2/28/2007

सैफ ने छोड दी है अब शाहरुख की बारी है

मंटू मुझसे उम्र में बारह वर्ष छोटा और हिंदी फिल्‍मों के उत्‍साह की दृष्टि से बीस वर्ष बडा है. अपने कमरे में उसने प्रीति झिंटा नहीं मनोज बाजपेयी और इरफान खान की फोटो लगा रखी है. तिग्‍मांशु धुलिया का भक्‍त और ‘रंग दे बसंती’ को इस सेंचुरी की बेस्‍टमबेस्‍ट फिल्‍म मानता है. न माननेवाले को बहस और हाथापाई से मनवा लेने की आस्‍था रखता है. हमारे संग उसके कभी खुशी कभी ग़म वाले संबंध हैं. ब्‍लैक फ्राइडे वाली टिप्‍पणी पढकर वह प्रसन्‍न हुआ था, और गुरु दत्‍त में हमें पिला देखकर पका हुआ था. –ब्‍लैक एंड व्‍हाईट फिल्‍मे अब कौन देखता है, भाई साहब? पांच दिनों बाद मंटू फिर हाजिर हुआ है, और कुर्सी में सिगरेट जलाकर रेस्‍टलेस हो रहा है.

मेरे शांत बने रहने पर आखिरकार मंटू चिढकर कहता है, अब तो शाहरुख को भी फ़ैसला लेना ही होगा. पूछने की गरज से पूछता हूं कैसा फैसला. मंटू अब अपने रंग में आता है, अरे, वही. हॉस्पिटल से निकलने के बाद फोन आया ही होगा. सैफ ने कहा होगा, किंग, तू भी अब छोड ही दे, यार! शाहरुख ने चिढकर कहा होगा, अबे, असल नवाब की औलाद, तेरे पीछे-पीछे मैंने भी घबराकर सिगरेट छोड दी तो खाक़ किंग रहूंगा. फिर पेप्‍सी, सिगरेट, गौरी और बच्‍चों के सिवा अपने पास और है क्‍या! दोनों के बीच सीरियस सिगरेट डिसकसन चल रहा होगा. आप इस पर लिखो, भाई साब, हंसते हुए कहकर मंटू प्रसन्‍न हो गया, सिगरेट के गहरे कश लेने लगा. गुरु दत्‍त को पीछे धकियाकर अपने नये चहेते सैफ को आगे स्‍थापित करने की वह एक महीन रणनीतिक कोशिश कर रहा था.

मैंने दिलचस्‍पी दिखाते हुए एक पैर उठाकर सोफे की बांह पर रख दिया और पूछा और किस-किस पर लिखें? अनुराग कश्‍यप पर एक सीरिज़ लिख सकते हो. क्‍या-क्‍या फिल्‍म बनाई उसने, क्‍या नहीं बना सका, क्‍या बनानेवाला है. फिल्‍म, फैमिली, इंडस्‍ट्री के फ्यूचर सबके बारे में उसकी सोच क्‍या है (फिर मंटू ने मुझे सूचित किया कि भले यह काम प्‍यासा वाली टिप्‍पणियों से ज्‍यादा समझदारी व जनहित में महत्‍वाकांक्षी सेवा होगी और वह इसके लिए अनुराग का फोन नंबर खोजकर मुझसे बात करवाने को उसे तैयार भी कर लेगा, मगर इसके लिए हमें अभी थोडा सब्र करना होगा, क्‍योंकि इन दिनों अनुराग पत्‍नी आरती बजाज के साथ छुट्टी मनाने विदेश गया हुआ है). लेकिन हताश होने जैसी कोई बात नहीं. इस दरमियान मैं हिंदी सिनेमा की चिंताओं व समझ के नये चेहरे के बतौर खुद मंटू पर एक प्रोफाईल कर सकता हूं!

मैं कुछ प्रतिक्रिया दूं इसके पहले ही मंटू सिगरेट बुझाकर, ऑलमोस्‍ट सैफ-सी अदा में मुझे देखता धीमे-धीमे मुस्‍कराने लगा. खेद की बात यह थी कि मेरे पास डिजिटल कैमरा नहीं है. उससे ज्‍यादा शर्म की बात कि पुराना कोडैक कैमरा भी अर्से से काम नहीं कर रहा.

2/27/2007

गुरुकांत देसाई और गुरु दत्‍त का फर्क

गुरु दत्‍त की प्‍यासा के पचास वर्ष: सात


‘कागज़ के फूल’ की असफलता के बाद गुरु दत्‍त ने दो फिल्‍में और प्रोड्यूस कीं (‘चौदहवीं का चांद’, 1960, ‘साहिब, बीवी और गुलाम’, 1962), लेकिन घोषित रुप से निर्देशक की कुर्सी की ओर वे दुबारा नहीं लौटे. दोनों ही फिल्‍मों में उनकी छाप स्‍पष्‍ट देखी जा सकती है मगर पर्दे पर नाम क्रमश: एम सादिक और अबरार अल्‍वी का आता है. करियर, परिवार और निजी जीवन की उलझनों से हारे हुए गुरु दत्‍त ने अंतत: 10 अक्‍टूबर, 1964 को ज्‍यादा मात्रा में नींद की गोलियां लेकर सांसारिक झमेलों से खुद को मुक्‍त कर लिया (उसी वर्ष पांच महीने पहले जवाहरलाल की मृत्‍यु हुई थी. उन्‍होंने नींद की गोलियां नहीं ली थीं, ह्रदय गति के रुकने से मरे थे).

वैवाहिक संबंध का तनाव जो गुरु दत्‍त जी रहे थे, वह तो कारण थे ही (दो स्त्रियों के बीच फंसे नायक का थीम उनकी फिल्‍मों में बार-बार रिपीट होता है), लेकिन सामाजिक-सांसारिक वे क्‍या कारक थे, कैसा अकेलापन था जिसने उनका जीना दुभर कर दिया था? पिछले दो इतवार एक्‍सप्रेस के अपने कॉलम में सुधींद्र कुलकर्णी ने दो गुरुओं को आजू-बाजू रखकर समाज व जीवन पर उनके नज़रिये की एक अच्‍छी समीक्षा की है, माफ़ कीजिये, मैं उन तुलनाओं की ओर लौटने का मोह संवरण नहीं कर पा रहा.

मणि रत्‍नम के ‘गुरु’ की तरह ‘प्‍यासा’ का नायक भी अपने समय व समाज के रुबरु खडा है. गुरुकांत देसाई का मंत्र है सफलता. वह किन रास्‍तों का इस्‍तेमाल करता इस सफलता तक पहुंचता है वे बेमतलब हैं. पत्‍नी उसके आशयों पर संदेह करती उसे छोडकर मायके चली जाती है, समाज घूसखोरी व भ्रष्‍टाचार का इल्‍जाम लगाकर उसे कटघरे में खडा करता है. मगर मणि रत्‍नम के आज के नायक को अपने पैसों की सत्‍ता पर रत्‍ती भर भी संदेह नहीं. वह जानता है कि उसे अनैतिकता की गालियां देनेवाले अंतत: उसकी सफलता के गुरों की सराहना के गीत गायेंगे, समाज में उसकी पैसों की सत्‍ता का डंका बजेगा. वह अपने समय का सबसे बडा नायक समझा जायेगा (मीडिया व आपके-हमारे मनों में समझा जा भी रहा है. हमारे मन व चेतना का समय और भारतीय राजनीतिक परिदृश्‍य ने इतना पुनर्संस्‍कार तो कर ही दिया है). प्‍यासा का नायक भी समाज से दुत्‍कारा जाता है, और अंत में समाज उसे भी आगे बढकर गले लगाना चाहती है, लेकिन ऐसा समझौता-परस्‍त समाज, पतित व मूल्‍यों से स्‍खलित समाज- उसमें संशय और क्षोभ जगाता है. ऐसे समाज की सफलताओं का हिस्‍सा होने की बजाय वह उससे विमुख होकर अलग हट जाता है. वह गुरुकांत देसाई की तरह सिर्फ धन की अमीरी खोजकर संतुष्‍ट हो जाना नहीं जानता, क्‍योंकि एक स्‍तर के बाद यह इकहरी अमीरी बडे सामाजिक विकारों का सामना नहीं करेगी, नये पैदा करेगी. लेकिन गुरुकांत अपने व देश के लिए मन की नहीं, धन की अमीरी क्रियेट करने में यकीन रखता है. समाज के कर्णधार भी इसी को हमारे समय का मूलमंत्र बताने, बनाने में जुटे हैं. मन की अमीरी के रास्‍तों की खोज के लिए हमें प्‍यासा और गुरु दत्‍त की ओर लौटना होगा.

