4/30/2007

एक असुविधाजनक सच

करीब डेढ़ महीने से मुंबई में जैसी हवा है वह सुहानी बयार नहीं, गर्मी ही थी; मगर इधर चार दिनों से सुबह सात बजे से दोपहर चार तक बाहर खुले में जो आलम है, वह विस्‍मयकारी है. महसूस होता है मानो देह के रोंवों से लेकर उंगलियों के पोर, नाखून सब कहीं गर्मी चढ़ रही हो! मुंबई निवासी उमस और गर्मी से अपरिचित नहीं, लेकिन मैदानी प्रताप वाली ऐसी बम-बम हवायें, मेरी अपनी स्‍मृति में, शहर में एक नया (झुलसाऊ) तत्‍व हैं. आखिर इस मारक गर्मी का राज़ क्‍या है? सड़कों पर गा‍ड़ि‍यों और उनके धुंए की उपस्थिति बढ़ी है? कि नये बहुमंजिली कंस्‍ट्रक्‍शंस ने हवाओं का आना-जाना छेंक रखा है? इस तरह से और कितने वर्ष अपना जीवन खिंचेगी यह शहर? खिंच पायेगी? या यह महज इस शहर भर की कहानी नहीं, सब तरफ मौसमों में यह एक नया रंग आना शुरु हुआ है? मुख्‍य मुंबई में तो कम से कम बिजली बने रहने की गनीमत है, जहां लोगों को पंखे के नीचे होने की भी सहूलियत नहीं, वहां गर्मी की यह मार कैसे बर्दाश्‍त की जा रही है! एसी के आराम में बैठे हमारे नीति नियंताओं के पास इन झुलसाऊ सवालों का कोई जवाब है या नहीं?..

पिछले अमरीकी आम चुनाव के डेमोक्रेटिक प्रत्‍याशी अल गोर ने इन सवालों (जलवायु परिवर्तन) पर खासी चिंता की है, अपने ढंग से दुनिया के आगे समाधान भी प्रस्‍तावित किये हैं, और यह सब डेविस गगेनहाइम ने सौ मिनट की एक डॉक्‍यूमेंट्री में कैद किया है जिसका नाम है: एन इनकन्विनियेंट ट्रूथ (पिछले ऑस्‍कर में यही सर्वश्रेष्‍ट डॉक्‍यूमेंट्री के बतौर पुरस्‍कृत हुई थी). यह फिल्‍म इन दिनों भारतीय महानगरों के कुछ सिनेमाघरों में दिखाई जा रही है. पिछले ढाई वर्षों में इस फिल्‍म की बदौलत ग्‍लोबल वॉर्मिंग के संबंध में पर्यावरणवादियों की चिंता को काफी लोकप्रियता मिली है, और बहुत धीमी चाल से ही सही, ग्‍लोबल वॉर्मिंग के विषय ने मुख्‍यधारा की चिंताओं में अपनी जगह बनानी शुरु की है. आप के लिए संभव हो तो आप ही नहीं, दस-बीस जितने और लोगों तक इस फिल्‍म का प्रचार ले जा सकते हों, ले जावें. फिल्‍म देखें और दिखावें.

4/28/2007

चमत्‍कृत करनेवाला बैनर और इटली के एरमान्‍नो ओल्‍मी

जिस तरह अंगूठे और तर्जनी के बीच बच्‍चे का गाल दबा के मां पहली दफा स्‍कूल जा रहे लाडले के तेल चुपड़े केश संवारती है, फिर गर्व से आश्‍वस्‍त होकर उसे बाहर पठाती है; हम भी कुछ उसी अदा में कल देर रात अपने ब्‍लॉग के बैनर से छेड़छाड़ करते रहे. और बेचारे बच्‍चे के साथ हुई हिंसा वाले अंदाज़ में ही फेल्लिनी की व फेल्लिनी संबंधी दस तस्‍वीरों के जगर-मगर को ब्‍लॉग के माथे चिपका कर जब आत्‍मा से ‘ये क्‍या कर डाला’ का धुआं उठने लगा- तो थक-हार मानकर आश्‍वस्‍त हो लिये, और इसके पहले कि उसे और लबेरते, सेव करके बाहरी संसार में पठा दिया!

