9/13/2007
इकिरू
साल: 1952
भाषा: जापानी
डायरेक्टर: अकिरा कुरोसावा
लेखक: शिनोबू हाशिमोतो, अकिरा कुरोसावा
रेटिंग: ***
काफ़ी सारे लोग इकिरू को कुरोसावा की सबसे अच्छी कृति मानते हैं। जबकि कुरोसावा की बनाई गई इकत्तीस फ़िल्मों में रोशोमॉन, मदादायो, रान, देरसू उज़ाला, कागेमुशा, योजिम्बो, स्ट्रे डॉग और सेवेन समुराई शामिल हैं- सब मास्टरपीस। अगर मैंने इनमें से कोई फ़िल्म नहीं देखी होती तो मैं विश्वास से कह देता कि इकिरू ही कुरोसावा की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म होगी। आधार यह होता कि इससे बेहतर क्या बनाएगा कोई। मगर मैंने इनमें से कुछ फ़िल्में देखीं है और मैं फ़ैसला नहीं कर सकता कि कौन सी सबसे अच्छी है।
न दिलचस्प है न मज़ेदार बस निहायत मामूली आदमी- जिसने तीस बरस तक बिलानागा सिटी हॉल में एक सेक्शन चीफ़ की नौकरी बजाई है- कहानी है इस आदमी की जिसे पता चलता है कि उसके जीवन के सिर्फ़ छै माह और बचे हैं। मृत्यु को अपने इतना करीब पा कर इस आदमी के भीतर यह एहसास जागता है कि उसने अभी तक कितना अर्थहीन जीवन जिया है या जिया ही नहीं है। पहले ही जीने की कला भूल चुका यह आदमी अब अपने बचे हुए जीवन को पूरी उमंग से जीना चाहता है लेकिन नहीं जानता कैसे!
हम देखते हैं उसे रात की रंगीनियों में ज़िन्दगी को खोजते, शराब पीते, लहराते, गिरते, वेश्याओं के बीच चिल्लाते.. मगर जीवन नहीं मिलता उसे। मिलता है एक ऐसी जगह जहाँ उसने उम्मीद न की थी.. और वहीं से मिलती है प्रेरणा अपने शेष दिनों को एक सार्थक रूप देने की।
इकिरू का यह अभिशप्त नायक आधी फ़िल्म में ही मर जाता है और उसके बाद भी फ़िल्म एक घण्टे तक जारी रहती है। आप पहले से भी ज़्यादा साँस साध कर देखते रहते हैं उसकी मृत्यु पर आयोजित शोक-सभा का कार्य-व्यापार। उस लम्बे सीक्वेन्स को देखते हुए मुझे मुहर्रम की याद हो आई है- इमाम हुसेन की शहादत को आँखों से देखने वालों का कलेजा इतना नहीं कटा होगा, जितना उनकी कहानी को साल-दर-साल सुनते हुए कटता है। ये कहानी सुनाने की ताक़त ही होती है जो पत्थर-दिल मर्दों को भी सिनेमा हॉल के भीतर आँसुओं में पिघला देती है।
इकिरू का अंग्रेज़ी नाम मिलता है- टु लिव। समझ में आता है- मगर किस तरह जिया जाय इस बात को कुरोसावा कहीं किसी संवाद में किसी किरदार से कहलाते नहीं। जीवन के प्रति उनका विचार इकिरू देखने के अनुभव के बाद स्वतः उपज आता है आप के मन में।
आज की तारीख में भी लोग इस तरह का स्क्रिप्ट डिज़ाइन अपनाने में घबराएंगे उस समय तो यह निश्चित ही क्रांतिकारी रहा होगा। कुरोसावा कहानी सुनाते-दिखाते हुए कभी हड़बड़ी में नहीं रहते। जिस पल में रहते हैं, उस में रमे रहते हैं और अपने दर्शक को भी रमा देते हैं। समय को साधने की यह कला ही उन्हे एक महान निर्देशक बना देती है।
इकिरू व्यक्ति, समाज और जीवन तीनों के भीतर एक गहन दृष्टि डालती है। ऋत्विक घटक की सुबर्णरेखा का एक महत्वपूर्ण सीक्वेन्स और ऋषिकेश मुखर्जी की आनन्द इकिरू के प्रभाव में बनाई गई थी।
-अभय तिवारी
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5 comments:
आपका सिनेमा संबंधी ज्ञान चमत्कृत करता है. रैटाटुई की समीक्षा दिलचस्प है. (आपके ब्लाग से ही इसका उच्चारण सीखा). सिनेमा पर मेरा भी फुटकर टिप्पणियों का एक ब्लाग है. इन दिनों मैं बैंगलोर से शीघ्र लांच होने वाले एक न्यूज पोर्टल में एडीटर हूं. क्या आप हमारे यहां लिखना पसंद करेंगे..
www.indianbioscope.blogspot.com
is mahatvapuran lekhan ke liye shukria
फिल्मों की समीक्षा करने वाले इतने दिलदार होते है पता नहीं था। माफ किजिएगा पहली बार आपको पढ़ा है इस लिए पूछ रहीं हूं क्या हिन्दी सिनेमा की भी आप इतनी निष्पक्षता से समीक्षा करते हैं।
फिल्मों की समीक्षा करने वाले इतने दिलदार होते है पता नहीं था। माफ किजिएगा पहली बार आपको पढ़ा है इस लिए पूछ रहीं हूं क्या हिन्दी सिनेमा की भी आप इतनी निष्पक्षता से समीक्षा करते हैं।
अच्छी कृति| मैंने अकीरा कुरोसावा की लगभग सारी फिल्मे देख ली हैं जिसमे सबसे पसंद आने वाली फिल्मे हैं स्ट्रे डॉग, ड्रंकन एंजल, राशोमोन, सेवन समुराई, हाई एंड लो, इकिरू, बैड स्लीप वेल, आई लिव इन फीअर, रेड बीअर्ड, देरसू उज़ाला, कागेमुशा, रैन वगैरह, केवल एक फिल्म इडियट ने मुझपर कोई ख़ास प्रभाव नहीं छोड़ा, शायद इसीलिए की वह लम्बी और धीमी गति की फिल्म थी| कुरोसावा की फिल्मों में जिन अभिनेताओं ने मुझे सबसे ज्यादा अपनी कला से प्रभावित किया हैं वह हैं तोशिरो मिफूने, तात्सुया नकदई और ताकाशी शिमूरा| खेद की बात हैं की आज कुरोसावा और सत्यजित रे जैसे महान निर्देशक और तोशिरो मिफूने और ताकाशी शिमूरा जैसे कलाकार अब नहीं हैं| लेकिन इनकी ख्याति अगले काफी सालों तक रहेगी| आज ज़रुरत हैं की हम इन कृतियों को संभाल कर रखे ताकि आने वाली पीड़ियाँ इनके योगदान को याद करे और इनसे प्रेरणा ले|
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