ईरानी सिनेमा: सात
देश में सुधार के लिए स्त्री और छात्रों के संघर्ष ने आम चेतना को किस हद तक छुआ है, और साथ ही साथ इसी क्रम में फिल्मों की शक्ल कैसे बदली है इसका एक अंदाज़ पिछले कुछ वर्षों की बनी फिल्मों में देखा जा सकता है. ‘द सर्किल’ (2000) में पनाही ईरान में स्त्रियों की अवस्था पर बहुत ही निर्ममता से चोट करते हैं. आम तौर पर जिस भले-भोलेपन से जोड़कर हम ईरानी सिनेमा को देखते हैं द सर्किल में वह तार-तार होती दिखती है. थोड़े ही अंतराल पर अब्बास क्यारोस्तामी की ‘दस’ (2002) आती है. यहां फिल्म का विषय तेहरान की सड़कों पर टैक्सी चलाती एक औरत का अपने बेटे व अन्य मुसाफिरों के संग किये दस संवाद हैं. ठुकराई दुल्हन, वेश्या और मस्जिद जाती इस जमाव में हर तरह की स्त्रियां हैं और अंतर्तम की वो सारी टेढ़ी-उलझी लकीरें जिनका आम तौर पर हमें दर्शन नहीं होता. समय और माध्यम के चौतरफा एक्सप्लोरेशन के विश्वासी क्यारोस्तामी ने दस डीवी कैमरा से शूट किया, और फिल्म का समूचा समय एक टैक्सी के दायरे में संपन्न होता है.
इस दौर का मज़ेदार पहलू यह देखना है कि कैसे फिल्में यूनिवर्सल सामाजिक चिंताओं से हटकर ईरान की अपनी विशिष्ट मुश्किलों पर केंद्रित हो रही थीं. घोबादी के ‘कछुए उड़ सकते हैं’ (2004) में हमारा सामना युद्धजर्जर कुर्द शरणार्थियों और अमरीकी मुक्ति के फ़रेब व व्यभिचार की निहायत ही मार्मिक तस्वीरों से होता है.
इस तरह से ईरानी सिनेमा ईरानी राज्य के साथ एक पेचीदा व मुश्किल रिश्ता बनाये हुए है. शाह एक राष्ट्रीय सिनेमा विकसित करके अपने लिए ताली बजवाना चाहते थे, लेकिन अर्थपूर्ण सिनेमा की शुरुआत ही ईरान में राज्य का विरोध और भारी वर्गीय भेद को दर्शाने से हुई. वे भेद, वे अंतर्विरोध अभी भी खत्म नहीं हुए हैं. ईरानी सिनेमा में अच्छे या बुरे का अस्तित्व नहीं. लोंगों का व्यवहार व विचार बहुत हद तक उनकी सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों से उपजती हैं. और इन अंतरविरोधों की मार्मिक व्याख्या का जो आरंभ फारोगज़ाद और दारियस मेहरजुइ से हुआ था, वह वक्त बीतने के साथ और पैना, ज्यादा सुघड़ ही हुआ है. हॉलीवुड और बॉलीवुड के मनोरंजन से अपना सिनेमाई ककहरा सीखनेवाले ईरान से आज समूची दुनिया शिक्षा ले सकती है.
(ऊपर जफ़र पनाही के 'द सर्किल' का पोस्टर, नीचे घोबादी के 'कछुए उड़ सकते हैं' का कमउम्र 'नायक')
3/29/2007
3/28/2007
The Namesake
A Stroll Through Life
By Arun Varma
During the Mumbai Film Festival a couple of years ago, a filmmaker friend of mine once walked out of a film. He told me he could no longer bear watching films traveling less than ten kilometer per hour. I remember being very amused by the way he put it… traveling less then ten km per hour.
The Namesake by Mira Nair does just that. It is a stroll through the walk of life where the filmmaker sometimes makes you sit on the pavement and watch the world as it goes by. By the end of the stroll you realize that you have gone through a lifetime. Nothing happens in the film. Only life. Just life.
The most striking quality of the film is it’s serenity—almost like an Ozu. This serenity assumes various shades. Of joy, nostalgia, loneliness, unbelonging and grief. Like a calm river with surging undercurrents. Even the slightest ripple on this calm surface makes an impression—the image of Ashima collapsing outside her house on a lonely Newyork street at night after hearing of her husband’s death. Or the image of Gogol with a shaved head walking in to meet his mother after his father’s demise.
I would like to tell that friend of mine to watch this film. Who knows.. he might just end up liking it. .
By Arun Varma
During the Mumbai Film Festival a couple of years ago, a filmmaker friend of mine once walked out of a film. He told me he could no longer bear watching films traveling less than ten kilometer per hour. I remember being very amused by the way he put it… traveling less then ten km per hour.
The Namesake by Mira Nair does just that. It is a stroll through the walk of life where the filmmaker sometimes makes you sit on the pavement and watch the world as it goes by. By the end of the stroll you realize that you have gone through a lifetime. Nothing happens in the film. Only life. Just life.
The most striking quality of the film is it’s serenity—almost like an Ozu. This serenity assumes various shades. Of joy, nostalgia, loneliness, unbelonging and grief. Like a calm river with surging undercurrents. Even the slightest ripple on this calm surface makes an impression—the image of Ashima collapsing outside her house on a lonely Newyork street at night after hearing of her husband’s death. Or the image of Gogol with a shaved head walking in to meet his mother after his father’s demise.
I would like to tell that friend of mine to watch this film. Who knows.. he might just end up liking it. .
3/26/2007
दुनिया का सबसे खूबसुरत कालीन और सबसे मीठा सेब
ईरानी सिनेमा: छह
तेजी से वैश्विक पूंजीवाद में रुपांतरित होते ईरान का सिनेमा भी बहुत कुछ गाबेह (एक तरह का कालीन) की तरह दिखने लगा. एक फ्रांसीसी कंपनी के आर्थिक सहयोग से बनी गाबेह (मोहसेन मखमलबाफ, 1996) की लागत काफी कम थी मगर सांस्कृतिक व आर्थिक मोर्चों पर इसने भारी कमाई की. युद्ध के बाद, खोमैनी के बाद के संदर्भ में नये ईरानी सिनेमा की काव्यमयी खूबसुरती अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों की पसंद व स्वाद के खूब अनुकूल बैठ रही थी, और ताज़ा-ताज़ा सत्ता में आये और विदेशी पूंजी के स्वागत में खुलते खतामी ने पश्चिमी दुनिया के आगे देश की एक अलग पहचान चिन्हित करने में ईरानी सिनेमा का भरपूर इस्तेमाल किया.
नये ईरान की अंतर्राष्ट्रीय पहचान में सरकार की सहयोगी सिनेमा लेकिन सरकार के पीछे-पीछे नहीं चल रही थी, अपने ढंग से वह सवालों के दायरे भी बुन रही थी. बहुत बार तीखेपन में तिक्तता का ऐसा क्षण भी आता जब फिल्म पर पाबंदी लगाकर उसे सिनेमा के पर्दों से हटाने की नौबत आती. गिरगिट (तबरीज़ी, 2004) एक ऐसी ही फिल्म थी जो मुल्ला का भेस धरकर जेल से भागे एक अपराधी की कहानी कहती है. भ्रष्ट और पतित धर्म के ठेकेदारों के प्रति आम रोश ने झट लोगों को फिल्म की तरफ खींचा और इसने ईरानी बॉक्स ऑफिस के इतिहास के सारे रेकॅर्ड तोड़ दिये. तब जाकर कहीं सरकारी मुल्ला चेते और फिल्म पर बैन लगा. मगर गिरगिट शायद सीधे आग की हंडी में कूद रही थी. ढेरों अन्य फिल्में हैं जो यह यात्रा घूमकर कर रही थीं, और उतने ही मार्मिक स्तर पर समाज की आलोचना में सक्षम भी हो रही थीं. और चूंकि वो गिरगिट की तरह रेगुलर व्यावसायिक सिनेमा की बजाय समारोहों की चहेती फिल्में थीं सरकार के लिए उन पर हाथ धरना उतना आसान नहीं होता. इस लिहाज़ से 18 वर्ष की उम्र में बनाई समीरा मखमलबाफ की फिल्म सिब (सेब, 1998) एक अच्छा उदाहरण पेश करती है.
समीरा नब्बे के दशक के लोकतांत्रिक आंदोलन का बखूबी से वह मिज़ाज पकड़ती है जिसमें ईरान के शासक वर्गों का विभाजन हुआ और खतामी चुनाव जीतकर आये. सेब ग्यारह साल की दो ऐसी लड़कियों की कहानी है जो हमेशा ताले के भीतर बंद रहीं और बाहरी संसार से जिनका कोई संपर्क नहीं. ईरानी सिनेमा की परिचित मानवीयता से लबरेज़, फारोगज़ाद की परंपरा में यह फिल्म एक ही साथ एक सत्य घटना थी, उसका कथात्मक रुपांतरण थी और समाज में मौजूद सवालों के कन्फ्रंटेशन का एक सीधा रि-एनेक्टमेंट भी थी. और परिवर्तन की इस भूमिका में औरत उतर रही थी जो न केवल वर्गीय संबंधों पर सवाल खड़े कर रही है, लैंगिक भेदों पर भी सीधे निशाना साध रही है.
(जारी...)
(ऊपर: पिता मोहसेन की 'गाबेह' का एक दृश्य, नीचे: बेटी समीरा मखमलबाफ की 'सेब' से)
तेजी से वैश्विक पूंजीवाद में रुपांतरित होते ईरान का सिनेमा भी बहुत कुछ गाबेह (एक तरह का कालीन) की तरह दिखने लगा. एक फ्रांसीसी कंपनी के आर्थिक सहयोग से बनी गाबेह (मोहसेन मखमलबाफ, 1996) की लागत काफी कम थी मगर सांस्कृतिक व आर्थिक मोर्चों पर इसने भारी कमाई की. युद्ध के बाद, खोमैनी के बाद के संदर्भ में नये ईरानी सिनेमा की काव्यमयी खूबसुरती अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों की पसंद व स्वाद के खूब अनुकूल बैठ रही थी, और ताज़ा-ताज़ा सत्ता में आये और विदेशी पूंजी के स्वागत में खुलते खतामी ने पश्चिमी दुनिया के आगे देश की एक अलग पहचान चिन्हित करने में ईरानी सिनेमा का भरपूर इस्तेमाल किया.
नये ईरान की अंतर्राष्ट्रीय पहचान में सरकार की सहयोगी सिनेमा लेकिन सरकार के पीछे-पीछे नहीं चल रही थी, अपने ढंग से वह सवालों के दायरे भी बुन रही थी. बहुत बार तीखेपन में तिक्तता का ऐसा क्षण भी आता जब फिल्म पर पाबंदी लगाकर उसे सिनेमा के पर्दों से हटाने की नौबत आती. गिरगिट (तबरीज़ी, 2004) एक ऐसी ही फिल्म थी जो मुल्ला का भेस धरकर जेल से भागे एक अपराधी की कहानी कहती है. भ्रष्ट और पतित धर्म के ठेकेदारों के प्रति आम रोश ने झट लोगों को फिल्म की तरफ खींचा और इसने ईरानी बॉक्स ऑफिस के इतिहास के सारे रेकॅर्ड तोड़ दिये. तब जाकर कहीं सरकारी मुल्ला चेते और फिल्म पर बैन लगा. मगर गिरगिट शायद सीधे आग की हंडी में कूद रही थी. ढेरों अन्य फिल्में हैं जो यह यात्रा घूमकर कर रही थीं, और उतने ही मार्मिक स्तर पर समाज की आलोचना में सक्षम भी हो रही थीं. और चूंकि वो गिरगिट की तरह रेगुलर व्यावसायिक सिनेमा की बजाय समारोहों की चहेती फिल्में थीं सरकार के लिए उन पर हाथ धरना उतना आसान नहीं होता. इस लिहाज़ से 18 वर्ष की उम्र में बनाई समीरा मखमलबाफ की फिल्म सिब (सेब, 1998) एक अच्छा उदाहरण पेश करती है.
समीरा नब्बे के दशक के लोकतांत्रिक आंदोलन का बखूबी से वह मिज़ाज पकड़ती है जिसमें ईरान के शासक वर्गों का विभाजन हुआ और खतामी चुनाव जीतकर आये. सेब ग्यारह साल की दो ऐसी लड़कियों की कहानी है जो हमेशा ताले के भीतर बंद रहीं और बाहरी संसार से जिनका कोई संपर्क नहीं. ईरानी सिनेमा की परिचित मानवीयता से लबरेज़, फारोगज़ाद की परंपरा में यह फिल्म एक ही साथ एक सत्य घटना थी, उसका कथात्मक रुपांतरण थी और समाज में मौजूद सवालों के कन्फ्रंटेशन का एक सीधा रि-एनेक्टमेंट भी थी. और परिवर्तन की इस भूमिका में औरत उतर रही थी जो न केवल वर्गीय संबंधों पर सवाल खड़े कर रही है, लैंगिक भेदों पर भी सीधे निशाना साध रही है.
(जारी...)
(ऊपर: पिता मोहसेन की 'गाबेह' का एक दृश्य, नीचे: बेटी समीरा मखमलबाफ की 'सेब' से)
3/25/2007
पगडंडियों का राजमार्ग
ईरानी सिनेमा: पांच
नब्बे के दशक में ईरानी सिनेमा ने जो अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पाना शुरु किया उसमें एक अंतर्निहित अंतर्विरोध भी छिपा था. इस्लामिक क्रांति के बाद का ईरान पश्चिमी मीडिया की नज़रों में युद्ध, धर्मांद्धता और आतताई मुल्लाओं के दमनकारी राज का पर्याय था, जबकि फिल्में निहायत एक अलग किस्म का ग्रामीण लैंडस्केप, बालसुलभ मासूमियत और ईरान की एक कवितामयी तस्वीर पेश करती थीं.
क्रांति के ठीक पहले शाह द्वारा आयातित पश्चिमी ‘पतनशील’ फिल्मों के प्रति आम गुस्सा जिसमें तेहरान के 180 सिनेमा हॉलों को आग के हवाले कर दिया गया, और स्वदेस वापसी पर खोमैनी के पहले ही भाषण में सिनेमा की उपयोगिता की चर्चा इसका सीधा संकेत थी कि ईरानी मानस में सिनेमा को कितना महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था, और आनेवाले दिनों के रेजिमेंटेशन में या तो वह पूरी तरह विलुप्त हो जाती, या फिर अपनी बुनावट की साज-संवार के साथ सिनेमा के एक नए दौर में प्रवेश करती. इन अतिवादी मुश्किलों, तनावों के बीच ही ईरान की कला-सिनेमा ने धीरे-धीरे अपने पैर जमाना शुरु किया. क्यारोस्तामी जो काफी वर्षों से बच्चों की एक संस्था से जुड़े थे इन तनावों का बेहतर तरीके से सामना करने की स्थिति में थे. बच्चों के साथ फिल्म करने का एक सीधा फायदा यह था कि सरकारी वर्जनायें (सेक्स, रोमांस, हिंसा) वहां यूं भी बेमानी हो जाती थी, मगर साथ ही, बच्चों की वजह से, समाज-समीक्षा का दायरा और अंतरंग हो जाता था. उदाहरण के लिए तसल्ली व प्यार-दुलार की पारंपरिक भूमिकाओं के निर्वाह की जगह परिवार इन फिल्मों में तनाव व द्वंद्व दर्शाने का मंच बनता है, जो आस-पास की सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों की वजह से खड़े हो रहे थे. (दोस्त का घर कहां है?).
इसके अनंतर क्यारोस्तामी ईरानी यथार्थवाद को एकदम अलग किस्म की ऊंचाइयों तक ले गए. ‘थ्रू द ऑलिव ट्रीज़’ (1994) में एक अभिनेता निर्देशक क्यारोस्तामी की भूमिका में क्यारोस्तामी का रोल करते एक दूसरे अभिनेता को निर्देशित कर रहा है. साथ ही यहां क्यारोस्तामी की फिल्म ‘लाइफ गोज़ ऑन’ के एक दृश्य का पुनर्मंचन हो रहा है जिसमें अभिनेता, क्यारोस्तामी के उस अनुभव को फिर से जी रहा है जब वह भुकंप पीडित क्षेत्रों में ‘दोस्त का घर कहां है?’ के एक्टरों की खोज-खबर लेने गए थे जहां फिल्म की शुटिंग हुई थी. क्यारोस्तामी ने धीमे-धीमे एक ऐसी दुनिया बुन दी थी जिसमें यथार्थ, कथा, सिनेमाई पुनर्रचना, डाक्यूमेंट्री के पारंपरिक विभाजन मिटकर एक निहायत अलहदा किस्म का ही सिनेलोक निर्मित कर रहे थे.
(जारी...)
(क्यारोस्तामी की 'थ्रू द ऑलिव ट्रीज़' की दुनिया)
नब्बे के दशक में ईरानी सिनेमा ने जो अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पाना शुरु किया उसमें एक अंतर्निहित अंतर्विरोध भी छिपा था. इस्लामिक क्रांति के बाद का ईरान पश्चिमी मीडिया की नज़रों में युद्ध, धर्मांद्धता और आतताई मुल्लाओं के दमनकारी राज का पर्याय था, जबकि फिल्में निहायत एक अलग किस्म का ग्रामीण लैंडस्केप, बालसुलभ मासूमियत और ईरान की एक कवितामयी तस्वीर पेश करती थीं.
