2/24/2007

प्रीतम, आन मिलो...

गुरु दत्‍त की प्‍यासा के पचास वर्ष: चार


1954 में आर पार की सफलता ने वह स्थितियां मुहैया कर दी थीं कि गुरु दत्‍त क्रमवार एक के बाद एक अच्‍छी फिल्‍में बना सकते. 1955 में ‘मिस्‍टर एंड मिसेस 55’, 1957 में ‘प्‍यासा’ और 1959 में ‘कागज़ के फूल’ सबमें उनकी रचनात्‍मकता अपने उफान पर दिखती है. कागज़ के फूल जो अपनी कथावस्‍तु और मेकिंग की दृष्टि से विशिष्‍ट और अपने समय के लिए काफी आधुनिक थी, बॉक्‍स ऑफिस पर बुरी तरह से असफल रही. गुरु दत्‍त के लिए यह ऐसा झटका था जिससे बाद के वर्षों में भी वे पूरी तरह से उबर नहीं सके. फिल्‍मों में अभिनय और उनका निर्माण उन्‍होंने पूर्ववत जारी रखा मगर बतौर निर्देशक पर्दे पर उनका नाम प्रोजेक्‍ट करनेवाली कागज़ के फूल आखिरी फिल्‍म थी. हम थोडा आगे जा रहे हैं, इसके बारे में फिर बात करेंगे, पहले पीछे लौटते हैं.

आर पार ने धन और शोहरत दोनों मुहैया करवाया मगर उसके बाद गुरु दत्‍त फिर क्राईम जानर में नहीं लौटे. एक तरह से कह सकते हैं पचपन के बाद अपनी हर अगली फिल्‍म के साथ वह और-और महत्‍वाकांक्षी होते गए. मिस्‍टर एंड मिसेस 55 को सामाजिक व्‍यंग्‍य या कॉमेडी की श्रेणी में रख सकते हैं. थीम में ऐसी कोई खास बात भी नहीं थी. पुरुषों को लेकर थोडा सनकी, अपने को आज़ाद ख़यालों का समझनेवाली सीता देवी (ललिता पवार) अपनी भतीजी अनिता (मधुबाला) को भी उन्‍हीं रास्‍तों पर चलाना और पुरुषों से दूर रखना चाहती है. मगर भाई के वसीयत के मुताबिक अगर अनिता ने जल्‍द शादी न की तो वह अपनी पिता की जायदाद से हाथ धो बैठेगी. अलबत्‍ता धन के लोभ में अनिता की शादी के लिए एक बलि के बकरे बेरोज़गार काटूर्निस्‍ट की पहचान होती है जिसकी जेब में कुछ पैसे ठूंसकर शादी का एक स्‍वांग खेला जा सके, और बाप की संपत्ति पाते ही अनिता अपने इस तथाकथित कानूनी पति से तलाक ले ले और धक्‍के मारकर उसे अपने घर और जिंदगी से बाहर करे. मगर सनकी, स्‍वतंत्र मिजाज़ी फुआ की योजना उन्‍हीं-उन्‍हीं रास्‍तों पर नहीं चलती जैसी उसने कल्‍पना की थी और फिल्‍म के अंत में, तमाम तमाशे, झगडे व दिल की चोटों से गुजरती हुई अनिता का अपने गरीब लेकिन दिल के अमीर काटूर्निस्‍ट पति प्रीतम (गुरु दत्‍त) से पुर्नमिलन होता है.

कहानी में ऐसा कुछ भी खास नहीं जिसको लेकर हम एक्‍साईट हों. मगर इस सीमित से चुटीले ढांचे में भी गुरु दत्‍त अपनी पसंद की काफी चीज़ों को एक्‍सप्‍लोर करना संभव बनाते हैं. अपनी पसंदीदा थीम- समाज में एक कलाकार (यहां काटूर्निस्‍ट) की विपन्‍न असहायता व कदम-कदम पर समझौता करने की उसकी मजबुरियां- के लिए वह फिल्‍म में दिलचस्‍प सिचुएशंस निकालते रहते हैं. फिर तेजी से फैशनेबल होते उथले आज़ाद खयाली माहौल में उन रसों का रिक्रियेशन जिनसे समाज तेजी से हाथ झाडता जा रहा है- उस टूटती व छूटती दुनिया की भी मिएंमि 55 कुछ रसमयी तस्‍वीरें बुनता चलता है (जिन्‍होंने फिल्‍म देखी है वे क्‍लाइमेक्‍स का ‘प्रीतम, आन मिलो...’ याद करें. किसी गाने का ऐसा सरल और इतना जटिल नाटकीय इस्‍तेमाल, हीरोइन के विरह की ऐसी आत्‍मीय छटपटाहट का बिंब शायद ही आपको किसी अन्‍य हिंदी फिल्‍म में मिले).

गुरु दत्‍त अपनी अगली फिल्‍म में एक कदम और आगे गए. अबकी कॉमेडी और व्‍यंग्‍य की बजाय स्‍वर करुणा और भारी अवसाद का था. जैसे तेजी से चल रहे व्‍यक्ति को झन्‍नाके-सी चोट लगे, और आंखों के आगे एकदम-से अंधेरा छा जाये. प्‍यासा (1957) तात्‍कालिक भारतीय यथार्थ पर एक तक़लीफदेह और कडवाहट भरी टिप्‍पणी थी. इस पर हम अगली दफा बात करेंगे.

बाकी का आगे...

(ऊपर: बाहर से आधुनिक और भीतर बंधी-बंधाई भूमिकाओं में कैद नायिका. नीचे: नये ज़माने के बदलते सोशल रोल्‍स)

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