बच्चा, दुलरुआ, लल्ला, राजा बाबू- इन संबोधनों को मुंह में गीले-गीले घुमा के कितना अच्छा लगता है. हम बेचैन बने रहते हैं कि कहां से अपना राजा बाबू खोजकर लायें, फिर अखबार और मीडिया मोहब्बत से हमारे लिये हमारा राजा बाबू खडा करते हैं, और हम दायें और बायें झुक-झुककर कैच लोपते रहते हैं. फिर उम्मीद बांध कर मौके की ताक में रहते हैं कि कब राजा बाबू की पंडाल सजे और कब हम बाहर लगी भीड में शामिल होकर प्रसन्नचित्त ताली बजाना शुरु करें!
राजा बाबू के पंडाल के बाहर भीड में खडे होकर ताली बजाना तो ज़रा हमारी फितरत में है. जब तक राजा बाबू की चितवन न दिखे, दिन बडा उदास-उदास-सा लगता है. राजा बाबू का जिक्र छिडते ही हमारे मुंह की लाली लौट आती है. ये लो, आ रहे हैं. पहुंच गए राजा बाबू. बेन्टले का दरवाज़ा खोला! किसका दरवाज़ा? अबे, बेन्टले का! फिरंग गाडी है! सेकेंड हैंड स्कूटी में चलते हो, ससुर, तुम क्या समझोगे? बडके सरकार अपने बास्ते नवका रॉल्स रायस लेके आये हैं, बेटवा को बेन्टले गिफ्ट किया है, इसको कहते हैं, गुरु, नक्शा! बियाह कब हो रहा है? बांदरा में नया बंगला देके सेट किया है तो बियाह भी जल्दिये होगा! कैसा दुलरुआ, पियारा छौंडा है, नहीं, जी? करेक्ट बोलते हो, मुनमुन. मगर अब मुंह साटे रहो और हमको ज़रा बेन्टले का नज़ारा देखने दो!
करेक्ट है. राजा बाबू का समां बंधा हुआ है. सन् 2000 में पहली पिच्चर आई थी. रेफुजी. उसके बाद पंद्रह-ठो गोबर और किये- तेरा जादू चल गया (कहां चला?), ढाई आखर प्रेम के, शरारत, मुंबई से आया मेरा दोस्त, कुछ ना कहो, रन और तो क्या-क्या, साली, समवें नहीं बंध रही थी. फिर मणि सर जुवा का राज्जाभिषेक किये और जादू चलने लगा. बहुतै अच्छी एक्टिंग किहेस था, गुरु! कंपनी में अऊरे टाप किलास! मज़ाक छोडिये, एक्टिंग तो बंदे ने सीख ही ली है. सरकार का वह सीन याद कीजिये जिसमें गुंडो ने रात को घेर लिया है और जान मारने के लिये लखेद रहे हैं. मगर इसको राजा बाबू का ही कमाल कहियेगा कि जान पर बनी है और मियां की रवानी ये है मानो किसी हसीना के पीछे जॉगिंग कर रहे हों. अब जैसे दौड सकते हैं वैसे ही न दौडेंगे, यार? तुम्हारी एक्टिंग के पीछे अब अपनी जान तो नहीं दे देंगे (साला, अभी बियाह भी नहीं हुआ है)? फिर ये सच है कि इससे ज्यादा रियल लाईफ में कभी दौडे नहीं! जितना दौडे हैं उसको रियलिस्टिकली पोर्ट्रे कर रहे थे. देखो, बाप की तरह फुफकार मार के डायलॉग कहां बोलता है? गुरु में रियल एक्टिंग देखे कि नहीं! लकवा मारे हुए है मगर अदालत वाला सीन में ये नहीं कि डायलाग राईटर का डायलाग चबा-चबा के बोल रहे हैं, एक्के बार में निकाल लिया, लो, सीन ओवर! परफेक्ट डेलिवरी! खालिद मोहम्मद ने नेशनल डेली में सवाल किया इतना अच्छा परफॉरमेंस कहां से निकाल के लाये, बेटा, तुम तो धीरुभाई से मिले नहीं? जवान ने जवाब दिया गुरु धीरु नहीं वाशु है, वाशु भगनानी, हमारे प्रोड्यूसर हुआ करते थे, बाहर की दुनिया तो हमने देखी नहीं है, तो हम उन्हीं का हाव-भाव नकल कर लिये. जुवा का लल्लन भी कोई बाहिर का थोडे है, अपने अंकिल अमर सिंह जी हैं! सही बात है, सब काम घरै हो जाये तो बाहिर का क्या दरकार? बाहिर का दुनिया में बहुत धूल-धक्कड, भीड-गरदा है! और राजा बाबू को बेन्टले का एसी का आदत है, आपको कौनो एतराज़?
