गुरु दत्त की प्यासा के पचास वर्ष: बहिरंग
हमारे एक पुराने मित्र ने गुरु दत्त और प्यासा संबंधित हमारी टिप्पणियों पर एक प्रतिक्रिया भेजकर हमारी मुश्किल ज़रा आसान कर दी है. उन्होंने अनायास यह बहाना दे दिया कि गुरु दत्त व प्यासा को देखने के अन्य नज़रियों को भी हम यहां इस कडी में शामिल करते चलें. ज़ाहिरन, प्रत्येक टिप्पणी कभी कुछ मिलती-जुलती और कभी निहायत अलग आकलन लेकर आयेगी. इन सबके बीच कोई बहस चलाकर किसी सामान्य नतीजे तक पहुंचने का न यह समय है, न हमारा प्रयोजन. सिलेमा इस मौके पर उन अलग-अलग नज़रियों को एकत्रित करने, व उस वैविध्य को एक जगह पर सार्वजनिक करने का मंच बने, शायद इतना करके भी उसकी बडी सार्थकता होगी. तो, हमारी आप सबों से गुज़ारिश है, कि आप जिन भी बंधुओं को ऐसा महसूस हो कि इस बातचीत में वे अपनी तरफ से कुछ खास जोड सकते हैं, उन सभी का इस कडी के विस्तार में स्वागत है. हमारी ओर से सिलेमा वाली टिप्पणियां, इससे स्वतंत्र, पूर्ववत जारी रहेंगी.
आत्मलिप्त उच्छवास?
संगम पाण्डेय
प्यासा दो-तीन बार देखी है. आखिरी बार शायद दस साल पहले देखी होगी. याद है कि फिल्म रूमानियत से लबालब थी. रूमानियत का मैं भी कायल हूं. लेकिन उसकी रूमानियत में वायवीयता कुछ ज्यादा थी. फिल्म नायक की ट्रैजेडी का कोई वस्तुनिष्ठ परिवेश नहीं बनाती. फिल्म नायकत्व को ज्यादा प्रत्यक्ष बनाती है. उसका नायक अपनी ट्रैजेडी में आनंद लेता दिखाई देता है. हालांकि एक बड़ी फिल्म के रूप में प्यासा की प्रतिष्ठा या कहें कि महिमामंडन इतना ज्यादा रहा है कि मैं अपनी राय को लेकर हमेशा सशंकित रहा. लेकिन बाद में मुझसे मिलती जुलती दो और राय मेरे देखने में आईं. मेरा सवाल है कि आप जीवन को कितना ठोस रूप में जीना चाहते हैं. उसे अधिकतम ठोस रूप में जीने के लिए उसकी अधिकतम खोज करनी पड़ती है. ऐसे में हो सकता है कि व्यक्ति जिसे देश दुनिया के प्रति अपनी सदिच्छा माने बैठा हो, वह उसका एक आत्मलिप्त किस्म का उच्छवास ही हो.
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