3/07/2007

स्क्रिनप्‍ले किस चिडिया का नाम है?

हिंदी फिल्‍में कैसे बनती है: दो

हॉलीवुड ही नहीं, यूरोप के बाहर एशियाई (जापान जैसे अग्रणी और बाद में परिदृश्‍य का हिस्‍सा हुए चीन, इरान, उत्‍तरी अफ्रीकी) मुल्‍कों में भी फिल्‍म बनाने का क्‍लासिकी तरीका यही रहा है कि पहले एक कहानी और उसकी पटकथा फाईनल कर ली जाती है. उसके बाद काम में आनेवाले बाकी तत्‍वों का अरेंजमेंट होता है. हम चूंकि अनोखे हैं, अलबत्‍ता इस क्‍लासिकी तरीके को हम अपने ठेंगे पर रखते हैं. दुनिया में सबसे ज्‍यादा फिल्‍में प्रोड्यूस करने वाले मुल्‍क का ढिंढोरा पीटनेवाले मुल्‍क से ज़रा सवाल कीजिये उसके संग्रहालय में किन-किन नायाब फिल्‍मों की पटकथायें सुरक्षित, साज-संभालकर रखी गई हैं? इतनी फिल्‍में बनी हैं तो कुछ स्क्रिप्‍ट्स इंटरनेट पर भी उपलब्‍ध होंगी (जो बिचारे बंबई में नहीं रहते और जिन्‍हें फिल्‍मी कीडा है स्क्रिप्‍ट के बहाने ही उन्‍हें कुछ इस नायाब कला का परिचय मिले) तो इसका एक और इकलौता जवाब यही है कि आप दीवार पर सिर पीटनेवाला सवाल कर रहे हैं.

1931 में आर्देशर इरानी ने हिंदुस्‍तान की पहली बोलती फिल्‍म ‘आलमआरा’ बनाई उसके बाद इतने वर्ष निकल गए और यहां सूचना दी जा रही है कि हिंदी फिल्‍मों के पास अपनी पटकथा नहीं है? हां, हुज़ूर, सच्‍चाई कमोबेश ऐसी ही है. अपने यहां कहानी को कलमबंद करने की बजाय लेखकों की तरफ से ड्रामेबाजी के साथ उसे ‘सुनाने’ की रवायत ज्‍यादा है. स्क्रिप्‍ट्स लिखे नहीं जाते लेखक के दिमाग में बसते हैं. वह उन्‍हें प्रोड्यूसर और डायरेक्‍टर के दिमाग तक कॉम्‍यूनिकेट करवा देता है, और उसके बाद ऐन शूटिंग के वक्‍त नोटबुक और कागज़ की पुर्चियों पर संवाद उकेरे जाते हैं. ‘शोले’ जैसी बडी फिल्‍म भी इसी पुर्ची तकनीक से बनी थी. फिल्‍ममेकिंग का ऐसा अनोखा तरीका न केवल अन्‍य मुल्‍कों में बेमिसाल समझा जाएगा, यह पहेली हिंदुस्‍तान के बाहर किसी के पल्‍ले भी नहीं पडेगी.

ऑस्‍ट्रेलिया, हांगकांग, मैक्सिको में स्‍थानीय स्‍तर पर भारी सफलता के बाद किसी निर्देशक के लिए यह स्‍वाभाविक होगा कि हॉलीवुड का कोई बडा स्‍टूडियो उसे किसी फिल्‍म के ऑफर के साथ अप्रोच करे. बॉलीवुड में लोग बातें भले जितनी बडी-बडी करें, ऐसे दृश्‍य का यहां संभव होना लगभग असंभव है. क्‍योंकि अपने यहां एक कहानी के इर्द-गिर्द चरित्रों, जगह के विशिष्‍ट भूगोल के साथ क्रमवार तरीके से एक दुनिया खडी करनेवाली सिनेमा की परंपरा ही नहीं है. हम फिल्‍म को कहानी के क्‍लासिकी सिलसिले की बजाय जॉनी लिवर, पांच गाने और आईटम नंबर जैसे विभाजनों के सहारे आगे बढाते हैं. अपने यहां पटकथा नहीं हीरो-हिरोईन के कॉंबिनेशन के साथ ‘प्रोजेक्‍ट’ बनाया जाता है (मैं जानता हूं आप हमें शेखर कपूर का हवाला देंगे. मगर शेखर न तो रेगुलर हिंदी फिल्‍म डायरेक्‍टर थे. ‘मिस्‍टर इंडिया’ से अलग उनकी पहचान ज्‍यादा एक मॉडल और एक्‍टर वाली थी. और डायरेक्‍टर की पहचान जिस फिल्‍म के बूते उन्‍होंने हासिल की वह ‘बैंडिट क्‍वीन’ किसी भी नज़रिये से रेगुलर हिंदी फिल्‍म तो कतई नहीं थी). तो हिंदी फिल्‍म किस जादुई पहेली का नाम है, और वह कैसे बनती है भला?...

(जारी...)

1 comment:

Jitendra Chaudhary said...

स्क्रीन प्ले:
स्क्रीन प्ले भारत के बॉलीवुड के जंगलों मे पायी जानी वाली विलुप्त प्रजाती की चिडिया का नाम है। पुराने जमाने मे जहाँ इसकी संख्या हजारों मे थी, अब गिनी चुनी ही रह गयी है। सुना है इसके डीएनए अंग्रेज शिकारी लोग उठाकर लें गए है, शायद वे लोग कुछ बनांए इसका।