3/24/2010

ज़ोरबा द ग्रीक



मैंने पहले कोई देखी नहीं थी, मियालिस काकोजानिस की यह पहली फ़ि‍ल्‍म देख रहा था, सन चौंसठ की बनी 'ज़ोरबा द ग्रीक' और देखकर लाजवाब हो रहा था. कि जगह का, गांव-देहात के लोगों का, उनकी बदहाल सोच की कंगलई का, जीवन के उत्‍सव और उसके त्रासद अवसान का यूं लयकारी सिनेमाटोग्राफ़ी, सांगीतिक स्‍वर संचयन संभव है.. पुरानी फ़ि‍ल्‍म है, कहीं लहेगी ही, लहे तो देखकर तरंगित हों..

नीचे के साउंडट्रैक में बोलवैया आवाज़ें एंथनी क्विन और एलन बेट्स की हैं.. यहां प्‍लेयर चढ़ाने में दिक्‍कत हो रही है, सो उसे अज़दक पर ठेलता हूं.. इस आइस-पाइस के लिए माफ़ करियेगा..

3/23/2010

कुछ लिंक्‍स..


तो रिलीज़ के बाद आज यह पांचवा दिन है और अपनराम अभी तलक जो है 'एल एस और डी' का सेवन नहीं कर सके हैं, मतलब फ़ि‍ल्‍म नहीं देख सके हैं. घर पर बैठे हुए एलेम क्लिमोव की युद्ध-विभिषका के विहंगम, दु:स्‍वप्नी वृतांत (द हर्ट लॉकर मुझे पसंद है, लेकिन रुसी 1985 की बनी 'आओ और देखो' की एंटी-वॉर ऊंचाई की बात ही कुछ और है..) और इंडस्ट्रियल फार्मिंग के जीव-वध के नारकीय दृश्‍यों के आनंद में अटका रह गया. बड़े दु:ख की बात है. दूसरी दु:ख की बात है कि बीबीसी हिन्‍दी की प्रतीक्षा घिल्डियाल को अभी तक प्रतीक्षा ही करते रहना चाहिए था, बातचीत का यह सुख प्रमुदित होते हुए मुझे लेना चाहिए था, लेकिन हुआ इसके उलट है (जैसा जीवन में होता ही है) कि दिबाकर से बतरस का सुख प्रतीक्षीत कुमारी उठा रही हैं. ऑस्‍कर पुरस्‍कारों के भी बायस वाला मसला इसके पहले कि मैं उस पर कोई राय क्‍या बनाऊं, 'अवतार' अभी तक देख ही सकूं, स्‍लावो जीज़ू साहब राय सजाकर फिर से डाल पर जाये बैठे हैं. 

फिर सबसे मज़ेदार बात यह कि गर्मी के इस सुहाने समय मेरे पंखे ने काम करना बंद कर दिया है, तो सवाल नैचुरली उठता ही है कि जीवन इतना मुश्किल क्‍यों है? और उसके आगे यह कि फिर सिनेमा इतना आसान और स्‍टुपिड?

3/18/2010

दायें या बायें के सिवा और भी बहुत-बहुत कुछ..

