किसी का इंतज़ार करते, आइसक्रीम चुभलाते-सी कुछ छोटी फ़िल्में होती हैं, फिर मीठे-लाल लबालब तरबूज की उम्मीद वाली कुछ बड़ी फ़िल्में होती हैं, और छोटी-बड़ी इन रंग व मिज़ाज अनुभूतियों से बाहर, टेक्नोलॉजी व सिनेमाई वितरण के पारम्परिक अर्थतंत्र को धता बताता, फिर एक स्वायत्त संसार होता है काली-सफ़ेद फ़िल्मों का, धीमे-धीमे फैलकर आपकी धमनियों में जगह बनाती और मन में एक अलग किस्म के गुफ़्तगू का आस्वाद छोड़कर माथे में डोलती, अटकी रहती हैं. <em>आखिरी क्या ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म थी जिसके देखे का मीठा अब तक बसा है मन में, अभी भी याद है? </em> <br />
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रहते-रहते प्रोड्युसरों को बुखार चढ़ता है और वो पुरानी काली-सफ़ेद फ़िल्मों को रंगीन में बदलकर चार पैसा और कमाने के अरमान में कुलबुलाने लगते हैं, ऐसा करके काली-सफ़ेद फ़िल्मों में जो उनका एक विशिष्ट ‘टाइमलेसनेस’ का एलीमेंट होता है, उसे रंगीन के स्थूल व भद्दे में बदलकर, कुछ पैसा भले कमा लेते हों, सिनेमाई तृप्ति कोई कैसे पाता है, यह सवाल मेरे लिए अब तक घनघोर मिस्ट्री है. <br />
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और वह दूसरा सवाल भी कि आखिरी वह कौन फ़िल्म थी, काली-सफ़ेद, जिसके चपेटे में आपका मन गुनगुनाकर (<a href="http://www.imdb.com/title/tt0050665/?ref_=fn_al_tt_1" target="_blank">सुहाना सफ़र है ये मौसम हसीं</a>) बहलता नर्गिस और प्रदीप कुमार के <a href="http://www.imdb.com/title/tt0156923/?ref_=fn_al_tt_1" target="_blank">दिल की गिरहों को खोल देने की</a> चुनौतियां देने लगता था, या ‘<strong>साहब बीवी और गुलाम</strong>’ की छोटी बहू की ‘<a href="http://www.imdb.com/title/tt0053767/?ref_=nm_flmg_act_38" target="_blank">अजीब दास्तां है ये, कहां शुरु कहां खतम</a>’ का तराना छेड़कर फिर किन्हीं अंधेरों में गुम हो जाया करता..? <br />
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पिछले कुछ अरसों की मेरे ख़याल में घूमकर सबसे पहले <strong>नोआ बाउमबाक</strong> (उच्चारण सही है?) की ‘<a href="http://www.imdb.com/title/tt2347569/?ref_=nv_sr_1" target="_blank">फ्रांसेस हा</a>’ आती है, और उसके पीछे-पीछे <strong>अलेक्सैंडर पाइन</strong> की ‘<a href="http://www.imdb.com/title/tt1821549/?ref_=nm_flmg_dr_1" target="_blank">नेब्रास्का</a>‘. फिर गये साल की पोलिश, ऑस्कर नवाज़ी गई, ‘<a href="http://www.imdb.com/title/tt2718492/?ref_=nv_sr_1" target="_blank">इदा</a>’ का अपने ठहरावी बुनावट में, धीरे-धीरे लोग व सैरों को देखने का, एक <em>‘रंग नहीं, ये काला-सफ़ेद बोलता है’</em> जलवा था. और फिर अभी ताज़ा-ताज़ा डिलन टॉमस की सनकों के गिर्द बुनी, एंडी गोदार की ‘<a href="http://www.imdb.com/title/tt3455740/?ref_=nv_sr_1" target="_blank">सेट फायर टू द स्टार्स</a>’ देख रहा था, उतनी महीन नहीं, फिर भी काली-सफ़ेद का संगीन तो है ही.. <br />
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<br />azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-2685260446367192612015-03-05T13:34:00.001+05:302015-03-05T14:31:46.362+05:30एक अभिनेत्री की देह <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://4.bp.blogspot.com/-DiMUVIh3QkQ/VPgNZ2MUnGI/AAAAAAAAHL4/aBQnaM9owPE/s1600/violette1.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://4.bp.blogspot.com/-DiMUVIh3QkQ/VPgNZ2MUnGI/AAAAAAAAHL4/aBQnaM9owPE/s1600/violette1.jpg" height="320" width="240" /></a></div>