(ऊपर पत्‍नी गीता रॉय दत्‍त्‍ा के साथ विवाह के शुरुआती, सुखद दिनों में. नीचे मीना कुमारी के साथ)

ऑस्‍कर: ढाक के तीन पात

हरी राजनीति की अनुशंसा, लेकिन अमरीकी नीतियों की आलोचना से दुराव


बडी स्‍टूडियो की बडी मुख्‍यधारा फिल्‍मों को ईनामों से नवाजकर ज्‍यादा एक्‍सपोज़र व बडा बाज़ार दिलवाने में मदद करना ऑस्‍कर में पुराना प्रचलन रहा है. फिर किस राजनीति के सहयोग में वह खडी होगी, और किसे ईनामों से दूर रखकर वह उससे अपनी राजनीतिक दूरी भी जताती चलेगी, यह भी लंबे अर्से से दिखता रहा है. तो सामयिक अंतर्राष्‍ट्रीय परिदृश्‍य में जो फिल्‍म (बेबेल) अमरीकन राजनीति पर सबसे सार्थक व चुनौतीपूर्ण सवाल खडे करती है उसे न तो श्रेष्‍ठ फिल्‍म का पुरस्‍कार मिला, न अलेहांद्रो गोंसालेज इन्‍नरितु सर्वश्रेष्‍ट निर्देशक चुने गये, न ही फिल्‍म की पटकथा के लिए गुल्येर्मो अरियागा को याद किया गया. मज़ेदार यह है कि इनमें से ज्‍यादा पुरस्‍कार ‘द डिपार्टेड’ के हिस्‍से आये (मूल पटकथा का पुरस्‍कार माइकल आंर्ड्ट को ‘लिटिल मिस सनशाइन’ के लिए मिला), जिससे भले मार्टिन स्‍कोर्सेसे जुडे हों लेकिन है वह एक अपराध कथा ही. ‘बेबेल’ के संगीत को पुरस्‍कृत करके उससे पिंड छुडाया गया. इन्‍नरितु की बडी आलोचना को बेअसर करने के असंतुलन को जैसे अल गोर की डॉक्‍यूमेंट्री ‘एन इंकंविनियेंट ट्रूथ’ की हरी राजनीति को पुरस्‍कृत करके किया गया.

स्‍कोर्सेसे निर्देशन के लिए नामांकित सात दफा हुए मगर ईनाम पहली बार पा रहे हैं. उनके चाहनेवाले इससे राहत की सांस भले लें मगर इसे वे भी जानते हैं कि जब स्‍कोर्सेसे की फिल्‍मों की बात होगी तो लोग ‘रेजिंग बुल’, ‘गुडफेलास’ और उनकी पुरानी फिल्‍मों की याद करेंगे, ‘द डिपार्टेड’ की नहीं. गनीमत है अभिनय का अवार्ड फॉरेस्‍ट विटेकर के हिस्‍से गया, और इतने वर्षों बाद ही सही, एन्नियो मोरिकोने के संगीत व करियर को इज्‍ज़त बख्‍शना ऑस्‍कर को याद आया.

2/26/2007

ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्‍या है

गुरु दत्‍त की प्‍यासा के पचास वर्ष: छह

पहले छूटी हुई कहानी निपटा लें. तो घर के लोगों का अपनापा, पुराने प्रेम की शोख कसक भरी यादों व समाज- सबसे दुत्‍कारा हुआ शायर शहर की सडकों पर आवारा भटकता है. एक तंगहाल पर पसीजकर उसे अपना कोट सौंप देता है. बेचारा तंगहाल भिखारी एक रेल दुर्घटना में मारा जाता है और कोट की बिना पर दुनिया समझती है शायर विजय मारा गया. उधर शायर और उसकी शायरी की हमेशा की दिवानी गुलाब जो भी थोडे-बहुत उसके साधन हैं सब जोडकर घोष से विनती करती है कि मरणोपरांत अब तो इस शायरी की कद्र करें और इसे छाप दें. रेल दुर्घटना से सन्‍न विजय की आवाज़ अपने नज़्मों की छपी किताब देखकर लौटती है. डॉक्‍टर यह देखकर कि वह अपने को एक मुर्दा शायर बता रहा है उसे पागल करार देता है. सगे भाई और जिगरी दोस्‍त की शह पाकर घोष साहब भी तय करते हैं कि जिंदा की बनिस्‍बत मुर्दा विजय ज्‍यादा फायदेमंद है, और विजय को पहचानने से इंकार कर देते हैं. पागलखाने से भागकर विजय अपनी ही मौत की शोकसभा में पहुंचकर अपनी पहचान खोलता है. लोग इस खबर से हैरान हैं मगर शायर आखिरकार अब अपनी शायरी की दाद पा रहा है. वह अंतत: सफल हुआ. मगर जिन हालातों में वह सफलता तक पहुंचा है विजय के लिए ऐसी शोहरत बेमानी हो जाती है. इस सफलता और ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्‍या है’ की दुनिया को अपने लिए निरर्थक बताता विजय, उससे अपने संबंध तोडकर, वेश्‍या गुलाब का हाथ थामे एक नये सफर को निकल पडता है.
साहिर और सचिन देव बर्मन ने और कई फिल्‍में साथ-साथ की हैं मगर सुर और बयानी का जो मुकम्‍मल जोड उन्‍होंने प्‍यासा में साधा, वह अन्‍य किसी फिल्‍म में शायद ही प्‍यासा वाला पिच अख्तियार करता है. मीना का रोल अपने समय के लिए काफी जटिल और चैलें‍जिंग रहा होगा, और माला सिन्‍हा कभी कमाल की अभिनेत्री नहीं रहीं, लेकिन प्‍यासा की मीना को वह काफी अर्थपूर्ण बनाये रखती हैं. अबरार अल्‍वी साहब की लिखाई भी, सिर्फ प्‍यासा में ही नहीं, गुरु दत्‍त के पूरे फिल्‍म करियर का एक अभिन्‍न अंग और अच्‍छा सहयोगी रही है. उसी तरह जैसे वीके मूर्ति साहब का कमाल का कैमरा. हालांकि उन्‍होंने और निर्देशकों के साथ भी काम किया मगर वास्‍तविक लोकेशंस का जैसा रुमानी, और फिर भी, बंबईया सिनेमा से हटकर एकदम रियल का जो सेंस मूर्ति साहब ने गुरु दत्‍त के कॉलाबरेशन में क्रियेट किया, वह तब के ही नहीं, आजतक के हिंदी सिनेमा के लिए एक बेशकीमती उपहार है.

अपनी अगली फिल्‍म में गुरु दत्‍त ने प्‍यासा वाली ही पडताल को फिल्‍म इंडस्‍ट्री की तरफ शिफ्ट किया और ज्‍यादा महत्‍वाकांक्षी, ज्‍यादा भव्‍य तरीके के सिनेमा में पैर रखे; मगर ‘कागज़ के फूल’ बुरी तरह पिटी. निजी जीवन की दिक्‍कतों, सवालों को अपने सिनेमा में मिलाने, एकरुप करने का उनका जेनुइन प्रयास न केवल समाज ने अस्‍वीकृत कर दिया था, गुरु दत्‍त का कलाकार बंबई की दुनिया में और अलग-थलग व अकेला पडता जा रहा था. मगर उसके बारे में कल...

बाकी का आगे...

(ऊपर: अपनी ही मौत की शोकसभा में पहुंचा शायर, नीचे, कैमरामैन वीके मूर्ति के साथ गुरु दत्‍त: कमाल की जुगलबंदी)

सिर जो तेरा चकराये या दिल डूबा जाये...

गुरु दत्‍त की प्‍यासा के पचास वर्ष: पांच


प्‍यासा (1957) में वह सबकुछ है जो किसी फिल्‍म के अर्से तक प्रभावी व जादुई बने रहने के लिए ज़रुरी होता है. सामान्‍य दर्शक के लिए एक अच्‍छी, कसी हुई, सामयिक कहानी का संतोष (फिल्‍म के सभी, सातों गाने सुपर हिट). और सुलझे हुए दर्शक के लिए फिल्‍म हर व्‍यूईंग में जैसे कुछ नया खोलती है. अपनी समझ व संवेदना के अनुरुप दर्शक प्‍यासा में कई सारी परतों की पहचान कर सकता है, और हर परत जैसे एक स्‍वतंत्र कहानी कहती चलती है. परिवार, प्रेम, व्‍यक्ति की समाज में जगह, एक कलाकार का द्वंद्व व उसका भीषण अकेलापन, पैसे का सर्वव्‍यापी बर्चस्‍व और उसके जुडे संबंधों के आगे बाकी सारे संबंधों का बेमतलब होते जाना. जॉनी वॉकर गाते हुए चकराये सिर व डूबे दिलवालों को अपने यहां चंपी करवाने की नसीहत देते हैं, और गुरु दत्‍त दिल क्‍यों डूबा जाये का एक काफी उलझा भूगोल हमारे आगे खींचते चलते हैं.

