9/27/2008

दु:ख की छंटती बदलियां..

पीटूपी की मेहरबानी कि रहते-रहते फ़ि‍ल्‍मी नगीने हाथ लगते रहते हैं, और यह बात, शिद्दत से, भूलती नहीं कि हिंदी फ़ि‍ल्‍में क्‍यों और कैसे इतनी अझेल हैं. आज सुबह की अच्‍छी शुरुआत फ़ि‍निश निर्देशक आकि कॉउरिसमाकी की ‘ला विये दि बोहेम’ (1992) और ‘ड्रिफ्टिंग क्‍लाउड्स’ (1996) के रतन से हुई है. कॉउरिसमाकी की ज़्यादातर फ़ि‍ल्‍मों की तरह, यहां भी, कहानी के किरदार बहुत सहज-स्‍वाभाविक तरीके से, दु:ख के हदों को छूते हुए कहीं बहुत उसके पार निकल जाते हैं, और हमेशा की तरह, मज़ा यह कि सिर गिराकर रोते-गिड़गिड़ाते नहीं, उलटे, बड़ी मासूमियत से, अच्‍छे वक़्त की वापसी का अपने दु:स्‍साहसी तरीकों से इंतज़ार करते हैं. उनके दुस्‍साहस की हद होती है कि कभी-कभी सचमुच दु:ख ही गिड़गिड़ाता उनके रास्‍ते से हट जाता है..

लड़ि‍याहट में कॉउरिसमाकी और उनकी फ़ि‍ल्‍मों पर फिर कभी लिखूंगा, फ़ि‍लहाल ‘ड्रिफ्टिंग क्‍लाउड्स’ के एंड क्रेडिट का गाना ठेल रहा हूं.



फ़ि‍निश गाने का एक बेसिक अंग्रेजी तर्ज़ुमा यह रहा:
I didn't know what I'd found
when I asked you for a dance.
They played a song with a beat,
you said: come closer.

Everything hid away
when the moon got lost in the clouds -
and the park got dark
and there's always a reason why.

The band takes a break
and I ask to walk you home.
You just laugh in silence,
others turn to watch.

The night's not over,
the record plays forever-
all I can do is wait.
But the clouds are drifting far away,
you try to reach them in vain -
the clouds are drifting far away,
and so am I...
कॉउरिसमाकी की फ़ि‍ल्‍मों पर ज़रा एक डिटेली नज़र मारना चाहते हैं तो उसका लिंक यह रहा.

9/26/2008

तीन बंदर

आमतौर पर होता यह है कि काम लायक किसी निर्देशक की पहली फ़ि‍ल्‍म में स्‍पार्क होता है, बाद में, धीरे-धीरे फिर निर्देशक मियां फ़ि‍ल्‍म बनाने की नौकरी बजाने लगते हैं. तुर्की के नूरी चेलान की तीसरी व अपने लिए पहली फ़ि‍ल्‍म ‘उज़ाक’ मैंने कुछ वर्ष हुए देखी थी, उसके बाद ‘मौसम’ और कल, एनडीटीवी-लुमियेर व पीवीआर की मेहरबानी से, ‘तीन बंदर’ देखी, देखकर लगा चेलान हर नयी फ़ि‍ल्‍म के साथ अपने माध्‍यम के कलात्‍मक नियंत्रण की नयी ऊंचाइयां छू रहे हैं. टाईट शॉट्स में असहज चेहरों पर कैमरा होल्‍ड किये आत्‍मा के पतन को देखने का, यूं लगता है, चेलान ने एक नया स्‍टाईल इवॉल्‍व कर लिया है. चेलान के बारे में फिर कहूंगा, फ़ि‍लहाल इतना ही कि आप पीवीआर वाले सिनेमा के किसी महानगर में बसते हैं तो ज़रा सा उसका फ़ायदा उठाइये और इसके पहले कि दूसरे तमाशों में ‘तीन बंदर’ सिनेमाघरों से उठ जाये, जाकर चोट खाये चार क़ि‍रदारों के आत्‍मा के पतन की यह गहरी, गूढ़ सिनेमाई कविता देख आईये.

9/23/2008

किसे ज़रूरत है फ़ि‍ल्‍म समीक्षकों की?

किसी फ़ि‍ल्‍म की किस्‍मत का फ़ैसला उसकी समीक्षा करनेवालों की लिखायी से होना धीमे- धीमे क्रमश: हुआ है. ब्रितानी फ़ि‍ल्‍म पत्रिका साइट एंड साऊंड के ताज़ा अंक में निक जेम्‍स इस पर कुछ विस्‍तार से बता रहे हैं..

“We live in a culture that is either afraid or disdainful of unvarnished truth and of sceptical analysis. The culture prefers, it seems, the sponsored slogan to judicious assessment. Given that the newspapers are so in thrall to marketing, you might think that they would feel responsible for their own decline. But plenty of veteran hacks claim it was always like this…”

पूरा लेख यहां पढ़ें.