अभिनय अजीब खेल है जिसमें बाज दफ़ा मौके बनते हैं जब खेलने को हाथ में कुछ नहीं होता. मसलन एकांत के ये कुछ सिचुयेशंस लीजिये. ज़रा-सी रौशनी के बिछौने में उठंगे लेटे, सरककर कोई चीज़ उठानी है, माथे के पीछे हाथ लिये किसी पुरची से कुछ पढ़ने लगना है, उठकर दरवाज़ा खोलना, सीढ़ियां उतरकर रसोई में आना, कुर्सी पर बैठना है, और इसी तरह कुछ देर बैठे रहना है. ऐसे इंस्ट्रक्शंस, जिसमें मुंह बनाना, या हाथ-पैर चलाना, या बंदबुद्धि की अन्य पशुवत हरकतें नहीं करनी हों, को पढ़कर हिन्दी सिनेमा का एक्टर क्या करेगा? या तो सचमुच मुंह बनाने लगेगा, या बैठी हुई कुर्सी से उठकर सचमुच दरवाज़े से बाहर निकल जाएगा जहां उसे ऐसी अमूर्त बुनावट की कथा और वैसे सोच के निर्देशक के साथ काम करके अपना नाम (और दाम) उलझाने का संकट न खड़ा हो. <br />
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हिन्दी सिनेमा किसी भी तरह के एकांत से, <sub></sub>कैसे भी अमूर्तन से, तीन हाथ तो क्या कहें, तीन किलोमीटर की दूरी बनाकर चलता है. एक्टर को हमेशा कुछ करते हुए दिखना होता है, <i>वह जब कुछ नहीं कर रहा हो</i> का दृश्य निर्देशक की कल्पना व स्क्रीनप्ले की संरचना में हो तो भी वह फाईनल फ़िल्म में जगह नहीं पाती. कैसा भी किरदार हो, बिना दांत चियारे की उसकी हंसी नहीं होती. बंद मुंह की हंसी का ख़याल हिन्दी सिनेमा के लिए अभी भी घबराहट व एंग्साइटी का संसार है. इसीलिए भी है कि चेहरे व हाव-भाव की स्थूल अभिव्यक्तियां वह सीपी में फटी आंखों टहलता पीके हो, या सींखचों के पीछे और उससे बाहर उखड़ती व लाजवाब होती जर्नलस्टन बाला, उनकी इन्हीं उछल-कूद के बीच हिन्दी सिनेमा में हम अभिनय की पहचान में अब तक आंखें फाड़े रहते हैं. मेरी तरह का पुरनिया, थका हुआ दर्शक, आंख या अन्य कुछ फाड़ने के बजाय, ऊबकर फ्रेंच फ़िल्मों की तारिकाओं के न कुछ करने के एकांतिक क्षणों के महीन पाठों के संधान में निकल जाता है. <br />
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पांचवे दशक के एकदम शुरू की ‘<a href="http://www.imdb.com/title/tt0043386/?ref_=nm_flmg_act_46" target="_blank">कास्क द'ओर</a>' के ज़माने से ही फ्रेंच सिनेमा में <a href="http://www.imdb.com/name/nm0797531/" target="_blank">सिमोन सिग्नोरेत</a> की भव्य उपस्थिति का जलवा रहा है. उनके पीछे-पीछे <a href="http://www.imdb.com/name/nm0603402/?ref_=tt_ov_st" target="_blank">ज़्यां मोरु</a>, <a href="http://www.imdb.com/name/nm0320760/?ref_=tt_ov_st" target="_blank">एनी ज़ेरारदो</a>, <a href="http://www.imdb.com/name/nm0000366/?ref_=nv_sr_1" target="_blank">कैथरीन देन्युव</a>, <a href="http://www.imdb.com/name/nm0000322/" target="_blank">इमानुयेल बर्ट</a>, <a href="http://www.imdb.com/name/nm0000254/" target="_blank">इसाबेल अद्यानी</a>, और <a href="http://www.imdb.com/name/nm0000300/" target="_blank">जुलियेट बिनोश</a> जैसी अनूठी अभिनेत्रियों की लाजवाब कड़ी रही है. उससे बाद के दौर में <a href="http://www.imdb.com/name/nm0851582/" target="_blank">ऑद्री ततू</a>, <a href="http://www.imdb.com/name/nm0182839/" target="_blank">मारियन कोतीलार</a>, <a href="http://www.imdb.com/name/nm0208426/" target="_blank">सेसील दे फ्रांस</a>, <a href="http://www.imdb.com/name/nm0491259/" target="_blank">मेलनी लॉरें</a> जैसी दिलकश तारिकायें रही हैं. इन सभी नामों के बीच जो एक कॉमन थ्रेड है वह ये कि अच्छी