विजय (गुरु दत्त) ऐसा शायर है जिसकी उदास नज़्मों में किसी पब्लिशर की दिलचस्‍पी नहीं. घर में सगे भाई उसे फालतू का शगल बताकर रद्दीवाले के हाथों बेच देते हैं. अपने खोये नज़्मों की खोज विजय को वेश्‍या गुलाब (वहीदा रहमान) के पास ले जाती है जिसके मन में उस शायरी और उसके लिखनेवाले दोनों के प्रति विशेष स्‍नेह है. कॉलेज रियूनियन के एक जमावडे में विजय पुरानी सहपाठिन मीना (माला सिन्‍हा) से टकरा जाता है जिसने कभी उसके लिए प्‍यार भरे गाने गाये थे मगर सामाजिक सुरक्षा के लिए शादी एक सफल व अमीर प्रकाशक घोष (रहमान) से कर ली है. घोष साहब तेज़दिमाग, काबिल आदमी हैं, झट इस पुरानी आंच की तपिश भांप लेते हैं. बीवी को नीचा और अपने को ऊंचा दिखाने के लिए विजय को अपने यहां नौकर रख लेते हैं. घर की पार्टी में उससे बेयरे का काम लेते हैं, उसकी नज़्म नहीं छापते. बीवी के टूटे दिल और कुछ छूटे आंसुओं का नज़ारा देखकर पब्लिशर साहब के मन में पहले से ही घर की शुबहा और पुख्‍ता होती है, और शायर को नौकरी से बरखास्‍त कर वे बीवी को उसके पुराने प्रेम की सज़ा देते हैं.

इससे आगे की बातें हम कल कहेंगे, और प्‍यासा और हमारे समय से जुडी कुछ काम की बातें करने के लिए एक और दिन की मुहलत लेंगे. यहां बस इतना कहकर बात समेटते हैं कि जॉनी वॉकर की उपस्थिति, और माला सिन्‍हा के साथ एक ड्रीम सिक्‍वेंस गाने (हम आपकी आंखों में इस दिल को...) से अलग प्‍यासा मौजूदा हालात के अपने कडवे बयानों में शायद ही कहीं और समझौता करती है (गाने की फिल्‍म में उपस्थिति के पीछे संभवत: वितरकों का दबाव रहा हो. तो गुरु दत्‍त ने हमको-आपको ही नहीं, वितरकों को भी खुश रखा). गुरु दत्‍त के गुरुत्‍व और अभी हाल में प्रदर्शित हुए- समाज में व्‍यक्ति संघर्ष की ही गाथा- दूसरे ‘गुरु’ को अगर हम साथ-साथ खडा करें तो कुछ मज़ेदार और चौंकानेवाले तथ्‍य सामने आयेंगे. वहां तक आने के लिए बस हमें ज़रा समय दीजिये.

बाकी का आगे...

(ऊपर वेश्‍या गुलाब: ऐसी निश्‍छल हंसी जो हर दुख हर ले, नीचे दिल और दुनिया की पेंचों को सुलझाता, सोच में डूबा शायर विजय)

2/24/2007

प्रीतम, आन मिलो...

गुरु दत्‍त की प्‍यासा के पचास वर्ष: चार


1954 में आर पार की सफलता ने वह स्थितियां मुहैया कर दी थीं कि गुरु दत्‍त क्रमवार एक के बाद एक अच्‍छी फिल्‍में बना सकते. 1955 में ‘मिस्‍टर एंड मिसेस 55’, 1957 में ‘प्‍यासा’ और 1959 में ‘कागज़ के फूल’ सबमें उनकी रचनात्‍मकता अपने उफान पर दिखती है. कागज़ के फूल जो अपनी कथावस्‍तु और मेकिंग की दृष्टि से विशिष्‍ट और अपने समय के लिए काफी आधुनिक थी, बॉक्‍स ऑफिस पर बुरी तरह से असफल रही. गुरु दत्‍त के लिए यह ऐसा झटका था जिससे बाद के वर्षों में भी वे पूरी तरह से उबर नहीं सके. फिल्‍मों में अभिनय और उनका निर्माण उन्‍होंने पूर्ववत जारी रखा मगर बतौर निर्देशक पर्दे पर उनका नाम प्रोजेक्‍ट करनेवाली कागज़ के फूल आखिरी फिल्‍म थी. हम थोडा आगे जा रहे हैं, इसके बारे में फिर बात करेंगे, पहले पीछे लौटते हैं.

आर पार ने धन और शोहरत दोनों मुहैया करवाया मगर उसके बाद गुरु दत्‍त फिर क्राईम जानर में नहीं लौटे. एक तरह से कह सकते हैं पचपन के बाद अपनी हर अगली फिल्‍म के साथ वह और-और महत्‍वाकांक्षी होते गए. मिस्‍टर एंड मिसेस 55 को सामाजिक व्‍यंग्‍य या कॉमेडी की श्रेणी में रख सकते हैं. थीम में ऐसी कोई खास बात भी नहीं थी. पुरुषों को लेकर थोडा सनकी, अपने को आज़ाद ख़यालों का समझनेवाली सीता देवी (ललिता पवार) अपनी भतीजी अनिता (मधुबाला) को भी उन्‍हीं रास्‍तों पर चलाना और पुरुषों से दूर रखना चाहती है. मगर भाई के वसीयत के मुताबिक अगर अनिता ने जल्‍द शादी न की तो वह अपनी पिता की जायदाद से हाथ धो बैठेगी. अलबत्‍ता धन के लोभ में अनिता की शादी के लिए एक बलि के बकरे बेरोज़गार काटूर्निस्‍ट की पहचान होती है जिसकी जेब में कुछ पैसे ठूंसकर शादी का एक स्‍वांग खेला जा सके, और बाप की संपत्ति पाते ही अनिता अपने इस तथाकथित कानूनी पति से तलाक ले ले और धक्‍के मारकर उसे अपने घर और जिंदगी से बाहर करे. मगर सनकी, स्‍वतंत्र मिजाज़ी फुआ की योजना उन्‍हीं-उन्‍हीं रास्‍तों पर नहीं चलती जैसी उसने कल्‍पना की थी और फिल्‍म के अंत में, तमाम तमाशे, झगडे व दिल की चोटों से गुजरती हुई अनिता का अपने गरीब लेकिन दिल के अमीर काटूर्निस्‍ट पति प्रीतम (गुरु दत्‍त) से पुर्नमिलन होता है.

कहानी में ऐसा कुछ भी खास नहीं जिसको लेकर हम एक्‍साईट हों. मगर इस सीमित से चुटीले ढांचे में भी गुरु दत्‍त अपनी पसंद की काफी चीज़ों को एक्‍सप्‍लोर करना संभव बनाते हैं. अपनी पसंदीदा थीम- समाज में एक कलाकार (यहां काटूर्निस्‍ट) की विपन्‍न असहायता व कदम-कदम पर समझौता करने की उसकी मजबुरियां- के लिए वह फिल्‍म में दिलचस्‍प सिचुएशंस निकालते रहते हैं. फिर तेजी से फैशनेबल होते उथले आज़ाद खयाली माहौल में उन रसों का रिक्रियेशन जिनसे समाज तेजी से हाथ झाडता जा रहा है- उस टूटती व छूटती दुनिया की भी मिएंमि 55 कुछ रसमयी तस्‍वीरें बुनता चलता है (जिन्‍होंने फिल्‍म देखी है वे क्‍लाइमेक्‍स का ‘प्रीतम, आन मिलो...’ याद करें. किसी गाने का ऐसा सरल और इतना जटिल नाटकीय इस्‍तेमाल, हीरोइन के विरह की ऐसी आत्‍मीय छटपटाहट का बिंब शायद ही आपको किसी अन्‍य हिंदी फिल्‍म में मिले).

गुरु दत्‍त अपनी अगली फिल्‍म में एक कदम और आगे गए. अबकी कॉमेडी और व्‍यंग्‍य की बजाय स्‍वर करुणा और भारी अवसाद का था. जैसे तेजी से चल रहे व्‍यक्ति को झन्‍नाके-सी चोट लगे, और आंखों के आगे एकदम-से अंधेरा छा जाये. प्‍यासा (1957) तात्‍कालिक भारतीय यथार्थ पर एक तक़लीफदेह और कडवाहट भरी टिप्‍पणी थी. इस पर हम अगली दफा बात करेंगे.