क्रांति के ठीक पहले शाह द्वारा आयातित पश्चिमी ‘पतनशील’ फिल्मों के प्रति आम गुस्सा जिसमें तेहरान के 180 सिनेमा हॉलों को आग के हवाले कर दिया गया, और स्वदेस वापसी पर खोमैनी के पहले ही भाषण में सिनेमा की उपयोगिता की चर्चा इसका सीधा संकेत थी कि ईरानी मानस में सिनेमा को कितना महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था, और आनेवाले दिनों के रेजिमेंटेशन में या तो वह पूरी तरह विलुप्त हो जाती, या फिर अपनी बुनावट की साज-संवार के साथ सिनेमा के एक नए दौर में प्रवेश करती. इन अतिवादी मुश्किलों, तनावों के बीच ही ईरान की कला-सिनेमा ने धीरे-धीरे अपने पैर जमाना शुरु किया. क्यारोस्तामी जो काफी वर्षों से बच्चों की एक संस्था से जुड़े थे इन तनावों का बेहतर तरीके से सामना करने की स्थिति में थे. बच्चों के साथ फिल्म करने का एक सीधा फायदा यह था कि सरकारी वर्जनायें (सेक्स, रोमांस, हिंसा) वहां यूं भी बेमानी हो जाती थी, मगर साथ ही, बच्चों की वजह से, समाज-समीक्षा का दायरा और अंतरंग हो जाता था. उदाहरण के लिए तसल्ली व प्यार-दुलार की पारंपरिक भूमिकाओं के निर्वाह की जगह परिवार इन फिल्मों में तनाव व द्वंद्व दर्शाने का मंच बनता है, जो आस-पास की सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों की वजह से खड़े हो रहे थे. (दोस्त का घर कहां है?).
इसके अनंतर क्यारोस्तामी ईरानी यथार्थवाद को एकदम अलग किस्म की ऊंचाइयों तक ले गए. ‘थ्रू द ऑलिव ट्रीज़’ (1994) में एक अभिनेता निर्देशक क्यारोस्तामी की भूमिका में क्यारोस्तामी का रोल करते एक दूसरे अभिनेता को निर्देशित कर रहा है. साथ ही यहां क्यारोस्तामी की फिल्म ‘लाइफ गोज़ ऑन’ के एक दृश्य का पुनर्मंचन हो रहा है जिसमें अभिनेता, क्यारोस्तामी के उस अनुभव को फिर से जी रहा है जब वह भुकंप पीडित क्षेत्रों में ‘दोस्त का घर कहां है?’ के एक्टरों की खोज-खबर लेने गए थे जहां फिल्म की शुटिंग हुई थी. क्यारोस्तामी ने धीमे-धीमे एक ऐसी दुनिया बुन दी थी जिसमें यथार्थ, कथा, सिनेमाई पुनर्रचना, डाक्यूमेंट्री के पारंपरिक विभाजन मिटकर एक निहायत अलहदा किस्म का ही सिनेलोक निर्मित कर रहे थे.
(जारी...)
(क्यारोस्तामी की 'थ्रू द ऑलिव ट्रीज़' की दुनिया)
3/24/2007
सच की अनगिन परतें
ईरानी सिनेमा: चार
1986 में पश्चिम को अचरज में डालने के बाद क्यारोस्तामी की एक ऐसे सिनेकार की अंतर्राष्ट्रीय पहचान बनी जिसका संसार न केवल एक अद्भुत मानवीयता से छलक रहा है, बल्कि जो थोड़े पैसों में एक से एक अनोखे हीरे तराश कर सिनेमाई संवेदना को अमीर करने में समर्थ है. क्यारोस्तामी के पीछे-पीछे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के परिदृश्य में एक दूसरे ईरानी फिल्मकार का पदार्पण हुआ. स्व-शिक्षित व पूर्व क्रांतिकारी- जनाब मोहसेन मखमलबाफ, इन्हें शाह के शासन के दरमियान एक पुलिसवाले पर छूरा चलाने के ज़ुर्म में सज़ा हुई थी. 1996 में बनी उनकी फिल्म ‘नन वा गोल्दुन’ (अंग्रेजी में शीर्षक- अ मोमेंट ऑफ इन्नोसेंस) एक तरीके से नब्बे के दशक में क्यों ईरानी सिनेमा इतना खास था का अच्छा खुलासा करती है. इस फिल्म में पुलिसवाला और खुद मखमलबाफ छूरे से हमले की घटना को अपने अलग-अलग नज़रिये से फिल्माते हैं.
जैसे किसान ज़मीन में हल चलाता है वैसे ही क्यारोस्तामी और मखमलबाफ हमारी आंखों के आगे सच्चाई की एक-एक परत उघाड़कर रखते चलते हैं. ईरान में एक के बाद एक नये जुड़ते हस्ताक्षरों में इतालवी नियो-रियलिज्म का असर भले रहा हो धीरे-धीरे पंद्रह-बीस वर्षों में वहां जो सिनेमाई संपदा इकट्ठा हुई है, कैमरे के पीछे से दुनिया को देखने, परिभाषित करने का जो- ऊपर से सरल और भीतर प्याज की परत दर परत छिपाये हुए- तरीका उसने ईजाद किया है वह दुनिया में सिनेमा के अबतक के इतिहास में अनोखा है, अतुलनीय है, और गरीब मुल्कों के लिए इसका बेशकीमती उदाहरण कि अच्छा सिनेमा पैसे पर नहीं अच्छी कल्पना और समाज से जीवंत संबंध पर अाश्रित है.
(जारी...)
1986 में पश्चिम को अचरज में डालने के बाद क्यारोस्तामी की एक ऐसे सिनेकार की अंतर्राष्ट्रीय पहचान बनी जिसका संसार न केवल एक अद्भुत मानवीयता से छलक रहा है, बल्कि जो थोड़े पैसों में एक से एक अनोखे हीरे तराश कर सिनेमाई संवेदना को अमीर करने में समर्थ है. क्यारोस्तामी के पीछे-पीछे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के परिदृश्य में एक दूसरे ईरानी फिल्मकार का पदार्पण हुआ. स्व-शिक्षित व पूर्व क्रांतिकारी- जनाब मोहसेन मखमलबाफ, इन्हें शाह के शासन के दरमियान एक पुलिसवाले पर छूरा चलाने के ज़ुर्म में सज़ा हुई थी. 1996 में बनी उनकी फिल्म ‘नन वा गोल्दुन’ (अंग्रेजी में शीर्षक- अ मोमेंट ऑफ इन्नोसेंस) एक तरीके से नब्बे के दशक में क्यों ईरानी सिनेमा इतना खास था का अच्छा खुलासा करती है. इस फिल्म में पुलिसवाला और खुद मखमलबाफ छूरे से हमले की घटना को अपने अलग-अलग नज़रिये से फिल्माते हैं.
जैसे किसान ज़मीन में हल चलाता है वैसे ही क्यारोस्तामी और मखमलबाफ हमारी आंखों के आगे सच्चाई की एक-एक परत उघाड़कर रखते चलते हैं. ईरान में एक के बाद एक नये जुड़ते हस्ताक्षरों में इतालवी नियो-रियलिज्म का असर भले रहा हो धीरे-धीरे पंद्रह-बीस वर्षों में वहां जो सिनेमाई संपदा इकट्ठा हुई है, कैमरे के पीछे से दुनिया को देखने, परिभाषित करने का जो- ऊपर से सरल और भीतर प्याज की परत दर परत छिपाये हुए- तरीका उसने ईजाद किया है वह दुनिया में सिनेमा के अबतक के इतिहास में अनोखा है, अतुलनीय है, और गरीब मुल्कों के लिए इसका बेशकीमती उदाहरण कि अच्छा सिनेमा पैसे पर नहीं अच्छी कल्पना और समाज से जीवंत संबंध पर अाश्रित है.
(जारी...)
3/22/2007
हनीमूनी खट्टा-मीठा
हनीमून ट्रैवेल्स प्रा. लि.
मनीषा पाण्डेय
हनीमून ट्रैवेल्स प्रा. लि. देखी. मैं और मेरी एक दोस्त हंस-हंसकर पागल हुए. पूरी कहानी गोआ हनीमून मनाने गए छ: जोड़ों की कहानी है, जिसे रीमा कागती के बढिया निर्देशन ने संभाला है, जिनकी ये पहली फिल्म है. टिपिकल गुजराती जिगनीस और सिल्पा (उच्चारण का खास अंदाज) से लेकर बंगाली, पारसी, हिंदी, अंग्रेजी सब उसमें शामिल हैं, और हर कोई अपने आप में एक कैरेक्टर है. आम जिंदगी के चरित्रों और रोजमर्रा के व्यवहार में हास्य को पकड़ने की कोशिश है. फिल्म देखते हुए हंसी आती है और अपनी बहुत सारी मूर्खताएं और पिछड़ापन भी जाहिर होता चलता है. लेकिन इन मूर्खताओं पर आप भावुक होकर आंसू नहीं बहाने लगते. फिल्म में जिन सिचुएशंस और चरित्रों पर आपको हंसी आती है, अमूमन हिंदी फिल्मों में उसका कुछ मसाला और आंसू चुहाने वाला इस्तेमाल होता है. बीच-बीच में 98.3 एफएम की कमेंट्री और सिचुएशन के अनुकूल हिंदी फिल्मी गानों का इस्तेमाल मजेदार है.
सारे कलाकार अपनी-अपनी भूमिकाओं में फिट हैं, लेकिन बाबू मुशाय केके का अभिनय अच्छा है. फिल्म के सेकेंड हाफ में उसका एक डांस पूरी फिल्म की जान है. हिंदी दर्शकों के लिए इस तरह का हास्य एक नई बात है. हमारे यहां हास्य कलाकारों को पैच की तरह फिल्म में अलग से ठूंसा जाता है, जिसका कहानी से कुछ लेना-देना नहीं होता. जैसे एक फिल्म के लिए बनाए गए जॉनी लीवर के कुछ कॉमेडी सीन्स फिल्म के अटक जाने पर बेकार नहीं जाते, उस पैबंद को किसी दूसरी फिल्म में चिपका दिया जाता है, जैसे हिंदी फिल्मों के गानों के साथ भी होता है. हमारे यहां कुछ भी बेकार नहीं जाता। हम हर चीज का इस्तेमाल कर लेते हैं.
मनीषा पाण्डेय
हनीमून ट्रैवेल्स प्रा. लि. देखी. मैं और मेरी एक दोस्त हंस-हंसकर पागल हुए. पूरी कहानी गोआ हनीमून मनाने गए छ: जोड़ों की कहानी है, जिसे रीमा कागती के बढिया निर्देशन ने संभाला है, जिनकी ये पहली फिल्म है. टिपिकल गुजराती जिगनीस और सिल्पा (उच्चारण का खास अंदाज) से लेकर बंगाली, पारसी, हिंदी, अंग्रेजी सब उसमें शामिल हैं, और हर कोई अपने आप में एक कैरेक्टर है. आम जिंदगी के चरित्रों और रोजमर्रा के व्यवहार में हास्य को पकड़ने की कोशिश है. फिल्म देखते हुए हंसी आती है और अपनी बहुत सारी मूर्खताएं और पिछड़ापन भी जाहिर होता चलता है. लेकिन इन मूर्खताओं पर आप भावुक होकर आंसू नहीं बहाने लगते. फिल्म में जिन सिचुएशंस और चरित्रों पर आपको हंसी आती है, अमूमन हिंदी फिल्मों में उसका कुछ मसाला और आंसू चुहाने वाला इस्तेमाल होता है. बीच-बीच में 98.3 एफएम की कमेंट्री और सिचुएशन के अनुकूल हिंदी फिल्मी गानों का इस्तेमाल मजेदार है.
सारे कलाकार अपनी-अपनी भूमिकाओं में फिट हैं, लेकिन बाबू मुशाय केके का अभिनय अच्छा है. फिल्म के सेकेंड हाफ में उसका एक डांस पूरी फिल्म की जान है. हिंदी दर्शकों के लिए इस तरह का हास्य एक नई बात है. हमारे यहां हास्य कलाकारों को पैच की तरह फिल्म में अलग से ठूंसा जाता है, जिसका कहानी से कुछ लेना-देना नहीं होता. जैसे एक फिल्म के लिए बनाए गए जॉनी लीवर के कुछ कॉमेडी सीन्स फिल्म के अटक जाने पर बेकार नहीं जाते, उस पैबंद को किसी दूसरी फिल्म में चिपका दिया जाता है, जैसे हिंदी फिल्मों के गानों के साथ भी होता है. हमारे यहां कुछ भी बेकार नहीं जाता। हम हर चीज का इस्तेमाल कर लेते हैं.
सुख की खोज.. या सुरक्षा की?
परस्युट ऑफ हैप्पीनेस: एक समीक्षा
अभय तिवारी
ये उद्धरण है थामस जेफ़रसन का जो न केवल संयुक्त राज्य अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थे बल्कि 1776 के डेक्लेरेशन ऑफ़ इन्डिपेन्डेन्स के मुख्य लेखक भी थे..
इस उद्धरण में जो अन्तिम वाक्य है वही से प्रेरित हो कर इस फ़िल्म का शीर्षक रखा गया है.. फ़िल्म के नायक विल स्मिथ एक निराश क्षण में जेफ़रसन को याद करते हुये कहते हैं कि उन्होने सोच समझ कर pursuit की बात की है.. क्योंकि happiness सिर्फ़ pursue की जा सकती है.. पाई नहीं जा सकती.. परन्तु फ़िल्म के अन्त तक एक लम्बे और थका देने वाले संघर्ष के बाद विल स्मिथ अपने pursuit में सफल हो कर सच्ची खुशी हासिल कर लेते हैं..
फ़िल्म की कहानी बहुत सीधी सादी है... क्रिस गार्डनर एक निम्न मध्यवर्गीय अश्वेत नागरिक है.. एक अच्छा पति और ज़िम्मेदार बाप है.. एक बोन डेन्सिटी एक्सरे मशीन का सेल्समैन है और किसी तरह गुज़ारा करने की कोशिश कर रहा है.. पर वो मशीनें उसके गले का पत्थर बन चुकी हैं.. कोई नहीं खरीदना चाहता उन्हे.. तंग आकर बीबी छोड़कर चली जाती है.. क्रिस के पास पैसे नहीं है.. घर छोड़ना पड़ता है.. बच्चे को लेकर दर-दर भटकना पड़ता है.. जिसके दौरान हमें अमेरिका की एक अलग ही तस्वीर दिखती है.. कितने कितने लोग हैं जो निहायत तंगहाली और ग़रीबी का जीवन जीने के लिये मजबूर हैं.. क्रिस हिम्मत नहीं हारता वह लड़ता है अपने हालात से.. उसे मालूम है कि जेफ़र्सन ने कहा है कि सभी मनुष्य बराबर पैदा हुये हैं.. और आखिर में वह एक ऐसी नौकरी पा लेता है जो एक छै महीने के लम्बे इन्टर्नशिप के बाद २० लोगों के बैच में से किसी एक को मिलनी थी.. और वो भाग्यशाली विजेता बनता है.. हाईस्कूल पास एक अश्वेत अमरीकी.. क्यों.. क्य़ोंकि उसने इंसान के बराबरी और खुशी के हक़दार होने की बात पर से अपना यकीन नहीं छोड़ा...
अमरीकी समाज आज जिस चिन्तन को पूरी दुनिया पर थोपना चाहता है यह फ़िल्म उन्ही मूल्यों की पैरवी करती है.. क्या हैं वो चिन्तन.. आप अगर अपने हालात से खुश नहीं हैं.. तो इसमें किसी और की कोई ज़िम्मेदारी नहीं.. सिर्फ़ और सिर्फ़ आप ज़िम्मेदार हैं अपने दुर्भाग्य के लिये..आप के अंदर इतना बूता नहीं कि अपने हिस्से की खुशी बढ़कर सामाजिक ढ़ांचे में ऊपर की श्रेणियों में से तोड़ लें.. और याद रहे सच्ची खुशी वही पा सकता है जो haves and haves not की लड़ाई में haves वाले पाले में कूद पाने में सफल हो गया हो.. जैसे कि फ़िल्म के अंत में क्रिस हो जाता है.. उसे स्टॉक ब्रोकर बनने की प्रेरणा तब मिलती है.. जब वो देखता है एक रोज़ भयानक खूबसूरत फ़ेरारी में एक बेइंतहा खुश एक गोरे को.. क्रिस उससे बात करता है.. और अहा.. आपने सोचा होगा कि वो गोरा, क्रिस को झिड़क देगा.. मगर ना.. सच्ची खुशी पाने वाले मन के निर्मल हो जाते हैं.. बड़े मोहब्बत से बाते हुई दोनों के बीच.. बस उसी दिन से क्रिस ने ठान लिया कि बनना है तो स्टॉक ब्रोकर.. और लग गया और बन के ही माना.. फ़िल्म के दौरान हम जितने पैसेवाले "खुश" लोगों को देखते हैं.. वो निहायत ही निर्मल हृदय और क्लोज़-अप मुस्कान वाले भी होते हैं... ऊँच-नीच काले-गोरे का कोई भेद नहीं बस दिल का दिलों से नाता है.. कई बार लगने लगता है कि यह फ़िल्म मनोज कुमार के किसी अमरीकी अवतार का देशभक्ति से भरा शाहकार है.. बस रसीले गानों की कमी रह गई..(इस बात को लिट्रल ना लिया जाय)
दूसरी बात जो फ़िल्म में उभर के आती है कि क्रिस भले ही पढ़ा लिखा न हो मगर प्रतिभावान है (वो रुबिक क्युब मिनटों में हल कर लेता है).. और भयानक प्रकार की इच्छा शक्ति और प्रेरणाशक्ति का मालिक है.. तभी वो अपने हालात को पलटने में कामयाब हो जाता है.. बधाई है उस असली क्रिस गार्डनर को जिसके जीवन पर ये फ़िल्म आधारित है मगर उन लोगों का क्या होगा अमरीकी समाज में जो ना क्रिस जितने प्रेरित हैं और ना उतने प्रतिभाशाली? क्या वो अपने कमज़ोरियों के साथ ऎड़ियां रगड़ रगड़ कर मर जाने के लिये अभिशप्त हैं..?
