
पश्चिमी मिजाज़ व हमारी-आपकी कल्पनाओं वाले सिनेमा से अलग ईरानी फिल्मों की एक विशेषता यह है कि इन फिल्मों में आम तौर पर कोई नायक व नायिका नहीं होती. फिल्मकार जैसे अनायास हमें एक छोटे-से भूगोल के बीच छोड आता है. कोई बाज़ार, गली, शरणार्थी शिविर, गांव का कोई छोर और उसके बीच हम धीमे-धीमे कुछ चरित्रों से रुबरु होते हैं. बिना किसी हडबडी के. उनकी रोज़ाना की लय में, उनके छूटे हुए किसी काम के बीच. उनका निहायत छोटा सीमित संसार. यह संसार आम तौर पर अपढ, अशिक्षित, देहाती मानस का, परंपराओं से बंधा व बाहरी दुनियावी हलचलों से कटी दुनिया होती है. छोटी बहसों, छोटे झगडों से इन फिल्मों के किरदार किसी खोज, किसी नतीजे तक पहुंचने की कोशिश करते हैं. उनकी औसत समझ व उनके इस लगभग मामूली से काम में धीमे-धीमे, अनायास हम समाज, समय, इतिहास व संस्कृति की गहरी, बडी परतों को खुलता देखते हैं. बिना किसी हो-हल्ले के. आत्मा में सूराख कर दे या दिल को मथकर रख जाये ऐसे भारी प्रसंग भी हमारी तरफ उसी अनाटकीयता से आते हैं मानो किसी ने गांव की सडक साइकिल से बस पार की हो.

(बहमान घोबादी की ‘कछुए तैर सकते हैं’. ऊपर: फिल्म की कमउम्र युद्ध-जर्जर अनाथ ‘नायिका’ अवाज़ लतीफ, नीचे: फिल्म की शुटिंग के दौरान घोबादी)
2 comments:
आप चलचित्र की IMDB कड़ियाँ भी दिया करें तो बढ़िया हो।
हुजू़र, विशेष फिल्म चर्चा पर हम आगे ध्यान रखेंगे.
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