गुगल ने बैनर के साथ फोटो नत्‍थी करने का जो नया ऑप्‍शन दे दिया है, तो उस ऑप्‍शन को टटोलने के बाद अब हम उसकी तबतक चीरफाड़ करेंगे जबतक फोटोशॉप और हमारी आंखें फट कर बाहर न आ जायें! फेल्लिनी कब्र से कराहते हुए बाहर न निकल आयें- कि भैया, बहुत करम कर लिया, अब हमारी जान बख्‍शो! फेल्लिनी की फिल्‍म होती तो शायद ऐसा कुछ सचमुच घट भी जाता, मगर जानता हूं वास्‍तविक लोक में फेल्लिनी की जान का जो होना था 1993 में हो चुका है, वह जहां हैं वहीं पड़े रहेंगे और मुझको तबतक चैन नहीं पड़ेगा जब तक कंप्‍यूटर के फिल्‍मी फोल्‍डर को आमूल-चूल एक्‍शॉस्‍ट न कर लूं! खलिहागिरी में ‘क्रियेटिव एंगेजमेंट’ का बहाना और मसाला दोनों हो गया, और कम स कम सामग्री के स्‍तर पर न सही (जैसाकि पीछे हफ्ते भर से हो रहा है), बैनर के स्‍तर पर सिलेमा में आपको नवीनता मिलेगी, इसका वादा है!

आज वर्षों बाद तिबारा एरमान्‍नो ओल्‍मी की ‘द ट्री ऑफ वुडेन क्‍लॉग्‍स’ (अंग्रेजी में शीर्षक) देखी. लगभग तीस वर्ष पहले बनाई बहुत ही विशिष्‍ट फिल्‍म है. अनुभव की महक से अभी तक गमक रहा हूं. आनेवाले दिनों में जल्‍दी ही उसकी चर्चा पर लौटूंगा. तबतक आप फेल्लिनी का बैनर देखकर चकित रहिये, और चकित रहते-रहते आजिज आने लगें तो थक कर हमारी तारीफ़ भी कर डालिये.

4/25/2007

अकड़ अकड़ के बिगड़ बिगड़ के

समाज, देश, समय, विश्‍व, ब्‍लॉग को तोड़ने की बहुआयामी साजिशें चल रही हैं, उस लिहाज से पवित्र पापी जी की यह रचना अब भी उतना ही मौजूं हैं जितनी जब 1959 में लिखी गई थी तब थी.

और इसका असर तब के समाज पर भी इतना असरकारी था कि कोई जनाब नाम बदलकर कैफ़ी आज़मी के नाम से शायर हो गए और उन्‍होंने चुपके से इस रचना को सचिन दा की जेब के रास्‍ते से क़ागज के फूल जैसी एक फ़ि‍ल्‍म में डाल दिया था, पर उपयुक्‍त असर पैदा करने में असफल रहे थे. आप स्‍कॉच की तरह धीरे-धीरे आनंद लीजिये; असर पैदा होगा, धीरे-धीरे...


एक दो तीन चार और पांच
छे और सात, आठ और नौ
एक जगह सब रहते थे
झगड़े पर थे उनमें सौ

नौ ने कहा आठ क्‍या
छोटे का ठाठ क्‍या
आठ हंसा सात पे
तुफ़ तेरी ज़ात पे
सात ये बोला छे से
तू हंसा कैसे

अकड़ अकड़ के बिगड़ बिगड़ के
झगड़ा झंझट खिच-खिच करके
सबने सबको फटकारा
रह गया सबका मुंह तक के
सबसे छोटा एक बेचारा
एक दो तीन...

एक बेचारा तनहा-तनहा
फिरता था आवारा-सा
सिफ़र मिला उसे रस्‍ते में
बेक़ीमत आवारा-सा
एक ने पूछा तुम हो कौन
उसने कहा मैं सिर्फ़ सिफ़र
एक ने सोचा मैं भी क्‍या
सबसे छोटा और कमतर
मिल गए दोनों बन गए दस
चमका क़ि‍स्‍मत का तारा
एक दो तीन...