कल रात रॉबर्ट आल्‍टमैन की एक अपेक्षाकृत कम चर्चित फ़ि‍ल्‍म ‘कुकीज़ फॉरच्‍यून’ देखकर अनजाने एक बार फिर चकित हो रहा था कि यह जीवटधनी बूढ़ा कलाकार आखिर क्‍या खाकर इतनी सहजता से ऐसी सघन बुनावट हासिल कर लेता है. ख़ैर, अचरच और ‘ऑ’ की कुर्सी पर ढहे उनके काम को देखते हुए फिर यह भी याद आता है कि ऑल्‍टमैन पुराने, पके तोपख़ां थे.. ‘नैशविल’ और ‘शॉटकर्ट्स’ जैसी फ़ि‍ल्‍में बना पाना उन्‍हीं के बूते की बात थी. मगर आज शाम अभी तक अनरिलीज़्ड फ़ि‍ल्‍म ‘दायें या बायें’ का एक प्रीव्‍यू देखते हुए एक दूसरी तरह के अचरज से रूबरू होना पड़ रहा था, पहली बात तो यह कि फ़ि‍ल्‍म की निर्देशक बेला नेगी पुरानी और पकी नहीं, और यह दरअसल उनकी पहली फ़ि‍ल्‍म है, तो पहला झटका तो फ़ि‍ल्‍म देखते हुए आपको इसी का लगता है कि सचमुच लड़की ने क्‍या खाकर (या पीकर?) यह किस तरह की स्क्रिप्‍ट लिखी है.. और कंप्‍यूटर पर लिख भी ली है तो संसाधनों के किस पहाड़ पर चढ़कर आखिर इस तरह की बीहड़ बुनावट को कैमरे में कैद करने का काम अंजाम दिया कैसे है. आप सोचने के जंगल में उतरते हैं और फिर फ़ि‍ल्‍म की बनावट के धुंधलके में कहीं आगे जाकर खो जाते हैं, ‘यह रियल, और इतनी ‘एक्‍सेसीबल’ दुनिया ठीक-ठीक बुनी कैसे गई होगी’ के सवाल का संभवत: कोई प्रॉपर, प्रॉपर सा जवाब आपके हाथ नहीं आता.

दायें या बायें’ के बारे में यह तथ्‍य इसलिए भी दिलचस्‍प है क्‍योंकि आम तौर पर हमारे यहां फ़ि‍ल्‍में एक कहानी कहने से ज्‍यादा कभी ‘अस्‍पायर’ नहीं करतीं. आम तौर पर इतना तक काफी घटिया तरीके से करती हैं, कभी-कभी ही ज़रा कम घटिया तरीके से करती हैं. बीच-बीच में किसी ‘ओय लकी, लकी ओय’ का चले आना इसीलिए हैरत का एक दुलर्भ मौका बनता है. मगर हमें यहां, फिर, नहीं भूलना चाहिए कि दिबाकर की फ़ि‍ल्‍म एक चोर की अपराध-कथा थी, फ़ि‍ल्‍म से अपराध-कथा की नाटकीयता और सेंसेशन जुड़े थे, ‘दायें या बायें’ का मज़ा है कि उसमें कोई सेंसेशनल एलीमेंट नहीं है, बंबई से पहाड़ के अपने गांव लौटे नायक के असमंजस और पटकन की पिटी दुनिया है. मगर फिर, फ़ि‍ल्‍म की शुरुआत में ही, इंटीरियर देहात के मध्‍य एक बाहर से लौटे फुटबॉल के लुढ़काते ही अचानक वह पीछे छोड़ी दुनिया, तनाव, द्वंद्वों, कामनाओं के किस, कैसे सजीले, रंगीले कलाइडोस्‍कोप में बदल जा सकेगा, इसका अंदाज़ मेरे, या किसी के भी कहे, किसी स्‍थूल, इकहरे कहानी के नैरेशन में नहीं, प्रत्‍यक्ष रुप से फ़ि‍ल्‍म की संगत में फ़ि‍ल्‍म देखते हुए ही हो सकती है.

‘दायें या बायें’ की कहानी कहने की कोशिश ख़तरे से कुछ इसी तरह खाली नहीं, जैसे कोई विनोद कुमार शुक्‍ल की लेखनी की खासियत उनकी कहानी में खोजने की कोशिश करे. वह कहानी तो है ही, मगर कहानी से ज्‍यादा खुले मैदान में हंसते हुए लबर-झबर बच्‍चों के भागने और अनाज पीसती देहात की औरतों के ख़ामोश चेहरों के सघन दृश्‍यबंधों की दुनिया है. और कहीं ज्‍यादा रोचक इसलिए भी है कि उसे बंबई के एक्‍टर अभिनीत नहीं कर रहे, स्‍थानीय झुर्रीदार चेहरे अपनी हंसियों में कैमरे के आगे उसके परतदार भेद खोल रहे हैं. ऊपर से बोनस यह कि वहां प्रकट, अप्रकट कोई गूढ़ बौद्धिकता नहीं काम कर रही, इस परतदार पैकेजिंग में सरस, ठेठ ठिठोली वाला आनंद है! जहां कहीं फ़ि‍ल्‍म दिमाग पर भारी होती सी लगती भी है तो उसका असर भी कुछ वैसा बनता है मानो वह फ़ि‍ल्‍म की बजाय, फ़िल्‍म के किरदारों से जनित है, मानो देहातियों के साथ की किसी लंबी यात्रा में आप उनके आंतरिक विद्रूप की अतिशयता में थक रहे हों..