अभिनेत्रियां होने के साथ-साथ ये फ़ाम, फताल भी वैसी ऊंचाइयों वाली रही हैं. बिनोश या अद्यानी का अच्छा अभिनय सराहते-सराहते आपको ख़बर भी न होती थी और छिपी नज़रों आप खुद को उनकी देह सराहते, व उसमें कुछ का कुछ तलाशते, पाते थे! और आपका कसूर होता भी नहीं होता था. मगर फिर फ़ाम फताली इन करिश्मों से बाहर चंद कुछ और नाम हैं जिनका अभिनय देखते हुए हम वह अभिनय ही देखते रहते हैं, सुगठित सौंदर्य का दबाब हमारे देखने के आड़े नहीं आता. <a href="http://www.imdb.com/name/nm0895759/" target="_blank">कारीन विराद</a> की कॉमिक उपस्थिति याद करिये, कुछ नहीं दिखनेवाले चीज़ों व परिस्थियों के रोज़मर्रे के दृश्यों में भी वह अपनी मौजूदगी से दायें-बायें अर्थ भरती रहती है. फिर फ्रेंच सिनेमा की अपनी दिलीप कुमारा <a href="http://www.imdb.com/name/nm0001376/" target="_blank">इसाबेल हुपेर</a> हुईं, पारम्परिक अर्थों में किसी भी सूरत में मनमोहिनी तो कतई नहीं, मगर <strong>शाब्रोल</strong> की ‘<a href="http://www.imdb.com/title/tt0102368/?ref_=nm_flmg_act_64" target="_blank">मदाम बॉवरी</a>’ या ‘<a href="http://www.imdb.com/title/tt0254686/?ref_=nm_knf_t2" target="_blank">पियानो टीचर</a>’ की उन सन्न उपस्थितियों के मार्मिक अभिनय-राग को याद करिये, धीमे-धीमे फिर खुलेगा हुपेर किस कैसे कैलिबर की एक्टर है. इससे आगे एक तीसरा नाम लेता हूं, गई रात जिसकी एक फ़िल्म निरखते हुए इस टिप्पणी को दर्ज़ करने का ख़याल आया, चौंसठ की जन्मी यह हैं <a href="http://www.imdb.com/name/nm0222922/" target="_blank">इमानुयेल देवोस</a>. भारी देह व फैली हड्डियों वाली, कोई समझदार फ्लर्ट करने के पहले तीन मर्तबा सोचेगा (इतने वर्षों से मैं अभी तक सोच ही रहा हूं), ज़्यादा समझदार हुआ तो कुछ नहीं सोचेगा, सिर्फ़ उसकी लाजवाब उपस्थिति व अभिनय के जादू में बंधा सिनेमाई समय की गिनती भूल, देवोस की अगली फ़िल्म के इंतज़ार में, घबराया हिन्दी फ़िल्में देखता अपना समय खराब करेगा. <br />
<br />
फिर ऐसा क्या ख़ास है भारी देह की, और बहुत हद तक टेढ़े नाक-नक्श वाली इस अनाकर्षक अभिनेत्री की उपस्थिति में? अच्छे अभिनय के लिए आमतौर पर लोग चेहरे पर विविधरंगी भाववन क्रियेट कर लेने की काबिलियत पर आश्रित होते हैं, इमानुयेल उससे तीन कदम और आगे जाकर अपने अभिनय के स्पेस में एक ऐसी दुनिया बुनती है जहां सिर्फ़ उसका चेहरा ही नहीं होता, पूरी देह, उसकी एक-एक बात, मानो उस किरदार विशेष की अंतरंग अनुभूतियों में सरोबार होता है. एक स्त्री का इस तरह अपनी देह से मुक्त हो जाना, और उसके समूचे अमूर्तन में अपने किरदार के कोने-अंतरे टटोलकर उसकी भव्य बुनावट खड़ी करते जाना, और एक बार नहीं, <a href="http://www.imdb.com/title/tt0274117/?ref_=nm_knf_t2" target="_blank">एक</a>, <a href="http://www.imdb.com/title/tt0344273/?ref_=nm_knf_t3" target="_blank">दो</a>, <a href="http://www.imdb.com/title/tt0382691/?ref_=nm_flmg_act_32" target="_blank">तीन</a>, <a href="http://www.imdb.com/title/tt1198385/?ref_=nm_flmg_act_17" target="_blank">चार</a>, <a href="http://www.imdb.com/title/tt2073016/?ref_=nm_flmg_act_10" target="_blank">पांच</a>, <a href="http://www.imdb.com/title/tt2976920/?ref_=nm_flmg_act_6" target="_blank">छह</a>, <a href="http://www.imdb.com/title/tt2659190/?ref_=nm_flmg_act_8" target="_blank">सात</a> ऐसी ढेरों फ़िल्मों में, बार-बार उसे हासिल करना सचमुच विरल है. <br />