फ़िल्म में पीछे से क्रिस की कमेन्टरी चलती रहती है.. एक सीन के दौरान हमें बताया जाता है कि this part of my life I call stupidity.. हम देखते हैं कि क्रिस एक व्यक्ति से मिलने जाने के लिये अपने हाथ की मशीन सड़क पर गिटार बजा रही एक हिप्पी लड़की के हवाले कर के अन्दर चला जाता है.. और लड़की उसकी मशीन लेके चम्पत हो जाती है.. कोई खास बात नहीं .. लेकिन कमेन्टरी ने इसे एक वृत्ति के रूप में रेखांकित किया... कभी किसी पर भरोसा मत करो...
और दूसरी तमाम बातें जो फ़िल्म में छोटी छोटी चीज़ों से उभर के आती हैं.. उनमें हैं कि मरते मर जाओ पर किसी के आगे हाथ मत फैलाओ... बीबी अगर छोड़ के चली गई तो उसमें ना तुम्हारा दोष है ना देश का ना समाज का वो सिर्फ़ और सिर्फ़ बीबी की कमज़ोरी है.. कि लड़ने का जिगरा नहीं है उसके पास..
और जब आखिर में फ़िल्म समाप्त होती है तो नौकरी मिलने की खबर सुनकर क्रिस का चेहरा सपाट बना रहता है बस उसकी आँखे भर आती हैं.. और पीछे से क्रिस की की आवाज़ आती है.. this part of my life I call happiness.. भाईसाब इसको happiness कहते हैं..? हम तो आजकल कुछ और ही समझते आये थे.. और जिसे आप बता रहे हो.. उसे हम कह्ते हैं... अबे गुरु बच गये... आज के बाद अपनी और नहीं कटेगी!
चलते चलते जेफ़रसन साहब की एक दो बातें और जिनका फ़िल्म ज़िक्र नहीं करती...
“though government cannot create a right to liberty, it can indeed violate it.
A proper government is one that not only prohibits individuals in society from infringing on the liberty of other individuals, but also restrains itself from diminishing individual liberty.
I am convinced that those societies which live without government, enjoy in their general mass an infinitely greater degree of happiness than those who live under the European governments."
(ऊपर जेफ़रसन का सच, नीचे विल स्मिथ का झूठ)
अभय तिवारी
all men are created equal & independent, that from that equal creation they derive rights inherent & inalienable, among which are the preservation of life, & liberty, & the pursuit of happiness.
ये उद्धरण है थामस जेफ़रसन का जो न केवल संयुक्त राज्य अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थे बल्कि 1776 के डेक्लेरेशन ऑफ़ इन्डिपेन्डेन्स के मुख्य लेखक भी थे..
इस उद्धरण में जो अन्तिम वाक्य है वही से प्रेरित हो कर इस फ़िल्म का शीर्षक रखा गया है.. फ़िल्म के नायक विल स्मिथ एक निराश क्षण में जेफ़रसन को याद करते हुये कहते हैं कि उन्होने सोच समझ कर pursuit की बात की है.. क्योंकि happiness सिर्फ़ pursue की जा सकती है.. पाई नहीं जा सकती.. परन्तु फ़िल्म के अन्त तक एक लम्बे और थका देने वाले संघर्ष के बाद विल स्मिथ अपने pursuit में सफल हो कर सच्ची खुशी हासिल कर लेते हैं..
फ़िल्म की कहानी बहुत सीधी सादी है... क्रिस गार्डनर एक निम्न मध्यवर्गीय अश्वेत नागरिक है.. एक अच्छा पति और ज़िम्मेदार बाप है.. एक बोन डेन्सिटी एक्सरे मशीन का सेल्समैन है और किसी तरह गुज़ारा करने की कोशिश कर रहा है.. पर वो मशीनें उसके गले का पत्थर बन चुकी हैं.. कोई नहीं खरीदना चाहता उन्हे.. तंग आकर बीबी छोड़कर चली जाती है.. क्रिस के पास पैसे नहीं है.. घर छोड़ना पड़ता है.. बच्चे को लेकर दर-दर भटकना पड़ता है.. जिसके दौरान हमें अमेरिका की एक अलग ही तस्वीर दिखती है.. कितने कितने लोग हैं जो निहायत तंगहाली और ग़रीबी का जीवन जीने के लिये मजबूर हैं.. क्रिस हिम्मत नहीं हारता वह लड़ता है अपने हालात से.. उसे मालूम है कि जेफ़र्सन ने कहा है कि सभी मनुष्य बराबर पैदा हुये हैं.. और आखिर में वह एक ऐसी नौकरी पा लेता है जो एक छै महीने के लम्बे इन्टर्नशिप के बाद २० लोगों के बैच में से किसी एक को मिलनी थी.. और वो भाग्यशाली विजेता बनता है.. हाईस्कूल पास एक अश्वेत अमरीकी.. क्यों.. क्य़ोंकि उसने इंसान के बराबरी और खुशी के हक़दार होने की बात पर से अपना यकीन नहीं छोड़ा...
अमरीकी समाज आज जिस चिन्तन को पूरी दुनिया पर थोपना चाहता है यह फ़िल्म उन्ही मूल्यों की पैरवी करती है.. क्या हैं वो चिन्तन.. आप अगर अपने हालात से खुश नहीं हैं.. तो इसमें किसी और की कोई ज़िम्मेदारी नहीं.. सिर्फ़ और सिर्फ़ आप ज़िम्मेदार हैं अपने दुर्भाग्य के लिये..आप के अंदर इतना बूता नहीं कि अपने हिस्से की खुशी बढ़कर सामाजिक ढ़ांचे में ऊपर की श्रेणियों में से तोड़ लें.. और याद रहे सच्ची खुशी वही पा सकता है जो haves and haves not की लड़ाई में haves वाले पाले में कूद पाने में सफल हो गया हो.. जैसे कि फ़िल्म के अंत में क्रिस हो जाता है.. उसे स्टॉक ब्रोकर बनने की प्रेरणा तब मिलती है.. जब वो देखता है एक रोज़ भयानक खूबसूरत फ़ेरारी में एक बेइंतहा खुश एक गोरे को.. क्रिस उससे बात करता है.. और अहा.. आपने सोचा होगा कि वो गोरा, क्रिस को झिड़क देगा.. मगर ना.. सच्ची खुशी पाने वाले मन के निर्मल हो जाते हैं.. बड़े मोहब्बत से बाते हुई दोनों के बीच.. बस उसी दिन से क्रिस ने ठान लिया कि बनना है तो स्टॉक ब्रोकर.. और लग गया और बन के ही माना.. फ़िल्म के दौरान हम जितने पैसेवाले "खुश" लोगों को देखते हैं.. वो निहायत ही निर्मल हृदय और क्लोज़-अप मुस्कान वाले भी होते हैं... ऊँच-नीच काले-गोरे का कोई भेद नहीं बस दिल का दिलों से नाता है.. कई बार लगने लगता है कि यह फ़िल्म मनोज कुमार के किसी अमरीकी अवतार का देशभक्ति से भरा शाहकार है.. बस रसीले गानों की कमी रह गई..(इस बात को लिट्रल ना लिया जाय)
दूसरी बात जो फ़िल्म में उभर के आती है कि क्रिस भले ही पढ़ा लिखा न हो मगर प्रतिभावान है (वो रुबिक क्युब मिनटों में हल कर लेता है).. और भयानक प्रकार की इच्छा शक्ति और प्रेरणाशक्ति का मालिक है.. तभी वो अपने हालात को पलटने में कामयाब हो जाता है.. बधाई है उस असली क्रिस गार्डनर को जिसके जीवन पर ये फ़िल्म आधारित है मगर उन लोगों का क्या होगा अमरीकी समाज में जो ना क्रिस जितने प्रेरित हैं और ना उतने प्रतिभाशाली? क्या वो अपने कमज़ोरियों के साथ ऎड़ियां रगड़ रगड़ कर मर जाने के लिये अभिशप्त हैं..?
फ़िल्म में पीछे से क्रिस की कमेन्टरी चलती रहती है.. एक सीन के दौरान हमें बताया जाता है कि this part of my life I call stupidity.. हम देखते हैं कि क्रिस एक व्यक्ति से मिलने जाने के लिये अपने हाथ की मशीन सड़क पर गिटार बजा रही एक हिप्पी लड़की के हवाले कर के अन्दर चला जाता है.. और लड़की उसकी मशीन लेके चम्पत हो जाती है.. कोई खास बात नहीं .. लेकिन कमेन्टरी ने इसे एक वृत्ति के रूप में रेखांकित किया... कभी किसी पर भरोसा मत करो...
और दूसरी तमाम बातें जो फ़िल्म में छोटी छोटी चीज़ों से उभर के आती हैं.. उनमें हैं कि मरते मर जाओ पर किसी के आगे हाथ मत फैलाओ... बीबी अगर छोड़ के चली गई तो उसमें ना तुम्हारा दोष है ना देश का ना समाज का वो सिर्फ़ और सिर्फ़ बीबी की कमज़ोरी है.. कि लड़ने का जिगरा नहीं है उसके पास..
और जब आखिर में फ़िल्म समाप्त होती है तो नौकरी मिलने की खबर सुनकर क्रिस का चेहरा सपाट बना रहता है बस उसकी आँखे भर आती हैं.. और पीछे से क्रिस की की आवाज़ आती है.. this part of my life I call happiness.. भाईसाब इसको happiness कहते हैं..? हम तो आजकल कुछ और ही समझते आये थे.. और जिसे आप बता रहे हो.. उसे हम कह्ते हैं... अबे गुरु बच गये... आज के बाद अपनी और नहीं कटेगी!
चलते चलते जेफ़रसन साहब की एक दो बातें और जिनका फ़िल्म ज़िक्र नहीं करती...
“though government cannot create a right to liberty, it can indeed violate it.
A proper government is one that not only prohibits individuals in society from infringing on the liberty of other individuals, but also restrains itself from diminishing individual liberty.
I am convinced that those societies which live without government, enjoy in their general mass an infinitely greater degree of happiness than those who live under the European governments."
(ऊपर जेफ़रसन का सच, नीचे विल स्मिथ का झूठ)
3/21/2007
अनोखेपन की बुनकारी
ईरानी सिनेमा: तीन
ईरान के सिनेमाई परिदृश्य में अगली मज़ेदार और अनोखी बात यह हुई कि आनेवाले वर्षों के राजनीतिक-सामाजिक तूफान ने गाय को और बड़ी ऊंचाई मुहैया करवाई. फिल्म की सफलता के आठ वर्षों के उपरांत, 1979 में शाह सत्ताच्यूत हुए और उनकी जगह अयातोल्लाह खोमैनी के इस्लामिक गणतंत्र की स्थापना हुई. अपने आरंभिक भाषणों में एक में खोमैनी ने कहा कि सिनेमा पतित और जुगुप्सा जगानेवाला हो गया है (यह कमेंट बहुत गलत था भी नहीं) और यह कि नये सामाजिक, धार्मिक मूल्यों की स्थापना में उसे शैक्षिक सहयोगी की भूमिका में उतरना होगा. फिल्में किस तरह बननी चाहिये के हवाले में खोमैनी ने – सोचिये, और किसी फिल्म का नहीं- गाय का जिक्र किया और तदंतर सरकार की ओर से उन जटिल व उलझावभरे नियमों की प्रस्तावना हुई जिसके सेंसरशिप में आगे ईरान में फिल्मों को बनाये जाने की अनुमति मिलनी थी.
केश दिखाती औरतें, रोमांस, किसी भी तरह का छुआ-छुऔव्वल, शारीरिक कामना, निरर्थक हिंसा सब पर गणतंत्र ने प्रतिबंध लगा दिया. मतलब समाज के लिए अर्थपूर्ण लेकिन दर्शकों के लिए उबाऊ फिल्मों के आधार की स्थापना हुई. ऊपर से देखने पर अंदाज़ ऐसा ही होता है मगर असलियत में हुआ इसके ठीक उल्टा. खोमैनी के प्रतिबंधों ने ईरानी सिनेमा के स्तर में एकदम-से बढ़ोत्तरी कर दी. पहली बात तो यह हुई इसने फिल्मकारों को बाज़ार के दबावों से आज़ाद कर दिया. दूसरे, सेंसरशिप के प्रतिबंध ने उन्हें और ज्यादा कल्पनाशील बनाया. तीसरे, सिर्फ घटिया मनोरंजन जनते रहने के जिम्मे से मुक्त होकर अब वे ज्याद: ऊंची उड़ानें भर सकते थे.
प्रतिबंधों की नियमावली के ढंग से समाज में धंस चुकने के पश्चात ईरानी सिनेमा का एक स्वर्णकाल शुरु हुआ. पश्चिम में सिनेमा जब अपने पतन के चरम में था, 1986 में, नये ईरानी सिनेमा के सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षर अब्बास क्यारोस्तामी उनके बीच अपनी फिल्म दोस्त का घर कहां है? लेकर पहुंचे. पश्चिम के पतन और पूरब के नये ताप की इससे बड़ी विरोधाभासी संगत नहीं हो सकती थी.
(जारी...)
(ऊपर इस्लामिक गणतंत्र से पहले की फिल्मों का एक कोलाज़)
ईरान के सिनेमाई परिदृश्य में अगली मज़ेदार और अनोखी बात यह हुई कि आनेवाले वर्षों के राजनीतिक-सामाजिक तूफान ने गाय को और बड़ी ऊंचाई मुहैया करवाई. फिल्म की सफलता के आठ वर्षों के उपरांत, 1979 में शाह सत्ताच्यूत हुए और उनकी जगह अयातोल्लाह खोमैनी के इस्लामिक गणतंत्र की स्थापना हुई. अपने आरंभिक भाषणों में एक में खोमैनी ने कहा कि सिनेमा पतित और जुगुप्सा जगानेवाला हो गया है (यह कमेंट बहुत गलत था भी नहीं) और यह कि नये सामाजिक, धार्मिक मूल्यों की स्थापना में उसे शैक्षिक सहयोगी की भूमिका में उतरना होगा. फिल्में किस तरह बननी चाहिये के हवाले में खोमैनी ने – सोचिये, और किसी फिल्म का नहीं- गाय का जिक्र किया और तदंतर सरकार की ओर से उन जटिल व उलझावभरे नियमों की प्रस्तावना हुई जिसके सेंसरशिप में आगे ईरान में फिल्मों को बनाये जाने की अनुमति मिलनी थी.
केश दिखाती औरतें, रोमांस, किसी भी तरह का छुआ-छुऔव्वल, शारीरिक कामना, निरर्थक हिंसा सब पर गणतंत्र ने प्रतिबंध लगा दिया. मतलब समाज के लिए अर्थपूर्ण लेकिन दर्शकों के लिए उबाऊ फिल्मों के आधार की स्थापना हुई. ऊपर से देखने पर अंदाज़ ऐसा ही होता है मगर असलियत में हुआ इसके ठीक उल्टा. खोमैनी के प्रतिबंधों ने ईरानी सिनेमा के स्तर में एकदम-से बढ़ोत्तरी कर दी. पहली बात तो यह हुई इसने फिल्मकारों को बाज़ार के दबावों से आज़ाद कर दिया. दूसरे, सेंसरशिप के प्रतिबंध ने उन्हें और ज्यादा कल्पनाशील बनाया. तीसरे, सिर्फ घटिया मनोरंजन जनते रहने के जिम्मे से मुक्त होकर अब वे ज्याद: ऊंची उड़ानें भर सकते थे.
प्रतिबंधों की नियमावली के ढंग से समाज में धंस चुकने के पश्चात ईरानी सिनेमा का एक स्वर्णकाल शुरु हुआ. पश्चिम में सिनेमा जब अपने पतन के चरम में था, 1986 में, नये ईरानी सिनेमा के सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षर अब्बास क्यारोस्तामी उनके बीच अपनी फिल्म दोस्त का घर कहां है? लेकर पहुंचे. पश्चिम के पतन और पूरब के नये ताप की इससे बड़ी विरोधाभासी संगत नहीं हो सकती थी.
(जारी...)
(ऊपर इस्लामिक गणतंत्र से पहले की फिल्मों का एक कोलाज़)
3/20/2007
काला घर और गांव की गाय
ईरानी सिनेमा: दो
साठ का दशक नतीजों वाला साबित हुआ. दशक के शुरुआत में सालाना पच्चीस के एवरेज से बननेवाली फिल्मों की संख्या दशक के आखिर तक पैंसठ पर पहुंच चुकी थी. अलबत्ता इनमें ज्यादा फिल्में हल्के-फुल्के रोमांस, मेलोड्रामा व थ्रिलर के उन जानरों की थी जो व्यावसायिक सिनेमा की एक खास ईरानी (देसी चाशनी में थोडा हॉलीवुड, कुछ बॉलीवुड) ईजाद रहे. स्थानीय स्तर पर जिसकी ठीक-ठाक मात्रा में दर्शक तैयार हो गए थे. इस सिनेमा ने सत्तर के दशक में ईरान को मोहम्मद अली फरदीन जैसे स्टार दिये. 1979 में खोमैनी की इस्लामिक क्रांति ने देश में हल्के-फुल्के सिनेमाई मनोरंजन का न केवल बोरिया-बिस्तर बांध दिया, सिनेमा में क्या दिखाया जाएगा और क्या नहीं इसे लेकर विस्तार से नई नीतियां बनाकर लागू की. इस पर बाद में. पहले पहले की कुछ और खबर लेते चलें.
