सिनेमा के इतिहास में ऐसा हमेशा नहीं होता कि उनका रचियता भी उतना ही स्टाईलिश हो जितनी उसकी फिल्में (यहां बहुत मौजूं नहीं लेकिन अपने विजय आनंद को याद कीजिये. गोल्डी साहब ने भले तीसरी मंजिल, ज्वुयेलथीफ और जॉनी मेरा नाम जैसी झटकेवाली बडी हिंदी फिल्में डायरेक्ट की हों, असल जीवन में निहायत लो-प्रोफाईल वाले धीमी आवाज़ के इंसान थे). बेर्नार्दो बेर्तोलुची का किस्सा थोडा अलहदा है. पिछले एक दशक में उनका जलवा थोडा फीका भले पडा हो, मगर अपने गिर्द रंगीन खबरें खडी करने का उनके पास वैसा ही कौशल है जिस कौशल से वह अपने फिल्मों का विहंगम व एन्चैंटिंग कैनवास सजाते हैं.
सन् पचास से सन् सत्तर का दौर इतालवी सिनेमा का स्वर्ण काल था. रोस्सेल्लिनी, दी’सिका व विस्कोंती ने नव-यथार्थवादी इतालवी सिनेमा को दुनिया में एक बडी पहचान दी थी. इनके पीछे-पीछे फेल्लिनी व अंतोनियोनी जैसी हस्तियां आईं जिन्होंने सिनेमा को नये मुहावरों का जामा दिया. सिनेमा सिर्फ पेट की भूख की राजनीतिक लडाई लडनेवाला जरिया नहीं, मनुष्य के अंदरुनी द्वंद्वों और स्वप्नों को चित्रित करने का पॉयटिक फ़ॉर्म है जैसा सिनेमा को नया अजेंडा दिया. मगर ये साठ के दशक के उथल-पुथल के आसन्न वर्ष थे. हवा में असंतोष और राजनीतिक बारुद की महक भरी हुई थी. फेल्लिनी के बाद फिल्मकारों की एक नई पांत सक्रिय हो गई थी, और पियेर पाओलो पसोलिनी व फ्रंचेस्को रोज़ी जैसे हस्ताक्षर एक बार फिर पुरानी मुर्तियों का भंजन करते हुए नई ऊर्जा के साथ नये राजनीतिक सिनेमा का दस्तावेज़ तैयार कर रहे थे. कुछ इन्हीं सुलगती हवाओं के बीच बेर्तोलुची की सिनेमा में नाटकीय एंट्री हुई.
विस्तृत परिचय कल या परसों कभी...
ऊपर जोकर के रंग में क्लोज़-अप फेल्लिनी का है; काली-सफेद तस्वीर सेट पर बैठे पियेर पाओलो पसोलिनी की है. पसोलिनी की पहली फिल्म अक्कातोने (1961) में बेरर्नादो बतौर असिस्टेंट उनके साथ शामिल हुए थे. पसोलिनी ने फिल्में लिखीं थीं मगर कैमरे के पीछे की दुनिया से उतने ही नावाकिफ थे जितना उनका नौसिखिया असिस्टेंट. बेर्तोलुची के मुताबिक, यह अनुभव बाद में उनके खूब काम आया. क्योंकि अक्कातोने के बनने के दरमियान ज्ञानी गुरु और उत्साही चेला दोनों लगभग साथ-साथ फिल्म-मेकिंग का ककहरा सीख रहे थे.
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