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इन पंक्तियों का लेखक बीस वर्षों से फ़िल्म बनाने की सोच रहा है, यह और बात है कि उसने इतने अर्से में बीस मिनट की कोई वीडियो भी नहीं बनाई, लेकिन कभी अगर कोई एक फ़िल्म बना सका, भले वह भोजपुरी में ही क्यों न हो, वह चाहेगा इमानुयेल देवोस उसका ज़रूर हिस्सा हों, भले वह आंख के आगे परदा किये (मेरे लिए, और सिर्फ़ मेरे लिए) ‘<em>कितनी अकेली कितनी तन्हा तुमसे मिलने के बाद</em>’ गाती ही क्यों न दीखे. <br />
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<br />azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-43158516107961024232015-03-02T05:52:00.000+05:302015-03-02T05:52:06.433+05:30फॉक्सकैचर<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://3.bp.blogspot.com/-s-JvpGj8Hwk/VPOsyj9vqoI/AAAAAAAAHJk/Dy3Tw76pAIc/s1600/foxcatcher-new-quad.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://3.bp.blogspot.com/-s-JvpGj8Hwk/VPOsyj9vqoI/AAAAAAAAHJk/Dy3Tw76pAIc/s1600/foxcatcher-new-quad.jpg" height="239" width="320" /></a></div>
<strong>बेनेट मिलर</strong> ने इससे पहले दो फीचर और बनाई हैं, ‘<a href="http://www.imdb.com/title/tt0379725/?ref_=nm_knf_t2" target="_blank">कपोटे</a>’ व ‘<a href="http://www.imdb.com/title/tt1210166/?ref_=nm_knf_t1" target="_blank">मनीबॉल</a>’, सधी फ़िल्में थीं, मगर पिछले वर्ष की रिलीज्ड ‘<a href="http://www.imdb.com/title/tt1100089/" target="_blank">फॉक्सकैचर</a>’ की बुनावट ज़्यादा सघन व महत्वाकांक्षी है. वह यह भी दर्शाती है कि पैसा व तकनोलॉजी के दबावों-तनावों में गहरे बंधे-फंसे मुख्यधारा तमाशालोक से इतर पश्चिम लगातार ऐसी फ़िल्मों के लिए भी स्पेस मुहैया करवा ही लेता है जो अपनी कहन में ईमानदार रहते हुए सिनेमा की अपनी महत्तर संभावनाओं व उसका औपन्यासिक संगठन हासिल कर सकें. मंथर गति की व प्रकट नाटकीयताओं से बचती <a href="http://www.imdb.com/name/nm0000759/?ref_=nv_sr_1" target="_blank">पॉल थॉमस</a> और <a href="http://www.imdb.com/name/nm0027572/?ref_=nv_sr_1" target="_blank">वेस एंडरसन</a> वाली बुनावट और आकांक्षाएं अदरवाइस हॉलीवुड में संभव नहीं होतीं. न अलेहांद्रो इन्नरीतु की ‘<a href="http://www.imdb.com/title/tt1164999/?ref_=nm_knf_t3" target="_blank">बियूटीफुल</a>’ व पाओलो सौरेंतीनो की ‘<a href="http://www.imdb.com/title/tt2358891/?ref_=nv_sr_1" target="_blank">ला ग्रांदे बेलेत्ज़ा</a>’ का शिल्पगत विस्तार अपनी तफसीलों में हमें ऐसी कलात्मक संतुष्टि देता. (माध्यम में पैठ की इस समझ के लिहाज़ से हिन्दी सिनेमा अब भी निहायत इकहरा व स्थूल ही है, और जाने आनेवाले कितने वर्षों तक रहे.) <br />
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वापस बेनेट मिलर और उनकी ‘फॉक्सकैचर’ पर लौटते हैं. कहानी बहुत सादा और लूज़ली वास्तविक घटनाओं पर आधारित है. संक्षेप में इतनी भर है कि निहायत गरीबी में बड़े हुए दो भाई हैं जिनमें छोटा सन् चौरासी ऑल्मपिक का वर्ल्ड रेशलर चैंपियन रहा है, बड़ा भाई उसका कोच, व बहुत हद तक उसका देखवैया, अभिभावक है, और कुश्ती व जीतों के उनके इस निर्दोष सुखी खेल में कैसे तब खलल पड़ता है जब उसे संरक्षण देने के रास्ते दु पोंत जैसे एक निहायत अमीर धनपति की एंट्री होती है. दु पोंत स्वयं रेशलिंग का पुराना शौकीन रहा है और वह चाहता है कि उसकी साधन-संपन्न निगरानी में दोनों भाइयों को उनकी प्रतिभा के अनुकूल वाजिब ट्रेनिंग का स्पेस मिले, अगला ओलम्पिक पदक उसकी चौकसी में जीता जाये, दुनिया में दु पोंत परिवार के खेल-संरक्षण का यश फैले आदि-इत्यादि. <br />
