8/02/2008

द एसेंट ऑफ़ मैन

ओहो, बैठे-बिठाये कभी हाथ क्‍या लंगी लग जाती है, और ठीक से भी लग जाती है! आत्‍मा के परिहार, मुझसे पतित के उद्धार को, देखिये, हाथ एक डॉक्‍यूमेंट्री लग गयी है, और जबकि मैंने शनिचर का उपवास भी नहीं किया! सोमवार वाला ही शनिचर को कर लिया हो ऐसा भी नहीं. प्रभु भी क्‍या-क्‍या लीला करते रहते हैं.. मुझसे अज्ञानी को, बीस मर्तबा हरवाकर, फिर-फिर विज्ञानी बयारों की दिशा में उछालते रहते हैं, ब्रॉनोव्‍स्‍की साहब की दया से मानवता का ज़रा सा ककहरा समझ गया तो सबसे पहले आप अपनी खैर समझिये! होगा यही कि हर तीसरे पोस्‍ट में मैं विज्ञान बापू की तरह सामने आ जाया करूंगा, और आपका अज्ञान-निर्विज्ञान जो है घबराकर एकदम से पीछे चला जाया करेगा!

ख़ैर, द एसेंट ऑफ़ मैन की बाबत तारीफ़ एक मित्र से सुनता काफी पहले से रहा था, अब डॉक्‍यूमेंट्री पाने के बाद होगा यह कि मित्र को मुंह खोलने का मौका देने की जगह सीधे जनाब जेकॅब ब्रॉनोव्‍स्‍की को सुन सकूंगा. सुनने के साथ-साथ देख भी सकूंगा! और खुशी की बात है कि काफी देर तक देखता रह सकूंगा. पचास-पचास मिनट के तेरह एपिसोड्स हैं तो मतलब सीधे ग्‍यारह घंटों का गुरुज्ञान है (और आशाराम बापू वाले स्‍तर का नहीं ही होगा). ओहोहो, कैसी तो वित्‍तचित्रीय भक्ति उमड़ी पड़ रही है! अच्‍छा है आप एकता कपूरवाला महाभारत देखिये, मैं मानव महालीला देखूं!