राजू का रोज़ी से एक वादा रहा होगा, मेरा एमानुएल देवोस से नहीं रहा। कभी नौबत नहीं आई। “एक क्रिसमस कथा” देखते समय यह बात ख़याल में आई थी कि फुसफुसाकर एमानुएल से कह दूं, कि आरनॉ देस्प्लेंसां ने फ़िल्म में इतना ज़रा-सा रोल दिया, और उसमें भी तुमने चार चांद लगा दिया, कैसे किया भला? एमानुएल कुछ नहीं बोली। अच्छे एक्टर बहुत बार बहुत देर बाद बोलते हैं। कथा के कुछ वर्षों पहले ज़ाक ऑदियार की एक फ़िल्म आई थी, “मेरे होंठ पढ़ो”, इस बार भी एमानुएल थी, विन्सेंट कासेल के साथ। मैं कहीं नहीं था। कहीं का नहीं था। आवाज़ नहीं थी। शोर और तोड़-फोड़, घबराहटों की थी, एमानुएल के नहीं थी। उसका किरदार ही ‘म्युटेड’ था, कुर्सी पर बैठी वह दूर से तकती रहती और लोगों के होंठ पढ़कर उन्हें सुन लेती। लोगों को उसके सुनने के भावों को पढ़ते हुए मैं सन्न होता रहा। इस तरह से भी एक्टिंग होती है? मगर फ्रेंच सिनेमा के बहुत सारे एक्टरों में ऐसा बहुत कुछ है कि आप देखकर सन्न होते रहें। मैं जब दुनिया में नहीं आया था तब से रहा है। किसी अगले पोस्ट में नाम गिनाऊंगा।
क्रिसमस कथा से पहले देसप्लेसां की एक और फ़िल्म थी, “राजा और रानी”, उसमें एमानुएल को देखने जीभ पर शराब रखकर ख़ुद को
भूलने जैसा था। तब भी मन में ख़याल आया था अब एक वादा कर ही लूं। मगर एमानुएल मुझे
देख नहीं रही थी। मेरे होंठ पढ़ना तो बहुत दूर की बात। मैं ही लौट-लौटकर उसे पढ़ता
रहा। एक के बाद एक दिलचस्पी का रहस्यलोक बुननेवाली कई फ़िल्में थीं – “ज़ील की औरत”, “दूसरा बेटा”, “फुसफुसाहट”। और फिर कल रात, मुंह में छेना-पायस और एमानुएल के अभिनय
का स्वाद गुनता मैं “परफ़्यूम्स” देखकर देर
तक सन्न होता रहा। तो आदमी (या औरत) इस तरह से भी महकों में गुम सकता/सकती है। और अपने
दर्शकों को गुमा। सकती है? इम्पोस्सिब्ल!
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