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चूंकि दोनों भाई (बड़ा डेव, छोटा, चैंपियन, मार्क) खेल और वह भी कुश्ती की दुनिया के लोग हैं तो उनके पास बोलने को देह की भाषा है, मुंह से बोलना बहुत सीमित, फंक्शनल है. उसी तरह धनपति की बतकहियां भी बहुत संक्षिप्त व मशीनी होती हैं, जिसमें उसके निजी संसार की उपस्थिति से ज़्यादा अमरीकी गौरव, राष्ट्रीय धरोहर में उसके परिवार की भूमिका, नागरिक का गर्व व उत्तरदायित्व जैसी बातों पर लगातार बल होता है. मगर ये बातें सत्ता से लगातार जुड़े रहने और ऊंचे आसन से जनसंपर्क का सहज पारम्परिक परिवारिक संस्कार व अभ्यास है. इन बातों का ठीक-ठीक क्या मतलब है जानने व उनसे जूझने का जॉन दु पोंत की-सी हैसियत वाले व्यक्ति को जीवन में मौका मिलता है, न उस पर सोचने की उसे कोई ज़रूरत है. संभावी दूसरी मर्तबा का वर्ल्ड चैंपियन मार्क शुल्ज़ सुरक्षा व अमीरी के मोह में बंधा दु पोंत की दुनिया में अपने भोलेपन से दाखिल होता है और गाल पर पड़े दु पोंत के एक तमाचे की शक्ल में फिर इस दुनिया और उसकी हकीक़तों की उसकी समझ धीरे-धीरे खुलना शुरु होती है. इस संसार की प्राथमिक शर्त है कि उसका आंतरिक-बाह्य सभी प्रबंधन, संचालन धनपति की सनकी अनुकूलता में चले. सत्ता व ताकत की भाषा से अनजान, भोला डेव जब इस इक्वेशन को मार्क को बचाने की खातिर कहीं हल्के-से डिस्टर्ब करता है तो उसे धनपति के हाथों अपनी जान गंवानी पड़ती है. <br />
मगर कुछ पंक्तियों में ऊपर दर्ज़ कहानी से ज़्यादा महत्वपूर्ण उसके शिल्प के घनेरे तफ़सीलों में है. अच्छे उपन्यासों की ही तर्ज़ पर अच्छे सिनेमा का आनन्द उसकी इस शिल्पगत सघनता में है. कि धीमे-धीमे खुलती दुनिया का कार्य-व्यापार लोगों व संसार के रंग-रूप के किन-किन, कैसे महीन कोनों को हमारे आगे उजागर, एजुकेट करता चलता है. जॉन की मां के रुप में वनेसा रेडग्रेव की एक संक्षिप्त उपस्थिति है, मगर मूलत: यह मर्दों का व उनके बीच के सत्ता के तनावों, व बदलते इक्वेशंस का संसार है. <br />
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जो दर्शक <a href="http://www.imdb.com/name/nm0136797/?ref_=tt_ov_st" target="_blank">स्टीव करेल</a> के करियर से आमतौर पर परिचित हैं उनके लिए ‘फॉक्सकैचर’ सचमुच तर्जुबा होगी कि जॉन दु पोंत के शुष्क, जड़ किरदार में उसने अपनी कॉमिक पहचान का न केवल कैसा दारुण कायाकल्प किया है, बल्कि समर्थ तरीके से यह भी दिखाया है कि एक अच्छा एक्टर फ़िल्म को कितने नये अर्थ दे सकता है. अपनी पारंपरिक पहचानों से अलग <strong>शैनिंग टैटम</strong> और <strong>मार्क रफल्लो</strong> को भी अपने रेशलर किरदारों में देखना अभिनय-वसूल आनन्द है. <br />
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ब्रावो, बेनेट मिलर. <br />
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azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-6176713706414339192014-12-28T19:44:00.001+05:302014-12-28T20:50:58.668+05:30गहरी चोटों के जाड़ों में नहायी, विंटर स्लीप<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://4.bp.blogspot.com/-Nsg4Cv1gxJc/VKAP_4xX7WI/AAAAAAAAHDw/jHx_Az0qiQs/s1600/Winter_Sleep_(Poster).jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://4.bp.blogspot.com/-Nsg4Cv1gxJc/VKAP_4xX7WI/AAAAAAAAHDw/jHx_Az0qiQs/s1600/Winter_Sleep_(Poster).jpg" height="320" width="234" /></a></div>