फ़ि‍ल्‍म देखने के बाद इस अहसास की खुशी होती है कि बतौर माध्‍यम सिनेमा अब भी अपने देश में एक संभावना है, और वह फ़ि‍ल्‍मकार के हित में सिर्फ़ यही दिखाने का जरिया नहीं कि वह कितना स्‍मार्ट है, या जिन जड़ों से आया है उसकी कितनी स्‍मार्ट, एक्‍ज़ॉटिक पैकेजिंग करने का उसने हूनर हासिल कर लिया है. बेला ने अपनी पहाड़ी पृष्‍ठभूमि और स्‍थानीयता को जो सिनेमाई अरमान और ऊंचाइयां दी हैं, उसके लिए जितनी भी उनकी तारीफ़ की जाए, कम है. भयानक शर्म की बात है कि फ़ि‍ल्‍म के तैयार होने के एक साल बाद भी फ़ि‍ल्‍म के निर्माता सुनील दोषी उसे रिलीज़ करने की दिशा में कोई भी कदम उठाते नहीं दिख रहे. इस दो कौड़ि‍या आचरण पर कोई उनसे जवाब तलब करेगा? मीडिया, कुछ करेगी?

3/12/2010

रोड मूवी एंड एटसेट्रा..

थोड़ा अर्सा हुआ अलेक्‍सेई बालबानोव की एक फ़ि‍ल्‍म देखी थी, अंग्रेजी में रिलीज़ का नाम था- 'ऑफ़ फ्रीक्‍स एंड मेन', 1998 की बनी सीपिया रंगों की एक बड़ी ही अजीब दुनिया थी, पहचानी रुसी फ़ि‍ल्‍मों के अनुभवों से एकदम जुदा. फिर हुआ कि बालबानोव की एक और फ़ि‍ल्‍म हाथ चढ़ी, यह ज़रा और पहले '91 की बनी थी, काली-सफ़ेद, अंग्रेजी में 'हैप्‍पी पीपुल', देखकर फिर सन्‍न हो रहा था कि सिनेमा का यह कैसा मुहावरा, ठेठ रुसी तर्जुमा, जो अभी तक नेट पर की हमारी घुमाइयों के नक़्शे से ओझल बना रहा, (ऐसी अभी कितनी फ़ि‍ल्‍में और फि‍ल्‍ममेकर होंगे..) नेट पर खोज-बीज करते नज़र गई कि बालबानोव ने काफ़ी फ़ि‍ल्‍में बनाई हैं, और अपनी तरह से लोकप्रियता भी हासिल की है..

कुछ ऐसे ही संयोग में एक और रुसी फ़ि‍ल्‍म हाथ आई, एलेम क्लिमोव की 1965 की बनी 'एडवेंचर्स ऑफ़ ए डेंटिस्‍ट', बहुत कुछ ज़ाक ताती और आस्‍सेलियानी की दुनिया के गिर्द घूमती- मुलायम, महीन, सिनेमैटिक. (2003 में क्लिमोव की मृत्‍यु हुई, यह उनके साथ इंटरव्‍यू का एक लिंक है). उनकी फ़ि‍ल्‍में कहीं से हाथ लगें, तो ज़रुर देखें..