एक को जब दस बनते देखा
सबने सिफ़र को रोका-टोका
नौ ने प्‍यार से आंख मिलाई
आठ ने सौ-सौ बात बनाई
सात ने रंगीं जाल बिछाए
छे ने सौ तूफ़ान उठाए
घटा-घटा के मिटा-मिटा के
सिफ़र को एक से दूर हटा के
छीना एक दूजे का सहारा
एक बेचारा तन्‍हा तन्‍हा
फिरने लगा फिर से आवारा...

4/10/2007

कविवर श्री पवित्र जी पापी और नये रास्‍ते

अभी अभी यह तथ्‍य प्रकाश में आया है कि मीडिया में चंद फोड़क व फाड़क तत्‍व पापी जी की पवित्र रचना को साहिर(?) का लिखा बताकर कविता (इलाहाबाद की मुट्ठीगंज वाली नहीं हिंदी साहित्‍य वाली) को ही नहीं जनता को भी गलतफ़हमी का शिकार बना रहे हैं. क्‍या जनता पहले से ही पर्याप्‍त गलतफ़हमी नहीं पाले हुए है? कि आप उसे गलतफ़हमियों का एक्‍स्‍ट्रा बैगेज दे रहे हो? आप मीडिया होकर क्‍यों मंडी (हिमाचल वाली नहीं बाज़ारवाली) की तरह बिहेव कर रहे हो? इस देश में जिम्‍मेदारी का भाव क्‍या जवाहरलाल के उठने के साथ उठ गया है? हद है मीडिया वालो!

ख़ैर, जनता-जनार्दन, अपने अशिक्षित, अर्द्धशिक्षित कानों से आप पापी जी की महान रचना स्‍वयं सुनें और तय करें क्‍यों भला साहिर जैसा सतही कवि ऐसे दिलफ़रेब रचना का क्रेडिट (आईसीसीआई बैंक का नहीं काव्‍य रचने का क्रेडिट) हड़पना चाहता है?

तो, खिदमत में पेश है, आशा पारेख महकती हुई, जितेंद्र लहकते हुए और पवित्र जी पापी जी ‘समाज को बदल डालो’ वाली तर्ज़ पर सुलगते हुए. दिल को तोड़कर मरोड़ देनेवाली इस युग प्रवर्तनकारी रचना का शीर्षक है ‘नया रास्‍ता’. पेश है:

पोंछ कर अश्‍क अपनी आंखों से
मुस्‍कराओ तो कोई बात बने
सिर झुकाने से कुछ नहीं होगा
सिर उठाओ तो कोई बात बने

जिंदगी भीख में नहीं मिलती
जिंदगी बढ़ के छीनी जाती है
अपना हक़ संगदिल ज़माने से
छीन पाओ तो कोई बात बने

रंग और भेद जात और मज़हब
जो भी हो आदमी से कमतर है
इस हक़ीक़त को तुम भी मेरी तरह
मान जाओ तो कोई बात बने

नफ़रतों के जहां में हमको
प्‍यार की बस्तियां बसानी है
दूर रहना कोई कमाल नहीं
पास आओ तो कोई बात बने
पोंछ कर अश्‍क एटसेट्रा एटसेट्रा..(1)
अय हय, अय हय, क्‍या बात है! बहुत खूब, पापी साहब, वन्‍स मोर, जनाब!..

पापी दा ने कमाल की चीज़ ही नहीं लिख मारी थी, बेकमाल जितेंद्र और बेसिर पैर की आशा पारेख के मुंह में सोशल मैसेज तक फिट कर दिया था! फिर भी मीडिया गुमराह हो रही है तो वह हो नहीं रही, आपको-हमको गुमराह कर रही है! क्‍या “नफ़रतों के जहां में हमको प्‍यार की बस्तियां बसानी हैं” जैसी पंक्तियां लिखकर पापी जी सीधे-सीधे नफ़रतों का मोहल्‍ला बनाने वालों पर अटैक करते हुए उन्‍हें प्‍यार की बस्तियां बसाने के राह पर लाने की सामाजिक कोशिश नहीं कर रहे? आपको दिख नहीं रहा? क्‍या आप अंधे हैं?