ईरानी सिनेमा के जिस पेचीदा और अनोखे रास्ते की हमने पिछली दफा चर्चा की थी उसकी पहला महत्वपूर्ण दस्तक थी फिल्म- 1962 में बनी घर काला है. कुष्ठ रोगियों पर बने ईरानी सिनेमा के इस लगभग प्रथम गंभीर प्रयास के दो अनोखे पहलू थे. यही नहीं कि फिल्म डॉक्यूमेंट्री थी और इसका रचयिता फोरुग फारोगज़ाद एक शायर था, बल्कि यह कि इस सीरियस शुरुआत का आगाज़ एक पुरुष नहीं स्त्री के हाथों हुआ था. फारोगज़ाद एक महिला थी और इससे पहले दुनिया के किसी और मुल्क में यह नहीं हुआ था कि रचनात्मकता का पहला बिगुल किसी स्त्री ने बजाया हो.
इस ऐतिहासिक व्यंग्य की इतने में ही परिणति नहीं हुई. कहानी का अगला पेंच यह था कि घर काला है अपने बनने के बाद घर में ही बनी रही और पश्चिमी गंभीर सिने दर्शकों की नज़रों तक वह नहीं ही पहुंची. आनेवाले आठ वर्ष अभी और ईरानी सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय गुमनामी में गुज़ारना था. अगला झटका एक अट्ठाईस वर्षीय दारियस मेहरजुइ की फिल्म के साथ आया. सस्ते में बनी काली-सफेद और बिना सबटाईटलों वाली दारियस की फिल्म स्मगल होकर वेनिस के फिल्म महोत्सव तक पहुंच गई. गाव (गाय) नाम की यह फिल्म गांव के एक आदमी की अपने गाय प्यार, ओब्सेशन की कवितानुमा कथा कहती है जिसकी दुनिया में गाय ही आय का इकलौता स्त्रोत है. फिल्म ने न केवल वेनिस महोत्सव में ईनाम जीता, ईरानी सिनेमा के लिए अंतर्राष्ट्रीय दरवाज़े खोले और घरेलू मोर्चे पर लोक कथात्मक, डॉक्यूमेंट्री शैली के ऐसे सिनेमा को हवा दी जिसका प्रभाव आनेवाली एक समूची पीढी के सिनेमा में देखा जानेवाला था.
(जारी...)
ऊपर फोरुग फारोगज़ाद और नीचे फिल्म गाय का एक दृश्य)
साठ का दशक नतीजों वाला साबित हुआ. दशक के शुरुआत में सालाना पच्चीस के एवरेज से बननेवाली फिल्मों की संख्या दशक के आखिर तक पैंसठ पर पहुंच चुकी थी. अलबत्ता इनमें ज्यादा फिल्में हल्के-फुल्के रोमांस, मेलोड्रामा व थ्रिलर के उन जानरों की थी जो व्यावसायिक सिनेमा की एक खास ईरानी (देसी चाशनी में थोडा हॉलीवुड, कुछ बॉलीवुड) ईजाद रहे. स्थानीय स्तर पर जिसकी ठीक-ठाक मात्रा में दर्शक तैयार हो गए थे. इस सिनेमा ने सत्तर के दशक में ईरान को मोहम्मद अली फरदीन जैसे स्टार दिये. 1979 में खोमैनी की इस्लामिक क्रांति ने देश में हल्के-फुल्के सिनेमाई मनोरंजन का न केवल बोरिया-बिस्तर बांध दिया, सिनेमा में क्या दिखाया जाएगा और क्या नहीं इसे लेकर विस्तार से नई नीतियां बनाकर लागू की. इस पर बाद में. पहले पहले की कुछ और खबर लेते चलें.
ईरानी सिनेमा के जिस पेचीदा और अनोखे रास्ते की हमने पिछली दफा चर्चा की थी उसकी पहला महत्वपूर्ण दस्तक थी फिल्म- 1962 में बनी घर काला है. कुष्ठ रोगियों पर बने ईरानी सिनेमा के इस लगभग प्रथम गंभीर प्रयास के दो अनोखे पहलू थे. यही नहीं कि फिल्म डॉक्यूमेंट्री थी और इसका रचयिता फोरुग फारोगज़ाद एक शायर था, बल्कि यह कि इस सीरियस शुरुआत का आगाज़ एक पुरुष नहीं स्त्री के हाथों हुआ था. फारोगज़ाद एक महिला थी और इससे पहले दुनिया के किसी और मुल्क में यह नहीं हुआ था कि रचनात्मकता का पहला बिगुल किसी स्त्री ने बजाया हो.
इस ऐतिहासिक व्यंग्य की इतने में ही परिणति नहीं हुई. कहानी का अगला पेंच यह था कि घर काला है अपने बनने के बाद घर में ही बनी रही और पश्चिमी गंभीर सिने दर्शकों की नज़रों तक वह नहीं ही पहुंची. आनेवाले आठ वर्ष अभी और ईरानी सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय गुमनामी में गुज़ारना था. अगला झटका एक अट्ठाईस वर्षीय दारियस मेहरजुइ की फिल्म के साथ आया. सस्ते में बनी काली-सफेद और बिना सबटाईटलों वाली दारियस की फिल्म स्मगल होकर वेनिस के फिल्म महोत्सव तक पहुंच गई. गाव (गाय) नाम की यह फिल्म गांव के एक आदमी की अपने गाय प्यार, ओब्सेशन की कवितानुमा कथा कहती है जिसकी दुनिया में गाय ही आय का इकलौता स्त्रोत है. फिल्म ने न केवल वेनिस महोत्सव में ईनाम जीता, ईरानी सिनेमा के लिए अंतर्राष्ट्रीय दरवाज़े खोले और घरेलू मोर्चे पर लोक कथात्मक, डॉक्यूमेंट्री शैली के ऐसे सिनेमा को हवा दी जिसका प्रभाव आनेवाली एक समूची पीढी के सिनेमा में देखा जानेवाला था.
(जारी...)
ऊपर फोरुग फारोगज़ाद और नीचे फिल्म गाय का एक दृश्य)
1971
by Jainarain
It could have been a decent film. It’s not. The basic idea (provided by the director Amrit Sagar) – of a group of Indian prisoners from 1971 Indo-Pak war whose fate hang precariously, seeing no sign of freedom they plan a daring escape—was not bad for a trite drama and patches of heroism. But the premise is terribly screwed up in the final script and dialogues (both written by Piyush Mishra). One feels sorry for the first time director who appears well intentioned (not playing to the galleries the usual jingoistic stuff, using just two songs and not going for a heroine when the story didn’t require it) but at the same time he seems too confused as what to hold and what to throw away. There are scenes in the film you wish they were one fourth of their length and then there are scenes you wish they were not there at all. The background score is tacky and so is the casting of the film (towards the climax characters enacting Pakistani army personnel behave as if they are in some bad college play). Mr. Bajpai carries the same expression throughout the whole film and you wonder what is he trying to convey with his wetty eyes. Though Ravi Kishen, Deepak Dobriyal, Chitranjan Giri and Manav Kaul manage to get in to skin of their characters. The only true grace of the film is the camera work done by Chirantan Das but bad films are not saved just by good camera. One hopes next time Amrit gets closer to what he starts with. He definitely can make better stuff.
It could have been a decent film. It’s not. The basic idea (provided by the director Amrit Sagar) – of a group of Indian prisoners from 1971 Indo-Pak war whose fate hang precariously, seeing no sign of freedom they plan a daring escape—was not bad for a trite drama and patches of heroism. But the premise is terribly screwed up in the final script and dialogues (both written by Piyush Mishra). One feels sorry for the first time director who appears well intentioned (not playing to the galleries the usual jingoistic stuff, using just two songs and not going for a heroine when the story didn’t require it) but at the same time he seems too confused as what to hold and what to throw away. There are scenes in the film you wish they were one fourth of their length and then there are scenes you wish they were not there at all. The background score is tacky and so is the casting of the film (towards the climax characters enacting Pakistani army personnel behave as if they are in some bad college play). Mr. Bajpai carries the same expression throughout the whole film and you wonder what is he trying to convey with his wetty eyes. Though Ravi Kishen, Deepak Dobriyal, Chitranjan Giri and Manav Kaul manage to get in to skin of their characters. The only true grace of the film is the camera work done by Chirantan Das but bad films are not saved just by good camera. One hopes next time Amrit gets closer to what he starts with. He definitely can make better stuff.
3/19/2007
प्रारंभिक पदचाप
ईरानी सिनेमा: एक
अपने आरंभ से ही ईरान में सिनेमा अजाने-अपरिचित रास्तों की सैर करता रहा है. दुनिया भर में सिनेमा के प्रति दीवानापन पहले-पहल शहरी मजदूर तबकों के रास्ते बनना शुरु हुआ. अमरीका, यूरोप और एशियाई मुल्कों में सभी जगह वह एक ऐसे नये मेले के बतौर देखा गया जिसमें शहर के गरीबों को मज़ा लेने व दिल लगाने की एक खिड़की मिल रही थी, उन सभियों के लिए जिनके लिए नृत्य-कला-थियेटर के परिष्कृत मनोरंजन के रुप- वर्गीय व शैक्षिक दोनों ही कारणों से उपलब्ध नहीं थे. समूची दुनिया के शहरी विपन्नों को सिनेमा ने माथे पर मनोरंजन का एक सस्ता छत दे दिया था. ईरान में इसके उलट सिनेमा के दरवाज़े शाह की खास दिलचस्पी व लाग-लगाव से खुले.
पहला फारसी फिल्मकार मिर्जा इब्राहिम खान अक्कस बाशी साहब थे जिन्हें मुजफ्फर अल दीन शाह (1896-1907) के दरबार में ऑफिशियल फोटोग्राफर के बतौर शाह परिवार के यूरोपीय दौरों को फिल्माने का जिम्मा मिला हुआ था. हालांकि इस दौर में पारिवारिक, धार्मिक प्रकृति के अन्य मौकों पर काफी सारा फिल्मांकन हुआ मगर ये सारे न्यूज़रील अब अनुपलब्ध हैं. तीसरे दशक तक आलम यह था कि तेहरान में पंद्रह से कुछ ऊपर व अन्य प्रदेशों में कुल ग्यारह सिनेमा हॉल ही बन पाये थे. 1932 में जनाब अब्दुलहुसैन सेपांता ने पहली बोलती फिल्म बनाई- लॉर गर्ल. 1935 में इन्हीं साहब ने फिरदौसी (ईरान के मशहूर कवि) का निर्माण किया.
मगर ईरानी सिनेमाई परिदृश्य में एक खास पेंच था. दुनिया के बाकी हिस्सों में जहां फिल्मकार आसानी से सिनेमा के नये माध्यम के इंस्पिरेशन के लिए चार्ल्स डिकेंस और मार्सेल पन्योल का सहारा ले रहे थे वहीं ईरान में उपन्यासों व सामयिक कथानकों की ऐसी कोई परंपरा नहीं थी. इस दिक्कत से उबरने के लिए ईरान में सिनेमा ने एक अनोखा रास्ता खोज निकाला. एक ऐसे मुल्क में जहां गांव के अपढ देहाती भी रोज़मर्रा की बातों में हफीज़, सादी और ख़य्याम को उद्धृत किया करते थे, फिल्मकारों ने प्रेरणा के लिए उपन्यासों की बजाय कविता का साथ चुना. सिनेमा की दुनिया में प्रवेश का यह सचमुच जोखिमभरा, पेचीदा रास्ता था...
(जारी...)
अपने आरंभ से ही ईरान में सिनेमा अजाने-अपरिचित रास्तों की सैर करता रहा है. दुनिया भर में सिनेमा के प्रति दीवानापन पहले-पहल शहरी मजदूर तबकों के रास्ते बनना शुरु हुआ. अमरीका, यूरोप और एशियाई मुल्कों में सभी जगह वह एक ऐसे नये मेले के बतौर देखा गया जिसमें शहर के गरीबों को मज़ा लेने व दिल लगाने की एक खिड़की मिल रही थी, उन सभियों के लिए जिनके लिए नृत्य-कला-थियेटर के परिष्कृत मनोरंजन के रुप- वर्गीय व शैक्षिक दोनों ही कारणों से उपलब्ध नहीं थे. समूची दुनिया के शहरी विपन्नों को सिनेमा ने माथे पर मनोरंजन का एक सस्ता छत दे दिया था. ईरान में इसके उलट सिनेमा के दरवाज़े शाह की खास दिलचस्पी व लाग-लगाव से खुले.
पहला फारसी फिल्मकार मिर्जा इब्राहिम खान अक्कस बाशी साहब थे जिन्हें मुजफ्फर अल दीन शाह (1896-1907) के दरबार में ऑफिशियल फोटोग्राफर के बतौर शाह परिवार के यूरोपीय दौरों को फिल्माने का जिम्मा मिला हुआ था. हालांकि इस दौर में पारिवारिक, धार्मिक प्रकृति के अन्य मौकों पर काफी सारा फिल्मांकन हुआ मगर ये सारे न्यूज़रील अब अनुपलब्ध हैं. तीसरे दशक तक आलम यह था कि तेहरान में पंद्रह से कुछ ऊपर व अन्य प्रदेशों में कुल ग्यारह सिनेमा हॉल ही बन पाये थे. 1932 में जनाब अब्दुलहुसैन सेपांता ने पहली बोलती फिल्म बनाई- लॉर गर्ल. 1935 में इन्हीं साहब ने फिरदौसी (ईरान के मशहूर कवि) का निर्माण किया.
मगर ईरानी सिनेमाई परिदृश्य में एक खास पेंच था. दुनिया के बाकी हिस्सों में जहां फिल्मकार आसानी से सिनेमा के नये माध्यम के इंस्पिरेशन के लिए चार्ल्स डिकेंस और मार्सेल पन्योल का सहारा ले रहे थे वहीं ईरान में उपन्यासों व सामयिक कथानकों की ऐसी कोई परंपरा नहीं थी. इस दिक्कत से उबरने के लिए ईरान में सिनेमा ने एक अनोखा रास्ता खोज निकाला. एक ऐसे मुल्क में जहां गांव के अपढ देहाती भी रोज़मर्रा की बातों में हफीज़, सादी और ख़य्याम को उद्धृत किया करते थे, फिल्मकारों ने प्रेरणा के लिए उपन्यासों की बजाय कविता का साथ चुना. सिनेमा की दुनिया में प्रवेश का यह सचमुच जोखिमभरा, पेचीदा रास्ता था...
(जारी...)
3/18/2007
ये ईरानी-मुसलमानी का हमें क्या करना, भाई साब?
मंटू इधर फिर विचलित लग रहे थे. मुंह खोलकर कहा नहीं लेकिन दैहिक भंगिमाओं से ज़ाहिर कर रहे थे कि कैसी गहरी पीडा से गुज़र रहे हैं. हमारे हाथ, झोले, किताबों के आजू-बाजू और टीवी पर जब से ईरानी फिल्मों की संख्या बढी है, तभी से मंटू बाबू की यह नई बेचैनी छलकना शुरु हुई है. आज रहा नहीं गया होगा सो सुबह-सुबह बिना दांत-मुंह धोये सीधे बैठक में घुसे आए. नमस्ते-समस्ते कुछ नहीं. सीधे काम की बात. ‘भाई साहब, आप ये ठीक नहीं कर रहे. हमारे यहां फिल्में कम हैं कि आप ईरानी-सीरानी के चक्कर में पड रहे हैं? आप अनसोशल हो रहे हैं, दुनिया से कट रहे हैं!’...
स्क्रीन में कुछ बेहूदा तेलुगु फिल्मों की समीक्षा देख रहा था. हाथ का अखबार एक ओर करके मुस्कराने लगा, ‘ये अच्छा है, मंटू मियां. तुम हिंदी फिल्मों की वकालत में हमें अनसोशल और दुनिया से कटा बताओ! कितनी सोशल और दुनिया से जुडी हुई हैं तुम्हारी हिंदी फिल्में? जस्ट मैरिड ज्यादा जुडी है या धूम टू जिसकी डीवीडी उठाकर तुमने खिडकी के बाहर फेंकने की धमकी दी थी?
मंटू समझ रहा था मैं उसे अपने तर्कों में फांस रहा हूं. तमककर कहा, ‘ठीक है, ठीक है, जैसे बूढे आप वैसा ये क्यारोस्तामी. देखकर लगता है कोई डायरेक्टर नहीं किसी सफाई कंपनी का इंजीनियर है!’ मैंने कहा, ‘उसमें क्या बुराई है. किसी उटपटांग सर्कस कंपनी के रिंग मास्टर की तुलना में इंजीनियर ज्यादा काम की चीज़ है. अपने को ज्यादा पसंद है.’ मंटू कुर्सी में बेचैन होने लगा, ‘आप समझते नहीं... ये ईरानी-मुसलमानी फिल्मों का हमें क्या करना है, भाई साब!’
‘अगर यह है तुम्हारी चिंता तो फिर तो तुम्हें सिर्फ और सिर्फ नेपाली फिल्में देखनी चाहिये. सैफ और शाहरुख की भी देखना बंद करो तुम्हारे संस्कार खराब होंगे,’ मेरे मुस्कराने से मंटू और चिढ रहा था. इस बात से खीझ रहा था कि वह बिना ढंग की तैयारी के इस बैठक तक चला आया था. मैंने बात आगे बढाई, ‘ईरानी फिल्में काटती नहीं हमें दुनिया से जोडती हैं, मंटू. दो-तीन फिल्में देख लो, फिर बात करना.’
