थोड़ा अर्सा हुआ अलेक्सेई बालबानोव की एक फ़िल्म देखी थी, अंग्रेजी में रिलीज़ का नाम था- 'ऑफ़ फ्रीक्स एंड मेन', 1998 की बनी सीपिया रंगों की एक बड़ी ही अजीब दुनिया थी, पहचानी रुसी फ़िल्मों के अनुभवों से एकदम जुदा. फिर हुआ कि बालबानोव की एक और फ़िल्म हाथ चढ़ी, यह ज़रा और पहले '91 की बनी थी, काली-सफ़ेद, अंग्रेजी में 'हैप्पी पीपुल', देखकर फिर सन्न हो रहा था कि सिनेमा का यह कैसा मुहावरा, ठेठ रुसी तर्जुमा, जो अभी तक नेट पर की हमारी घुमाइयों के नक़्शे से ओझल बना रहा, (ऐसी अभी कितनी फ़िल्में और फिल्ममेकर होंगे..) नेट पर खोज-बीज करते नज़र गई कि बालबानोव ने काफ़ी फ़िल्में बनाई हैं, और अपनी तरह से लोकप्रियता भी हासिल की है..
कुछ ऐसे ही संयोग में एक और रुसी फ़िल्म हाथ आई, एलेम क्लिमोव की 1965 की बनी 'एडवेंचर्स ऑफ़ ए डेंटिस्ट', बहुत कुछ ज़ाक ताती और आस्सेलियानी की दुनिया के गिर्द घूमती- मुलायम, महीन, सिनेमैटिक. (2003 में क्लिमोव की मृत्यु हुई, यह उनके साथ इंटरव्यू का एक लिंक है). उनकी फ़िल्में कहीं से हाथ लगें, तो ज़रुर देखें..
इसी तरह की भटकन में दो डॉक्यूमेंट्री पर भी नज़र गई, एक इंटरनेट से लहे होने का अमरीकी किस्सा, 'गूगल मी', तो दूसरी एक्स्टेसी ड्रम से लसने की इज़रायली कहानी, 'अटैक ऑफ़ द हैप्पी पीपुल'. बाकी फिर दो दिन पहले हमने भी 'रोड मूवी' देखी थी, मानकर चलते हुए कि रोड और मूवी के बीच का कौमा देव बेनेगल की फकत अदा है, अंतत: वह राजस्थानी लैंडस्केप की भटकनों की सिनेमाई, एक्ज़ॉटिक पैकेजिंग होगी, चूंकि फिरंगी कंस्पशन के लिए तैयार की गई होगी, यहां के कुछ दर्शकों के लिए काम करेगी, कभी नहीं भी करेगी. जैसे अभय के लिए मुंह के बल गिरी, मेरे लिए नहीं गिर रही थी, मिशेल आमाथियु के कैमरा और माइकल ब्रुक के बैकग्राउंड स्कोर में रमे हुए बीच-बीच में मैं भूल जा रहा था कि फ़िल्म सचमुच क्यों और कितनी बेमतलब है.
2 comments:
कल अभय जी की टिपण्णी के बाद निराश हो गया था देखते है कैसी है ये मूवी रोड
...और जब बूढ़े से ट्रक के भड़भड़ाते हुए बोनट की उन अंधी सी लाइटों के ठीक बीच से कैमरा सफेद रेत के समंदर के दूसरे सिरे को पकड़ने की कोशिश में भागता नजर आता है...तो कानों को चुभते डायलॉग्स से पैदा हुई नाराजगी कम हो जाती है...
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