3/25/2007

पगडंडियों का राजमार्ग

ईरानी सिनेमा: पांच

नब्‍बे के दशक में ईरानी सिनेमा ने जो अंतर्राष्‍ट्रीय ख्‍याति पाना शुरु किया उसमें एक अंतर्निहित अंतर्विरोध भी छिपा था. इस्‍लामिक क्रांति के बाद का ईरान पश्चिमी मीडिया की नज़रों में युद्ध, धर्मांद्धता और आतताई मुल्‍लाओं के दमनकारी राज का पर्याय था, जबकि फिल्‍में निहायत एक अलग किस्‍म का ग्रामीण लैंडस्‍केप, बालसुलभ मासूमियत और ईरान की एक कवितामयी तस्‍वीर पेश करती थीं.

क्रांति के ठीक पहले शाह द्वारा आयातित पश्चिमी ‘पतनशील’ फिल्‍मों के प्रति आम गुस्‍सा जिसमें तेहरान के 180 सिनेमा हॉलों को आग के हवाले कर दिया गया, और स्‍वदेस वापसी पर खोमैनी के पहले ही भाषण में सिनेमा की उपयोगिता की चर्चा इसका सीधा संकेत थी कि ईरानी मानस में सिनेमा को कितना महत्‍वपूर्ण स्‍थान प्राप्‍त था, और आनेवाले दिनों के रेजिमेंटेशन में या तो वह पूरी तरह विलुप्‍त हो जाती, या फिर अपनी बुनावट की साज-संवार के साथ सिनेमा के एक नए दौर में प्रवेश करती. इन अतिवादी मुश्किलों, तनावों के बीच ही ईरान की कला-सिनेमा ने धीरे-धीरे अपने पैर जमाना शुरु किया. क्‍यारोस्‍तामी जो काफी वर्षों से बच्‍चों की एक संस्‍था से जुड़े थे इन तनावों का बेहतर तरीके से सामना करने की स्थिति में थे. बच्‍चों के साथ फिल्‍म करने का एक सीधा फायदा यह था कि सरकारी वर्जनायें (सेक्‍स, रोमांस, हिंसा) वहां यूं भी बेमानी हो जाती थी, मगर साथ ही, बच्‍चों की वजह से, समाज-समीक्षा का दायरा और अंतरंग हो जाता था. उदाहरण के लिए तसल्‍ली व प्‍यार-दुलार की पारंपरिक भूमिकाओं के निर्वाह की जगह परिवार इन फिल्‍मों में तनाव व द्वंद्व दर्शाने का मंच बनता है, जो आस-पास की सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों की वजह से खड़े हो रहे थे. (दोस्‍त का घर कहां है?).

इसके अनंतर क्‍यारोस्‍तामी ईरानी यथार्थवाद को एकदम अलग किस्‍म की ऊंचाइयों तक ले गए. ‘थ्रू द ऑलिव ट्रीज़’ (1994) में एक अभिनेता निर्देशक क्‍यारोस्‍तामी की भूमिका में क्‍यारोस्‍तामी का रोल करते एक दूसरे अभिनेता को निर्देशित कर रहा है. साथ ही यहां क्‍यारोस्‍तामी की फिल्‍म ‘लाइफ गोज़ ऑन’ के एक दृश्‍य का पुनर्मंचन हो रहा है जिसमें अभिनेता, क्‍यारोस्‍तामी के उस अनुभव को फिर से जी रहा है जब वह भुकंप पीडित क्षेत्रों में ‘दोस्‍त का घर कहां है?’ के एक्‍टरों की खोज-खबर लेने गए थे जहां फिल्‍म की शुटिंग हुई थी. क्‍यारोस्‍तामी ने धीमे-धीमे एक ऐसी दुनिया बुन दी थी जिसमें यथार्थ, कथा, सिनेमाई पुनर्रचना, डाक्‍यूमेंट्री के पारंपरिक विभाजन मिटकर एक निहायत अलहदा किस्‍म का ही सिनेलोक निर्मित कर रहे थे.

(जारी...)

(क्‍यारोस्‍तामी की 'थ्रू द ऑलिव ट्रीज़' की दुनिया)

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