हिंदी फिल्में कैसे बनती हैं: तीन
हिंदी फिल्म कैसे बनती है समझने के लिए हिरोईन ही नहीं हिरोईन की मां को समझना भी उतना ही ज़रुरी है. और हिरोईनों की ही तरह हिरोईन मातायें भी अलग-अलग आकार और पैकेजिंग में आती हैं. प्रोड्यूसर डरते दोनों ही से थे लेकिन सारिका की मां और हेमा मालिनी की मां में ज़मीन-आसमान का फ़र्क था. शरीरी तौर पर भी. ये फिल्म इतिहास की ऐतिहासिक मातायें रही हैं. इनसे प्रोड्यूसर ही नहीं धर्मेंद्र जैसे हीरो भी डरते थे. फिर कम ऐतिहासिक मातायें भी रही हैं. जैसे नीतू सिंह की मम्मी. बाद में मां के साथ बाप को भी सेट के आस-पास रखने का फैशन चला. ज़रा पीछे लौटिये आपको याद आयेगा. उधर माधुरी अनिल कपूर के साथ ‘धक-धक’ वाला गाना शूट कर रही हैं, इधर पेरेंट्स हाथ में चाय लिये प्लास्टिक की कुर्सियों पर प्रोड्यूसर के बगल में बैठे मुस्करा रहे हैं. शिल्पा को अब थोडे समय ज़रुरत नहीं होगी मगर बीच में जब काफी इंटेसली ज़रुरत हो रही थी तो विज्ञापन के बकाया पैसों के लिए थ्रेटेनिंग फोन कॉल्स वह नहीं कर रही थी, यह रोल मम्मी और पापा आपस में डिवाइड करके प्ले कर रहे थे. कुमारी अमिषा पटेल भी पेरेंट्स वाली नाव की ही सवारी कर रही थी, विक्रम भट्ट से प्यार-स्यार के झमेले में फंसकर बेचारी ने नाव में छेद कर लिया.
मां की महत्ता जान लेने के बाद नाना का इंपोर्टेंस भी समझ लेना ज़रुरी है. पहली बात तो ये कि अगर प्रोड्यूसर रामगोपाल वर्मा है तभी वह नाना को हाथ लगाये. इस वादे के साथ एक्टिंग करवा ले कि फैक्ट्री की अगली फिल्म तुम्हीं डायरेक्ट कर रहे हो. फिर बाद में उस प्रसंग की फिर कभी चर्चा ही न चलने दे आदि-इत्यादि. इससे ज्यादा प्रोड्यूसर के लिए यह जानना ज़रुरी है कि वह अगर ‘हम दोनों’ के शफी ईनामदार और ‘खामोशी’ के संजय भंसाली जैसे फर्स्ट फिल्म डायरेक्टर के साथ वह एक्सपेरिमेंट कर रहा हो तो बेहतर है फिल्म बिना नाना के करे. क्योंकि पहली फिल्म के डायरेक्टरों की तरफ तमाचा, चप्पल और मां-बहन की गालियां फेंकने में नाना को विशेष परफेक्शन हासिल है. नाना को तो अच्छा लगता ही है डायरेक्टरों को भी आदत हो गई है. तो अब यह प्रोड्यूसर के नये निर्देशक पर निर्भर करता है कि इस तरह के स्नेहिल अंतरंगताओं में उसकी आस्था है या नहीं. भंसाली जैसे लोगों ने पूरी कर्मठता से नानागत सबक लिये और अब उतनी ही निपुणता से अपने असिस्टेंटों पर फोन और हाथ की ज़द में रहनेवाले दूसरे साधनों को फेंकते हुए अपनी निशाना साधने की प्रैक्टिस करते हैं. और हर्ष की बात यह है कि फिल्म सिटी में ‘ब्लैक’ के सेट पर आग लगने से किसी की जान भले गई भंसाली के अपने निशाने से किसी असिसटेंट के मरने की खबर अभी तक प्रैस में नहीं आई है. पहले प्रोड्यूसर स्टार टैंट्रम नाम की एक मुसीबत से पीडित रहा करते थे. भंसाली ने स्टारों का यह विशेषाधिकार छीनकर फिल्म इंडस्ट्री को डायरेक्टर्स टैंट्रम का एक नया गिफ्ट दिया है.
फिल्म कैसे बनती है समझने के लिए यह भी समझ लें कि विदेशी पर्यटन की उसमें कितनी अहम भूमिका है. कहानी भले रामपुर, सीतापुर कहीं की भी हो शुटिंग उसकी एम्सटरडेम, लंदन, वियेना, टोरंटो, सिडनी ऐसी ही किसी जगह में करनी होगी. माने अगर आप हिंदी फिल्मों का प्रोड्यूसर बनना चाहते हैं और रामपुर की कहानी रामपुर में ही शूट करना चाहते हैं और ये समझते हैं कि अक्षय कुमार और अक्षय खन्ना भी ऐसा ही चाहेंगे तो फिर आप फिल्म बनाने का ख्याल त्याग दीजिये. क्योंकि आपके इस भोले प्रस्ताव पर अक्षय कुमार तो क्या ओम पुरी भी थूक देंगे.
(जारी...)
1 comment:
ये बढ़िया बताया कि रामपुर की सूटिंग विदेश में होती है!
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