इनमें भोजपुरी फिल्मों का उभार सबसे रोचक है. 2006 में 76 फिल्मों के निर्माण के साथ उसने न केवल पिछले वर्ष की तुलना में 100 प्रतिशत वृद्धि दर्ज़ की, बल्कि अब समूचे फिल्म निर्माण में सात प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ मलयालम और कन्नड फिल्मों की बराबरी की हक़दार हो रही है. फिल्म फेडेरेशन ऑफ इंडिया के सचिव सुपर्ण सेन ने बताया कि भोजपुरी फिल्मों का काफी बडा बाज़ार है और वह सिर्फ पूर्वी भारत में ही नहीं है, बल्कि मुंबई जैसे बडे शहर में भी है जहां बडी तादाद में हिंदी पट्टी से आकर लोग बसे हैं. दिलचस्प बात यह भी है इनमें से ज्यादा फिल्मों का निर्माण बिहार और उत्तरी भारत में नही यहां मुंबई (76 में से 72) में हुआ है. (एचटी से साभार)
पेशे से कैमरामैन हमारे एक मित्र हैं जो अबतक भोजपुरी फिल्मों को शूट करने के प्रस्तावों से बचते रहे हैं. उनके आगे हमने अपनी जिज्ञासा रखी कि आखिर क्या वजह है कि संख्यात्मक उभार के बावजूद भोजपुरी की फिल्में हिंदी फिल्मों से कहीं ज्यादा पलायनवादी हैं. मित्र ने हंसकर कहा, तुम खुद कह रहे हो कि इन फिल्मों की बंबई जैसे बडे शहरों में काफी खपत है. और बंबई में इन फिल्मों को देखनेवाले ज्यादातर किस तबके के लोग हैं? घर और परिवार से दूर मजदूरी करनेवाले इन लोगों को महानगर के उलझे झमेले भुलानेवाला सस्ता टॉनिक चाहिये. रवि किशन और मनोज तिवारी अपने लटकों-झटकों से दे रहे हैं ये टॉनिक.
2 comments:
एक बात और भी है तेलुगु या अन्य दक्षिण भातरीय़ भाषा में बनी फिल्मों के सफल होने का अनुपात भी हिन्दी में सफल होने वाली फिल्मों से कहीं ज्यादा है।
छह महीने हो गए। दिल्ली के कनाट प्लेस के रीगल सिनेमा में एक भोजपुरी फिल्म लगी। एक हफ्ते के लिएष हमने टीवी के लिए एक खबर की। पर जानते है, सिनेमा हाल के मैनेजर को जब भी कोई फोन करता और पूछता कि क्या चल रहा है। तो जब वो बताता कि भोजपुरी, तो लोग चौंकते। और तो और दिल्ली के करोलबाग औऱ चांदनी चौक में मौजूद सिनेमाहालों में हाउसफुल देने वाला दर्शक कनाट प्लेस से दूर ही रहा। जिस दिन शो हिट रहा उस दिन सिनेमाहाल में रहे ढाई सौ लोग। यानि भोजपुरी फिल्म का बाजार औऱ वर्ग सिमटा है। और अपने इलाकों में ही फिल्मे देखना पसंद करता है।
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