11/15/2021

कूड़ंगल के कंकड़

इस वर्ष भारत से ऑस्‍कर नॉमिनेशन में भेजी गई फ़ि‍ल्‍म में मदुरई के देहातों के सूखे मैदान हैं। दो-तीन किरदार हैं उनके साथ कैमरा आगे-पीछे, लिंगर करता, चलता रहता है. हैंड-हेल्‍ड और स्‍टेडीकैम के लंबे-लंबे शॉट्स हैं. ग़रीबी की दुनिया है तो मोस्‍टली किरदारों के पैर नंगे हैं, नंगे पैरों के बलुआही सूखी ज़मीन पर चलने का धम्-धम् कुछ गूंजता-सा बजता रहता है. यही आवाज़ें हैं, या फिर गुस्‍से, झुंझलाहट और झगड़ों की गूंजें. संवाद बहुत ज़्यादा नहीं हैं, शायद फ़ि‍ल्‍म की एक-चौथाई भी न हो. पसीने और ग़रीबी में सुनसान व पत्‍थर हो रहे चेहरों की ठहरी हुई दुनिया है. देहाती ग़रीबी के सुनसान और चेहरों का लैंडस्‍कैप मन में बनता, मथता रहता है.

सात-आठ साल का बच्‍चा है वेलु, मां गोद की बेटी को लेकर नैहर निकल आई है, बेवड़ा बाप बीवी की गुस्‍ताखी पर तिलमिलाया हुआ है, नाराज़ है, बेटे से, ससुराल से, पूरी दुनिया से, बेटे पर अपनी भड़ासों का बोझ लादे, बेटे को साथ लेकर बीवी की खोज में निकला है, यही इतनी-सी फ़ि‍ल्‍म की कहानी है.  सात साल के ज़रा-से बच्‍चे के चेहरे पर जो असमंजस का सुनसान तना रहता है, वही फ़ि‍ल्‍म की कविता है. बहुत दुर्भाग्‍यपूर्ण है हिन्‍दी फ़ि‍ल्‍मों में ऐसी रियलिस्टिक कास्टिंग नहीं होती.  बेमतलब की अमीरी के हज़ारों होंगे, ग़रीबी के चेहरे हिन्‍दी के कास्टिंग डायरेक्‍टरों के पास नहीं.

फ़ि‍ल्‍म का कैमरावर्क बहुत सधे हाथों का नहीं, बहुत सारे फ्रेम्‍स अटपटी नाट‍कीयताओं में उलझते रहते हैं. मगर लैंडस्‍कैप के रंगों में संवेदना और गहराई है. चेहरों में है. और दूसरी अच्‍छी बात ग़रीबी के सुनसान का साउंड ट्रैक है, अनावश्‍यक बैकग्राउंड स्‍कोर की कैसी, किसी भी तरह की भराईनहीं. और एक घंटे तेरह मिनट की फ़ि‍ल्‍म की लंबाई दुरुस्‍त है. पीएस विनोथराज की पहली फ़ि‍ल्‍म है, आगे वे और अच्‍छा करें इसकी उन्‍हें बहुत शुभकामनाएं.

11/08/2021

द ग्रेट व्‍हॉट, नो क्‍लू

देह पर 'बावर्ची' का कॉस्‍ट्यूम  चढ़ाये वैसे भी तबीयत किसी को थप्पड़ मारने को मचल रही थी. थप्पड़ नहीं मारा, किताब हवा में उछाल दिया. पतला-सा नॉवल था, अंग्रेजी में, बेशऊर उड़ा, बेहया तरीके से जया के पैरों के पास गिरकर ढेर हुआ. जया सूती फूलदार सिंपल साड़ी में थी, घुटनों पर हाथ जोड़े, बरामदे की सीढ़ि‍यों पर गुमसुम बैठी, सामने तकती जाने क्या सोच रही थी, गिरी किताब का नहीं सोचा. किताब गिरी रही. पेपरबैक. अंग्रेजी की. राजेश झींकता, आकर सीढ़ि‍यों के पहलू खड़ा हो गया. जया अपने में थी, नहीं ली नोटिस. स्टार को तक़लीफ़ हुई. स्टार को हमेशा तकलीफ़ होती रहती थी. तक़लीफ़़ होने के पहले ही वह बेचैन होने लगता कि हो रही है, और आस-पास दूसरे परेशान कैसे नहीं हो रहे? दूसरों की परेशानी की स्टार बहुत सोचता. फ़ि‍लहाल वह जया के परेशान नहीं होने से परेशान था. 

