ईरानी सिनेमा: सात
देश में सुधार के लिए स्त्री और छात्रों के संघर्ष ने आम चेतना को किस हद तक छुआ है, और साथ ही साथ इसी क्रम में फिल्मों की शक्ल कैसे बदली है इसका एक अंदाज़ पिछले कुछ वर्षों की बनी फिल्मों में देखा जा सकता है. ‘द सर्किल’ (2000) में पनाही ईरान में स्त्रियों की अवस्था पर बहुत ही निर्ममता से चोट करते हैं. आम तौर पर जिस भले-भोलेपन से जोड़कर हम ईरानी सिनेमा को देखते हैं द सर्किल में वह तार-तार होती दिखती है. थोड़े ही अंतराल पर अब्बास क्यारोस्तामी की ‘दस’ (2002) आती है. यहां फिल्म का विषय तेहरान की सड़कों पर टैक्सी चलाती एक औरत का अपने बेटे व अन्य मुसाफिरों के संग किये दस संवाद हैं. ठुकराई दुल्हन, वेश्या और मस्जिद जाती इस जमाव में हर तरह की स्त्रियां हैं और अंतर्तम की वो सारी टेढ़ी-उलझी लकीरें जिनका आम तौर पर हमें दर्शन नहीं होता. समय और माध्यम के चौतरफा एक्सप्लोरेशन के विश्वासी क्यारोस्तामी ने दस डीवी कैमरा से शूट किया, और फिल्म का समूचा समय एक टैक्सी के दायरे में संपन्न होता है.
इस दौर का मज़ेदार पहलू यह देखना है कि कैसे फिल्में यूनिवर्सल सामाजिक चिंताओं से हटकर ईरान की अपनी विशिष्ट मुश्किलों पर केंद्रित हो रही थीं. घोबादी के ‘कछुए उड़ सकते हैं’ (2004) में हमारा सामना युद्धजर्जर कुर्द शरणार्थियों और अमरीकी मुक्ति के फ़रेब व व्यभिचार की निहायत ही मार्मिक तस्वीरों से होता है.
इस तरह से ईरानी सिनेमा ईरानी राज्य के साथ एक पेचीदा व मुश्किल रिश्ता बनाये हुए है. शाह एक राष्ट्रीय सिनेमा विकसित करके अपने लिए ताली बजवाना चाहते थे, लेकिन अर्थपूर्ण सिनेमा की शुरुआत ही ईरान में राज्य का विरोध और भारी वर्गीय भेद को दर्शाने से हुई. वे भेद, वे अंतर्विरोध अभी भी खत्म नहीं हुए हैं. ईरानी सिनेमा में अच्छे या बुरे का अस्तित्व नहीं. लोंगों का व्यवहार व विचार बहुत हद तक उनकी सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों से उपजती हैं. और इन अंतरविरोधों की मार्मिक व्याख्या का जो आरंभ फारोगज़ाद और दारियस मेहरजुइ से हुआ था, वह वक्त बीतने के साथ और पैना, ज्यादा सुघड़ ही हुआ है. हॉलीवुड और बॉलीवुड के मनोरंजन से अपना सिनेमाई ककहरा सीखनेवाले ईरान से आज समूची दुनिया शिक्षा ले सकती है.
(ऊपर जफ़र पनाही के 'द सर्किल' का पोस्टर, नीचे घोबादी के 'कछुए उड़ सकते हैं' का कमउम्र 'नायक')
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