बहुत सारे लोग हैं जो हिंदी सिनेमा के आम हालात से खुश नहीं रहते, मगर साथ ही उनके पास कोई सुलझा जवाब नहीं होता कि आखिर वह क्या है जो हिंदी सिनेमा में मिसिंग है. इस सवाल के ढेरों उत्तर होंगे मगर एक उत्तर अनुराग कश्यप की ब्लैक फ्राइडे बखूबी से देती है.
समूची दुनिया में अच्छे सिनेमा का यह एक सामान्य गुण है कि वह फिल्म में दर्शाये गए समय और स्थान के प्रति वफ़ादार रहे. जिन फिल्मों की हमारे यहां के समझदार समीक्षक गदगद भाव से पीठ थपथपाते हैं, वह फिल्में भी इस ज़रुरत को पूरा नहीं करतीं. प्रदीप सरकार की परिणिता नहीं करती, मणि रत्नम की बोंबे भी नहीं करती, और न ही गुरु करती है. यहां हम करण जौहरों व उनकी लाईन पीटने वाले दूसरे बाजीगरों की तो बात नहीं ही कर रहे मगर दिल चाहता है, लगान, स्वदेस जैसी तथाकथित ईमानदार कोशिशें भी एक सजावटी संसार बुनकर दर्शकों से उसमें भरोसा कर लेने का आग्रह करती-सी दिखती हैं. सत्या देखते हुए बहुतों को झटका लगा था कि शायद वह वैसी ही बंबई देख रहे हैं जैसी कि असलियत में वह है. मगर राम गोपाल वर्मा जैसे निर्देशक धंधे और स्टाईल में यकीन रखते हैं, नकि सच्चाई की परतों को पकडने में. ब्लैक फ्राइडे इस ज़रुरत को बहुत सादे और कैज़ुअल तरीके से पूरा करती है. शायद इसलिए भी उसे देखना खास अनुभव बनता है. जो असल बंबईवासी हैं और उसके उलझे तकाज़ों का प्रतिदिन सामना करते हैं उन्हें अनुराग की फिल्म में वह सबकुछ दिखेगा जो बंबई उन्हें हर रोज़ दिखाती है. गंदी, उबड-खाबड, बेतरतीब. यहां मणि रत्नम के अट्ठारह फुट सीलिंग वाले हवादार कमरे नहीं और न ही उछालें मारते समंदर की लहरो के फिल्मी कैलेंडर. यह संकरी, तंग, सहमी-सी बंबई है; जिसमें शोर है, गुस्सा है, और लंबी भटकनें हैं.
आम तौर पर किताबी सामग्री, और वह भी जब वह दंगों की पडताल जैसे रिपोर्टिंग वाली विषय-वस्तु हो, अपने में फिल्म के आसानी से उबाऊ होने का खतरा लिये रहती है. मगर अनुराग घिसे हुए वीडियो फुटेज और कुछ नाटकीय एक्शन शूट का सहारा लेकर धीरे-धीरे हमें एक ऐसी दुनिया में उतारते हैं जिसका परिदृश्य न केवल बंबई की जानी-पहचानी व दूर-दराज़ के बहुत सारे वे इलाके हैं जिन्हें हिंदी फिल्मों में पहले कभी नहीं देखा गया, बल्कि वह बंबई से बाहर की दुनियाओं को भी काफी डि-ग्लैमराईज्ड तरीके से दिखाती हुई कहानी आगे बढाती चलती है. इतने बडे परिदृश्य व इतने सारे चरित्रों को हैंडल करते समय इसका भी खतरा होता है कि सबकुछ थोडा सामान्यीकृत और स्केची हो जाये, मगर इसे अनुराग का कौशल कहना चाहिये कि बावजूद इस बडे कैनवास के, वह न केवल अपने किरदार ढूंढ लेते हैं, उनकी कुछ अंतरंग छाप भी बुनते चलते हैं. टेररिस्ट के पीछे थका और डरा भागता कांस्टेबल, डांगले की शक्ल में किशोर कदम जैसा अपने काम के प्रति फॉकस्ड, नॉन-सेंटिमेंटल, नो-नॉनसेंस इंस्पेक्टर, या के के मेनन का राकेश मारिया, आदित्य श्रीवास्तव के बादशाह खान की थकान और कुंठा, या गजराज राव का दाऊद फणसे और पवन मल्होत्रा के टाईगर मेमन का खास बंबईया प्रैग्मेटिज्म- सब हमारे लिए बहुत वास्तविक व रोचक बने रहते हैं. कई मौकों पर संवादों की बुनावट, या परिस्थितियों के भारी तनाव वाले सामान्य माहौल के बावजूद फिल्म में छोटे-छोटे ऐसे प्रसंग आते रहते हैं कि हम इस भारी तक़लीफ को थोडा मुस्कराते हुए बर्दाश्त कर सकें.
फिल्म में साऊंड और संगीत दोनों का काफी दबा हुआ और अच्छा इस्तेमाल है. फिल्म का संपादन (आरती बजाज) भी काफी उम्दा है. कैमरा कभी भी फिल्म को खूबसूरत और कलरफुल बनाने की कोशिश नहीं करती, जो ब्लैक फ्राईडे के संदर्भ में अच्छी समझदारी की बात है.
मुझे नहीं मालूम आनेवाले वर्षों में अनुराग की फिल्मकारी क्या रास्ता अख्तियार करेगी (इन दिनों वह जॉन अब्राहम की संगत में बहुत खुश-खुश नज़र आते और खामखा के बडबोलेपन के नशे में दिखते हैं), लेकिन किन्हीं भी रुपों में अगर ब्लैक फ्राइडे वाली इंटेंसिटी व ईमानदारी बनाये रखने में वह कामयाब होती है तो हिंदी सिनेमा के लिए यह सचमुच स्वागत-योग्य बात होगी. और हां, आपमें से जिन-जिन के लिए संभव हो, वह जायें और ब्लैक फ्राईडे की अनगढ काबिल करीनेपन का स्वाद चखें.
4 comments:
this review motivates me to watch the film as soon as possible. thanks.
अच्छी समीक्षा की आपने, फिल्म देखने को उत्सुकता पैदा हो गई।
उम्दा. क्या मैं इसे cafehindi.com पर डाल सकता हूं?
ज़रुर डालिये, मैथिली. जो बातें टिप्पणी में कही गई हैं, उस नज़रिये से ज्यादा लोग हिंदी सिनेमा को देखें, देख सकें, इससे अच्छा और क्या होगा.
-प्रमोद सिंह
Post a Comment