मंटू चिढकर कुर्सी से उठ खडा हुआ, ‘आपसे कुछ भी कहना बेकार है!’ और तेजी से बाहर निकल गया. स्क्रीन उठाकर मैं वापस बेहूदा फिल्मों की बेहूदा समीक्षाओं में लौट गया. मंटू की मुझे चिंता नहीं थी क्योंकि जानता था वह शाम को फिर आयेगा, कैजुअली दो ईरानी फिल्में उठाकर ले जाएगा और बाद में जब पुछूंगा कैसी लगी तो सिर खुजलाते हुए सीधे जवाब देने से कतरायेगा. फिर अचानक कहेगा, ‘ठीक हैं, लेकिन वैसी कोई फाडू चीज़ नहीं कि आप इतनी हवा बना रहे थे. और वो इंजीनियर- क्यारोस्तामी, वो सही है, भाई साहब!’
(ऊपर: क्यारोस्तामी का लैंडस्केप, नीचे: एबीसी अफ्रीका की शुटिंग के दौरान युगांडा में बच्चों के बीच)
स्क्रीन में कुछ बेहूदा तेलुगु फिल्मों की समीक्षा देख रहा था. हाथ का अखबार एक ओर करके मुस्कराने लगा, ‘ये अच्छा है, मंटू मियां. तुम हिंदी फिल्मों की वकालत में हमें अनसोशल और दुनिया से कटा बताओ! कितनी सोशल और दुनिया से जुडी हुई हैं तुम्हारी हिंदी फिल्में? जस्ट मैरिड ज्यादा जुडी है या धूम टू जिसकी डीवीडी उठाकर तुमने खिडकी के बाहर फेंकने की धमकी दी थी?
मंटू समझ रहा था मैं उसे अपने तर्कों में फांस रहा हूं. तमककर कहा, ‘ठीक है, ठीक है, जैसे बूढे आप वैसा ये क्यारोस्तामी. देखकर लगता है कोई डायरेक्टर नहीं किसी सफाई कंपनी का इंजीनियर है!’ मैंने कहा, ‘उसमें क्या बुराई है. किसी उटपटांग सर्कस कंपनी के रिंग मास्टर की तुलना में इंजीनियर ज्यादा काम की चीज़ है. अपने को ज्यादा पसंद है.’ मंटू कुर्सी में बेचैन होने लगा, ‘आप समझते नहीं... ये ईरानी-मुसलमानी फिल्मों का हमें क्या करना है, भाई साब!’
‘अगर यह है तुम्हारी चिंता तो फिर तो तुम्हें सिर्फ और सिर्फ नेपाली फिल्में देखनी चाहिये. सैफ और शाहरुख की भी देखना बंद करो तुम्हारे संस्कार खराब होंगे,’ मेरे मुस्कराने से मंटू और चिढ रहा था. इस बात से खीझ रहा था कि वह बिना ढंग की तैयारी के इस बैठक तक चला आया था. मैंने बात आगे बढाई, ‘ईरानी फिल्में काटती नहीं हमें दुनिया से जोडती हैं, मंटू. दो-तीन फिल्में देख लो, फिर बात करना.’
मंटू चिढकर कुर्सी से उठ खडा हुआ, ‘आपसे कुछ भी कहना बेकार है!’ और तेजी से बाहर निकल गया. स्क्रीन उठाकर मैं वापस बेहूदा फिल्मों की बेहूदा समीक्षाओं में लौट गया. मंटू की मुझे चिंता नहीं थी क्योंकि जानता था वह शाम को फिर आयेगा, कैजुअली दो ईरानी फिल्में उठाकर ले जाएगा और बाद में जब पुछूंगा कैसी लगी तो सिर खुजलाते हुए सीधे जवाब देने से कतरायेगा. फिर अचानक कहेगा, ‘ठीक हैं, लेकिन वैसी कोई फाडू चीज़ नहीं कि आप इतनी हवा बना रहे थे. और वो इंजीनियर- क्यारोस्तामी, वो सही है, भाई साहब!’
(ऊपर: क्यारोस्तामी का लैंडस्केप, नीचे: एबीसी अफ्रीका की शुटिंग के दौरान युगांडा में बच्चों के बीच)
3/17/2007
कमउम्र बुर्ज़ुग और वयस्क बच्चे
ईरानी सिनेमा: एक ट्रेलर
सडक चलते किसी अजनबी से यूं ही गपियाते हुए एक क्षण ब्रह्म के दर्शन हो जाएं, या गली की मोड पर सब्जी की खरीदारी के दरमियान अचानक आपका जीवन के गूढ सत्य से साक्षात हो जाए- कुछ इसी अंदाज़ में ईरानी फिल्में अपने को व्यक्त करती हैं. आम-फहम रोज़-बरोज़ के सामान्य सहज दृश्य और फिर एकदम-से उनके बीच जादू का एक क्षण उभर आता है. ह्रदय को उन्नत व आत्मा को चकित, मुग्ध करती एक सुरीली खालिस कविता उठ खडी होती है.
पश्चिमी मिजाज़ व हमारी-आपकी कल्पनाओं वाले सिनेमा से अलग ईरानी फिल्मों की एक विशेषता यह है कि इन फिल्मों में आम तौर पर कोई नायक व नायिका नहीं होती. फिल्मकार जैसे अनायास हमें एक छोटे-से भूगोल के बीच छोड आता है. कोई बाज़ार, गली, शरणार्थी शिविर, गांव का कोई छोर और उसके बीच हम धीमे-धीमे कुछ चरित्रों से रुबरु होते हैं. बिना किसी हडबडी के. उनकी रोज़ाना की लय में, उनके छूटे हुए किसी काम के बीच. उनका निहायत छोटा सीमित संसार. यह संसार आम तौर पर अपढ, अशिक्षित, देहाती मानस का, परंपराओं से बंधा व बाहरी दुनियावी हलचलों से कटी दुनिया होती है. छोटी बहसों, छोटे झगडों से इन फिल्मों के किरदार किसी खोज, किसी नतीजे तक पहुंचने की कोशिश करते हैं. उनकी औसत समझ व उनके इस लगभग मामूली से काम में धीमे-धीमे, अनायास हम समाज, समय, इतिहास व संस्कृति की गहरी, बडी परतों को खुलता देखते हैं. बिना किसी हो-हल्ले के. आत्मा में सूराख कर दे या दिल को मथकर रख जाये ऐसे भारी प्रसंग भी हमारी तरफ उसी अनाटकीयता से आते हैं मानो किसी ने गांव की सडक साइकिल से बस पार की हो.
बहुत बार बडे सामयिक, सामाजिक सत्यों में उतारने का यह काम बच्चों के कंधों पर होता है, जो इतिहास व राजनीति में दीक्षित नहीं लेकिन जीवन के द्वंद्वों में वे राजनीति और समाज शास्त्र दोनों का पाठ पढ रहे हैं, और ऐसा पाठ पढ रहे हैं जिसकी शिक्षा किसी स्कूल और कॉलेज में नहीं मिलती. समाज उनकी कोमल हड्डीयों को बुजुर्गियत का ताप दे रहा है. बच्चे समय से पहले बडे हो रहे हैं, और बिना पोस्टर लहराये, और हॉलीवुडियन तामे-झामे के सिनेमा देखने की हमारी समझ को बडा कर रहे हैं.
(बहमान घोबादी की ‘कछुए तैर सकते हैं’. ऊपर: फिल्म की कमउम्र युद्ध-जर्जर अनाथ ‘नायिका’ अवाज़ लतीफ, नीचे: फिल्म की शुटिंग के दौरान घोबादी)
सडक चलते किसी अजनबी से यूं ही गपियाते हुए एक क्षण ब्रह्म के दर्शन हो जाएं, या गली की मोड पर सब्जी की खरीदारी के दरमियान अचानक आपका जीवन के गूढ सत्य से साक्षात हो जाए- कुछ इसी अंदाज़ में ईरानी फिल्में अपने को व्यक्त करती हैं. आम-फहम रोज़-बरोज़ के सामान्य सहज दृश्य और फिर एकदम-से उनके बीच जादू का एक क्षण उभर आता है. ह्रदय को उन्नत व आत्मा को चकित, मुग्ध करती एक सुरीली खालिस कविता उठ खडी होती है.
पश्चिमी मिजाज़ व हमारी-आपकी कल्पनाओं वाले सिनेमा से अलग ईरानी फिल्मों की एक विशेषता यह है कि इन फिल्मों में आम तौर पर कोई नायक व नायिका नहीं होती. फिल्मकार जैसे अनायास हमें एक छोटे-से भूगोल के बीच छोड आता है. कोई बाज़ार, गली, शरणार्थी शिविर, गांव का कोई छोर और उसके बीच हम धीमे-धीमे कुछ चरित्रों से रुबरु होते हैं. बिना किसी हडबडी के. उनकी रोज़ाना की लय में, उनके छूटे हुए किसी काम के बीच. उनका निहायत छोटा सीमित संसार. यह संसार आम तौर पर अपढ, अशिक्षित, देहाती मानस का, परंपराओं से बंधा व बाहरी दुनियावी हलचलों से कटी दुनिया होती है. छोटी बहसों, छोटे झगडों से इन फिल्मों के किरदार किसी खोज, किसी नतीजे तक पहुंचने की कोशिश करते हैं. उनकी औसत समझ व उनके इस लगभग मामूली से काम में धीमे-धीमे, अनायास हम समाज, समय, इतिहास व संस्कृति की गहरी, बडी परतों को खुलता देखते हैं. बिना किसी हो-हल्ले के. आत्मा में सूराख कर दे या दिल को मथकर रख जाये ऐसे भारी प्रसंग भी हमारी तरफ उसी अनाटकीयता से आते हैं मानो किसी ने गांव की सडक साइकिल से बस पार की हो.
बहुत बार बडे सामयिक, सामाजिक सत्यों में उतारने का यह काम बच्चों के कंधों पर होता है, जो इतिहास व राजनीति में दीक्षित नहीं लेकिन जीवन के द्वंद्वों में वे राजनीति और समाज शास्त्र दोनों का पाठ पढ रहे हैं, और ऐसा पाठ पढ रहे हैं जिसकी शिक्षा किसी स्कूल और कॉलेज में नहीं मिलती. समाज उनकी कोमल हड्डीयों को बुजुर्गियत का ताप दे रहा है. बच्चे समय से पहले बडे हो रहे हैं, और बिना पोस्टर लहराये, और हॉलीवुडियन तामे-झामे के सिनेमा देखने की हमारी समझ को बडा कर रहे हैं.
(बहमान घोबादी की ‘कछुए तैर सकते हैं’. ऊपर: फिल्म की कमउम्र युद्ध-जर्जर अनाथ ‘नायिका’ अवाज़ लतीफ, नीचे: फिल्म की शुटिंग के दौरान घोबादी)
3/15/2007
दुनिया और दोस्त के घर की पहचान करानेवाला सिनेमा
ऐसी खुशनसीबी विरले फिल्मकारों के ही हिस्से आई होगी कि उनके काम को ज़्यां लुक गोदार और वेर्नर हर्जोग जैसे पहुंचे हुए माध्यम-पंडितों की प्रशस्ति मिले. और वह भी तब जब फिल्मकार हॉलीवुड और यूरोप का न होकर एशियाई ‘तमाशे’ के परिदृश्य से हो. ईरान से हो जहां सिनेमा के आरंभ से ऐसी कोई सशक्त फिल्मी परंपरा नहीं रही, और लगभग शाह के ज़माने तक लोग सिनेमा हॉलों में मनोरंजन के लिए हॉलीवुड और अपने बंबईया फिल्मों की खुराकों से काम चलाते रहे. मगर उसी ईरान के एक फिल्मकार के लिए गोदार कहते हैं: ‘’डीडब्ल्यू ग्रिफिथ के साथ फिल्में शुरु होती हैं और अब्बास क्यारोस्तामी के यहां आकर खत्म होती हैं’’ हर्जोग साहब कहते हैं: ‘’भले हमें अभी इसका अहसास न हो रहा हो मगर हम एक क्यारोस्तामी के दौर में रह रहे हैं.’’
आज का ईरानी सिनेमा अब न केवल आत्मनिर्भर और प्रभावी देसी खुराक जुटाने में समर्थ है, बल्कि नब्बे के दशक से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसने अपनी एक ऐसी पहचान खडी की है कि उसकी सरलता व प्रभाव के सामने बडे-बडे सिने महापुरुष भी दांतों में उंगली डाल हतप्रभ खडे रह जाते हैं. आज जब सामान्य तौर पर समूची दुनिया में सिनेमा के स्तर और फास्ट फुड में विशेष अंतर नहीं रहा, और स्थिति काफी डरावनी और हताशाजनक है, ईरानी सिनेमा जैसे फिल्म की नई परिभाषायें गढता अभी भी उसकी बुलंदियों के नये-नये घोषणापत्र तैयार कर रहा है. आईये, चंद किस्तों में इस अद्भुत एशियाई सिने-विरासत की पहचान करें.
आज का ईरानी सिनेमा अब न केवल आत्मनिर्भर और प्रभावी देसी खुराक जुटाने में समर्थ है, बल्कि नब्बे के दशक से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसने अपनी एक ऐसी पहचान खडी की है कि उसकी सरलता व प्रभाव के सामने बडे-बडे सिने महापुरुष भी दांतों में उंगली डाल हतप्रभ खडे रह जाते हैं. आज जब सामान्य तौर पर समूची दुनिया में सिनेमा के स्तर और फास्ट फुड में विशेष अंतर नहीं रहा, और स्थिति काफी डरावनी और हताशाजनक है, ईरानी सिनेमा जैसे फिल्म की नई परिभाषायें गढता अभी भी उसकी बुलंदियों के नये-नये घोषणापत्र तैयार कर रहा है. आईये, चंद किस्तों में इस अद्भुत एशियाई सिने-विरासत की पहचान करें.
3/13/2007
अबला तेरी यही कहानी, एक आंख में ख़ून दूजे में पानी
डेढ महीना पहले ब्लॉग सीनरी में हमारी एंट्री कुछ उसी तरह हुई है जैसे सात साल घर में बेकार बैठे रहने के बाद कस्बाई कंस्ट्रक्शन परिदृश्य में रामाधीन भाई की हुई थी. दो चिरकुट किस्म के ठेकों की ओवरसियरी मिली थी मगर भाई साहब व्यस्त इतना रहते थे जितना जय जवान, जय किसान के पीक पर भी लालबहादुर न रहे होंगे. ठेकों के पीछे रामाधीन भाई ने रामपुर मेले की लडकियों को वार्षिक स्तर पर छेडना छोड दिया था. दीपक टाकीज़ की दीवार पर संध्या नियम से बैठकर आते-जाते शरीफ लौंडों को अपने गालियों से पुरस्कृत करने का रियाज़ बंद कर दिये थे. फुरसत ही नहीं रहती थी. पत्नी तक जो छै वर्षों के विवाह में तीन बच्चियां जन कर न केवल बच्चियों से बल्कि उनके जनक तक से विरक्त हो गई थी कि उन्हें एक बेटा न दे सके, वापस लडिया-लडिया कर उस शिकायती फेज़ में लौट गई थी जहां औरतें खास अदा से देह नचाकर बिदकती हैं कि- आग लगे ऐसे काम में कि ‘इनका’ चेहरा देखना दुलम हो गया है! पत्नी ही नहीं रामाधीन भैया की इस व्यस्तता से मोहल्ले का पनवाडी तक दुखी था. रामाधीन भाई सुखी थे. सात साल की बेकारी के बाद सुहाना सफ़र ये मौसम हंसीं शुरु हुआ था. प्यार से मुनिया भाभी पर लात फेंक देते थे. वह मुसकराकर इनका गोड हाथ में लेकर उसे दबाने लगती थी. मेरी बेकारी को सात साल से ज्यादा हो गए लेकिन ब्लॉग पाकर चहक मैं रामाधीन भाई वाली शैली में ही रहा हूं. क्यों, मेरे लिए रहस्य है. मगर शायद नहीं भी है. शायद इसलिए कि लगता है समय कीमती है, और अभी-अभी आया है. सभी सृजनशिल्पियों को पछाड मारुंगा. चालीस सालों से जो बांध सृजनात्मकता रोके हुए था वह सब ब्लॉगर की डेटा रिसीविंग मशीन पर टीप कर उसको बेदम कर दूंगा. पर एक दिक्कत हुई है. दिक्कत यह हुई है कि मशीन तो जितना बेदम हुई होगी सो हुई होगी लगता है मेरी सृजनात्मकता सिलेमा के पाठकों के भी नाक में दम कर रही है. कल सिलेमा का काउंटर देखे तो कलेजा उसी तरह मुंह को आ गया जैसे लास्ट टाईम हाई स्कूल का नतीजा देखते वक्त आया था, और उससे पहले तब आया था जब क्लास में योगिता को एम करके लेटर का पुडिया फेंके थे और वह निशाने की चूक से गणित के पाणिग्राही सर के टेबल पर चला गया था. योगिता के चले जाने का उतना दुख नहीं है जितना सिलेमा के काउंटर पर आपके न आने का दुख हो रहा है. हमारे मित्र हैं संगम. सिनेमा का जिक्र चले तो वैसे चहकने लगते हैं जैसे प्रैसवाले अभिषेक ऐश्वर्या के बियाह पर मचलने लगते हैं. कल हमने दिल्ली नंबर लगाके पूछा आखिरी दफे सिलेमा कब झांकने आये थे. संगम चोट्टों की तरह हंसने लगे. अपने जिगरी यार तलक जब इस तरह दगा देने लगें तो आप तो अनाम-गुमनाम पाठक ठहरे, आपको बॉक्स ऑफिस के लिए कहां से जिम्मेदार ठहराऊंगा! सिनेमा-टिनेमा का वैसे भी दुनिया में अब कोई पुछवैया नहीं बचा है. हमारे और रामाधीन भैया जैसे कुछ पगलेट अलबत्ता बचे हैं. प्लेयर पर दी सिका और सत्यजीत बाबू की फिल्म चलाये बगैर हमारी आंख नहीं लगती. आपकी लगी हुई है. मैं जगा रहा हूं. सुनते हैं? नया शो चालू हुआ है, आईये, टिकट खरीदिये, कि बुलायें रामाधीन भैया को!
