3/22/2007

सुख की खोज.. या सुरक्षा की?

परस्‍युट ऑफ हैप्‍पीनेस: एक समीक्षा

अभय तिवारी

all men are created equal & independent, that from that equal creation they derive rights inherent & inalienable, among which are the preservation of life, & liberty, & the pursuit of happiness.

ये उद्धरण है थामस जेफ़रसन का जो न केवल संयुक्त राज्य अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थे बल्कि 1776 के डेक्लेरेशन ऑफ़ इन्डिपेन्डेन्स के मुख्य लेखक भी थे..

इस उद्धरण में जो अन्तिम वाक्य है वही से प्रेरित हो कर इस फ़िल्म का शीर्षक रखा गया है.. फ़िल्म के नायक विल स्मिथ एक निराश क्षण में जेफ़रसन को याद करते हुये कहते हैं कि उन्होने सोच समझ कर pursuit की बात की है.. क्योंकि happiness सिर्फ़ pursue की जा सकती है.. पाई नहीं जा सकती.. परन्तु फ़िल्म के अन्त तक एक लम्बे और थका देने वाले संघर्ष के बाद विल स्मिथ अपने pursuit में सफल हो कर सच्ची खुशी हासिल कर लेते हैं..

फ़िल्म की कहानी बहुत सीधी सादी है... क्रिस गार्डनर एक निम्न मध्यवर्गीय अश्वेत नागरिक है.. एक अच्छा पति और ज़िम्मेदार बाप है.. एक बोन डेन्सिटी एक्सरे मशीन का सेल्समैन है और किसी तरह गुज़ारा करने की कोशिश कर रहा है.. पर वो मशीनें उसके गले का पत्थर बन चुकी हैं.. कोई नहीं खरीदना चाहता उन्हे.. तंग आकर बीबी छोड़कर चली जाती है.. क्रिस के पास पैसे नहीं है.. घर छोड़ना पड़ता है.. बच्चे को लेकर दर-दर भटकना पड़ता है.. जिसके दौरान हमें अमेरिका की एक अलग ही तस्वीर दिखती है.. कितने कितने लोग हैं जो निहायत तंगहाली और ग़रीबी का जीवन जीने के लिये मजबूर हैं.. क्रिस हिम्मत नहीं हारता वह लड़ता है अपने हालात से.. उसे मालूम है कि जेफ़र्सन ने कहा है कि सभी मनुष्य बराबर पैदा हुये हैं.. और आखिर में वह एक ऐसी नौकरी पा लेता है जो एक छै महीने के लम्बे इन्टर्नशिप के बाद २० लोगों के बैच में से किसी एक को मिलनी थी.. और वो भाग्यशाली विजेता बनता है.. हाईस्कूल पास एक अश्वेत अमरीकी.. क्यों.. क्य़ोंकि उसने इंसान के बराबरी और खुशी के हक़दार होने की बात पर से अपना यकीन नहीं छोड़ा...

अमरीकी समाज आज जिस चिन्तन को पूरी दुनिया पर थोपना चाहता है यह फ़िल्म उन्ही मूल्यों की पैरवी करती है.. क्या हैं वो चिन्तन.. आप अगर अपने हालात से खुश नहीं हैं.. तो इसमें किसी और की कोई ज़िम्मेदारी नहीं.. सिर्फ़ और सिर्फ़ आप ज़िम्मेदार हैं अपने दुर्भाग्य के लिये..आप के अंदर इतना बूता नहीं कि अपने हिस्से की खुशी बढ़कर सामाजिक ढ़ांचे में ऊपर की श्रेणियों में से तोड़ लें.. और याद रहे सच्ची खुशी वही पा सकता है जो haves and haves not की लड़ाई में haves वाले पाले में कूद पाने में सफल हो गया हो.. जैसे कि फ़िल्म के अंत में क्रिस हो जाता है.. उसे स्टॉक ब्रोकर बनने की प्रेरणा तब मिलती है.. जब वो देखता है एक रोज़ भयानक खूबसूरत फ़ेरारी में एक बेइंतहा खुश एक गोरे को.. क्रिस उससे बात करता है.. और अहा.. आपने सोचा होगा कि वो गोरा, क्रिस को झिड़क देगा.. मगर ना.. सच्ची खुशी पाने वाले मन के निर्मल हो जाते हैं.. बड़े मोहब्बत से बाते हुई दोनों के बीच.. बस उसी दिन से क्रिस ने ठान लिया कि बनना है तो स्टॉक ब्रोकर.. और लग गया और बन के ही माना.. फ़िल्म के दौरान हम जितने पैसेवाले "खुश" लोगों को देखते हैं.. वो निहायत ही निर्मल हृदय और क्लोज़-अप मुस्कान वाले भी होते हैं... ऊँच-नीच काले-गोरे का कोई भेद नहीं बस दिल का दिलों से नाता है.. कई बार लगने लगता है कि यह फ़िल्म मनोज कुमार के किसी अमरीकी अवतार का देशभक्ति से भरा शाहकार है.. बस रसीले गानों की कमी रह गई..(इस बात को लिट्रल ना लिया जाय)