बाकी का आगे...

(ऊपर: बाहर से आधुनिक और भीतर बंधी-बंधाई भूमिकाओं में कैद नायिका. नीचे: नये ज़माने के बदलते सोशल रोल्‍स)

2/23/2007

किसने कहा सिगरेट 'कूल' नहीं?

एक छोटी दूसरी शुरुआत. आनेवाले दिनों में हमारी कोशिश होगी सिलेमा के माध्‍यम से फिल्‍मों संबंधित (नई-पुरानी, देशी-विदेशी) संक्षिप्‍त सूचनाओं का हम कुछ प्रसारण संभव कर सकें. कुछ बोर्ड पर दर्ज़ होनेवाले फुटकर नोट्स की तरह. ज़ाहिरन यहां गॉसिप व बेमतलब फिल्‍मों के पीछे ऊर्जा खराब करना उद्देश्‍य नहीं होगा. प्रयास होगा सर्कुलेशन की कुछ अच्‍छी चीज़ों पर हमारी नज़र बनी रहे. काम की फिल्‍में व ट्रेंड्स के बारे में जानकारियों का आदान-प्रदान हो सके.

इस क्रम में आज हम पिछले थोडे समय में प्रदर्शित तीन ऐसी अमरीकी फिल्‍मों की सूचना दे रहे हैं जो अपनी कथावस्‍तु, प्रस्‍तुति, अभिनय हर स्‍तर पर न केवल रोचक है, बल्कि एक दूसरे से काफी अलग-अलग भी. इनमें से थैंक यू फॉर स्‍मोकिंग 2005 में बनी है, बाकी दोनों पिछले वर्ष की फिल्‍में हैं.

जेसन रीटमान निर्देशित थैंक यू फॉर स्‍मोकिंग तंबाकू उद्दोग के प्रवक्‍ता निक नेलर की कहानी है जिसका पेशा है अपनी हंसमुख हाजिरजवाबी से सिगरेट-विरोधी नीति नियंताओं व सामाजिक मंचों को भटकाते रहना. और यह बताना कि सिगरेट अभी भी क्‍यों ‘कूल’ है और अगर उसे पीनेवाले कैंसर का शिकार होते हैं तो उससे कहीं ज्‍यादा अमरीकी नागरिक सडक व विमान दुर्घटनाओं में अपनी जान गंवाते हैं. फिल्‍म का सुर व्‍यंग्‍यात्‍मक व आधुनिक है जहां हर चीज़ अब धंधा हो गई है और अच्‍छी इरादों की बात करनेवाले भी हमें उतना ही संदिग्‍ध लगते हैं जितना हमारी जान ले रहा आदमी. निक नेलर की भूमिका में आरन एकहार्ट ने मज़ेदार काम किया है.

दूसरी फिल्‍म ऑल द किंग्‍स मेन रॉबर्ट पेन वॉरेन के उपन्‍यास पर आधारित है. स्‍टीवन ज़ायलियान निर्देशित और सान पेनज्‍यूड लॉ के इंटेंस अभिनय वाली यह फिल्‍म एक भले, भोले व नेक़ इरादे वाले व्‍यक्ति की सत्‍ता में आने के बाद पतन की दिलचस्‍प कहानी है. रायन फ्लेकआना बोदेन की हाल्‍फ नेलसन एक माध्‍यमिक इतिहास की कक्षा में ‘डायलेक्टिक्‍स’ पढानेवाले थोडा लिबरल, थोडा वामपंथी, थोडा उत्‍साहित तो थोडा भटके हुए एक ऐसे कुंठित स्‍कूल शिक्षक की कहानी है जो अपनी मिश्रित नस्‍ली कक्षा में कुछ अच्‍छा रचना चाहता है, लेकिन सामाजिक दिक्‍कतों वाली पृष्‍ठभूमि से आये, शिक्षा के प्रति आज के अनुत्‍साहित बच्‍चों के बीच यह कैसे संभव होगा, उसकी यह पहेली हल होती नहीं दिखती. फिर शिक्षक के नशे की कमज़ोरी का राज़ उसकी एक तेरह वर्षीय छात्रा के बीच खुलता है. अपनी अलग-अलग दुनियाओं व सामाजिक भूमिकाओं के बावजूद कैसे एक उलझा हुआ शिक्षक व पारिवारिक मुश्किलों में जी रही कमउम्र छात्रा एक दूसरे का संबल बनते हैं- इसे फिल्‍म दिलचस्‍प तरीके से पकडती है. शिक्षक (रायन गॉसलिंग) व छात्रा (शारिका एप्‍स) दोनों की न केवल कास्टिंग परफेक्‍ट है, दोनों ने अभिनय भी उतना ही अच्‍छा किया है. हैंड हेल्‍ड कैमरा फिल्‍म के चरित्रों की अंदरुनी बेचैनी को व्‍यक्‍त करने का अच्‍छा जरिया बनी रहती है.

2/22/2007

आर पार

गुरु दत्‍त की प्‍यासा के पचास वर्ष: तीन

कलकत्‍ते की पढाई के बाद कुछ समय गुरु दत्‍त ने नृत्‍य गुरु उदय शंकर की टोली के साथ गुजारा था, वही शिक्षा ‘हम एक हैं’ की कॉरियोग्राफी में काम आई. फिर फिल्‍म के हीरो देव आनंद और गुरु दत्‍त की नई-नई दोस्‍ती थी. एक सफल होगा तो दूसरे की मदद करेगा जैसे सपनों व ढाढस से वे एक दूसरे की हौसला-अफजाई करते रहते थे. मगर गुरु दत्‍त बंबई कॉरियोग्राफर बनने नहीं आये थे. असल ब्रेक के लिए उन्‍हें अभी पांच साल और इंतज़ार करना पडा.

इस दरमियान प्रभात की नौकरी से हटकर गुरु दत्‍त पहले फेमस स्‍टूडियो, फिर बांबे टाकीज़ की शरण में गए. हम एक हैं से हीरो बननेवाले देव आनंद अब तक न केवल बडी हस्‍ती बन चुके थे, बल्कि खुद के बैनर नवकेतन के तले एक फिल्‍म ‘अफसर’ (1950) को उन्‍होंने प्रोड्यूस भी किया. अपनी पहली होम प्रॉडक्‍शन के लिए देव आनंद ने पुराने दोस्‍त गुरु दत्‍त को याद नहीं किया, इंडस्‍ट्री में थोडी हैसियत रखनेवाले बडे भाई चेतन आनंद से इसका निर्देशन करवाया. मगर फिल्‍म चली नहीं. नवकेतन की अगली फिल्‍म के निर्देशन के लिए देव आनंद ने गुरु दत्‍त को बुलवाया. फिल्‍म थी- ‘बाज़ी’ (1951). देव आनंद, गीता बाली और कल्‍पना कार्तिक को लेकर बनी शहरी अपराध कथा के फार्मूले की बाज़ी इस लिहाज़ से महत्‍वपूर्ण है कि इसने अपने पीछे पचास के दशक में बननेवाली इस जानर की ढेरों फिल्‍मों के लिए एक तरह से ट्रेंड-सेटर का काम किया. बाज़ी के ही गानों की रिकॉर्डिंग के दरमियान गुरु दत्‍त और गायिका गीता रॉय की मुलाकात हुई, प्रेम परवान चढा और 1953 में दोनों शादी करके पति-पत्‍नी हुए.

बाज़ी के बाद नवकेतन के ही पैसों से ‘जाल’ (1952) बनी. इस बार भी जोडी देव आनंद और गीता बाली की ही थी. अगले वर्ष गीता बाली ने गुरु दत्‍त को ‘बाज़’ निर्देशित करने का मौका दिया. अबकी बार गीता बाली के साथ हीरो के रुप में वे खुद आ रहे थे. तो निर्देशन के साथ-साथ बतौर अभिनेता का एक समानांतर करियर भी शुरु हो गया उनके लिए. खुद की निर्देशित फिल्‍मों से अलग, बाज़ से शुरु हुआ यह सफर सौतेला बेटा, भरोसा, सुहागन, सांझ और सवेरा जैसी ढेरों व अलग-अलग किस्‍म की फिल्‍मों में फैला रहा. बतौर निर्देशक गुरु दत्‍त ने पहली बार सफलता का स्‍वाद 1954 में ‘आर पार’ के साथ चखा.