हद है, यार!

ऊपर फोटो: आशा पारेख नहीं डिंपल के साथ जितेंद्र एक अप्रगतिशील नृत्‍य मुद्रा में. संदेश वही: समाज को बदल डालो.

(1). मौलिक रचनाकार: कविवर श्री पवित्र जी पापी जी, अप्रगतिशील ग्रंथमाला, भाग दो खंड तीन के 'नये रास्‍ते' में संकलित

4/05/2007

सामयिक यूरोप का असुविधाजनक टिकट

टिकेट्स (2005), निर्देशक त्रयी: ओल्‍मी, क्‍यारोस्‍तामी, लोच

एक घंटे पचास मिनट की फिल्‍म. इंटरसिटी रेल के सुविधा-संपन्‍न व उतने आरामदेह नहीं डिब्‍बे. इंस्‍ब्रुक से रोम तक आज के यूरोप की अस्थिरता, बेचैनियों से भरा सफर. और इस सफर के अलग-अलग पड़ावों पर एक बिंदु से कथा उठाकर दूसरे बिंदु तक उसे छोड़ आने को तीन अलग-अलग निर्देशक. ओरमान्‍नो ओल्‍मी (इटली), अब्‍बास क्‍यारोस्‍तामी (ईरान) और केन लोच (यूके). मैं फिल्‍म की कहानी के विस्‍तार में जाकर शब्‍द नहीं खाऊंगा. कहानी यहां सामयिक यूरोप की परतों को दर्शाने का जरिया भर है. एक बुज़ुर्ग प्रोफेसर के गुज़रे ज़माने की कोमलता वर्तमान के भय व आशंकाओं के बीच अपने भावभीनेपन को जिलाये रखने की छोटी कोशिशें करती है. उसके स्‍वायत्‍त, सुखी संसार की तकलीफ़ बुढ़ापा उतनी नहीं जितनी शहरी जीवन को लगातार घेरते असुरक्षा के खतरे और रोज़-बरोज़ के जीवन की हिंसा है. असहनशीलता है. वृहत्‍तर पैमाने का सामाजिक कटाव है (यह सेगमेंट सिनेमा के पुराने माहिर हाथ ओल्‍मी ने हैंडल किया है). अगली कड़ी एक अपेक्षाकृत लेड-बेक और उदासीन नौजवान और उसकी जबर जीना हराम करती मां के बारे में है. धीरे-धीरे हम इस रिश्‍ते, और सामयिक समाज के तनावों की और गहरी पेचिदगियां खुलता देखते हैं. निरपेक्ष बने हुए लगातार स्‍तंभित करते रहने की यहां परिचित क्‍यारोस्‍तामी का कमाल हमारे हाथ लगता चलता है. केन लोच की आखिरी कड़ी रोम में अपनी टीम का मैच देखने जा रहे तीन सेल्टिक लड़कों की अपनी छोटी सीमित दुनिया की पहचान और फिर एक अल्‍बानियन शरणार्थी परिवार के दुखों में हिस्‍सेदार होकर वृहत्‍तर यथार्थ से जुड़ने की मानवीय बेचैनी है. आज का इंप्रेसनिस्टिक सिनेमा अपने डेंस लेयर्स में हमें अभी भी काफी कुछ देता रह सकता है, टिकेट्स उसका बेहतर व मर्मस्‍पर्शी उदाहरण है.