बर्फ़ नहायी पसलियां बजाती ठंड के निस्सीम सफेद मैदान. जिसमें चौंका नज़र फेरता, और फिर उस विराटता में ठंड और जीवन से कटा-लुटा आदमी, कहीं उम्मीद की आंच को ज़रा जगह मिले के ख़्याल में घर के इंटीरियर के कोने, किसी कुर्सी, सोफा, काउच में अपने को बचाता, छिपाता चलता होगा. मगर जोड़ कंपकंपाती ठंड से भागने को कोई जगह मिलती, बनती न होगी. या जीवन से. <br />
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तुर्की के अनातोलिया के आदम ज़माने के पुरातनपने में नहायी देहाती दुनिया का यह एक ज़रा-सा छोटा टुकड़ा है. पचीसेक वर्ष अभिनय और नाटकों में गुजारने के बाद ऐदीन (कहानी का मुख्य किरदार) अपने पिता के पीछे छूटी विरासत संभालने के अब वास्तविक रोल में है. मगर संसार में नाम कमाने व पैर जमाने के लिहाज़ से जैसे थियेटर उसके बहुत काम का साबित नहीं हुआ था, पथरीले पुरातन बीहड़ में जीवन पर नियंत्रण की भूमिका में भी वह रहते-रहते उखड़-उखड़ सा जा रहा है. <br />
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पहाड़ियों में खुदा पुरानी ज़मींदारी का मकान अब विदेशी टुरिस्टों के लिए एक होटल के बतौर काम लाया जा रहा है. मकाननुमा यह होटल, और अपनी स्टडी के कवच में लैपटाप पर तुर्की थियेटर पर एक किताब लिखने की तैयारी, यही ऐदीन का खुद को तसल्ली और भुलावों में बझाये रखने का संसार है. आसपास कुछ और किरदार हैं, अपने से उम्र में काफी छोटी एक खूबसूरत, जीवन में अपना रोल खोजती जवान बीवी है, शौहर से तलाक़ लेकर अब अपने फ़ैसले पर फिक्रमंद होती पिता की पुरानी दुनिया में शरणागत बहन है, होटल में टिके दो सफ़री हैं, एक दोस्त और किराया अदा कर सकने की मुश्किलों में फंसा एक झमेलेदार किरायेदार परिवार है, परिवार पीछे छोड़कर अजनबी ठिकाने पर मास्टरी की नौकरी बजा रहा एक एक नौजवान है, ऐदीन का नौकर और गिरफ़्त में छटपटाता एक जंगली घोड़ा है; और बर्फ़ में नहायी पहाड़ियों और सन्नाते सूनेपन में सैरे, और इन सबके बीच आठ या नौ लम्बे-लम्बे गुफ़्तगू, इन्हीं के बीच एक डेंस सिनेमाटॉग्राफ़ी की नोक पर <b>नूरी चेलान</b> की लगभग सवा तीन घंटे की यह फ़िल्म, आह, क्या जानदार तरीके से सधी रहती है. <br />
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बस ज़रा-जरा से सवाल, और उनके गिर्द उलझे गुफ्तगू.. सबके अपने-अपने सवाल हैं, अपने में उलझे सामनेवाले के मुंह में उसका खुद का ज़हर है, किसी और के सवालों को सुनने और विचारकर जवाब बुनने का धीरज नहीं. सवाल जाड़े के तीरों के मानिंद मोटे कालीनों व आंच के नारंगीपने में इस दीवार से उस दीवार तक डोलते फिरते हैं, जवाब कभी आता भी है तो मन के हारेपने के नक्शे की शक्ल में. <br />
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सिनेमा के लिए खुशी की बात है कि उसके पास अभी भी <b>नूरी चेलान</b> की जाड़ों की नींद का ऐसा नशीला रीयलिस्टिक संसार है. <br />
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<br />
<br />azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-21133852953238813352013-11-19T12:12:00.000+05:302013-11-19T12:14:54.165+05:30ज्यान्नी ज्यान्नी..<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://2.bp.blogspot.com/-eVR_QD640Xs/UosH-JmSYaI/AAAAAAAAGME/2QXdn5rMfRM/s1600/primo+uomo.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://2.bp.blogspot.com/-eVR_QD640Xs/UosH-JmSYaI/AAAAAAAAGME/2QXdn5rMfRM/s1600/primo+uomo.jpg" /></a></div>
