
विश्वजीत ने तब की थी अब जीतू भैया खेल रहे हैं. पता नहीं ज़माने ने जिसको ऐसा विरूप बनाया है, या ज़माने को जो विरूप बनाने पर तुला हुआ है, सुबह से नारद पर बुश का बसाता कलैंडर चढ़ाये हुए हैं. देबू भैया एनडीटीवी के बहाने अविनाश के मोहल्ले पर कंकड़ (यानी अप्रैल का फूल) फेंक रहे हैं. दूसरी ओर एक अभय तिवारी हैं जिन्होंने किसी और को बनाने का मौका न देकर खुदी को आज फ़ूल का शूल दे लिया है. कॉरपोरेशन वाले भी खूब ठिल्ल-ठिल्ल हो रहे होंगे कि तिवारी जी ने उनके खिलाफ़ अपना स्कूप आज के शुभ दिन ही सार्वजनिक किया. पब्लिक यही समझेगी नहीं समझ रही है कि कंपनी-पिशाच का कच्चा-चिट्ठा नहीं, अप्रैल वाला फूल बरस रहा है.
आप सुबह से बने हैं या नहीं? कैसे नहीं बने हैं? रवीश कुमार ने फोन करके आपको किसी राष्ट्रीय दुर्घटना से अवगत नहीं कराया? अरे, फिर इंडियन एक्सप्रैस में हिंदी ब्लॉगिंग वाली ख़बर खोजते-खोजते आप अपने पर कुढ़ने के बाद किसी और पर भी चिढ़े हांगे! वो भी नहीं? तो चलिये, आपका अरमान पूरा कर ही दिया जाए. वहां पहुंचिये जहां हम जा रहे हैं. और बनने की बजाय अगर अरमान बनाने वाला है तो हमारे पीछे लाईन में आकर खड़े हो जाईये. अंदर से हम विश्वजीत, जितेंद्र, राजकुमार वाला सफेद शर्ट, सफेद पैंट, सफेद जूता-सूता डाट कर विश्व को जीतनेवाला रूप ले लें. डेढ़-दो घंटे में नहीं लौटा तो समझियेगा परफ्यूम की प्रचुरता के असर में बेहोश हो गया हूं, या फिर आप शुद्ध रूप से बने हैं. एप्रिल वाला फ़ूल.
2 comments:
" मेरा क्या क़सूर, ज़माने का क़सूर, जिसने इसे बनाया " नहीं " जिसने दस्तूर बनाया"।"जिसने इसे बनाया" तो मोहम्मद रफ़ी के इसी गोत्र के 'तारीफ़ करूँ क्या उसकी,..' में आता है ।
ऐसा हल्ला रफ़ी साहब 'कभी-कभी' नहीं कई बार करते थे। जैसे, 'नदिया के पानी में जवानी देखो आग लगाती है, बदन मल-मल के नहाती है' तथा 'लड़की १९७० की,...१९७० की' आदि ।
धन्यवाद, भाई.
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