9/04/2007

रैटाटुई

साल: 2007
भाषा: अंग्रेज़ी
लेखक व डाइरेक्टर: ब्रेड बर्ड
अवधि: 110 मिनट
रेटिंग: ****

आसपास किसी सिनेमा में लगी हो तो बीच में कभी फुरसत लहाकर ‘रैटाटुई’ देख आइए. बेसिक इमोशंस को झिंझोड़ने, ज़रा बेहतर इंसान बना सकने की सिनेमा की ताक़त पर एक बार फिर भरोसा जगेगा (जो विशेषता आजकल आमतौर पर फ़ि‍ल्‍मों से क्रमश: छिनती गई है; सिनेमा हॉल में बैठे हुए व बाहर निकलकर आप थोड़ा और विवेक व समझदारी लेकर बाहर निकलें, ऐसा अब होता भी है तो बहुत कम होता है)..

रैटाटुई पिक्‍सार की एनिमेशन फ़ि‍ल्‍म है जो उन्‍होंने वॉल्‍ट डिज़्नी के लिए बनाई है. कहानी ये है.. कहानी रहने दीजिए, मैं कहानी सुनाने लगूंगा और आप खामख्वाह बैठके बोर होइएगा! कथासार का लब्‍बौलुवाब यह है कि समाज और दुनिया की बनाई पूर्वाग्रही तस्‍वीरों में उलझने और जकड़कर रह जाने की जगह अपनी आत्‍मा की राह पर निकलना चाहिए.. देर-सबेर उसे पहचाना जाता है.. प्रशस्ति मिलती है.. यहां संदर्भ रेमि नाक के एक चूहे की है जो अपनी बिरादरी के ‘चुराके खाओ और अपनी औकात में रहो’ के मुल्‍य की जगह अपनी खोज व सिरजने की राह पर निकलता है, व तमाम अवरोधों के पश्‍चात पाक विद्या के गढ़ में स्‍नेह व इज़्ज़त हासिल करके रहता है.

कहानी अच्‍छी चाल से आगे बढ़ती है, बच्‍चे हंसते रहते हैं तो लगता है सबका मनोरंजन हो रहा है.. मगर फिर, बीच-बीच में ढेरों ऐसे मौके बनते हैं जब फ़ि‍ल्‍म का स्‍वर अचानक एकदम ऊपर उठकर विशुद्ध सिनेमा हो जाता है, और आपके मन के गहरे कोनों में अंतरंगता व समझ की मीठी थपकियां छोड़ जाता है! काफी सारे प्रसंग हैं जब रैटाटुई का लेखन और किरदारों की डेलिवरी बड़ी उम्‍दा महसूस होती है. आंतोन इगो व लिंग्विनी की आवाज़ों के लिए क्रमश पीटर ओ’टूल और लू रोमानो का काम दाद के काबिल है.

सोचिए मत, जाकर फ़ि‍ल्‍म देख आइए.

1 comment:

Yunus Khan said...

ठीक है हम तो जे चले