बाज़ी की ही परंपरा में यह फिल्‍म एक शहरी अपराध कथा थी मगर अब तक तीन फिल्‍मों में हाथ आजमा चुके गुरु दत्‍त की सिने कला इस फिल्‍म में ढंग से निखर कर सामने आती है. अभी भी अपराध जानर पर बनी बंबईया फिल्‍मों में आर पार की एक विशिष्‍ट पहचान है. कथा वस्‍तु के स्‍तर पर प्यार के रास्‍ते में आनेवाली वर्गीय अडचनें और पृष्‍ठभूमि में बैंक डकैती की योजना के एक सिमटे हुए प्‍लॉट के बावजूद आर पार अलग-अलग स्‍तरों पर हमारी दिलचस्‍पी जगाये रखती है. चाहे वह गानों का रियलिस्‍ट फिल्‍मांकन हो, या छोटे किरदारों के डिटेल्‍स व उनका सहानुभूतिपूर्ण चित्रण, या बोलचाल की ज़बानवाली संवादों की रवानी, आर पार हमें लगातार बांधी रहती है. मगर गुरु दत्‍त खुश नहीं थे. अपराध जगत के म्‍यूजिकल का सफल फार्मूला उन्‍हें संतुष्‍ट नहीं कर रहा था.

बाकी का आगे...

(ऊपर बाज़ी में देव आनंद और गीता बाली: तदबीर से बिगडी हुई तक़दीर बना ले; नीचे, श्‍यामा और गुरु दत्‍त आर पार में: शहरी अपराध कथा का स्‍वाद)

2/21/2007

देवीगढ में मुलायम के एकलव्‍य

हमने एकलव्‍य नहीं देखी. अमिताभ बच्‍चन की गुत्थियों को सुलझाने में अब हमारी रुचि नहीं रही. कुछ साथियों में वह स्‍नेह और लगाव अभी भी बना हुआ है. दिल्‍ली में रवीश कुमार फिल्‍म देखने गए और नई गुत्थियों में उलझकर लौटे हैं. आप भी उलझिये.

एकलव्य फिल्म देख ली. फिल्म के साथ साथ इंटरवल में समाजवादी पार्टी का विज्ञापन भी देखा. पूरी फिल्म और विज्ञापन के अमिताभ में फर्क करना मुश्किल हो गया. दोनों ही जगहों पर अमिताभ सेवक यानी एकलव्य की तरह लग रहे थे. वैसे भी पर्दे के अमिताभ और असली ज़िंदगी के अमिताभ में फर्क करना मुश्किल होता है. सुपर स्टार भले ही इस अंतर को सहजता से जीते हों उनके दीवानों के लिए यह मुमकिन नहीं.

महाभारत की परंपरा में एकलव्य का किरदार एक बेईमान गुरु और एक मूर्ख शिष्य की कहानी है. द्रोण ने कपट किया और कम प्रतिभाशाली अर्जुन को अमर करवाया. होनहार धनुर्धर एकलव्य के पास मौका था नई परंपना गढ़ने का. मगर वह द्रोण की चालाकी में फंस गया. आज के सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले मास्टर भी द्रोण है. वो सवाल करने की शिक्षा नहीं देते बल्कि सवालों का दक्षिणा मांग लेते हैं. एकलव्य ने अपना अंगूठा देकर इतिहास और दलितों को एक महानायक देने का मौका गंवा दिया. वो परंपराओं के अहसान तले दब गया. फिल्म की शुरुआत में उस एक लव्य को चुनौती दी जाती है. एक बच्चा कहता है मैं नहीं मानता एकलव्य सही था. बच्चे की आवाज़ में एकलव्य की मानसिकता को चुनौती दी जाती है. एक संदेश है कि धर्म वो नहीं जो शास्त्र और परंपरा है. धर्म वो है जो बुद्धि है.

अमर सिंह ने अमिताभ बच्चन का साथ दिया है. कांग्रेस ने भी अमिताभ की दोस्ती का इस्तमाल किया है. समाजवादी पार्टी ने पहले मदद की अब इस्तमाल कर रही है. फिल्म देखते-देखते यही सब सवाल उठने लगते हैं कि समाजवादी पार्टी के विज्ञापन वाले अमिताभ और एकलव्य के किरदार वाले अमिताभ में क्या फर्क है? क्या अमिताभ दोनों ही जगह अहसानों से दबे एकलव्य हैं? उनके सामने परंपरा मजबूरी खड़ी कर रही है. मदद करने वालों को भूला देने पर इतिहास कुछ और कहता है. इसलिए अमिताभ समाजवादी पार्टी के विज्ञापन में एक सेवक भाव की तरह नारे लगा रहे हैं. अहसान धर्म का भाव. एकलव्य भी यहीं मजबूर था. वो द्रोण की प्रतिमा का अहसानमंद हो गया. यहीं पर फिल्म और विज्ञापन का भेद मिटने लगता है. फिल्म का एकलव्य नौ पीढ़ियों के नाम पर धर्म की रक्षा करता है. हत्या करता है. सच को छुपाता है. झूठ के सहारे जीता है. सच कहने का साहस नहीं कर पाता. फिल्म के आखिर में पुलिस अफसर के झूठे चिट्ठी की बात पर भी धर्म का पालन कर सच नहीं बोलता. बल्कि झूठ के सहारे एक और ज़िंदगी जीने का रास्ता चुनता है. कहानी में एक जगह सैफ अली कहता है धर्म वो है जो बुद्धि है. मगर एकलव्य के रुप में एक सेवक बहादुरी से अपनी बुज़दिली को छुपाने की कोशिश करता है. सच से भाग जाता है.

मुलायम के एकलव्य भी विधु विनोद चोपड़ा के एकलव्य की तरह हैं. राजनीति से दूर रहने की बात करने वाला हमारे समय के इस महानायक को राजनीतिक विज्ञापन से परहेज़ नहीं है. वो सेवक की तरह सच को सामने रखता है. सिस्टम की बुराइयों से लड़ने की कहानियों से अमर हुआ यह महानायक सिस्टम की बुराइयों को आंकड़ों को झूठलाने के सियासी खेल में सेवक बन गया है. निठारी के मासूम बच्चों की तरफ नहीं देखता. उसमें अब बगावत नहीं है. सियासत है. नेता के प्रति परंपरागत समर्पण. यह एंग्री यंग मैन नहीं हो सकता. क्लेवर ओल्ड मैन लगता है. अमिताभ ने एंग्री यंग मैन के किरदारों से लाखों लोगों को दीवाना बनाया अब समाजवादी पार्टी के विज्ञापन से दीवानों को वोटर बना रहे हैं. द्रोण मुलायम ने एकलव्य अमिताभ का अंगूठा मांग लिया है.

मैं नहीं जानता कि विधु विनोद चोपड़ा ने महानायक के लिए सेवक का किरदार क्यों चुना? क्या वो आज के अमिताभ की हकीकत को एक किरदार के ज़रिये पर्दे पर उतार दिया है? या चोपड़ा अमिताभ को एक रास्ता दिखाना चाहते हैं? एकलव्य मत बनिये. हर दीवार को गिरा देने वाला दीवार फिल्म का विजय एकलव्य में सेवा की दीवार बनता है. यह एक महानायक का पतन तो नहीं? उससे कहीं ज़्यादा बड़ा किरदार संजय दत्त का है. एक दलित पुलिस अफसर का किरदार. वो देवीगढ़ के राणा के दो हज़ार साल के शाही विरासत को अपने पांच हज़ार साल के शोषण की मिसाल से चुनौती देता है. संजय दत्त के पुलिस अफसर ने एकलव्य की मजबूरी को निकाल फेंका है. यह एक दलित पुलिस अफसर का आत्मविश्वास नहीं बल्कि उसकी बुद्धि का इस्तमाल है. वो प्रतिभा और परंपरा में फर्क करता है. अपनी प्रतिभा के बल पर वर्तमान में जगह बनाता है. आने वाली दलित पीढ़ियों के लिए एक परंपरा बनाता है. वो कह रहा है मैं एकलव्य का मुरीद हो सकता हूं क्योंकि उससे छल हुआ मगर एकलव्य नहीं हो सकता. मुझे कोई मेरी जाति के नाम से गाली नहीं दे सकता. काश अमिताभ संजय दत्ता वाला किरदार करते तो मेरी ज़हन में महानायक ही रहते. यूपी में दम है क्योंकि जुर्म बहुत कम है. इस विज्ञापन को देख कर अपने अंदर रोता रहा जैसे अमिताभ एकलव्य के किरदार में अपनी साहचर्य के मौत पर सिसकते रहे. क्या वो एकलव्य की मानसिकता से निकलता चाहते हैं? एकलव्य को कौन याद करता है. एकलव्य एक सबक है. जो छला गया वो एकलव्य है. महानायक नहीं.