(ऊपर माजिद मज़ीदी के 'बरान' की कमउम्र नायिका)
(ऊपर माजिद मज़ीदी के 'बरान' की कमउम्र नायिका)
3/11/2007
दीपा मेहता का जल, पानी, वाटर व्हॉटेवर
गंवई हरियाली के सुहानेपन के तीन-चार एस्टैबलिशिंग शॉट्स. यहां से वहां तक हरे पत्ते तैर रहे हैं. पानी में. छिपा है लेकिन दिखला दिया गया है. कोई प्रतीकात्मक उद्देश्य होगा तो वह पूरा हो गया है. फिल्म शुरु हो गई है. बैकग्राउंड में बैलगाडी हर्र-हर्र अपनी मंजिल को कुलांचे भर रही है (थोडी देर में मंजिल पहुंचने के बाद मैसेज मिलेगा कि मंजिलें और भी हैं). क्लोज़र कट. सात-आठ साल की लहंगे में हरी-भरी दक्षिण भारतीय बच्ची चाव से ईख चाभ रही है. बगल में एक अचेतन आदमी की ठूंठ लेटी हुई. बेजान पैरों का शॉट. बच्ची और हाथ आई स्थिति को चिंता से देखती बंगालन मां का क्लोज़-अप. उसके बाद पिता. चिंताग्रस्त वह भी हैं मगर थोडा अंडरस्टेटेड तरीके से. डॉली आहलूवालिया के कॉस्ट्यूम में यूपी वाले लगते हैं. नेक्स्ट. घाट के अंधियारे में पीछे जलती लाशों की रोशनी. छोटी बच्ची को पिता सूचित करता है कि ठूंठ रुपी उसके स्वामी ने प्राण-पखेरु छोड दिये हैं, वह अब बिधवा हो गई है. बच्ची के बाल पर कैंची के शॉट्स. तीन-चार एंगल से. फिर उस्तरा. सफेद धोती. बच्ची को आगे की फिल्म का कॉस्ट्यूम मिल गया है. अंदर अंधेरे से रंगी मनहूस इमारत का प्रवेश द्वार. पर्दे पर इंडिया, 1938 का कैप्शन आया है. मंजिल आ गई है. मां-पिता बेटी से विदा लेने की भूमिका बांध रहे हैं. आज के बाद यही उसका घर होगा. बच्ची ने राजी-खुशी से सिर मुंडवा लिया था (दर्शक समझ गए थे कि बच्ची एट्टीच्यूड वाली नहीं है, आज्ञा मानती है) लेकिन अबकी लडकी इधर-उधर भागती है, प्रोटेस्ट करती है. बिधवाआश्रम के निरीह, असहाय, पोपले बंगाली चेहरों के क्लोज़ शॉट्स. एक बैड टाईप ने बच्ची को घेर लिया है. एक मासूम बच्ची रुढ और राक्षसी परंपरा की ज़द में कैद कर ली जाने वाली है. सितार की करुणा का बिल्ड-अप. इस राक्षसी जाल से बंगालन मां और यूपी वाले बाप की दक्षिण भारतीय अनेकता में एकता वाली बच्ची को कौन मुक्ति दिलायेगा की भोली जिज्ञासा प्लस एआर रहमान के तीन कर्णप्रिय गाने और जाइल्स नटगेंस की एक्ज़ोटिक सिनेमाटॉग्राफी की संगत में आप आगे दीपा मेहता के फिल्मी जल में डुबकी लगाते रह सकते हैं.
चूंकि डेविड धवन और हैरी बवेजाओं को हम सीरियसली नहीं लेते (वे भी नहीं लेते). मगर दीपा मेहता अपने को लेती हैं. सीरियस आर्टिस्टों वाले एक्सप्रेशन के साथ फोटो-सोटो खिंचवाती रहती हैं. उनकी फिल्म श्रेष्ट विदेशी फिल्म वाली ऑस्कर कैटेगरी में नामांकित भी हो जाती है, तो आईये, ज़रा हम भी उनकी फिल्म के बारे में सीरियसली बात करें. फिल्म पश्चिमी दर्शकों के लिए अंग्रेजी में (मूलत: उन्हीं के लिए बनी है. बाल बिधवा और सितार वाली करुणा और अंधेरी रातों में दियों की टिमटिमाती बेचैनियां उन्हीं के मर्म पर ज्यादा मार करेगी) और भारतीय बाज़ार के लिए हिंदी में तैयार की गई है. हिंदी के संवाद दीपा के अंग्रेजी के लिखे का हिंदी अनुवाद हैं. अनुराग कश्यप को संवादों के अनुवाद का ही क्रेडिट दिया गया है. तो अनुराग ने ठीक काम किया है लेकिन चूंकि ऑरिजनल उसके नहीं हैं और निर्देशक अंतत: दीपा हैं और गुलाबी चेहरेवाली लिसा रे को बिधवा के रुप में मनवाकर करुणा वह जगवाना चाहती हैं तो लिसा के मुंह से ‘आंखें मींचो’ जैसे वाक्यांश सुनकर पहले अटपटा लगता है, फिर पीडा होने लगती है. जॉन अब्राहम लिसा को मेघदूत और विनय पाठक को गांधीवाद का पाठ समझाते हैं तब पीडा और ज्यादा बढ जाती है. बेचारी लिसा रे क्या करे. देह पर सफेद धोती लपेटने व गोद में काले पिल्ले को स्नेह देने मात्र से वह ऑथेंटिक बिधवा कैसे हो जायेगी. मगर दीपा के यहां कलालोक इसी तरह सरजा जाता है. कसूर न जॉन का है न लिसा का, दिक्कत इस तरह की फिल्म मेकिंग के फ्रॉड की है जो वैष्णव जन तो तेनें कहिये के गांधीवादी समां और सैंया बिना जग सूना के विरही श्रृंगार की वही घिसी-पिटी बैसाखियों पर तथाकथित मार्मिकता की एक्सोटिक खिचडी परोसकर उसे सामाजिक चेतना का दस्तावेज़ बतलवाना चाहती है. आप और हम जैसे चीन, वियतनाम, मलेशिया के फ़र्क के झमेले में न पडकर सबको एक ही तरह की आरती में निकाल देंगे, विदेश में बसी दीपा और उनके दर्शकों के लिए विविध भारत का सारा भेद भुलाकर एकमेव यथार्थ बन जाता है. जॉन सन् चालीस के हिंदुस्तान को अपनी सपाट संवेदनात्मकता से प्रकाशित करते रहते हैं और मैं हाय-हाय करता उस समूची चिरकुटई पर रोने लगता हूं जो इस फिल्म के कथ्य और पैकेजिंग के घालमेल को एक-दूसरे से कन्फ्यूज़ करके उत्साह में फिल्म के लिए तालियां बजा रही है.
जो अभी गंभीर सिनेमा का ककहरा नहीं जानते वे जायें और जाइल्स नटगेंस की अच्छी सिनेमाटॉग्राफी का स्वाद लें. आठ साल की चुइया (सरला) के अभिनय की तारीफ करें और सीता और गीता के बाद की बुरी मनोरमा की एक बार और झलकी लें. बाकी लोग इस बदलते वक्त के सिनेमा के कथ्य से ज्यादा उसकी पैकेजिंग और हल्ले की सामाजिकता पर विचार करें. दीपा मेहता का पानी मिस करके वे विशेष कुछ मिस नहीं कर रहे होंगे.
(ऊपर एक्ज़ोटिका, नीचे उसे रचनेवाली एक्ज़ोटिक दीपा)
चूंकि डेविड धवन और हैरी बवेजाओं को हम सीरियसली नहीं लेते (वे भी नहीं लेते). मगर दीपा मेहता अपने को लेती हैं. सीरियस आर्टिस्टों वाले एक्सप्रेशन के साथ फोटो-सोटो खिंचवाती रहती हैं. उनकी फिल्म श्रेष्ट विदेशी फिल्म वाली ऑस्कर कैटेगरी में नामांकित भी हो जाती है, तो आईये, ज़रा हम भी उनकी फिल्म के बारे में सीरियसली बात करें. फिल्म पश्चिमी दर्शकों के लिए अंग्रेजी में (मूलत: उन्हीं के लिए बनी है. बाल बिधवा और सितार वाली करुणा और अंधेरी रातों में दियों की टिमटिमाती बेचैनियां उन्हीं के मर्म पर ज्यादा मार करेगी) और भारतीय बाज़ार के लिए हिंदी में तैयार की गई है. हिंदी के संवाद दीपा के अंग्रेजी के लिखे का हिंदी अनुवाद हैं. अनुराग कश्यप को संवादों के अनुवाद का ही क्रेडिट दिया गया है. तो अनुराग ने ठीक काम किया है लेकिन चूंकि ऑरिजनल उसके नहीं हैं और निर्देशक अंतत: दीपा हैं और गुलाबी चेहरेवाली लिसा रे को बिधवा के रुप में मनवाकर करुणा वह जगवाना चाहती हैं तो लिसा के मुंह से ‘आंखें मींचो’ जैसे वाक्यांश सुनकर पहले अटपटा लगता है, फिर पीडा होने लगती है. जॉन अब्राहम लिसा को मेघदूत और विनय पाठक को गांधीवाद का पाठ समझाते हैं तब पीडा और ज्यादा बढ जाती है. बेचारी लिसा रे क्या करे. देह पर सफेद धोती लपेटने व गोद में काले पिल्ले को स्नेह देने मात्र से वह ऑथेंटिक बिधवा कैसे हो जायेगी. मगर दीपा के यहां कलालोक इसी तरह सरजा जाता है. कसूर न जॉन का है न लिसा का, दिक्कत इस तरह की फिल्म मेकिंग के फ्रॉड की है जो वैष्णव जन तो तेनें कहिये के गांधीवादी समां और सैंया बिना जग सूना के विरही श्रृंगार की वही घिसी-पिटी बैसाखियों पर तथाकथित मार्मिकता की एक्सोटिक खिचडी परोसकर उसे सामाजिक चेतना का दस्तावेज़ बतलवाना चाहती है. आप और हम जैसे चीन, वियतनाम, मलेशिया के फ़र्क के झमेले में न पडकर सबको एक ही तरह की आरती में निकाल देंगे, विदेश में बसी दीपा और उनके दर्शकों के लिए विविध भारत का सारा भेद भुलाकर एकमेव यथार्थ बन जाता है. जॉन सन् चालीस के हिंदुस्तान को अपनी सपाट संवेदनात्मकता से प्रकाशित करते रहते हैं और मैं हाय-हाय करता उस समूची चिरकुटई पर रोने लगता हूं जो इस फिल्म के कथ्य और पैकेजिंग के घालमेल को एक-दूसरे से कन्फ्यूज़ करके उत्साह में फिल्म के लिए तालियां बजा रही है.
जो अभी गंभीर सिनेमा का ककहरा नहीं जानते वे जायें और जाइल्स नटगेंस की अच्छी सिनेमाटॉग्राफी का स्वाद लें. आठ साल की चुइया (सरला) के अभिनय की तारीफ करें और सीता और गीता के बाद की बुरी मनोरमा की एक बार और झलकी लें. बाकी लोग इस बदलते वक्त के सिनेमा के कथ्य से ज्यादा उसकी पैकेजिंग और हल्ले की सामाजिकता पर विचार करें. दीपा मेहता का पानी मिस करके वे विशेष कुछ मिस नहीं कर रहे होंगे.
(ऊपर एक्ज़ोटिका, नीचे उसे रचनेवाली एक्ज़ोटिक दीपा)
3/09/2007
हिंदी फिल्मों में मामा और नाना का योगदान
हिंदी फिल्में कैसे बनती हैं: तीन
हिंदी फिल्म कैसे बनती है समझने के लिए हिरोईन ही नहीं हिरोईन की मां को समझना भी उतना ही ज़रुरी है. और हिरोईनों की ही तरह हिरोईन मातायें भी अलग-अलग आकार और पैकेजिंग में आती हैं. प्रोड्यूसर डरते दोनों ही से थे लेकिन सारिका की मां और हेमा मालिनी की मां में ज़मीन-आसमान का फ़र्क था. शरीरी तौर पर भी. ये फिल्म इतिहास की ऐतिहासिक मातायें रही हैं. इनसे प्रोड्यूसर ही नहीं धर्मेंद्र जैसे हीरो भी डरते थे. फिर कम ऐतिहासिक मातायें भी रही हैं. जैसे नीतू सिंह की मम्मी. बाद में मां के साथ बाप को भी सेट के आस-पास रखने का फैशन चला. ज़रा पीछे लौटिये आपको याद आयेगा. उधर माधुरी अनिल कपूर के साथ ‘धक-धक’ वाला गाना शूट कर रही हैं, इधर पेरेंट्स हाथ में चाय लिये प्लास्टिक की कुर्सियों पर प्रोड्यूसर के बगल में बैठे मुस्करा रहे हैं. शिल्पा को अब थोडे समय ज़रुरत नहीं होगी मगर बीच में जब काफी इंटेसली ज़रुरत हो रही थी तो विज्ञापन के बकाया पैसों के लिए थ्रेटेनिंग फोन कॉल्स वह नहीं कर रही थी, यह रोल मम्मी और पापा आपस में डिवाइड करके प्ले कर रहे थे. कुमारी अमिषा पटेल भी पेरेंट्स वाली नाव की ही सवारी कर रही थी, विक्रम भट्ट से प्यार-स्यार के झमेले में फंसकर बेचारी ने नाव में छेद कर लिया.
मां की महत्ता जान लेने के बाद नाना का इंपोर्टेंस भी समझ लेना ज़रुरी है. पहली बात तो ये कि अगर प्रोड्यूसर रामगोपाल वर्मा है तभी वह नाना को हाथ लगाये. इस वादे के साथ एक्टिंग करवा ले कि फैक्ट्री की अगली फिल्म तुम्हीं डायरेक्ट कर रहे हो. फिर बाद में उस प्रसंग की फिर कभी चर्चा ही न चलने दे आदि-इत्यादि. इससे ज्यादा प्रोड्यूसर के लिए यह जानना ज़रुरी है कि वह अगर ‘हम दोनों’ के शफी ईनामदार और ‘खामोशी’ के संजय भंसाली जैसे फर्स्ट फिल्म डायरेक्टर के साथ वह एक्सपेरिमेंट कर रहा हो तो बेहतर है फिल्म बिना नाना के करे. क्योंकि पहली फिल्म के डायरेक्टरों की तरफ तमाचा, चप्पल और मां-बहन की गालियां फेंकने में नाना को विशेष परफेक्शन हासिल है. नाना को तो अच्छा लगता ही है डायरेक्टरों को भी आदत हो गई है. तो अब यह प्रोड्यूसर के नये निर्देशक पर निर्भर करता है कि इस तरह के स्नेहिल अंतरंगताओं में उसकी आस्था है या नहीं. भंसाली जैसे लोगों ने पूरी कर्मठता से नानागत सबक लिये और अब उतनी ही निपुणता से अपने असिस्टेंटों पर फोन और हाथ की ज़द में रहनेवाले दूसरे साधनों को फेंकते हुए अपनी निशाना साधने की प्रैक्टिस करते हैं. और हर्ष की बात यह है कि फिल्म सिटी में ‘ब्लैक’ के सेट पर आग लगने से किसी की जान भले गई भंसाली के अपने निशाने से किसी असिसटेंट के मरने की खबर अभी तक प्रैस में नहीं आई है. पहले प्रोड्यूसर स्टार टैंट्रम नाम की एक मुसीबत से पीडित रहा करते थे. भंसाली ने स्टारों का यह विशेषाधिकार छीनकर फिल्म इंडस्ट्री को डायरेक्टर्स टैंट्रम का एक नया गिफ्ट दिया है.
फिल्म कैसे बनती है समझने के लिए यह भी समझ लें कि विदेशी पर्यटन की उसमें कितनी अहम भूमिका है. कहानी भले रामपुर, सीतापुर कहीं की भी हो शुटिंग उसकी एम्सटरडेम, लंदन, वियेना, टोरंटो, सिडनी ऐसी ही किसी जगह में करनी होगी. माने अगर आप हिंदी फिल्मों का प्रोड्यूसर बनना चाहते हैं और रामपुर की कहानी रामपुर में ही शूट करना चाहते हैं और ये समझते हैं कि अक्षय कुमार और अक्षय खन्ना भी ऐसा ही चाहेंगे तो फिर आप फिल्म बनाने का ख्याल त्याग दीजिये. क्योंकि आपके इस भोले प्रस्ताव पर अक्षय कुमार तो क्या ओम पुरी भी थूक देंगे.
(जारी...)
