गुरु दत्त की प्यासा के पचास वर्ष: तीन
कलकत्ते की पढाई के बाद कुछ समय गुरु दत्त ने नृत्य गुरु उदय शंकर की टोली के साथ गुजारा था, वही शिक्षा ‘हम एक हैं’ की कॉरियोग्राफी में काम आई. फिर फिल्म के हीरो देव आनंद और गुरु दत्त की नई-नई दोस्ती थी. एक सफल होगा तो दूसरे की मदद करेगा जैसे सपनों व ढाढस से वे एक दूसरे की हौसला-अफजाई करते रहते थे. मगर गुरु दत्त बंबई कॉरियोग्राफर बनने नहीं आये थे. असल ब्रेक के लिए उन्हें अभी पांच साल और इंतज़ार करना पडा.
इस दरमियान प्रभात की नौकरी से हटकर गुरु दत्त पहले फेमस स्टूडियो, फिर बांबे टाकीज़ की शरण में गए. हम एक हैं से हीरो बननेवाले देव आनंद अब तक न केवल बडी हस्ती बन चुके थे, बल्कि खुद के बैनर नवकेतन के तले एक फिल्म ‘अफसर’ (1950) को उन्होंने प्रोड्यूस भी किया. अपनी पहली होम प्रॉडक्शन के लिए देव आनंद ने पुराने दोस्त गुरु दत्त को याद नहीं किया, इंडस्ट्री में थोडी हैसियत रखनेवाले बडे भाई चेतन आनंद से इसका निर्देशन करवाया. मगर फिल्म चली नहीं. नवकेतन की अगली फिल्म के निर्देशन के लिए देव आनंद ने गुरु दत्त को बुलवाया. फिल्म थी- ‘बाज़ी’ (1951). देव आनंद, गीता बाली और कल्पना कार्तिक को लेकर बनी शहरी अपराध कथा के फार्मूले की बाज़ी इस लिहाज़ से महत्वपूर्ण है कि इसने अपने पीछे पचास के दशक में बननेवाली इस जानर की ढेरों फिल्मों के लिए एक तरह से ट्रेंड-सेटर का काम किया. बाज़ी के ही गानों की रिकॉर्डिंग के दरमियान गुरु दत्त और गायिका गीता रॉय की मुलाकात हुई, प्रेम परवान चढा और 1953 में दोनों शादी करके पति-पत्नी हुए.
बाज़ी के बाद नवकेतन के ही पैसों से ‘जाल’ (1952) बनी. इस बार भी जोडी देव आनंद और गीता बाली की ही थी. अगले वर्ष गीता बाली ने गुरु दत्त को ‘बाज़’ निर्देशित करने का मौका दिया. अबकी बार गीता बाली के साथ हीरो के रुप में वे खुद आ रहे थे. तो निर्देशन के साथ-साथ बतौर अभिनेता का एक समानांतर करियर भी शुरु हो गया उनके लिए. खुद की निर्देशित फिल्मों से अलग, बाज़ से शुरु हुआ यह सफर सौतेला बेटा, भरोसा, सुहागन, सांझ और सवेरा जैसी ढेरों व अलग-अलग किस्म की फिल्मों में फैला रहा. बतौर निर्देशक गुरु दत्त ने पहली बार सफलता का स्वाद 1954 में ‘आर पार’ के साथ चखा.
बाज़ी की ही परंपरा में यह फिल्म एक शहरी अपराध कथा थी मगर अब तक तीन फिल्मों में हाथ आजमा चुके गुरु दत्त की सिने कला इस फिल्म में ढंग से निखर कर सामने आती है. अभी भी अपराध जानर पर बनी बंबईया फिल्मों में आर पार की एक विशिष्ट पहचान है. कथा वस्तु के स्तर पर प्यार के रास्ते में आनेवाली वर्गीय अडचनें और पृष्ठभूमि में बैंक डकैती की योजना के एक सिमटे हुए प्लॉट के बावजूद आर पार अलग-अलग स्तरों पर हमारी दिलचस्पी जगाये रखती है. चाहे वह गानों का रियलिस्ट फिल्मांकन हो, या छोटे किरदारों के डिटेल्स व उनका सहानुभूतिपूर्ण चित्रण, या बोलचाल की ज़बानवाली संवादों की रवानी, आर पार हमें लगातार बांधी रहती है. मगर गुरु दत्त खुश नहीं थे. अपराध जगत के म्यूजिकल का सफल फार्मूला उन्हें संतुष्ट नहीं कर रहा था.
बाकी का आगे...
(ऊपर बाज़ी में देव आनंद और गीता बाली: तदबीर से बिगडी हुई तक़दीर बना ले; नीचे, श्यामा और गुरु दत्त आर पार में: शहरी अपराध कथा का स्वाद)
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