(कस्‍बा से साभार)

भंवरा बडा नादान था

गुरु दत्‍त की प्‍यासा के पचास वर्ष: बहिरंग

हमारे एक पुराने मित्र ने गुरु दत्‍त और प्‍यासा संबंधित हमारी टिप्‍पणियों पर एक प्रतिक्रिया भेजकर हमारी मुश्किल ज़रा आसान कर दी है. उन्‍होंने अनायास यह बहाना दे दिया कि गुरु दत्‍त व प्‍यासा को देखने के अन्‍य नज़रियों को भी हम यहां इस कडी में शामिल करते चलें. ज़ाहिरन, प्रत्‍येक टिप्‍पणी कभी कुछ मिलती-जुलती और कभी निहायत अलग आकलन लेकर आयेगी. इन सबके बीच कोई बहस चलाकर किसी सामान्‍य नतीजे तक पहुंचने का न यह समय है, न हमारा प्रयोजन. सिलेमा इस मौके पर उन अलग-अलग नज़रियों को एकत्रित करने, व उस वैविध्‍य को एक जगह पर सार्वजनिक करने का मंच बने, शायद इतना करके भी उसकी बडी सार्थकता होगी. तो, हमारी आप सबों से गुज़ारिश है, कि आप जिन भी बंधुओं को ऐसा महसूस हो कि इस बातचीत में वे अपनी तरफ से कुछ खास जोड सकते हैं, उन सभी का इस कडी के विस्‍तार में स्‍वागत है. हमारी ओर से सिलेमा वाली टिप्‍पणियां, इससे स्‍वतंत्र, पूर्ववत जारी रहेंगी.

आत्‍मलिप्‍त उच्‍छवास?

संगम पाण्‍डेय

प्यासा दो-तीन बार देखी है. आखिरी बार शायद दस साल पहले देखी होगी. याद है कि फिल्म रूमानियत से लबालब थी. रूमानियत का मैं भी कायल हूं. लेकिन उसकी रूमानियत में वायवीयता कुछ ज्यादा थी. फिल्म नायक की ट्रैजेडी का कोई वस्तुनिष्ठ परिवेश नहीं बनाती. फिल्म नायकत्व को ज्यादा प्रत्यक्ष बनाती है. उसका नायक अपनी ट्रैजेडी में आनंद लेता दिखाई देता है. हालांकि एक बड़ी फिल्म के रूप में प्यासा की प्रतिष्ठा या कहें कि महिमामंडन इतना ज्यादा रहा है कि मैं अपनी राय को लेकर हमेशा सशंकित रहा. लेकिन बाद में मुझसे मिलती जुलती दो और राय मेरे देखने में आईं. मेरा सवाल है कि आप जीवन को कितना ठोस रूप में जीना चाहते हैं. उसे अधिकतम ठोस रूप में जीने के लिए उसकी अधिकतम खोज करनी पड़ती है. ऐसे में हो सकता है कि व्यक्ति जिसे देश दुनिया के प्रति अपनी सदिच्छा माने बैठा हो, वह उसका एक आत्मलिप्त किस्म का उच्छवास ही हो.

2/20/2007

चार सौ बीसी और दो बीघों से आगे

गुरु दत्‍त की प्‍यासा के पचास वर्ष: दो

छोडो कल की बातें, कल की बात पुरानी
नये दौर में शुरु करें हम लेकर नई कहानी
हम हिंदुस्‍तानी, हम हिंदुस्‍तानी...
फिल्‍मों की महत्‍वाकांक्षा और उसकी लागत दोनों ही धीमे-धीमे अपने विस्‍तार की ज़मीन बना रहे थे. एक स्‍तर पर यह सिलसिला आज़ादी के पहले ही शुरु हो चुका था. शांताराम की ‘शकुंतला’ (1943) और वासन की ‘चंद्रलेखा’ (1948) दोनों बडे स्‍केल की फिल्‍में थीं. पारंपरिक व पौराणिक कृतियों के भव्‍य फिल्‍मांकन के रुढिवादी रुझानों से अलग सामयिकता को पकडने के कुछ कथित गंभीर प्रयोग भी हुए थे. इप्‍टा से जुडे ख्‍वाजा अहमद अब्‍बास ने गैर-पेशेवर कलाकारों के साथ ‘धरती के लाल’ बनाई थी. अब्‍बास साहब अंग्रेजीदां पत्रकार थे, फिल्‍मों की कहानियां लिखी थी, दिल्‍ली और नेहरु परिवार से अच्‍छा रिश्‍ता रखते थे. माने असल चलताऊ आदमी थे. आज़ादी के तत्‍काल बाद उभरनेवाले सबसे बडे और सबसे सफल निर्देशक राज कपूर की सफलता के पीछे अब्‍बास साहब का बडा हाथ था.

जनमानस को छूनेवाली कैसी कहानियों में उतरा जाये, यह अब्‍बास साहब की तरफ से आता और फिर राज कपूर उसकी व्‍यावसायिक पैकेजिंग करते. भावुक आशावाद का यह संगीतमयी फार्मूला राज कपूर प्रॉडक्‍शन के लिए काफी कारगर साबित हुआ. आवारा, श्री 420, जागते रहो, मेरा नाम जोकर, बॉबी, हिना सब अब्‍बास साहब की लेखनी से ही लिखे गए. नये-नये आज़ाद हुए हिंदुस्‍तान के आम जन की आशाओं, उसकी भावनात्‍मकता की सबसे ज्‍यादा कमाई आरके प्रॉडक्‍शन ने ही की. ‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्‍तानी, सिर पे लाल टोपी रुसी, फिर भी दिल है हिंदुस्‍तानी’ की रुमानियत ने कपूर और उनकी टीम को नये हिंदुस्‍तान का अघोषित दूत बनाया, विदेशी समारोहों में ग्रुप फोटो और दूतावासों के भोजों के निमंत्रण दिलवाये. मास्‍को और दिल्‍ली दोनों ही जगहों उन्‍हें प्रोत्‍साहन मिला, पीठ थपथपाई गई.

राज कपूर के बाजू में बिमल रॉय काम कर रहे थे. कलकत्‍ता में न्‍यू थियेटर के बंद हो जाने पर बिमल दा बंबई आये थे. बंबई टॉकीज़ के लिए उन्‍होंने ‘परिणीता’ बनाई. फिर अपना प्रॉडक्‍शन शुरु करके ‘दो बीघा ज़मीन’ (1953) बनाई. गांव में जमींदार के यहां फंसी अपनी ज़मीन छुडवाने के लिए किसान बलराज साहनी शहर मजदूरी करने जाता है. बिमल रॉय की संवेदना निश्‍चय ही ज्‍यादा नियंत्रित और भावुकता के अतिशय खुराकों से परहेज करके चलती थी मगर उनके यहां भी नये हिंदुस्‍तान के आशावादी घोषणापत्रों की तलाश ही चल रही थी. इससे इतर क्रमश: काफी ताक़तवर हो रहे बंबई के सिने उद्योग में और भी परतें थीं मगर उन परतों की खोज-बीन में जाने का काम हम फिर कभी करेंगे. फिलहाल अपने मूल विषय पर लौटते हैं. दक्षिण के मैसूर में 1925 को जन्‍मे और कलकत्‍ते में आरंभिक शिक्षा पाकर एक और नौजवान बंबई की फिल्‍म नगरी में अपनी किस्‍मत आजमाने पहुंचा था, 1946 में बनी ‘हम एक हैं’ में उसे कॉरियोग्राफी करने का मौका मिला. फिल्‍म के हीरो थे देव आनंद और खोया-खोया-सा यह नौजवान था गुरु दत्‍त. इसकी आंखों में सिनेमा की कुछ दूसरी ही छायायें थीं.

बाकी का आगे...

(ऊपर श्री 420 में राज कपूर और नरगिस, 1955: गरीब लेकिन भविष्‍य के प्रति आश्‍वस्‍त)

2/19/2007

कैसी है ये प्‍यास

गुरु दत्‍त की प्‍यासा के पचास वर्ष: एक


आज़ादी के बाद नेहरुमयी नये भारत का जो सपना लोगों की आंखों में बसना शुरु हुआ, उससे उनका मोहभंग भी उतनी ही तेज़ी से हुआ. हिंदी साहि‍त्‍य में इस मोहभंग को सबसे मुखरता से स्‍वर दे रहे थे गजानन माधव मुक्तिबोध. सिनेमा साहित्‍य से बहुत पीछे था. मगर आज़ादी के दस वर्ष भी नहीं बीते थे और गुरु दत्‍त ने फिल्‍म बनाई- ‘प्‍यासा’. यह फिल्‍म नये भारत का पतंग उडानेवालों के मुंह पर एक झन्‍नाटेदार तमाचा थी.

