2/27/2007

गुरुकांत देसाई और गुरु दत्‍त का फर्क

गुरु दत्‍त की प्‍यासा के पचास वर्ष: सात


‘कागज़ के फूल’ की असफलता के बाद गुरु दत्‍त ने दो फिल्‍में और प्रोड्यूस कीं (‘चौदहवीं का चांद’, 1960, ‘साहिब, बीवी और गुलाम’, 1962), लेकिन घोषित रुप से निर्देशक की कुर्सी की ओर वे दुबारा नहीं लौटे. दोनों ही फिल्‍मों में उनकी छाप स्‍पष्‍ट देखी जा सकती है मगर पर्दे पर नाम क्रमश: एम सादिक और अबरार अल्‍वी का आता है. करियर, परिवार और निजी जीवन की उलझनों से हारे हुए गुरु दत्‍त ने अंतत: 10 अक्‍टूबर, 1964 को ज्‍यादा मात्रा में नींद की गोलियां लेकर सांसारिक झमेलों से खुद को मुक्‍त कर लिया (उसी वर्ष पांच महीने पहले जवाहरलाल की मृत्‍यु हुई थी. उन्‍होंने नींद की गोलियां नहीं ली थीं, ह्रदय गति के रुकने से मरे थे).

वैवाहिक संबंध का तनाव जो गुरु दत्‍त जी रहे थे, वह तो कारण थे ही (दो स्त्रियों के बीच फंसे नायक का थीम उनकी फिल्‍मों में बार-बार रिपीट होता है), लेकिन सामाजिक-सांसारिक वे क्‍या कारक थे, कैसा अकेलापन था जिसने उनका जीना दुभर कर दिया था? पिछले दो इतवार एक्‍सप्रेस के अपने कॉलम में सुधींद्र कुलकर्णी ने दो गुरुओं को आजू-बाजू रखकर समाज व जीवन पर उनके नज़रिये की एक अच्‍छी समीक्षा की है, माफ़ कीजिये, मैं उन तुलनाओं की ओर लौटने का मोह संवरण नहीं कर पा रहा.

मणि रत्‍नम के ‘गुरु’ की तरह ‘प्‍यासा’ का नायक भी अपने समय व समाज के रुबरु खडा है. गुरुकांत देसाई का मंत्र है सफलता. वह किन रास्‍तों का इस्‍तेमाल करता इस सफलता तक पहुंचता है वे बेमतलब हैं. पत्‍नी उसके आशयों पर संदेह करती उसे छोडकर मायके चली जाती है, समाज घूसखोरी व भ्रष्‍टाचार का इल्‍जाम लगाकर उसे कटघरे में खडा करता है. मगर मणि रत्‍नम के आज के नायक को अपने पैसों की सत्‍ता पर रत्‍ती भर भी संदेह नहीं. वह जानता है कि उसे अनैतिकता की गालियां देनेवाले अंतत: उसकी सफलता के गुरों की सराहना के गीत गायेंगे, समाज में उसकी पैसों की सत्‍ता का डंका बजेगा. वह अपने समय का सबसे बडा नायक समझा जायेगा (मीडिया व आपके-हमारे मनों में समझा जा भी रहा है. हमारे मन व चेतना का समय और भारतीय राजनीतिक परिदृश्‍य ने इतना पुनर्संस्‍कार तो कर ही दिया है). प्‍यासा का नायक भी समाज से दुत्‍कारा जाता है, और अंत में समाज उसे भी आगे बढकर गले लगाना चाहती है, लेकिन ऐसा समझौता-परस्‍त समाज, पतित व मूल्‍यों से स्‍खलित समाज- उसमें संशय और क्षोभ जगाता है. ऐसे समाज की सफलताओं का हिस्‍सा होने की बजाय वह उससे विमुख होकर अलग हट जाता है. वह गुरुकांत देसाई की तरह सिर्फ धन की अमीरी खोजकर संतुष्‍ट हो जाना नहीं जानता, क्‍योंकि एक स्‍तर के बाद यह इकहरी अमीरी बडे सामाजिक विकारों का सामना नहीं करेगी, नये पैदा करेगी. लेकिन गुरुकांत अपने व देश के लिए मन की नहीं, धन की अमीरी क्रियेट करने में यकीन रखता है. समाज के कर्णधार भी इसी को हमारे समय का मूलमंत्र बताने, बनाने में जुटे हैं. मन की अमीरी के रास्‍तों की खोज के लिए हमें प्‍यासा और गुरु दत्‍त की ओर लौटना होगा.

(ऊपर पत्‍नी गीता रॉय दत्‍त्‍ा के साथ विवाह के शुरुआती, सुखद दिनों में. नीचे मीना कुमारी के साथ)

2 comments:

ravish kumar said...

गुरु दत्त हिंदी मानस या भारतीय मानस में एक अधूरी कहानी की तरह हैं । जिन्हें हर कोई अपनी तरह से पूरी होते देखना चाहता है । हर दिन कहीं न कहीं गुरुदत्त की चर्चा आप हिंदी के पन्नों पर देखते हैं । उनकी छाप से निकल न सकने वाली एक पीढ़ी है । वैसे प्यासा के पचास साल के मौके पर उनसे जुड़े संस्मरणों को पढ़ कर राहत होती है ।
रवीश कुमार

ravish kumar said...

गुरु दत्त हम सबके मानस में एक कशिश की तरह है । लगता है उनकी कहानी को फिर पढ़े । लगता है उनकी कहानी को हम पूरी करें । उनके संस्मरणों का यह संस्करण अच्छा लगता है । पढ़ना पड़ता है ।

रवीश कुमार