‘परज़ानिया’ को राष्ट्रीय अखबारों में तीन और चार-चार सितारे मिल रहे हैं. फिल्म गोधरा के बाद हुए गुजरात के दंगों जैसे मार्मिक विषय से तालुक्क रखती है. चोट खाई मां के रोल के लिए सारिका राष्ट्रीय पुरस्कार से पुरस्कृत हुई हैं, अब इसके बाद फिल्म पर कहने को और क्या बचता है?
‘परज़ानिया’ राहुल ढोलकिया की दूसरी फिल्म है (इससे पहले 2002 में बंदे जिमी शेरगिल और परेश रावल को लेकर क्रॉसओवर की ‘कहता है दिल बार-बार’ नाम की एक उटपटांग सी फिल्म बनाई थी, अच्छा है जिसे अखबारवाले इन दिनों याद नहीं कर रहे). क्षमा कीजियेगा मैं यहां परज़ानिया की कहानी नहीं सुनाऊंगा (इतवारी अख़बार पर नज़र डालनेवाले ज्यादा भाई-बंद उससे परिचित होंगे ही. हिंदुओं के एक दंगाई हमले में एक पारसी परिवार का चहेता बेटा परज़ान गुम हो गया है. बाद में आगजनी, निठल्ली पुलिस व लावारिस मुर्दों से पटी सडकों के बीच साईरस और शेरनाज़ अपनी शर्म व तकलीफ़ जीते हुए अपने बेटे की खोज की लडाई में जुटे हुए हैं).
फिल्म का शुरुआती एक-तिहाई इस शरारती, खुशमिजाज़ बच्चे के आस-पास के अंतरंग, सामाजिक सौहार्दपूर्ण झलकियों के आजू-बाजू धीमे-धीमे तन रहे दंगाई बिल्ड-अप का है. फिल्म की असल दिक्कत उसके बाद शुरु होती है. फिल्म में दंगाईयों की दुनिया, उनकी नफ़रत, हिंसा, सरकारी मशीनरी की मिली-भगत और बाद में मानवाधिकार कमीशन की सुनवाई के सारे प्रसंग बहुत हद तक कुछ नुक्कड नाटकीय अंदाज़ से ज्यादा हमारे लिए विगत वर्षों के गुजराती इतिहास का हमारे लिए खुलासा नहीं करते. फिर झमेला यह है कि फिल्म की ज़बान अंग्रेजी है जो बहुत सारे मौकों पर फिल्म को लगभग हास्यास्पद बनाये रहती है, और उसमें जैसे बदजायका बढाने को एलेन नाम का एक अमरीकी किरदार भी कहानी का मुख्य हिस्सा है जो गांधी पर शोध करने भारत आया हुआ है (जिसकी एक्टिंग कॉरिन नेमेश कर रहे थे, वह फिल्म के असोसियेट प्रोड्यूसर भी हैं).
फिल्म की अच्छी बात सारिका, बच्चों समेत कुछ लोगों का अभिनय है, कुछ घरेलू अंतरंग क्षण हैं, मानवीय दुदर्शा के कुछ झटकेदार स्केचेज़ हैं, मगर उनका अनुपात फिल्म में बहुत ही कम है. ज्यादा दंगा है, और इतना तो हम जानते ही हैं कि दंगे डरावनी चीज़ हुआ करते हैं.
1 comment:
क्या चिट्ठे का नाम सिलेमा है?
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