समय के असर में आज हमारी संवेदनायें काफी बदल चुकी हैं, समाज में अब हम सच्‍चे मन से यकीन नहीं रखते, राजनीति हमें धूर्तताओं का अखाडा लगती है, और बाज़ार की नुमायशों से अलग हमारी आत्‍माओं के तार कम ही जगहों पर जुडते हैं, और न ही सिनेमा अब पहले की तरह महत्‍वपूर्ण और मजबूत सामाजिक छतरी की भूमिका में रही है (इस सोच से कुछ बंधुओं को आपत्ति होगी, इस आपत्ति वाली सोच से हम फिर कभी संवाद में जायेंगे). कहने का मतलब यह कि छोटे शहरों के उजाड, बंद होते सिनेमाघरों और महानगरों की मैकडॉनल्‍डी-उपभोक्‍ता सिने-संस्‍कृति के वर्तमान परिदृश्‍य में सिनेमा का इस्‍तेमाल और उसकी सामाजिकता का बडा वर्ग भेद आ गया है. अब वह मालदार व आप्रवासी भारतीयों की तरफ ज्‍यादा और देहाती-देसी भारतीयों की ओर कम देखती है (फिल्‍म बनानेवालों की स्‍मृति से यह बात क्रमश: उतरती गई है कि इस देश में अभी भी बडे पैमाने पर गांव हैं. और इसकी उन्‍हें याद हो भी तो वह उनके लगावों-रुझानों से बाहर कर दी गई है. अपने यहां आखिरी गांव-केंद्रित बडी फिल्‍म शोले लगभग बत्‍तीस साल पहले 1975 में आई थी. उसके बाद एक और बडी फिल्‍म गदर-एक प्रेम कहानी हमने देखी मगर उसकी पृष्‍ठभूमि गांव से ज्‍यादा विभाजन थी. गांव लगान में भी था लेकिन वह उतना ही वास्‍तविक था जितना अलग-अलग मौकों पर केंद्रीय सरकार का देहातों से अशिक्षा और अस्‍वास्‍थ्‍य उन्‍मूलन के दावे हुआ करते हैं). बीसेक साल पहले एक साइकिल पर तीन-तीन बच्‍चे लदकर सिनेमाघर पहुंचा करते थे, टिकट खिडकी पर स्‍टॉक एक्‍सचेंज की मारामारी वाला नज़ारा रहता था, ‘चार का बीस, चार का बीस’ का सुरीला, लुभानेवाला कोरस चला करता था. इंदिरा गांधी की मौत और राजीव भैया के पर्दापण के साथ जितेंद्र के ‘कारवां’, धर्मेंद्र के ‘मेरा गांव, मेरा देश’ वाले इस लंबे दौर का पटाक्षेप हो गया.

राज्‍यश्री प्रॉडक्‍शन का रंग बदला और होनहार सूरज के ‘हम आपके हैं कौन’ के साथ एकदम से भारतीय सिनेमा की हवा उलट गई. सुभाष घई की परदेस, ताल और पीछे-पीछे यश बाबू और उनकी टोली सब पूरब से हाथ झाडकर पश्चिमामुखी हुए. ‘दुश्‍मन’ और ‘दो रास्ते’ के राजेश खन्‍ना की गरीबी से ‘कभी खुशी कभी ग़म’ के महल ज्‍यादा प्राथमिक हो गये. रुपये महत्‍वपूर्ण थे, लेकिन डॉलर और पाऊंड-स्‍टर्लिंग की कमाई और ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण हो गई. देश की अंतरात्‍मा और बाहरी अपीयरेंस दोनों का एक झटके में पुनर्संस्‍कार हो गया था. मूल्‍यों की चिंता और बदलाव का सपना संजोनेवाले पर नाना पाटेकर सिनिकली और गोविंदा टांग खींचते हुए हंसते थे. गरीब-गुरबाओं, अर्द्धशिक्षितों, चोट खायों का समूचा मुल्‍क उनके साथ समवेत हंसता था. क्‍योंकि आज़ादी एक राष्‍ट्रीय छुट्टी और तिरंगा खरीदने और लहराने से अलग अब और कोई मतलब नहीं रखती थी. मगर यह सब बहुत बाद की बातें हैं. बात तो दरअसल नेहरु के ताज़ा-ताज़ा खडे किये जा रहे नये भारत से मोहभंग के साथ शुरु हुई थी. आईये, वहीं लौटते हैं.

सिनेमा तब ताक़तवर माध्‍यम था और आज से बहुत ज्‍यादा ताक़तवर था. नये हिंदुस्‍तान की कोंपलें फूट ही रही थीं और ऐसे माहौल में ज़रा कल्‍पना कीजिये, सिनेमाघरों के शांत अंधेरों में साहिर और रफ़ी की जुगलबंदी- ‘ये महलों, ये तख्‍तों, ये ताज़ों की दुनिया... जला दो, जला दो, मिटा दो ये दुनिया’ गूंजना शुरु करती होगी, क्‍या असर होता होगा उसका लोगों पर? किस कदर रोयें खडे होते होंगे? मुक्तिबोध की रचनायें बहुत स्‍वाभाविक है नेहरु के सिपहसलारों की नज़रों तक न चढी हों, मगर प्‍यासा के गाने तो रेडीयो सीलोन से लेकर दिल्‍ली के पनवाडियों, चांदनी चौक के बाज़ारों- हर जगह दिल्‍ली के हुक्‍मरानों की खीझ और झुंझलाहट का सबब बन रही होंगी. यह भी क्‍या संयोग है कि मुक्तिबोध और गुरु दत्‍त की मौत एक ही वर्ष में नहीं हुई, नेहरु का देहांत भी उसी वर्ष, 1964, में हुआ था. मुक्तिबोध लंबी बीमारी के बाद ब्रेन हेमरेज से मरे, गुरु दत्‍त का अंत ओवर कंस्‍पंशन से हुआ. –‘कहां हैं, कहां हैं, जिन्‍हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं...’ की बेचैनियां ज़ाहिर करनेवाली ‘प्‍यासा’ शायद मेधावी गुरुदत्‍त के करियर की सबसे अच्‍छी फिल्‍म थी. आखिर वे क्‍या ज़ख्‍म थे जिनको कुरेदते हुए गुरुदत्‍त ने अनायास ही हिंदी सिनेमा को उसका एक बेशकीमती उपहार दे दिया था?

बाकी कल या परसों...

(सबसे ऊपर: वहीदा रहमान, गाईड में. ग़ौर से इन आंखों की सुलगन पढिये. ये आंखें दुनिया को कैसे देखें इसकी असल शिक्षा गुरु दत्‍त प्रॉडक्‍शंस में ही दी गई थी. नीचे प्‍यासा में गुरु दत्‍त: हाथ में फूल लिये धूप से ओट करता कलाकार. कुछ ही पलों में धूप और बढेगी, और फूल ज़माने के पैरों के नीचे बेरहमी से कुचल ‍दिया जायेगा)


2/17/2007

बहुत सारे तमाशों के बीच बहुत सुरीला संगीत

किच, कलर और नंगी भावनाओं का पेंटर: पेद्रो अलमोदोवार

पिछली सदी के उत्‍तरार्द्ध में बडी लडाई के बाद यूरोपीय समाज के संग-संग यूरोपीय सिनेमा का जो चेहरा बदलना शुरु हुआ, उसमें स्‍पेन की उपस्थिति कहीं नहीं थी. इटली के न्‍यू रियलिज़्म और फ्रांस के न्‍यू वेव और जर्मनी के न्‍यू सिनेमा के हस्‍ताक्षरों ने उनकी अंतर्राष्‍ट्रीय पहचान बनाई, मगर तीन दशकों के इस लंबे अर्से में स्‍पानी सिनेमा का बस दो नाम लोगों की स्‍मृति पर चढा था: लुई बुनुएल और कारलॉस साउरा. बस. इसके आगे? इल्‍लै.