<strong>जब आई थी</strong> तब, करीबन बीसेक वर्ष पहले, इटली की <a href="http://www.imdb.com/title/tt0104663/?ref_=nm_flmg_dr_10" target="_blank">‘बच्चों का चोर’</a> देखी थी, फ़िल्म अच्छी भी लगी थी, मगर फिर लगा कि यह ज़रा पारंपरिक किस्म की फ़िल्ममेकिंग है, कहानी का कोर और उसके गिर्द भावलोक की सघन बुनावट वाली मेकिंग, ऐसी फ़िल्में बहुत देखीं, अब रहने दिया जाये. तो इस तरह रहने देने में फिर <a href="http://en.wikipedia.org/wiki/Gianni_Amelio" target="_blank">ज्यान्नी एमिल्यो</a> छूटे रहे. पिछले वर्ष फिर कुछ संयोग हुआ, और शायद इसलिए भी हुआ कि फिल्म की मुख्य भूमिका में <a href="http://www.imdb.com/name/nm0144812/?ref_=tt_ov_st" target="_blank">सेर्ज्यो कास्तेल्लित्तो</a> थे, और मुझे निजी तौर पर अच्छे लगते हैं, <a href="http://www.imdb.com/title/tt0448131/?ref_=nm_flmg_dr_3" target="_blank">‘खोया तारा’</a> को देखना हुआ. और एम मध्यवर्गीय इतालवी आंखों से समसामयिक चीन के औद्योगिक कस्बाई लैंडस्कैप के जो नज़ारे फिल्म दिखाती चलती है, और फीकी उदासियों का जो वह दिलतोड़ संसार बनता चलता है, उसे देखते हुए फिर जिया झ्यांग्के के <a href="http://www.imdb.com/title/tt0859765/?ref_=nm_knf_t1" target="_blank">‘स्टिल लाइफ़’</a> की सहज याद हो आई.. <br />
इस लजीज़ अनुभव के बावज़ूद <a href="http://www.telegraph.co.uk/culture/film/filmmakersonfilm/3639278/Film-makers-on-film-Gianni-Amelio.html" target="_blank">बाबू एमिल्यो साहेब</a> छूटे रहे. अभी फिर दसेक दिनों पहले हुआ कि एक के बाद एक उनकी तीन फिल्में छापीं, <a href="http://www.imdb.com/title/tt0110299/?ref_=nm_flmg_dr_8" target="_blank">‘लमेरिका’</a>, <a href="http://www.imdb.com/title/tt0139951/?ref_=nm_flmg_dr_6" target="_blank">‘ऐसे हंसते थे’</a> और <strong>कामू</strong> के असमाप्त उपन्यास पर आधारित, इतालवी नहीं, फ्रेंच में, <a href="http://www.theguardian.com/books/1994/apr/16/fiction.albertcamus" target="_blank">‘पहला आदमी’</a>.. और तीनों के ही आनंद में धनी हुए.. <br />
यह भी समझ में आया कि पारंपरिकता सीमा नहीं है, अगर आप अपने जुड़ाव और सादगी के महीनी में मोहब्बत और भरोसे से जुटे रहते हो. फिर यह भी फर्क़ नहीं पड़ता कि आप अपनी कहानी अल्बानिया के फटियारेपनों में घुमा रहे हो, या सिसिलियन आप्रवासी मजूरों के उत्तरी इटली से संबंधों की आड़ी-तिरछी त्रासदी का खाका, एक अनपढ़ बड़े और पढ़ाई कर रहे छोटे, दो भाइयों की उलझनों और तकलीफ़ों की मिली-जुली बुनावट में कह रहे हो.. या कामू के अजीज़ अल्जीयर्स को धीमे-धीमे, बिना किसी अतिरंजित नाटकीयता के, त्रासद सिम्फ़नी की तरह खोल रहे हो.. <br />
ब्रावो, ज्यान्नी! <br />
<br />
<br />azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-57260456487768140882013-09-11T01:00:00.000+05:302013-09-11T01:00:01.357+05:302 days in Paris<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://1.bp.blogspot.com/-FxiUFhFC6mI/Ui9yrDWV0-I/AAAAAAAAGAQ/tFbqQhmdj68/s1600/2-days-in-paris.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="192" src="http://1.bp.blogspot.com/-FxiUFhFC6mI/Ui9yrDWV0-I/AAAAAAAAGAQ/tFbqQhmdj68/s320/2-days-in-paris.jpg" width="320" /></a></div>
<div class="MsoNormal">
“J confessed to me his fear of being rejected if I truly
knew him, if he showed himself totally bare to me. J realised after two years
that he didn't know me at all, nor did I know him. And to truly love each other
we needed to know the truth about each other, even if it's not so easy to take.