राजेश : तुम्हारे लंबू ने पढ़ी है ये किताब?

राजेश ने ज़मीन पर बेमतलब हो रही पेपरबैक की तरफ़ इशारा किया. जया ने इशारा देखा, किताब नहीं देखी. 

जया : प्लीज़, काका, मैं फिर कह रही हूं, आप अमित जी को लंबू मत बुलाया करो! 

काके ने जवाब नहीं दिया. लेने का काका को शौक था, देना, साधारण जवाब भी, काका को बेचैन और परेशान करता. ऋषि दा को भी शिकायत थी काका आनसर क्यूं नई करता? माथाये पाथर कलेक्शन किया है, क्या  रे? नो जवाब. नथिंग. तुमारा आगे मैं टोटल टायर हो जाता, काका, सच्ची! 

अमित जी लंच के बाद अनवर अली और जलाल आगा के साथ जलाल की फियट में आये. फुसफुसाकर जया से कहा आपके हीरो ने मुझे हलो नहीं कहा. फिर. जया ने हाथ की किताब अमित के हाथ थमाते सवाल किया, ये पढ़ा है आपनेे?

फित्ज़जैरल्ड . ग्रेट गेट्सबाई. अमित ने सवा सौ पृष्‍ठों के पेपरबैक के पेज़ उलटे-पुलटे. जया को बुक बैक कि‍या, मुंह फेरकर कहीं और देखने लगेे. 

उस लड़की को नहीं देख रहेे थे जिसे उड़ती नज़रों से 555 के तीन कश लेते एक भरी नज़र काका ने देखा और थोड़ा असमंजस में परेशान होते रहे कि शायद बंगाली है. शायद ऋषि दा के पीछे-पीछे आई है. मगर अभी तक ऑटोग्राफ़ के लिए मेरे पास क्यों नहीं आई? इसने पढ़ी होगी किताब? चूमना जानती है? रियल चुम्मी ? तब तक फिर किताब का ख़याल आया और शक्ति (सामंत) से झुंझलाहट हुई. क्या सोचकर दी थी किताब? या सचिन (भौमिक) ने दी थी? राजेश को याद नहीं. राजेश याद करना चाहता है सुबह सात बजे किसी प्रोड्यूसर का फ़ोन आया था. गुजरात में प्रापर्टी खरीद देगा जैसी बकवास बातें कर रहा था. राजेश ने गालियां देकर उसका मुंह बंद किया था. या गालियां रुपेश (कुमार) ने दी थी? राजेश को याद नहीं. 

दादा का एक असिसटेंट भागता आया, सुरेश, या दिनेश. काका, आपके लिए फ़ोन है- नंदा मैम का! 

ये क्‍या चाहती है? मैं इसके साथ अब और फि‍ल्‍म करना नहीं चाहता! 

राजेश ने कहा जाकर बोलो, शॉट चल रहा है.  

सुरेश, या दिनेश, पलटकर जाने को हुआ, काका ने पीछे से आवाज़ दी, सुन! गाना जानता है?

लड़का अब लड़का नहीं रहा था, फिर भी काका को हमेशा समझ लेना उसी के क्या, उसके उस्ताद के भी वश की बात न थी.  

हां और ना और हां के बीच की किसी मुद्रा में उसने सिर हिलाया. 

राजेश ने एकदम से गाना शुरु किया. तुझपे फ़िदा, मैं क्यूँ हुआ, आता है गुस्सा मुझे प्यार पे, मैं लुट गया.. मान के दिल का कहा, मैं कहीं का ना रहा, क्या कहूँ मैं दिलरुबा, बुरा ये जादू तेरी आँखों का, ये मेरा क़ातिल हो गया.  गुलाबी आँखें, जो तेरी देखी, शराबी ये दिल हो गया. 