दूसरी बात जो फ़िल्म में उभर के आती है कि क्रिस भले ही पढ़ा लिखा न हो मगर प्रतिभावान है (वो रुबिक क्युब मिनटों में हल कर लेता है).. और भयानक प्रकार की इच्छा शक्ति और प्रेरणाशक्ति का मालिक है.. तभी वो अपने हालात को पलटने में कामयाब हो जाता है.. बधाई है उस असली क्रिस गार्डनर को जिसके जीवन पर ये फ़िल्‍म आधारित है मगर उन लोगों का क्या होगा अमरीकी समाज में जो ना क्रिस जितने प्रेरित हैं और ना उतने प्रतिभाशाली? क्या वो अपने कमज़ोरियों के साथ ऎड़ियां रगड़ रगड़ कर मर जाने के लिये अभिशप्त हैं..?

फ़िल्म में पीछे से क्रिस की कमेन्टरी चलती रहती है.. एक सीन के दौरान हमें बताया जाता है कि this part of my life I call stupidity.. हम देखते हैं कि क्रिस एक व्यक्ति से मिलने जाने के लिये अपने हाथ की मशीन सड़क पर गिटार बजा रही एक हिप्पी लड़की के हवाले कर के अन्दर चला जाता है.. और लड़की उसकी मशीन लेके चम्पत हो जाती है.. कोई खास बात नहीं .. लेकिन कमेन्टरी ने इसे एक वृत्ति के रूप में रेखांकित किया... कभी किसी पर भरोसा मत करो...

और दूसरी तमाम बातें जो फ़िल्म में छोटी छोटी चीज़ों से उभर के आती हैं.. उनमें हैं कि मरते मर जाओ पर किसी के आगे हाथ मत फैलाओ... बीबी अगर छोड़ के चली गई तो उसमें ना तुम्हारा दोष है ना देश का ना समाज का वो सिर्फ़ और सिर्फ़ बीबी की कमज़ोरी है.. कि लड़ने का जिगरा नहीं है उसके पास..

और जब आखिर में फ़िल्म समाप्त होती है तो नौकरी मिलने की खबर सुनकर क्रिस का चेहरा सपाट बना रहता है बस उसकी आँखे भर आती हैं.. और पीछे से क्रिस की की आवाज़ आती है.. this part of my life I call happiness.. भाईसाब इसको happiness कहते हैं..? हम तो आजकल कुछ और ही समझते आये थे.. और जिसे आप बता रहे हो.. उसे हम कह्ते हैं... अबे गुरु बच गये... आज के बाद अपनी और नहीं कटेगी!

चलते चलते जेफ़रसन साहब की एक दो बातें और जिनका फ़िल्म ज़िक्र नहीं करती...

“though government cannot create a right to liberty, it can indeed violate it.

A proper government is one that not only prohibits individuals in society from infringing on the liberty of other individuals, but also restrains itself from diminishing individual liberty.

I am convinced that those societies which live without government, enjoy in their general mass an infinitely greater degree of happiness than those who live under the European governments."

(ऊपर जेफ़रसन का सच, नीचे विल स्मिथ का झूठ)

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