11/13/2009

तीन फ़ि‍ल्‍में..

डॉक्‍यूमेंट्री थी, फ़ि‍ल्‍म देखे कुछ दिन हो गए लेकिन अवचेतन में अभी भी जैसे कहीं अटकी हुई है. कुछ ख़ास फ़ि‍ल्‍मों के साथ क्‍या होता है ऐसा कि एक अच्‍छी बितायी शाम की तरह स्‍मृति और संवेदना में कहीं कुछ छूटा रह जाता है? पियेर बोर्दू, पहले कभी नाम सुना नहीं था, इतना लिखा है उसमें का कुछ भी पढ़ा तो नहीं ही था, फ़ि‍ल्‍म देखते हुए ही ख़बर हुई कि 2001 की डॉक्‍यूमेंटेड कृति के एक वर्ष के अंतराल में ही बोर्दू साहब दिवंगत हुए. कभी मौका लगा तो लौटकर फिर कभी इस फ़ि‍ल्‍म को याद करेंगे, फिलहाल टौरेंट का एक लिंक उन ब्रॉडबैंड बरतनेवाले बंधुओं के लिए चिपका दे रहे हैं जो उत्‍साह में बोर्दू के जीवन व वैचारिक उठापटक के कुछ मौके देखने के मोह में अगर डाऊनलोड करना चाहें. एक दूसरी फ़ि‍ल्‍म सुख के बारे में है: आन्‍येस वार्दा की पुरानी 1965 की, कैसे चटख रंगों के चकमक रोमान में शुरु होती है, लेकिन नाटकीय अंत जैसे कहीं फ़ि‍ल्‍म को बेमज़ा, बेस्‍वाद छोड़ जाती है. फिर एक निहायत हल्‍के थ्रिलर-धागे में गुंथी, लेकिन दूसरी मज़ेदारियों में खूबसूरती से सजी कोरियन फ़ि‍ल्‍म देखी. अपने देश में भी बन सकती थी, लेकिन नहीं बनेगी, उसी तरह जैसे हमारे समय की परतों को धीमे-धीमे बेपरत करता हिंदी में एक अच्‍छा उपन्‍यास हो सकता था, लेकिन नहीं होगा..