जा, नंदा से बोलना काका इज़ मिसिंग यू! और सुन, ये किताब लिये जा, पूछना उसने पढ़ी है?

(किताब अंजू महेन्‍द्रू ने भी कहां पढ़ी थी? मुमताज़ का मानना है उसने काका को भी ठीक से नहीं पढ़ा. शशि कपूर का मानना रहा खन्‍ना वॉज़ अ बैड बुक. यू कुड गो ऑन रीडिंग हिम फॉर आवर्स, दैन ‍रियलाइज़ यू वर नॉट रीडिंग, द बुक वॉज़ नेवर देयर, इन फैक्‍ट देयर वॉज़ नथिंग देयर. डिंंपल कहती हि‍ वॉज़ अ बैड एक्‍टर, शशि कपूर, एक्‍सेप्‍टेड. बट द मैन वॉज़ अ ग्रेट चार्मर. एंड अ गुड रीडर ऑफ पीपल. शशि साहब ने ही कहा तुम सत्‍यदेव दुबे के नाटकों से दूर रहो, बच्‍ची हो, बरबाद हो जाओगी.) 

भीम की जय

यह जिस पर लोग बहुत ‘जय’, ‘जय’ कर रहे हैं, मेरे पास लिखने को कुछ नहीं है, सिवाय इसे याद करने को कि राष्‍ट्रीय हिंदी सिनेमा से क्षेत्रीय, और ख़ास तौर पर दक्षिण का सिनेमा आत्‍मविश्‍वास से चार कदम आगे चलने लगा है. मगर इतना ही, इससे आगे कहने पर मुंह बंध जाता है. ‘सरदार उधम’ के बारे में भी नहीं था. हां, उसमें यह बात थोड़ी बेहतरी वाली थी कि ड्रामा के तत्‍व ज़रा कम, अंडरप्‍लेड थे. एक सुर में कहानी आगे-पीछे घूमती चलती थी, सुजीत सरकार का सिनेमा हालांकि निजी तौर पर मुझे पसंद है, मगर 'उधम' में दिलचस्‍पी बनाये रखना मेरे लिए मुश्किल काम हो रहा था. ख़ैर, उधम के बरक्‍स ‘जय जय’ में ड्रामा बहुत-बहुत है. शुरुआती पंद्रह मिनटों के बाद बाकी के एक सौ पचास मतलब खालिस ढाई घंटे, एक लूप की तरह पलट-पलटकर दलितों की पिटाइयां हैं. उनकी चीख़-चीत्‍कार, दुर्गति, तबाहियों की रीपीटिटीव तस्‍वीरें हैं, लोगों के जीवन में झांकने, समझने की कोई इन्‍वॉल्विंग अंतरंगता नहीं है, न पिटते दलितों की बाबत, न उन्‍हें पीटनेवालों की दुनिया के बारे में. जो है वह बड़ा संक्षिप्‍त और वन लाईनर नुमा है, ज़्यादा सारा कुछ नुक्‍कड़ नाटक की बुनावट-सा है. प्रतिकारी, क्रांतिकारी नायक वक़ील चंद्रु के चेहरे पर कभी भाव नहीं आते, एक बेजान मुर्दनगी तनी रहती है, सोच के पेचीदा क्षणों में वह दीवार पर बॉल फेंककर उसे कैच करता रहता है, मैं भी रह-रहकर फिल्‍म कैच करने की कोशिश कर रहा था, थोड़ी देर बाद हिम्‍मत ने जवाब दे दिया.

