
पहला फारसी फिल्मकार मिर्जा इब्राहिम खान अक्कस बाशी साहब थे जिन्हें मुजफ्फर अल दीन शाह (1896-1907) के दरबार में ऑफिशियल फोटोग्राफर के बतौर शाह परिवार के यूरोपीय दौरों को फिल्माने का जिम्मा मिला हुआ था. हालांकि इस दौर में पारिवारिक, धार्मिक प्रकृति के अन्य मौकों पर काफी सारा फिल्मांकन हुआ मगर ये सारे न्यूज़रील अब अनुपलब्ध हैं. तीसरे दशक तक आलम यह था कि तेहरान में पंद्रह से कुछ ऊपर व अन्य प्रदेशों में कुल ग्यारह सिनेमा हॉल ही बन पाये थे. 1932 में जनाब अब्दुलहुसैन सेपांता ने पहली बोलती फिल्म बनाई- लॉर गर्ल. 1935 में इन्हीं साहब ने फिरदौसी (ईरान के मशहूर कवि) का निर्माण किया.
मगर ईरानी सिनेमाई परिदृश्य में एक खास पेंच था. दुनिया के बाकी हिस्सों में जहां फिल्मकार आसानी से सिनेमा के नये माध्यम के इंस्पिरेशन के लिए चार्ल्स डिकेंस और मार्सेल पन्योल का सहारा ले रहे थे वहीं ईरान में उपन्यासों व सामयिक कथानकों की ऐसी कोई परंपरा नहीं थी. इस दिक्कत से उबरने के लिए ईरान में सिनेमा ने एक अनोखा रास्ता खोज निकाला. एक ऐसे मुल्क में जहां गांव के अपढ देहाती भी रोज़मर्रा की बातों में हफीज़, सादी और ख़य्याम को उद्धृत किया करते थे, फिल्मकारों ने प्रेरणा के लिए उपन्यासों की बजाय कविता का साथ चुना. सिनेमा की दुनिया में प्रवेश का यह सचमुच जोखिमभरा, पेचीदा रास्ता था...
(जारी...)
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