हिंदी फिल्म कैसे बनती है समझने के लिए हिरोईन ही नहीं हिरोईन की मां को समझना भी उतना ही ज़रुरी है. और हिरोईनों की ही तरह हिरोईन मातायें भी अलग-अलग आकार और पैकेजिंग में आती हैं. प्रोड्यूसर डरते दोनों ही से थे लेकिन सारिका की मां और हेमा मालिनी की मां में ज़मीन-आसमान का फ़र्क था. शरीरी तौर पर भी. ये फिल्म इतिहास की ऐतिहासिक मातायें रही हैं. इनसे प्रोड्यूसर ही नहीं धर्मेंद्र जैसे हीरो भी डरते थे. फिर कम ऐतिहासिक मातायें भी रही हैं. जैसे नीतू सिंह की मम्मी. बाद में मां के साथ बाप को भी सेट के आस-पास रखने का फैशन चला. ज़रा पीछे लौटिये आपको याद आयेगा. उधर माधुरी अनिल कपूर के साथ ‘धक-धक’ वाला गाना शूट कर रही हैं, इधर पेरेंट्स हाथ में चाय लिये प्लास्टिक की कुर्सियों पर प्रोड्यूसर के बगल में बैठे मुस्करा रहे हैं. शिल्पा को अब थोडे समय ज़रुरत नहीं होगी मगर बीच में जब काफी इंटेसली ज़रुरत हो रही थी तो विज्ञापन के बकाया पैसों के लिए थ्रेटेनिंग फोन कॉल्स वह नहीं कर रही थी, यह रोल मम्मी और पापा आपस में डिवाइड करके प्ले कर रहे थे. कुमारी अमिषा पटेल भी पेरेंट्स वाली नाव की ही सवारी कर रही थी, विक्रम भट्ट से प्यार-स्यार के झमेले में फंसकर बेचारी ने नाव में छेद कर लिया.
मां की महत्ता जान लेने के बाद नाना का इंपोर्टेंस भी समझ लेना ज़रुरी है. पहली बात तो ये कि अगर प्रोड्यूसर रामगोपाल वर्मा है तभी वह नाना को हाथ लगाये. इस वादे के साथ एक्टिंग करवा ले कि फैक्ट्री की अगली फिल्म तुम्हीं डायरेक्ट कर रहे हो. फिर बाद में उस प्रसंग की फिर कभी चर्चा ही न चलने दे आदि-इत्यादि. इससे ज्यादा प्रोड्यूसर के लिए यह जानना ज़रुरी है कि वह अगर ‘हम दोनों’ के शफी ईनामदार और ‘खामोशी’ के संजय भंसाली जैसे फर्स्ट फिल्म डायरेक्टर के साथ वह एक्सपेरिमेंट कर रहा हो तो बेहतर है फिल्म बिना नाना के करे. क्योंकि पहली फिल्म के डायरेक्टरों की तरफ तमाचा, चप्पल और मां-बहन की गालियां फेंकने में नाना को विशेष परफेक्शन हासिल है. नाना को तो अच्छा लगता ही है डायरेक्टरों को भी आदत हो गई है. तो अब यह प्रोड्यूसर के नये निर्देशक पर निर्भर करता है कि इस तरह के स्नेहिल अंतरंगताओं में उसकी आस्था है या नहीं. भंसाली जैसे लोगों ने पूरी कर्मठता से नानागत सबक लिये और अब उतनी ही निपुणता से अपने असिस्टेंटों पर फोन और हाथ की ज़द में रहनेवाले दूसरे साधनों को फेंकते हुए अपनी निशाना साधने की प्रैक्टिस करते हैं. और हर्ष की बात यह है कि फिल्म सिटी में ‘ब्लैक’ के सेट पर आग लगने से किसी की जान भले गई भंसाली के अपने निशाने से किसी असिसटेंट के मरने की खबर अभी तक प्रैस में नहीं आई है. पहले प्रोड्यूसर स्टार टैंट्रम नाम की एक मुसीबत से पीडित रहा करते थे. भंसाली ने स्टारों का यह विशेषाधिकार छीनकर फिल्म इंडस्ट्री को डायरेक्टर्स टैंट्रम का एक नया गिफ्ट दिया है.
फिल्म कैसे बनती है समझने के लिए यह भी समझ लें कि विदेशी पर्यटन की उसमें कितनी अहम भूमिका है. कहानी भले रामपुर, सीतापुर कहीं की भी हो शुटिंग उसकी एम्सटरडेम, लंदन, वियेना, टोरंटो, सिडनी ऐसी ही किसी जगह में करनी होगी. माने अगर आप हिंदी फिल्मों का प्रोड्यूसर बनना चाहते हैं और रामपुर की कहानी रामपुर में ही शूट करना चाहते हैं और ये समझते हैं कि अक्षय कुमार और अक्षय खन्ना भी ऐसा ही चाहेंगे तो फिर आप फिल्म बनाने का ख्याल त्याग दीजिये. क्योंकि आपके इस भोले प्रस्ताव पर अक्षय कुमार तो क्या ओम पुरी भी थूक देंगे.
(जारी...)
3/08/2007
तानाशाह का काला चेहरा
द लास्ट किंग ऑफ स्कॉटलैंड
कुछ समय पहले हमने ऑल द किंग्स मेन की चर्चा की थी. कि कैसे सत्ता एक भले-भोले आदमी को बर्बर और निरंकुश जानवर में बदल डालती है. ‘द लास्ट किंग ऑफ स्कॉटलैंड’ उसी सवाल की एक दूसरी तरह की पडताल है. यहां अब वह महज़ नैतिक आग्रहों की पडताल की बजाय अफ्रीका में अंग्रेजी उपनिवेशवाद के जबडों से उपजे भूगोल विशेष के आर्थिक-राजनीतिक सीमाओं की पहचान की रुपरेखा बुनती है. इसलिए भी एक काल्पनिक डॉक्टर की वास्तविक घटनाओं के गिर्द रची किताब पर आधारित फिल्म इदी अमीन के जीवन पर ही टिप्पणी नहीं है, यह जाने-अजाने उस सामाजिक-ऐतिहासिक द्वंद्व का भी अन्वेषण है जिसने बीसवीं सदी के अफ्रीका को ऐसे उलझे, और पश्चिमी नज़रों में ‘कैरिकेचरिश’ अमानवीय तानाशाह दिये हैं.
फिन्म का आरंभिक आधा घंटा एक लिबरल, आइडियलिस्ट स्कॉटिश नौजवान डॉक्टर की नज़रों से युगांडा को देखना- ललिया मिट्टी की सडकें और हरे मैदानों का विस्तार- काफी लुभावना बना रहता है. बाद में जैसे-जैसे फिल्म का कथ्य जटिलताओं में उतरता है, आज की ब्रिटिश फिल्ममेकिंग की सीमायें उसके रास्ते आडे आने लगती हैं. खामखा का नाटकीय संगीत और संपादन कभी-कभी भ्रम जगाता है मानो हम कोई हिंदी फिल्म देख रहे हों. मगर फॉरेस्ट विटेकर समेत बाकी एक्टरों का काम अच्छा है, और बंद, पिछडे मुल्कों की तानाशाही की एक अच्छी झलक हमें देखने को ज़रुर मिलती है. डॉक्यूमेंट्री बनाते रहे केविन मैकडॉनल्ड की यह पहली फीचर फिल्म है.
कुछ समय पहले हमने ऑल द किंग्स मेन की चर्चा की थी. कि कैसे सत्ता एक भले-भोले आदमी को बर्बर और निरंकुश जानवर में बदल डालती है. ‘द लास्ट किंग ऑफ स्कॉटलैंड’ उसी सवाल की एक दूसरी तरह की पडताल है. यहां अब वह महज़ नैतिक आग्रहों की पडताल की बजाय अफ्रीका में अंग्रेजी उपनिवेशवाद के जबडों से उपजे भूगोल विशेष के आर्थिक-राजनीतिक सीमाओं की पहचान की रुपरेखा बुनती है. इसलिए भी एक काल्पनिक डॉक्टर की वास्तविक घटनाओं के गिर्द रची किताब पर आधारित फिल्म इदी अमीन के जीवन पर ही टिप्पणी नहीं है, यह जाने-अजाने उस सामाजिक-ऐतिहासिक द्वंद्व का भी अन्वेषण है जिसने बीसवीं सदी के अफ्रीका को ऐसे उलझे, और पश्चिमी नज़रों में ‘कैरिकेचरिश’ अमानवीय तानाशाह दिये हैं.
फिन्म का आरंभिक आधा घंटा एक लिबरल, आइडियलिस्ट स्कॉटिश नौजवान डॉक्टर की नज़रों से युगांडा को देखना- ललिया मिट्टी की सडकें और हरे मैदानों का विस्तार- काफी लुभावना बना रहता है. बाद में जैसे-जैसे फिल्म का कथ्य जटिलताओं में उतरता है, आज की ब्रिटिश फिल्ममेकिंग की सीमायें उसके रास्ते आडे आने लगती हैं. खामखा का नाटकीय संगीत और संपादन कभी-कभी भ्रम जगाता है मानो हम कोई हिंदी फिल्म देख रहे हों. मगर फॉरेस्ट विटेकर समेत बाकी एक्टरों का काम अच्छा है, और बंद, पिछडे मुल्कों की तानाशाही की एक अच्छी झलक हमें देखने को ज़रुर मिलती है. डॉक्यूमेंट्री बनाते रहे केविन मैकडॉनल्ड की यह पहली फीचर फिल्म है.
3/07/2007
पाकिस्तान में शास्त्रीय संगीत
खयाल दर्पण: एक यात्रा
अभय तिवारी
दिल्ली के युसुफ़ सईद ने एक रिसर्च फ़ेलोशिप के तहत छह माह से ज़्याद: पाकिस्तान में गुज़ारा और वहाँ के शास्त्रीय संगीत के परिदृश्य का अध्ययन किया. लाहौर, कराची, और इस्लामाबाद में घूमते हुये तमाम कलाकारों और विद्वानों से बातचीत, संगीत सम्मेलनों में शिरक़त, और संगीत संस्थानों में सैर को अपने कैमरे में क़ैद करके एक निहायत ही खूबसूरत फिल्म (खयाल दर्पण, 2006) को शकल दी.
ये फ़िल्म आपको चौंकाती है..पहले तो अपनी विषय वस्तु से ही..कम से कम मैं तो नहीं जानता था कि पाकिस्तान जैसे देश में शास्त्रीय संगीत जैसी कोई धारा भी है... इसलिये नहीं कि पाकिस्तान एक इस्लामी देश है.. बल्कि इसलिये कि आज से पहले हमने पाकिस्तान के नुसरत, साबरी बन्धु, आबिदा आदि की क़व्वालियां सुनी हैं..मेंहदी हसन, ग़ुलाम अली, फ़रीदा खानम की ग़ज़लों को गुनगुनाया है..पर शुद्ध रागबद्ध शस्त्रीय संगीत कानों तक नहीं पहुँचा.
विभाजन के पहले हिन्दुस्तानी शास्त्रीय परम्परा के तमाम संगीतज्ञ- हिन्दू और मुसलमान-बिना किसी साम्प्रदायिक चेतना के संगीत में एकरंग थे. मिसाल के तौर पर मैहर के अलाउद्दीन खां साहब, मुसलमान होते हुये सरस्वती के बड़े भारी उपासक थे और उनकी बेटियों के नाम हिन्दू देवियों पर रखे गये थे. छोटी बेटी अन्नपूर्णा देवी का नाम अक्सर सुना जाता है, जिनका विवाह रवि शंकर के साथ हुआ था. विभाजन के साम्प्रदायिक बवंडर में बहुत सारे संगीतज्ञ चपेटे गये, और पाकिस्तान तशरीफ़ ले गये. जहाँ बाद के वर्षों में शास्त्रीय संगीत को एक ग़ैर इस्लामी फ़न मानकर उसके प्रचार प्रसार की तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया गया, कलाकार मायूस हो गये.
खयाल दर्पण इन मोहाज़िर फ़नकारों, और उनके संगीत के तब से लेकर अब तक के सफ़र का एक मधुर बयान होने के साथ साथ जातीय पहचान, राष्ट्रवाद संगीत और इस्लाम के संबंध, क़व्वाली और ग़ज़ल बनाम शास्त्रीय संगीत सारे सवालों से रू-बरू होती चलती है. उन तमाम अपने फ़न में माहिर कलाकारों की आवाज़ों के लुत्फ़ के अलावा यह फ़िल्म, पाकिस्तान और वहाँ की अवाम के मुतल्लिक बहुत सारे ऐसे पहलू उजागर करती है जिसके बारे में हमें लगता है हम जानते होंगे, और फिर देखते हुए एकदम पहली दफा जानने-सी खुशी होती है. 105 मिनट की इस फ़िल्म को देखना एक आनन्ददायक और ज्ञानवर्धक अनुभव है.
अभय तिवारी
दिल्ली के युसुफ़ सईद ने एक रिसर्च फ़ेलोशिप के तहत छह माह से ज़्याद: पाकिस्तान में गुज़ारा और वहाँ के शास्त्रीय संगीत के परिदृश्य का अध्ययन किया. लाहौर, कराची, और इस्लामाबाद में घूमते हुये तमाम कलाकारों और विद्वानों से बातचीत, संगीत सम्मेलनों में शिरक़त, और संगीत संस्थानों में सैर को अपने कैमरे में क़ैद करके एक निहायत ही खूबसूरत फिल्म (खयाल दर्पण, 2006) को शकल दी.
ये फ़िल्म आपको चौंकाती है..पहले तो अपनी विषय वस्तु से ही..कम से कम मैं तो नहीं जानता था कि पाकिस्तान जैसे देश में शास्त्रीय संगीत जैसी कोई धारा भी है... इसलिये नहीं कि पाकिस्तान एक इस्लामी देश है.. बल्कि इसलिये कि आज से पहले हमने पाकिस्तान के नुसरत, साबरी बन्धु, आबिदा आदि की क़व्वालियां सुनी हैं..मेंहदी हसन, ग़ुलाम अली, फ़रीदा खानम की ग़ज़लों को गुनगुनाया है..पर शुद्ध रागबद्ध शस्त्रीय संगीत कानों तक नहीं पहुँचा.
विभाजन के पहले हिन्दुस्तानी शास्त्रीय परम्परा के तमाम संगीतज्ञ- हिन्दू और मुसलमान-बिना किसी साम्प्रदायिक चेतना के संगीत में एकरंग थे. मिसाल के तौर पर मैहर के अलाउद्दीन खां साहब, मुसलमान होते हुये सरस्वती के बड़े भारी उपासक थे और उनकी बेटियों के नाम हिन्दू देवियों पर रखे गये थे. छोटी बेटी अन्नपूर्णा देवी का नाम अक्सर सुना जाता है, जिनका विवाह रवि शंकर के साथ हुआ था. विभाजन के साम्प्रदायिक बवंडर में बहुत सारे संगीतज्ञ चपेटे गये, और पाकिस्तान तशरीफ़ ले गये. जहाँ बाद के वर्षों में शास्त्रीय संगीत को एक ग़ैर इस्लामी फ़न मानकर उसके प्रचार प्रसार की तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया गया, कलाकार मायूस हो गये.
खयाल दर्पण इन मोहाज़िर फ़नकारों, और उनके संगीत के तब से लेकर अब तक के सफ़र का एक मधुर बयान होने के साथ साथ जातीय पहचान, राष्ट्रवाद संगीत और इस्लाम के संबंध, क़व्वाली और ग़ज़ल बनाम शास्त्रीय संगीत सारे सवालों से रू-बरू होती चलती है. उन तमाम अपने फ़न में माहिर कलाकारों की आवाज़ों के लुत्फ़ के अलावा यह फ़िल्म, पाकिस्तान और वहाँ की अवाम के मुतल्लिक बहुत सारे ऐसे पहलू उजागर करती है जिसके बारे में हमें लगता है हम जानते होंगे, और फिर देखते हुए एकदम पहली दफा जानने-सी खुशी होती है. 105 मिनट की इस फ़िल्म को देखना एक आनन्ददायक और ज्ञानवर्धक अनुभव है.
स्क्रिनप्ले किस चिडिया का नाम है?
हिंदी फिल्में कैसे बनती है: दो
हॉलीवुड ही नहीं, यूरोप के बाहर एशियाई (जापान जैसे अग्रणी और बाद में परिदृश्य का हिस्सा हुए चीन, इरान, उत्तरी अफ्रीकी) मुल्कों में भी फिल्म बनाने का क्लासिकी तरीका यही रहा है कि पहले एक कहानी और उसकी पटकथा फाईनल कर ली जाती है. उसके बाद काम में आनेवाले बाकी तत्वों का अरेंजमेंट होता है. हम चूंकि अनोखे हैं, अलबत्ता इस क्लासिकी तरीके को हम अपने ठेंगे पर रखते हैं. दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में प्रोड्यूस करने वाले मुल्क का ढिंढोरा पीटनेवाले मुल्क से ज़रा सवाल कीजिये उसके संग्रहालय में किन-किन नायाब फिल्मों की पटकथायें सुरक्षित, साज-संभालकर रखी गई हैं? इतनी फिल्में बनी हैं तो कुछ स्क्रिप्ट्स इंटरनेट पर भी उपलब्ध होंगी (जो बिचारे बंबई में नहीं रहते और जिन्हें फिल्मी कीडा है स्क्रिप्ट के बहाने ही उन्हें कुछ इस नायाब कला का परिचय मिले) तो इसका एक और इकलौता जवाब यही है कि आप दीवार पर सिर पीटनेवाला सवाल कर रहे हैं.