So I told him the truth, which was I'd never cheated on him. And I also told
him that I had just seen M that afternoon. He did not get mad at me because nothing
had happened, of course. I confessed the toughest thing for me was to decide to
be with someone for good - the idea that this is the man I'm going to spend the
rest of my life with. To decide that I will make the effort to work things out and
not run off the minute there is a problem is very difficult for me. I told him
I could not be for just one man for the rest of my life. It was a lie, but I
said it anyway. He asked me if I thought I was a squirrel, collecting men like
nuts to put away for cold winters. I thought it was quite funny. Then he said
something that hurt my feelings. The tone changed drastically. Then I
misunderstood him. I thought he meant he didn't love me any more - and wanted
to break up with me… It always fascinates me how people go from loving you
madly, to nothing at all. Nothing.</div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
It hurts so much.</div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
When I feel someone will leave me I have a tendency to break
up first before I get to hear the whole thing. Here it is. One more, one less, another
wasted love story. I really loved this one. When I think that it's over, that
I'll never see him again... Well, I'll bump into him, we'll meet our new
boyfriend and girlfriend, act as if we had never been together. Then we'll
slowly think of each other less and less, until we forget each other
completely. Almost. </div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
Always the same for me - break up, break down. Drink up,
fool around, meet one guy, then another, fuck around to forget the one and
only. Then after a few months of emptiness, start again to look for true love. Desperately
look everywhere and, after two years of loneliness, meet a new love and swear
it is the one, until that one is gone as well. There's a moment in life where
you can't recover any more from another break-up. And even if this person bugs
you 60% of the time, you still can't live without him. And even if he wakes you
up every day by sneezing right in your face, well, you love his sneezes more
than anyone else's kisses.”</div>
<br />
(<i>the thirty five years old protagonist contemplating at the end of the <a href="http://www.nytimes.com/2007/08/05/movies/05hohe.html?pagewanted=all&_r=0" target="_blank">comedy</a>.</i>)azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1655044654219612786.post-82187716177602546272013-08-23T08:39:00.005+05:302013-08-23T08:39:56.377+05:30छुटकन रील्स.. <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="http://1.bp.blogspot.com/-HbwUu3jBJ2s/UhbRhaz2jBI/AAAAAAAAF3g/jVj5jsJvv6g/s1600/Anand_gandhi.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="127" src="http://1.bp.blogspot.com/-HbwUu3jBJ2s/UhbRhaz2jBI/AAAAAAAAF3g/jVj5jsJvv6g/s200/Anand_gandhi.jpg" width="200" /></a></div>
थोड़े-थोड़े में कुछ लोग चलते रहते हैं, व्यायाम भी होता है, चलकर कहीं पहुंचना तो होता ही है. कुछ लोग बिना चले पहुंचना चाहते हैं (मैं अपनी बात नहीं कर रहा). ख़ैर, आनंद गांधी का कुछ और सामान, पुरनका, छोटी फिल्में. यह 2003 में बनाई पहली '<i>राइट हीयर राइट नाउ</i>' नाम से <a href="http://www.youtube.com/watch?v=OVAokeqQuFM" target="_blank">पहली</a> और <a href="http://www.youtube.com/watch?v=gIYJePEnvUY" target="_blank">दूसरी</a> दो किस्तों में है. उसके तीन वर्षों बाद पांच खंडों में '<i>कंटिन्युअम</i>' बनाई, उसकी लिंकाई यह रही: <a href="http://www.youtube.com/watch?v=tYfZWPEmu6o" target="_blank">भूख</a>, <a href="http://www.youtube.com/watch?v=O5niloPdmRA" target="_blank">व्यापार और प्रेम</a>, <a href="http://www.youtube.com/watch?v=E_7yqdSl0nY" target="_blank">मृत्यु</a>, <a href="http://www.youtube.com/watch?v=Rqt5LbU2658" target="_blank">ज्ञान</a>, <a href="http://www.youtube.com/watch?v=u7GAdzz9U_I" target="_blank">अद्वेत</a>.. <br />
<i><br /></i>
<i>(<span style="font-size: x-small;">जिस ब्लॉग के रास्ते नज़र पड़ी, <a href="http://filamcinema.blogspot.in/" target="_blank">उसका</a> आभार)</span></i>azdakhttp://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.com1