4/01/2007

एप्रिल वाला फ़ूल के फल

एप्रिल फ़ूल बनाया तो उनको गुस्‍सा आया (‍उनको.. किनको? सायरा बानो को. लगे हाथ ये भी क्लियर कर लीजिये वाला अप्रैल नहीं वाला एप्रिल, और में नुक़्ता वाला फ़ूल). मेरा क्‍या क़सूर, ज़माने का क़सूर, जिसने दस्‍तूर बनाया (सुबोध मुखर्जी के पैसे पर ये ऑन स्‍क्रीन घोषणा करनेवाले साहब हैं विश्‍वजीत. ऑफ स्‍क्रीन असली हल्‍ला शंकर जयकिशन के गाजे-बाजे पर रफ़ी साहब कर रहे थे). सोचकर कभी-कभी आपको तक़लीफ होने लगे कि रफ़ी साहब ने भी क्‍या-क्‍या हल्‍ला किया है. और भारतीय रुपहले पर्दे पर आज ही नहीं पहले भी हसीनाओं को किस-किस तरह के जोकर (यहां संदर्भ बंगाल के लाल विश्‍वजीत से है) जीतते रहे हैं. सायरा बानो ही नहीं वहीदा रहमान तक ऐसे नमूनों पर फिदा हो जाया करती थीं (बीस साल बाद याद है? हेमंत कुमार जैसे सुरीले सज्‍जन अपना पैसा डालकर यह गंदा खेल करवा रहे थे. बिरेन नाग ऐसे खेल को डायरेक्‍ट भी कर रहे थे. हद्द है.)! सायरा बानो का तो फिर भी ठीक है लेकिन वहीदा रहमान विश्‍वजीत पर अपने डरे-डरे नयन और भरे-भरे ज़ाम लुटाने को कैसे तैयार हो गईं समझना मेरे लिए पहेली है! सायरा को तो, चलो, सुबोध मुखर्जी ने कहा होगा भई, असल मुहब्‍बत की आग में नहीं तपना है सिर्फ़ एप्रिल फ़ूल बनना है सो वही नहीं उनकी अम्‍मी नसीम बानो तक तैयार हो गईं (फिल्‍म में बेटी को सजाने-संवारने का जिम्‍मा यानी कॉस्‍ट्यूम अम्‍मीं जान ही हैंडल कर रही थीं).

विश्‍वजीत ने तब की थी अब जीतू भैया खेल रहे हैं. पता नहीं ज़माने ने जिसको ऐसा विरूप बनाया है, या ज़माने को जो विरूप बनाने पर तुला हुआ है, सुबह से नारद पर बुश का बसाता कलैंडर चढ़ाये हुए हैं. देबू भैया एनडीटीवी के बहाने अविनाश के मोहल्‍ले पर कंकड़ (यानी अप्रैल का फूल) फेंक रहे हैं. दूसरी ओर एक अभय तिवारी हैं जिन्‍होंने किसी और को बनाने का मौका न देकर खुदी को आज फ़ूल का शूल दे लिया है. कॉरपोरेशन वाले भी खूब ठिल्‍ल-ठिल्‍ल हो रहे होंगे कि तिवारी जी ने उनके खिलाफ़ अपना स्‍कूप आज के शुभ दिन ही सार्वजनिक किया. पब्लिक यही समझेगी नहीं समझ रही है कि कंपनी-पिशाच का कच्‍चा-चिट्ठा नहीं, अप्रैल वाला फूल बरस रहा है.

आप सुबह से बने हैं या नहीं? कैसे नहीं बने हैं? रवीश कुमार ने फोन करके आपको किसी राष्‍ट्रीय दुर्घटना से अवगत नहीं कराया? अरे, फिर इंडियन एक्‍सप्रैस में हिंदी ब्‍लॉगिंग वाली ख़बर खोजते-खोजते आप अपने पर कुढ़ने के बाद किसी और पर भी चिढ़े हांगे! वो भी नहीं? तो चलिये, आपका अरमान पूरा कर ही दिया जाए. वहां पहुंचिये जहां हम जा रहे हैं. और बनने की बजाय अगर अरमान बनाने वाला है तो हमारे पीछे लाईन में आकर खड़े हो जाईये. अंदर से हम विश्‍वजीत, जितेंद्र, राजकुमार वाला सफेद शर्ट, सफेद पैंट, सफेद जूता-सूता डाट कर विश्‍व को जीतनेवाला रूप ले लें. डेढ़-दो घंटे में नहीं लौटा तो समझियेगा परफ्यूम की प्रचुरता के असर में बेहोश हो गया हूं, या फिर आप शुद्ध रूप से बने हैं. एप्रिल वाला फ़ूल.