सही बात है. किरदारों को इतना सूक्ष्म व जीवंत तरीके से जीने में राजा बाबू कोई अकेले थोडी है. समूचा सुहाना हिंदी फिल्म लोक उसी लीक को तो पीटता रहता है. सुनील शेट्टी, जैकी बाबू, जितेंदर, राजिंदर कुमार, बिश्वजीत एक्टिंग के नाम पर सब नमूना थे लेकिन आपने छाती से लगाया था कि नहीं? फिर राजा बाबू को लेकर झुट्ठे काहे का बवाल? फिर सलमान और शाहरुख बाबू कौनो एक्टिंग के सरताज हैं? अपने यहां यही रामलीला कर-करके फिल्मफेयर अवॉर्ड बंटता है. बडके सरकार से भिखारी का भी रोल करवा लो वो अपना फ्रेंच कट नहीं काटेंगे. आखिर पब्लिक जानती है अपने बडके सरकार हैं चाहे रोल कौनो हो, तो फिर खामखा काहे का नौटंकी खेलना? इतना टाईम पहले खाकी में दाढी सफा किये थे और अब जाकर एकलब्ब में दाढी चेंपे हैं, और नकली दाढी लगाके, ससुर, कौन-कौन दुर्गत नहीं हो गया!
देखिये, साथी, ऐसा है आप राजा बाबू को छेंकिये नहीं. तीस पिच्चर करने के बाद तो जवान का समां बंधा है. मीडिया दिवानी हो रही है. देश भर की लईकि लोग तरंग में आह राजा बाबू, ओह राजा बाबू वाला गाना गा रही हैं. जिसके पीछे देश दिवाना था वो नीली और गुलाबी साडी में हमको अपना बना ले, सनम गा-गा के दिवानी हुई जा रही है तो फिर आप काहे फालतू भांग में पानी घोंट रहे हैं?
2/10/2007
राजा बाबू की रामलीला
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2 comments:
जब क क क करके कोई किंग खान बन सकता है तो राजा बाबू बनने में कौन सी मेहनत की जरूरत है ;)
पहली बार पढा, तो लगा कि ठीक ही लिखा है. लेकिन अब लगता है, बात गहरी लगेगी नहीं. अमिताभ गर्त में थे, अमर ने निकाला. अब नमक जैसे फर्ज़ की बात है. ग़ैरत भी नहीं बची इस परिवार में. बेंटली कार के पूरे घपले पर लिखना था. देश को उंगली करनी थी, ऐसों ऐसों को माथे पर क्यों रखता है. अपने जमाने में धर्मेंद्र या अमिताभ ही आकर इतने पिट जाते, तो आज गांव लौट कर चारपाई पर बैठ कर हुक्का गुडगुडा रहे होते. लेकिन इनके बेटे फसल काट रहे हैं. इतना हल्ला गुल्ला क्यों? बॉलीवुड से इतनी उम्मीद क्यों जहां काम का कलाकार लोकल ट्रेन में धक्के खाता रहता है, कंपनी के सामने विचित्र हाव-भाव किये खडे रहता है, कोई भाव नहीं देता. अभिषेक सिन्ड्रोम को थोडा और व्याख्या देनी थी. अभी इतना ज़्यादा है.
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