9/26/2008
तीन बंदर
आमतौर पर होता यह है कि काम लायक किसी निर्देशक की पहली फ़िल्म में स्पार्क होता है, बाद में, धीरे-धीरे फिर निर्देशक मियां फ़िल्म बनाने की नौकरी बजाने लगते हैं. तुर्की के नूरी चेलान की तीसरी व अपने लिए पहली फ़िल्म ‘उज़ाक’ मैंने कुछ वर्ष हुए देखी थी, उसके बाद ‘मौसम’ और कल, एनडीटीवी-लुमियेर व पीवीआर की मेहरबानी से, ‘तीन बंदर’ देखी, देखकर लगा चेलान हर नयी फ़िल्म के साथ अपने माध्यम के कलात्मक नियंत्रण की नयी ऊंचाइयां छू रहे हैं. टाईट शॉट्स में असहज चेहरों पर कैमरा होल्ड किये आत्मा के पतन को देखने का, यूं लगता है, चेलान ने एक नया स्टाईल इवॉल्व कर लिया है. चेलान के बारे में फिर कहूंगा, फ़िलहाल इतना ही कि आप पीवीआर वाले सिनेमा के किसी महानगर में बसते हैं तो ज़रा सा उसका फ़ायदा उठाइये और इसके पहले कि दूसरे तमाशों में ‘तीन बंदर’ सिनेमाघरों से उठ जाये, जाकर चोट खाये चार क़िरदारों के आत्मा के पतन की यह गहरी, गूढ़ सिनेमाई कविता देख आईये.
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1 comment:
पी वी आर तो हमारे यहाँ अब तक नहीं है, सो नहीं देख सकते.
आपकी बात से इत्तफाक रखते हैं, अच्छे निर्देशक भी पहली फ़िल्म वाली बात अक्सर बाद में दुहरा नहीं पाते. शायद पहली फ़िल्म का प्लॉट उनके जेहन में लंबे समय से बसा हुआ होता है. उसे परदे पर उतारते वक्त अपनी ओर से पूरी कोशिश करते होंगे कि बेहतर से बेहतर पेशकश बने. इस वक्त कला का भी जोर होता होगा जो बाद में व्यवसाय के बोझ से दब जाती होगी.
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