ईरानी सिनेमा: चार
1986 में पश्चिम को अचरज में डालने के बाद क्यारोस्तामी की एक ऐसे सिनेकार की अंतर्राष्ट्रीय पहचान बनी जिसका संसार न केवल एक अद्भुत मानवीयता से छलक रहा है, बल्कि जो थोड़े पैसों में एक से एक अनोखे हीरे तराश कर सिनेमाई संवेदना को अमीर करने में समर्थ है. क्यारोस्तामी के पीछे-पीछे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के परिदृश्य में एक दूसरे ईरानी फिल्मकार का पदार्पण हुआ. स्व-शिक्षित व पूर्व क्रांतिकारी- जनाब मोहसेन मखमलबाफ, इन्हें शाह के शासन के दरमियान एक पुलिसवाले पर छूरा चलाने के ज़ुर्म में सज़ा हुई थी. 1996 में बनी उनकी फिल्म ‘नन वा गोल्दुन’ (अंग्रेजी में शीर्षक- अ मोमेंट ऑफ इन्नोसेंस) एक तरीके से नब्बे के दशक में क्यों ईरानी सिनेमा इतना खास था का अच्छा खुलासा करती है. इस फिल्म में पुलिसवाला और खुद मखमलबाफ छूरे से हमले की घटना को अपने अलग-अलग नज़रिये से फिल्माते हैं.
जैसे किसान ज़मीन में हल चलाता है वैसे ही क्यारोस्तामी और मखमलबाफ हमारी आंखों के आगे सच्चाई की एक-एक परत उघाड़कर रखते चलते हैं. ईरान में एक के बाद एक नये जुड़ते हस्ताक्षरों में इतालवी नियो-रियलिज्म का असर भले रहा हो धीरे-धीरे पंद्रह-बीस वर्षों में वहां जो सिनेमाई संपदा इकट्ठा हुई है, कैमरे के पीछे से दुनिया को देखने, परिभाषित करने का जो- ऊपर से सरल और भीतर प्याज की परत दर परत छिपाये हुए- तरीका उसने ईजाद किया है वह दुनिया में सिनेमा के अबतक के इतिहास में अनोखा है, अतुलनीय है, और गरीब मुल्कों के लिए इसका बेशकीमती उदाहरण कि अच्छा सिनेमा पैसे पर नहीं अच्छी कल्पना और समाज से जीवंत संबंध पर अाश्रित है.
(जारी...)
No comments:
Post a Comment