11/04/2021

हैप्‍पी दीवाली

राजू का रोज़ी से एक वादा रहा होगा, मेरा एमानुएल देवोस से नहीं रहा। कभी नौबत नहीं आई। एक क्रिसमस कथादेखते समय यह बात ख़याल में आई थी कि फुसफुसाकर एमानुएल से कह दूं, कि आरनॉ देस्‍प्‍लेंसां ने फ़ि‍ल्‍म में इतना ज़रा-सा रोल दिया, और उसमें भी तुमने चार चांद लगा दिया, कैसे किया भला? एमानुएल कुछ नहीं बोली। अच्‍छे एक्‍टर बहुत बार बहुत देर बाद बोलते हैं। कथा के कुछ वर्षों पहले ज़ाक ऑदियार की एक फ़ि‍ल्‍म आई थी, “मेरे होंठ पढ़ो”, इस बार भी एमानुएल थी, विन्‍सेंट कासेल के साथ। मैं कहीं नहीं था। कहीं का नहीं था। आवाज़ नहीं थी। शोर और तोड़-फोड़, घबराहटों की थी, एमानुएल के नहीं थी। उसका किरदार ही म्‍युटेडथा, कुर्सी पर बैठी वह दूर से तकती रहती और लोगों के होंठ पढ़कर उन्‍हें सुन लेती। लोगों को उसके सुनने के भावों को पढ़ते हुए मैं सन्‍न होता रहा। इस तरह से भी एक्टिंग होती है? मगर फ्रेंच सिनेमा के बहुत सारे एक्‍टरों में ऐसा बहुत कुछ है कि आप देखकर सन्‍न होते रहें। मैं जब दुनिया में नहीं आया था तब से रहा है। किसी अगले पोस्‍ट में नाम गिनाऊंगा।

क्रिसमस कथा से पहले देसप्‍लेसां की एक और फ़ि‍ल्‍म थी, “राजा और रान”, उसमें एमानुएल को देखने जीभ पर शराब रखकर ख़ुद को भूलने जैसा था। तब भी मन में ख़याल आया था अब एक वादा कर ही लूं। मगर एमानुएल मुझे देख नहीं रही थी। मेरे होंठ पढ़ना तो बहुत दूर की बात। मैं ही लौट-लौटकर उसे पढ़ता रहा। एक के बाद एक दिलचस्‍पी का रहस्‍यलोक बुननेवाली कई फ़ि‍ल्‍में थीं – “ज़ील की औरत”, “दूसरा बेटा”, “फुसफुसाहट। और फिर कल रात, मुंह में छेना-पायस और एमानुएल के अभिनय का स्‍वाद गुनता मैं परफ़्यूम्‍सदेखकर देर तक सन्‍न होता रहा। तो आदमी (या औरत) इस तरह से भी महकों में गुम सकता/सकती है। और अपने दर्शकों को गुमा। सकती है? इम्‍पोस्सिब्‍ल!

सोचकर दंग और तंग अभी भी हो रहा हूं कि मैंने एमानुएल से कभी कोई वादा कैसे नहीं किया। क्‍या वादा किया होता और करके उसे फिर निभा नहीं पाया होता वह दूसरी कहानी होती, मगर वादा कर सकता था, और किया नहीं। इसकी टीस मन से जाएगी नहीं। फ्रेंच सिनेमा और एमानुएल देवोस की एक्टिंग ही नहीं, मन में हज़ार और टीसें हैं, कुछ भी कहीं नहीं जाने को। छेना पायस से मुक्ति नहीं मिलती, नौ मिनट की बहक और संतोष का एक छद्म भले मिलता हो। सिनेमा भी क्‍या है, एक समानान्‍तर संसार की भुलावे की छायाएं ही तो हैं? फिर भी, एमानुएल, स्टिल नॉट नोइंग तुम्‍हारा पारिवारिक, सामाजिक सीन क्‍या है, आई टेरिबली मिस यू। फ़ील ए हॉरिबल होल इनसाइड माई हार्ट। और वादा-सादा तो चलो उसके बारे में अपने दोष क्‍या गिनायें, एक हल्‍का कोई जेस्‍चर तक टुवर्डस यू कुछ नहीं किया, आयम सो टेरिबली सॉरी, रियली। आठ और बारह साल पहले एक हैप्‍पी दीवाली तो कह ही सकता था? बट सी, नहीं कहा। ठीक है, अब कह रहा हूं, मुंह पर हाथ धरकर ही सही। सुन रही हो