यिलमाज़ गुने (1937-1984): थोडी उम्र बडे काम
सामाजिक द्वंद्वों की पडताल में जिनकी दिलचस्पी हो, और जिनके पास खोजने का कौशल हो, वे यिलमाज़ गुने की फिल्में ज़रुर खोजकर देखें. यह थोडा दुर्भाग्यपूर्ण है कि डीवीडी की मार्फत फिल्मों की पहुंच जब जेन्युनली खोजक आत्माओं के लिए काफी हदतक आसान हो गई है, फिर भी चंद बडे फिल्मकार हैं जिन्हें लोकेट करना कुछ वैसा ही मुश्किल है जैसा पिछली सदी के शुरुआती दौर में छपनेवाले हिंदी के जासूसी उपन्यास!
गुने की फिल्मों में मणि रत्नम की मोहनेवाली सिनेमाटॉग्राफी नहीं मिलेगी. वह निहायत अनगढ, बहुत बार अमेच्यरिश होने का-सा भ्रम देती बिंबों में खुद को बुनती है. उनके किरदार झुग्गी-झोपडियों व शहर के भीड-भडक्कों में भटकते, नई खडी होती इमारतों के गिर्द टहलते आवारागर्दों-चोट खाये लोगों की दुनिया है जिनका अपनी पीछे छूटी जगहों से संबंध काफी उलझ-सा गया है और नई जगहें भी जिन्हें अपनाने से कतराती हैं.
गुने की खुद की कहानी भी सिनेमा के दिग्गजों की पारंपरिक कथाओं से बहुत मेल नहीं खाती. तुर्की के दक्खिन अदना शहर से लगे एक देहात के कुर्द परिवार में जन्मे यिलमाज़ ने अंकारा व इस्तान्बुल में कानून और अर्थशास्त्र की शिक्षा ली, मगर इक्कीस की उम्र पहुंचते-पहुंचते बंदे ने तय कर लिया था उसे जीवन में क्या करना है. यह उन दिनों की बात है जब तुर्की में सरकारी संरक्षण की युद्ध फिल्में, भारी मैलोड्रामा व नाट्य रुपांतरणों की भरमार थी. आतिफ यिलमाज़ जैसे चंद लोग थे जो स्टुडियो सिस्टम के भारी दबदबे के बीच सिनेमा को अवाम की जिंदगी की तक़लीफों से जोडने की कोशिशों में लगे थे, और इन प्रयासों से धीमे-धीमे एक अलग किस्म की तुर्की/कुर्दिश सिनेमा अपनी पहचान खडी कर रही थी. गुने ने इन्हीं आतिफ साहब का पल्ला पकडा, उनके यहां असिसटैंटी की, पटकथायें लिखीं, और फिर एक्टिंग के मैदान में कूद पडे. लोगों ने इस ‘बदसूरत सुलतान’ को पसंद करना शुरु किया, और यिलमाज़ साल में कुछ बीसेक फिल्में करते हुए जल्दी ही तुर्की सिनेमा के धर्मेंद्र बन बैठे. मगर इस आसान शोहरत का आनंद लेते रहने की बजाय गुने ने सन् पैंसठ में निर्देशक होने की ठानी, अडसठ तक उन्होंने अपनी एक प्रॉडक्शन कंपनी खडी कर ली थी, गुने फिल्मसिलिक.
उमुत (1970) दो मरियल घोडों व लॉटरी टिकट की उम्मीदों पर पांच बच्चों, बीवी और एक बूढी दादी का घर चलानेवाले एक असफल व्यवसायी की कहानी है जिसके चारों ओर कर्जदार बढ रहे हैं, और जो फिल्म के आखिर में घर-परिवार से भागे हुए बंजर मैदानों में दौडता दिखता है; हम धीमे-धीमे समझते हैं वह पागल हो गया है. उमुत में स्पष्ट: ईटली के ज़वात्तिनी व दीसिका के सिनेमा की छाप थी.
इसके बाद की फिल्में थीं: आजित, आचि, उमतसुजलार. मगर सन् बहत्तर के बाद से गुने का ज्यादा वक्त सलाखों के पीछे बितना लिखा था. गिरफ्तारी और अट्ठारह महीनों की सज़ा एक दफा पहले भी हुई थी, 1961 में, तब आरोप एक ‘कम्युनिस्ट’ उपन्यास लिखने का था. इस बार सरकार उन्हें अराजक छात्रों को उकसाने का दोषी बता रही थी. गिरफ्तारी के समय गुने अपनी फिल्म ‘जावालिलार’ के प्री-प्रोडक्शन में लगे थे (1975), पहले की एक और फिल्म एनदिस (1974) अभी अधूरी पडी थी (जिसे गुने के असिसटेंट सेरिफ गोरेन ने पूरा किया. आनेवाले वर्षों में गोरेन व गुने के सहयोग के इस उलझे साथ ने काफी उत्पादक काम किये. सलाखों के पीछे गुने पटकथायें लिखते, फिल्म की विस्तृत रुपरेखा व उसकी फाईनल कटिंग डिज़ाईन करते, और गोरेन का काम बाहर उसे अंजाम देने का होता).
सरकारी नीतियों के फेर व एक आम माफीनामे की छांह में गुने जेल से छोडे गये लेकिन उन्हें तत्काल एक जज की हत्या के आरोप में धर-दबोचा गया. इस बार जेल की यह संगत लंबी होनेवाली थी. इसी दरमियान गुने ने सुरु (1978) और दुश्मन (1979) जैसी चर्चित पटकथायें लिखीं (दोनों ही फिल्में बाहर ज़ेकी ओकतेन ने निर्देशित कीं). सुरु के बारे में गुने ने अपने आखिरी इंटरव्यू में कहा था कि सुरु दरअसल एक तरह से कुर्द लोगों का इतिहास है, मगर मैं इसमें कुर्दी ज़बान तक का इस्तेमाल नहीं कर सकता था, क्योंकि कुर्दी ज़बान का इस्तेमाल करने का मतलब होता फिल्म के हिस्सेदार सभी लोगों को जेल की हवा खिलवाना!
1981 में गुने जेल से भागकर फ्रांस पहुंचे, जहां उनकी फिल्म ‘योल’ को बयासी में पाम दॉर से पुरस्कृत किया गया (पहले की तरह बाहर फिल्म की असल शुटिंग सेरिफ गोरेन ने की थी). फ्रांसीसी सरकार की मदद से सन् तिरासी में जाकर गुने को कैमरे के पीछे जाकर फिर दुबारा निर्देशन का मौका मिला. इस बार कहानी जेल में कैद बच्चों की लौमहर्षक कथा थी (दुवार, 1983). अगले ही वर्ष पेट के कैंसर ने इस रोमांचक, अनोखे जीवटवाले व्यक्तित्व की कहानी का पटाक्षेप कर दिया.
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