छोडो कल की बातें, कल की बात पुरानीफिल्मों की महत्वाकांक्षा और उसकी लागत दोनों ही धीमे-धीमे अपने विस्तार की ज़मीन बना रहे थे. एक स्तर पर यह सिलसिला आज़ादी के पहले ही शुरु हो चुका था. शांताराम की ‘शकुंतला’ (1943) और वासन की ‘चंद्रलेखा’ (1948) दोनों बडे स्केल की फिल्में थीं. पारंपरिक व पौराणिक कृतियों के भव्य फिल्मांकन के रुढिवादी रुझानों से अलग सामयिकता को पकडने के कुछ कथित गंभीर प्रयोग भी हुए थे. इप्टा से जुडे ख्वाजा अहमद अब्बास ने गैर-पेशेवर कलाकारों के साथ ‘धरती के लाल’ बनाई थी. अब्बास साहब अंग्रेजीदां पत्रकार थे, फिल्मों की कहानियां लिखी थी, दिल्ली और नेहरु परिवार से अच्छा रिश्ता रखते थे. माने असल चलताऊ आदमी थे. आज़ादी के तत्काल बाद उभरनेवाले सबसे बडे और सबसे सफल निर्देशक राज कपूर की सफलता के पीछे अब्बास साहब का बडा हाथ था.
नये दौर में शुरु करें हम लेकर नई कहानी
हम हिंदुस्तानी, हम हिंदुस्तानी...
जनमानस को छूनेवाली कैसी कहानियों में उतरा जाये, यह अब्बास साहब की तरफ से आता और फिर राज कपूर उसकी व्यावसायिक पैकेजिंग करते. भावुक आशावाद का यह संगीतमयी फार्मूला राज कपूर प्रॉडक्शन के लिए काफी कारगर साबित हुआ. आवारा, श्री 420, जागते रहो, मेरा नाम जोकर, बॉबी, हिना सब अब्बास साहब की लेखनी से ही लिखे गए. नये-नये आज़ाद हुए हिंदुस्तान के आम जन की आशाओं, उसकी भावनात्मकता की सबसे ज्यादा कमाई आरके प्रॉडक्शन ने ही की. ‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी, सिर पे लाल टोपी रुसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ की रुमानियत ने कपूर और उनकी टीम को नये हिंदुस्तान का अघोषित दूत बनाया, विदेशी समारोहों में ग्रुप फोटो और दूतावासों के भोजों के निमंत्रण दिलवाये. मास्को और दिल्ली दोनों ही जगहों उन्हें प्रोत्साहन मिला, पीठ थपथपाई गई.
राज कपूर के बाजू में बिमल रॉय काम कर रहे थे. कलकत्ता में न्यू थियेटर के बंद हो जाने पर बिमल दा बंबई आये थे. बंबई टॉकीज़ के लिए उन्होंने ‘परिणीता’ बनाई. फिर अपना प्रॉडक्शन शुरु करके ‘दो बीघा ज़मीन’ (1953) बनाई. गांव में जमींदार के यहां फंसी अपनी ज़मीन छुडवाने के लिए किसान बलराज साहनी शहर मजदूरी करने जाता है. बिमल रॉय की संवेदना निश्चय ही ज्यादा नियंत्रित और भावुकता के अतिशय खुराकों से परहेज करके चलती थी मगर उनके यहां भी नये हिंदुस्तान के आशावादी घोषणापत्रों की तलाश ही चल रही थी. इससे इतर क्रमश: काफी ताक़तवर हो रहे बंबई के सिने उद्योग में और भी परतें थीं मगर उन परतों की खोज-बीन में जाने का काम हम फिर कभी करेंगे. फिलहाल अपने मूल विषय पर लौटते हैं. दक्षिण के मैसूर में 1925 को जन्मे और कलकत्ते में आरंभिक शिक्षा पाकर एक और नौजवान बंबई की फिल्म नगरी में अपनी किस्मत आजमाने पहुंचा था, 1946 में बनी ‘हम एक हैं’ में उसे कॉरियोग्राफी करने का मौका मिला. फिल्म के हीरो थे देव आनंद और खोया-खोया-सा यह नौजवान था गुरु दत्त. इसकी आंखों में सिनेमा की कुछ दूसरी ही छायायें थीं.
बाकी का आगे...
(ऊपर श्री 420 में राज कपूर और नरगिस, 1955: गरीब लेकिन भविष्य के प्रति आश्वस्त)
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