इसी तरह की भटकन में दो डॉक्‍यूमेंट्री पर भी नज़र गई, एक इंटरनेट से लहे होने का अमरीकी किस्‍सा, 'गूगल मी', तो दूसरी एक्‍स्‍टेसी ड्रम से लसने की इज़रायली कहानी, 'अटैक ऑफ़ द हैप्‍पी पीपुल'. बाकी फिर दो दिन पहले हमने भी 'रोड मूवी' देखी थी, मानकर चलते हुए कि रोड और मूवी के बीच का कौमा देव बेनेगल की फकत अदा है, अंतत: वह राजस्‍थानी लैंडस्‍केप की भटकनों की सिनेमाई, एक्‍ज़ॉटिक पैकेजिंग होगी, चूंकि फिरंगी कंस्‍पशन के लिए तैयार की गई होगी, यहां के कुछ दर्शकों के लिए काम करेगी, कभी नहीं भी करेगी. जैसे अभय के लिए मुंह के बल गिरी, मेरे लिए नहीं गिर रही थी, मिशेल आमाथियु के कैमरा और माइकल ब्रुक के बैकग्राउंड स्‍कोर में रमे हुए बीच-बीच में मैं भूल जा रहा था कि फ़ि‍ल्‍म सचमुच क्‍यों और कितनी बेमतलब है.

3/03/2010

हालिया कुछ दिखी फ़ि‍ल्‍में..

un uomo in ginocchio इसी को कहते होंगे डेस्टिनी, चीज़ों को कहां-कहां पहुंचाती है. या नहीं पहुंचाती. कि उदासियों के करीने से सजाये कंपोशिज़ंस और छोटे शहर के लंबे जारमुशी ट्रैक शॉट्स ‘लेक ताहो’ को बर्लिन पहुंचाते हैं, मगर अदरवाइस मैक्सिको के बाहर की बहुत यात्रायें नहीं करवाते. उसकी जगह सिंगापुर की तमिलभाषी, अपेक्षाकृत स्‍थूल, ‘माई मैजिक’ के दुश्‍कर जीवन की नाटकीयता सीधे कान के कंपिटिशन में जगह बनाती है. एक दूसरी, पुरानी फ़ि‍ल्‍म, जो यूं ही अनजाने हत्‍थे चढ़ी और देखते हुए मन अघाया वह थी, सन्र ’78 की बनी इटली के दमियानो दमियानी की ‘घुटने पर आदमी’. मैं दमियानो की दुनिया से बहुत वाकि‍फ नहीं तो मेरे लिए फ़ि‍ल्‍म कुछ आंख खोलनेवाली थी. एक आम आदमी के नज़रिये से पलेर्मो के माफिया-जाल-जंजाल की धीमे-धीमे वहशतनाक परत खोलती, लेकिन कोई-सा भी ऑवियस ड्रामा नहीं, कपोला का रोमांस, या ब्रायन द'पाल्‍मा का ‘स्‍कारफेस’ या ‘द अनटचेबल्‍स’ की प्रकट हिंसा नहीं, बस धीमे-धीमे गरम शीशा चूता रहता है और स्‍थान, समाज-विशेष में आदमी की नियति का एक सघन निबंध बुनता चलता है. आदमी की नियति से देखे हुए एक हालिया अमरीकी फ़ि‍ल्‍म की भी याद. फ़ि‍ल्‍म है ‘अप इन द एयर’, सुआव और अटरली सिनि‍कल क्‍लूनी, मंदी के दौर में कंपनियों के मालिकों वाला काम कर रहे हैं, मतलब शहर-शहर घूम-घूमकर लोगों को ‘फायर’ कर रहे हैं, चेहरे पर शराफ़त की हंसी चढ़ाये, निस्‍संगता के बर्बरगीत की एक नयी पैकेजिंग किये, समझदारी से लिखी, कही फ़ि‍ल्‍म किसी भी तरह की अतिशयता से बचती है और फ़ि‍ल्‍म के आखिर क्रेडिट रोल्‍स में देखकर अच्‍छा लगता है कि 52 वर्षीय काम से बहरियाये केविन रेनिक ने दरअसल टाइटल गाने की लिखाई और धुन की बनाई की है. हाल की दो और फ़ि‍ल्‍मे जो हौले-हौले खुलती किताब बनती रहीं, वह थीं सॉलिडली गठी हुई आर्जेंटिनियन थ्रिलर ‘द सिक्रेट इन देयर आईस’ और कुछ लगभग उसी अनुपात में, उतनी ही अनगढ़, मगर अपने ठहराव में बांधनेवाली, स्‍वीडन की ‘फाल्‍कनबर्ग फेयरवेल’.