1931 में आर्देशर इरानी ने हिंदुस्तान की पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ बनाई उसके बाद इतने वर्ष निकल गए और यहां सूचना दी जा रही है कि हिंदी फिल्मों के पास अपनी पटकथा नहीं है? हां, हुज़ूर, सच्चाई कमोबेश ऐसी ही है. अपने यहां कहानी को कलमबंद करने की बजाय लेखकों की तरफ से ड्रामेबाजी के साथ उसे ‘सुनाने’ की रवायत ज्यादा है. स्क्रिप्ट्स लिखे नहीं जाते लेखक के दिमाग में बसते हैं. वह उन्हें प्रोड्यूसर और डायरेक्टर के दिमाग तक कॉम्यूनिकेट करवा देता है, और उसके बाद ऐन शूटिंग के वक्त नोटबुक और कागज़ की पुर्चियों पर संवाद उकेरे जाते हैं. ‘शोले’ जैसी बडी फिल्म भी इसी पुर्ची तकनीक से बनी थी. फिल्ममेकिंग का ऐसा अनोखा तरीका न केवल अन्य मुल्कों में बेमिसाल समझा जाएगा, यह पहेली हिंदुस्तान के बाहर किसी के पल्ले भी नहीं पडेगी.
ऑस्ट्रेलिया, हांगकांग, मैक्सिको में स्थानीय स्तर पर भारी सफलता के बाद किसी निर्देशक के लिए यह स्वाभाविक होगा कि हॉलीवुड का कोई बडा स्टूडियो उसे किसी फिल्म के ऑफर के साथ अप्रोच करे. बॉलीवुड में लोग बातें भले जितनी बडी-बडी करें, ऐसे दृश्य का यहां संभव होना लगभग असंभव है. क्योंकि अपने यहां एक कहानी के इर्द-गिर्द चरित्रों, जगह के विशिष्ट भूगोल के साथ क्रमवार तरीके से एक दुनिया खडी करनेवाली सिनेमा की परंपरा ही नहीं है. हम फिल्म को कहानी के क्लासिकी सिलसिले की बजाय जॉनी लिवर, पांच गाने और आईटम नंबर जैसे विभाजनों के सहारे आगे बढाते हैं. अपने यहां पटकथा नहीं हीरो-हिरोईन के कॉंबिनेशन के साथ ‘प्रोजेक्ट’ बनाया जाता है (मैं जानता हूं आप हमें शेखर कपूर का हवाला देंगे. मगर शेखर न तो रेगुलर हिंदी फिल्म डायरेक्टर थे. ‘मिस्टर इंडिया’ से अलग उनकी पहचान ज्यादा एक मॉडल और एक्टर वाली थी. और डायरेक्टर की पहचान जिस फिल्म के बूते उन्होंने हासिल की वह ‘बैंडिट क्वीन’ किसी भी नज़रिये से रेगुलर हिंदी फिल्म तो कतई नहीं थी). तो हिंदी फिल्म किस जादुई पहेली का नाम है, और वह कैसे बनती है भला?...
(जारी...)
हॉलीवुड ही नहीं, यूरोप के बाहर एशियाई (जापान जैसे अग्रणी और बाद में परिदृश्य का हिस्सा हुए चीन, इरान, उत्तरी अफ्रीकी) मुल्कों में भी फिल्म बनाने का क्लासिकी तरीका यही रहा है कि पहले एक कहानी और उसकी पटकथा फाईनल कर ली जाती है. उसके बाद काम में आनेवाले बाकी तत्वों का अरेंजमेंट होता है. हम चूंकि अनोखे हैं, अलबत्ता इस क्लासिकी तरीके को हम अपने ठेंगे पर रखते हैं. दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में प्रोड्यूस करने वाले मुल्क का ढिंढोरा पीटनेवाले मुल्क से ज़रा सवाल कीजिये उसके संग्रहालय में किन-किन नायाब फिल्मों की पटकथायें सुरक्षित, साज-संभालकर रखी गई हैं? इतनी फिल्में बनी हैं तो कुछ स्क्रिप्ट्स इंटरनेट पर भी उपलब्ध होंगी (जो बिचारे बंबई में नहीं रहते और जिन्हें फिल्मी कीडा है स्क्रिप्ट के बहाने ही उन्हें कुछ इस नायाब कला का परिचय मिले) तो इसका एक और इकलौता जवाब यही है कि आप दीवार पर सिर पीटनेवाला सवाल कर रहे हैं.
1931 में आर्देशर इरानी ने हिंदुस्तान की पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ बनाई उसके बाद इतने वर्ष निकल गए और यहां सूचना दी जा रही है कि हिंदी फिल्मों के पास अपनी पटकथा नहीं है? हां, हुज़ूर, सच्चाई कमोबेश ऐसी ही है. अपने यहां कहानी को कलमबंद करने की बजाय लेखकों की तरफ से ड्रामेबाजी के साथ उसे ‘सुनाने’ की रवायत ज्यादा है. स्क्रिप्ट्स लिखे नहीं जाते लेखक के दिमाग में बसते हैं. वह उन्हें प्रोड्यूसर और डायरेक्टर के दिमाग तक कॉम्यूनिकेट करवा देता है, और उसके बाद ऐन शूटिंग के वक्त नोटबुक और कागज़ की पुर्चियों पर संवाद उकेरे जाते हैं. ‘शोले’ जैसी बडी फिल्म भी इसी पुर्ची तकनीक से बनी थी. फिल्ममेकिंग का ऐसा अनोखा तरीका न केवल अन्य मुल्कों में बेमिसाल समझा जाएगा, यह पहेली हिंदुस्तान के बाहर किसी के पल्ले भी नहीं पडेगी.
ऑस्ट्रेलिया, हांगकांग, मैक्सिको में स्थानीय स्तर पर भारी सफलता के बाद किसी निर्देशक के लिए यह स्वाभाविक होगा कि हॉलीवुड का कोई बडा स्टूडियो उसे किसी फिल्म के ऑफर के साथ अप्रोच करे. बॉलीवुड में लोग बातें भले जितनी बडी-बडी करें, ऐसे दृश्य का यहां संभव होना लगभग असंभव है. क्योंकि अपने यहां एक कहानी के इर्द-गिर्द चरित्रों, जगह के विशिष्ट भूगोल के साथ क्रमवार तरीके से एक दुनिया खडी करनेवाली सिनेमा की परंपरा ही नहीं है. हम फिल्म को कहानी के क्लासिकी सिलसिले की बजाय जॉनी लिवर, पांच गाने और आईटम नंबर जैसे विभाजनों के सहारे आगे बढाते हैं. अपने यहां पटकथा नहीं हीरो-हिरोईन के कॉंबिनेशन के साथ ‘प्रोजेक्ट’ बनाया जाता है (मैं जानता हूं आप हमें शेखर कपूर का हवाला देंगे. मगर शेखर न तो रेगुलर हिंदी फिल्म डायरेक्टर थे. ‘मिस्टर इंडिया’ से अलग उनकी पहचान ज्यादा एक मॉडल और एक्टर वाली थी. और डायरेक्टर की पहचान जिस फिल्म के बूते उन्होंने हासिल की वह ‘बैंडिट क्वीन’ किसी भी नज़रिये से रेगुलर हिंदी फिल्म तो कतई नहीं थी). तो हिंदी फिल्म किस जादुई पहेली का नाम है, और वह कैसे बनती है भला?...
(जारी...)
3/06/2007
हिंदी फिल्में कैसे बनती हैं
यह एक गंभीर, समाज शास्त्रीय विषय है लेकिन बंबई में इस प्रश्न का उत्तर गंभीर नहीं हो सकता. आदित्य चोपडा, फरहान अख्तर और हैरी बवेजा के यहा आपको इसका अलग-अलग जवाब (और फार्मूला) मिलेगा. कुछ वर्षों पहले गोविंदा के कान में आप यह सवाल करते तो वह हंसने लगता. फिर सीरियसली आपको देखकर कहता हमें साईन कर लो फिल्म बन जायेगी. जेपी दत्ता, संजय भंसाली और राजकुमार संतोषी की फिल्म समय व पैसा खाकर काफी अदाओं से बनती है. फिर एक फास्ट फुड वाली फिल्ममेकिंग भी है. महेश मांजरेकर, प्रियदर्शन और मुकेश भट्ट इसके सिद्धहस्त खिलाडी हैं. इन्होंने यह कला साध ली है कि एक फिल्म से अभी निकले नहीं और दूसरे में घुस गए. भंसाली ने पहला शॉट लिया नहीं और इस दरमियान प्रियदर्शन बाबू ने एक पूरी फिल्म छाप ली. डेविड धवन की एक नहीं दो-दो फिल्में एक साथ रीलीज़ हो रही हैं.
फिर कुछ डिटेल्स पर काम करनेवाले फिल्ममेकरों की एक नई पौध भी हैं. अपने विशाल भारद्वाज का नाम इसमें अग्रणी समझा जाना चाहिये. डिटेल, कैमरा, रियलिस्टिक कैरेक्टेराइजेशन में इतना उलझ जाते हैं कि कहानी का सुर मध्यांतर के बाद आप ही के लिए नहीं, इनके लिए भी गडबडाया रहता है. ‘ओंकारा’ प्रेम और विश्वासघात के पडताल का ही टेक ऑफ था न? अब आप ठीक से याद कीजिये कि आपको फिल्म के प्रेम की मार्मिकता याद रही या ओंकारा के अंदर उठी यह टीस और चोट कि वह अपनों से छला गया? अपनापे का ऐसा कोई मार्मिक बिल्ड-अप है ही नहीं फिल्म में. आपको फिल्म देखते हुए बस यह अच्छा लगता रहता है कि हिंदी पट्टी की गुंडई का सुर अच्छा पकडा है बंदे ने, और सैफ और दीपक डोभलियाल काम सही कर रहे हैं. कहानी-वहानी भूल जाईये. देखिये, मैं बहक रहा हूं. बात शुरु हुई थी हिंदी फिल्म बनती कैसे है. ठीक है प्रोड्यूसर के पास इतना काला धन है उसने तय किया कि नाली में बहाना है तो क्या बन गई फिल्म? नहीं बनी.
नाटक खेलने के लिए जैसे एक नाटक की ज़रुरत होती है फिल्म-फिल्म खेलने के लिए भी एक स्क्रिनप्ले, स्क्रिप्ट, पटकथा नामक चीज़ की ज़रुरत होती है. मनोहरश्याम जोशी और मन्नू भंडारी ने इस विषय पर एक-एक किताब भी लिखी है. फिल्मों का ज्ञानात्मक कीडा हो तो आप ज्ञानार्जन कर सकते हैं. तो पैसा बहाने की जिद पर अड जाने के बाद हिंदी फिल्मों का प्रोड्यूसर क्या अब एक पटकथा की खोज में निकलेगा? नहीं, बेवकूफ होगा तो शायद इस झोल में फंस जाये वर्ना पहले वह अपने हीरो-हिरोईन खोजेगा. दुनिया के अन्य देश इस मामले में चाहे जितने उल्लू हों, हिंदी फिल्मों का प्रोड्यूसर नहीं. फिल्म बनाने के लिए कहानी और पटकथा उसके लिए सबसे आखिर में आनेवाली और सबसे फालतू और नगण्य चीज़ें हैं. फिर कहां से शुरु होता है खेल? वह खेल हम फिर खेलेंगे...
(जारी...)
फिर कुछ डिटेल्स पर काम करनेवाले फिल्ममेकरों की एक नई पौध भी हैं. अपने विशाल भारद्वाज का नाम इसमें अग्रणी समझा जाना चाहिये. डिटेल, कैमरा, रियलिस्टिक कैरेक्टेराइजेशन में इतना उलझ जाते हैं कि कहानी का सुर मध्यांतर के बाद आप ही के लिए नहीं, इनके लिए भी गडबडाया रहता है. ‘ओंकारा’ प्रेम और विश्वासघात के पडताल का ही टेक ऑफ था न? अब आप ठीक से याद कीजिये कि आपको फिल्म के प्रेम की मार्मिकता याद रही या ओंकारा के अंदर उठी यह टीस और चोट कि वह अपनों से छला गया? अपनापे का ऐसा कोई मार्मिक बिल्ड-अप है ही नहीं फिल्म में. आपको फिल्म देखते हुए बस यह अच्छा लगता रहता है कि हिंदी पट्टी की गुंडई का सुर अच्छा पकडा है बंदे ने, और सैफ और दीपक डोभलियाल काम सही कर रहे हैं. कहानी-वहानी भूल जाईये. देखिये, मैं बहक रहा हूं. बात शुरु हुई थी हिंदी फिल्म बनती कैसे है. ठीक है प्रोड्यूसर के पास इतना काला धन है उसने तय किया कि नाली में बहाना है तो क्या बन गई फिल्म? नहीं बनी.
नाटक खेलने के लिए जैसे एक नाटक की ज़रुरत होती है फिल्म-फिल्म खेलने के लिए भी एक स्क्रिनप्ले, स्क्रिप्ट, पटकथा नामक चीज़ की ज़रुरत होती है. मनोहरश्याम जोशी और मन्नू भंडारी ने इस विषय पर एक-एक किताब भी लिखी है. फिल्मों का ज्ञानात्मक कीडा हो तो आप ज्ञानार्जन कर सकते हैं. तो पैसा बहाने की जिद पर अड जाने के बाद हिंदी फिल्मों का प्रोड्यूसर क्या अब एक पटकथा की खोज में निकलेगा? नहीं, बेवकूफ होगा तो शायद इस झोल में फंस जाये वर्ना पहले वह अपने हीरो-हिरोईन खोजेगा. दुनिया के अन्य देश इस मामले में चाहे जितने उल्लू हों, हिंदी फिल्मों का प्रोड्यूसर नहीं. फिल्म बनाने के लिए कहानी और पटकथा उसके लिए सबसे आखिर में आनेवाली और सबसे फालतू और नगण्य चीज़ें हैं. फिर कहां से शुरु होता है खेल? वह खेल हम फिर खेलेंगे...
(जारी...)
3/01/2007
हिंदुस्तान हिंदी से ज्यादा तेलुगु बोल रहा है
कम-स-कम पर्दे की हकीकत ऐसा ही बोल रही है. 2006 में बनी 223 हिंदी फिल्मों की तुलना में 245 फिल्में बनाकर तेलुगु इंडस्ट्री पहले नंबर पर चली आई है. 162 फिल्मों के निर्माण के साथ तमिल सिनेमा तीसरे नंबर पर है. 2003 में झटके खाती भारतीय फिल्म इंडस्ट्री का समूचा निर्माण घटकर 842 फिल्मों तक सिमट गया था, वह वापस सांस लेता 2004 में 900 के ज़रा ऊपर गया. 2005 में यह संख्या 1,042 तक पहुंची, और 2006 में कुल निर्मित फिल्मों की संख्या थी 1,091.
इनमें भोजपुरी फिल्मों का उभार सबसे रोचक है. 2006 में 76 फिल्मों के निर्माण के साथ उसने न केवल पिछले वर्ष की तुलना में 100 प्रतिशत वृद्धि दर्ज़ की, बल्कि अब समूचे फिल्म निर्माण में सात प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ मलयालम और कन्नड फिल्मों की बराबरी की हक़दार हो रही है. फिल्म फेडेरेशन ऑफ इंडिया के सचिव सुपर्ण सेन ने बताया कि भोजपुरी फिल्मों का काफी बडा बाज़ार है और वह सिर्फ पूर्वी भारत में ही नहीं है, बल्कि मुंबई जैसे बडे शहर में भी है जहां बडी तादाद में हिंदी पट्टी से आकर लोग बसे हैं. दिलचस्प बात यह भी है इनमें से ज्यादा फिल्मों का निर्माण बिहार और उत्तरी भारत में नही यहां मुंबई (76 में से 72) में हुआ है. (एचटी से साभार)
इनमें भोजपुरी फिल्मों का उभार सबसे रोचक है. 2006 में 76 फिल्मों के निर्माण के साथ उसने न केवल पिछले वर्ष की तुलना में 100 प्रतिशत वृद्धि दर्ज़ की, बल्कि अब समूचे फिल्म निर्माण में सात प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ मलयालम और कन्नड फिल्मों की बराबरी की हक़दार हो रही है. फिल्म फेडेरेशन ऑफ इंडिया के सचिव सुपर्ण सेन ने बताया कि भोजपुरी फिल्मों का काफी बडा बाज़ार है और वह सिर्फ पूर्वी भारत में ही नहीं है, बल्कि मुंबई जैसे बडे शहर में भी है जहां बडी तादाद में हिंदी पट्टी से आकर लोग बसे हैं. दिलचस्प बात यह भी है इनमें से ज्यादा फिल्मों का निर्माण बिहार और उत्तरी भारत में नही यहां मुंबई (76 में से 72) में हुआ है. (एचटी से साभार)
पेशे से कैमरामैन हमारे एक मित्र हैं जो अबतक भोजपुरी फिल्मों को शूट करने के प्रस्तावों से बचते रहे हैं. उनके आगे हमने अपनी जिज्ञासा रखी कि आखिर क्या वजह है कि संख्यात्मक उभार के बावजूद भोजपुरी की फिल्में हिंदी फिल्मों से कहीं ज्यादा पलायनवादी हैं. मित्र ने हंसकर कहा, तुम खुद कह रहे हो कि इन फिल्मों की बंबई जैसे बडे शहरों में काफी खपत है. और बंबई में इन फिल्मों को देखनेवाले ज्यादातर किस तबके के लोग हैं? घर और परिवार से दूर मजदूरी करनेवाले इन लोगों को महानगर के उलझे झमेले भुलानेवाला सस्ता टॉनिक चाहिये. रवि किशन और मनोज तिवारी अपने लटकों-झटकों से दे रहे हैं ये टॉनिक.
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