अस्‍सी के आखिर की तरफ इस उनींदे, बोझिल परिदृश्‍य में स्‍पेन की ओर से एक नाटकीय हस्‍तक्षेप हुआ. स्‍पेन की एक फिल्‍म ‘अ वुमेन ऑन द वर्ज ऑव नर्वस ब्रेकडाउन’ विदेशी फिल्‍मों वाली श्रेणी में नामांकित होकर ऑस्‍कर (1988) पहुंची थी. फिल्‍म के तीखे, चुटीले संवाद और भडकीले रंगों की लयकारी, चरित्रों की आंतरिक दुनिया की एक ऐसी उठा-पटक जिसे लोगों ने अपने जीवन में जीना शुरु तो कर दिया था, मगर वह कैमरे की जबान में अनुदित होकर अभी पर्दे तक पहुंची नहीं थी. फिल्‍म ने एकदम से लोगों का दिल जीता और फिल्‍मकार के प्रति लोगों की जिज्ञासा बढी. फिल्‍मकार थे पेद्रो अलमोदोवार.

डॉन किहोते के कारनामों की पृष्‍ठभूमि के एक साधारण, गरीब परिवार में जन्‍मे अलमोदोवार के आस-पास कोई सांस्‍कृतिक शिक्षण का माहौल नहीं था. खुद पेद्रो के पिता अंतोनियो लिखना-पढना नहीं जानते थे, गधे की पीठ पर वाईन बैरेल ढोकर आजीविका चलाते थे. मां फुरसत में लोगों के खत पढने और लिखने के काम से घर में कुछ पैसे और जोडती थी. मां-बाप ने नन्‍हें पेद्रो को पादरियों के स्‍कूल में दाखिल करवाया. अपने बच्‍चे को वह पादरी बनाना चाहते थे. मगर पेद्रो की नसों में सिनेमा का ज़हर चढ चुका था. घरवालों का दिल तोडकर वह 1967 में मैड्रिड भाग आये. यह साठ की चहल-पहल और बेशुमार गतिविधियों वाला मैड्रिड था. खुराफाती मगर एक्‍स्‍ट्रीमली फॉकस्‍ड पेद्रो के पैर जमाने की आदर्श जगह. और बावजूद एक पिछडे प्रांत से आने के, शहर के सांस्‍कृतिक परिदृश्‍य में पेद्रो ने धीमे-धीमे अपनी उपस्थिति दर्ज करनी शुरु कर दी. एक पंक-रॉक बैंड के लिए पै‍रोडियां गाईं, काटूर्न और कॉमिक्‍स लिखे, और राष्‍ट्रीय फोन सेवा की बारह साल लंबी अपनी नौकरी में दोपहर तीन बजे खाली होकर अपने फिल्‍मी कीडों की व्‍यवस्‍था में पूरे दमखम के साथ लग गए (फ्रांको ने स्‍पेन का फिल्‍म स्‍कूल बंद करवा दिया था, चुनांचे पेद्रो को खुद से ही शिक्षित होना था). तनख्‍वाह से सुपर 8 का कैमरा खरीदकर अपने प्रयोग शुरु किये, छोटी फिल्‍में बनाईं, और ढेरों बनाईं. उसको घूम-घूमकर मैड्रिड के बार और कफै में दिखाते. जल्‍दी नाम कर लिया. 8 से 16 में शिफ्ट हुए, और फिर अपनी दोस्तियों के जुगाडू कौशल से बडी फीचर्स की दुनिया में.

अलमोदोवार की पहली बडी फिल्‍म 1980 में बनकर तैयार हुई- पेपी, लुची, बॉन एंड अदर वुमेन ऑन द हीप. फिल्‍म ने खुलकर अपने समय की सांस्‍कृतिक और यौन स्‍वतंत्रता को जगह दिया. किच और प्रोवोकेशन के उस्‍ताद अलमोदोवार ने खुराफाती ह्यूमर और भडकाऊ सैक्‍स के इस्‍तेमाल से तत्‍काल अपनी एक कल्‍ट फॉलोइंग खडी कर ली. नंगे इमोशंस और जानलेवा इच्‍छाओं के बीच फंसी पहचानों को लिये घूमते चरित्रों की यह रंग-बिरंगी दुनिया धीरे-धीरे और मंजती और परिष्‍कृत होती गई. पेपी, लुची से शुरु हुई कडी में अबतक सत्रह फिल्‍में और जुडी हैं. थोडी बहुत आंख खुली रखनेवाले बंधुओं को 1999 में ‘ऑल अबाउट माई मदर’ के ऑस्‍कर की याद होगी. उसके बाद अलमोदोवार ने सेंसेशनल ‘टॉक टू हर’ बनाई, ‘बैड एजुकेशन’ की सिक्रेट, डिस्‍टर्बिंग दुनिया रची, और अभी पिछले वर्ष पैनेलुप क्रुज के स्‍पानी सिनेमा में पुनर्वापसी के मीडियाई हो-हल्‍ले के बीच धीमी, सुलगती ‘बोल्‍वर’ तैयार हुई.

ऊपर अपने चहेते एक्‍टर गायेल गार्सिया बेरनाल के साथ अलमोदोवार

अलमोदोवार पर विशेष सामग्री के लिए यहां देखें.

2/15/2007

शिल्‍पा

जिंदगी भी क्‍या फ़रेब है शिल्‍पा
इसे तुमसे बेहतर कौन जानता है
और अब इसी फ़रेब को तुम
हक़ीकत और अपनी जिंदगी
बना रही हो. खुद नाच रही हो अपने पीछे
हम सबको नचा रही हो.

बाघ की खाल की पोशाक और घुटनों
तक के बूटों में तुम बिल्लियों वाली
बाज़ीगरी करती सामने आई थीं. सबसे छिपाकर
अरविंद ने तुम्‍हें डेस्‍कटॉप पर चढाया था मगर
अब तो अरविंद एक बच्‍चे का बाप है और
पिछले तीन वर्षों में उसने
एक हिंदी फिल्‍म नहीं देखी.

कितनी बार तुमने उम्‍मीदें बांधी और
कितनी बार सपनों को टूटता देखा
तुम तो वह फिल्‍म हो जो कभी
ठीक से शुरु भी न हुई. और अब तो
सिर से इतना पानी गुज़र चुका है अक्षय भी
पिता बन चुका है. फ़रेब, शादी करके फंस गये
यार, दस बस अब बहुत हुआ शिल्‍पा.

हिंदी फिल्‍मों की हिरोईन की उम्र यूं भी
बहुत छोटी होती है. वह ज्‍यादा से ज्‍यादा
टीना मुनीम और नीतू सिंह होती है. कैमरे के आगे
हाथ हिलाती, दांत दिखाती अब और मत दिखो शिल्‍पा
फिर टूटेगा सपना बडी चोट लगेगी
इतने पैसे मिले हैं क्‍या कम है
तुम मंदिरा बेदी नहीं फिर मंदिरा होने का स्‍वांग मत करो
वापस लौट आओ, शेट्टी समाज को बताओ
इससे पहले कि बहुत देर हो जाये वहीं अपनी
पहचान बनाओ. बडी बेरहम दुनिया
है ये. देखा ही तुमने नैय्यर साहब का जाना
सबके ही हित में होगा तुम हिंदी फिल्‍में भूल जाओ.

2/14/2007

कांटो का हार वाला स्‍टेटमेंट एक्‍चुअली गलत है

साहिर साहब, गुरु दत्‍त बाबू, सामने आकर क्‍लैरिफाई कीजिये!


जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्‍यार को प्‍यार मिला. हमने तो जब कलियां मांगी कांटों का हार मिला. यह सही नहीं है. अनुराग कश्‍यप ने ब्‍लैक फ्राइडे में इतना खुलकर इशारा कर दिया है, और रवीश कुमार के सौजन्‍य से सारे लोग अब जान गये हैं, बुरी तरह चौंकन्‍ना हैं मगर जिन्‍हें लेना था उन्‍होंने नोटिस नहीं लिया है. पता नहीं क्‍या सोचकर साहिर ने ये पंक्तियां लिखी थीं. उन्‍हें हार तो बहुत मिले होंगे मगर मुझे शक है वो कांटों के थे. यह उनका रुतबा और दबदबा ही था कि वह अपने समय के संगीतकारों को पेटी-मास्‍टर और हारमोनियम वाला जैसी गालियों से याद करते थे (माफ़ कीजियेगा, सचिन दा). सलीम जावेद की जोडी ने तब तक बंबई पहुंचकर सिप्‍पी साहब के यहां इन- हाऊस राईटरों वाली नौकरी पकडी नहीं थी, मगर साहिर साहब का रेट चोपडा बंधुओं के प्रोडक्‍शन हाऊस में ऊंचा हुआ करता था. फिर अमृता प्रीतम भी साहिर साहब पर लट्टू थीं. उनके चक्‍कर में सारी जिंदगी बिचारी सिंगल बैठी रहीं. और फिर भी साहिर साहब कांटों का हार मिलने का रोना रो रहे थे.

इस इंडस्‍ट्री के साथ यही दिक्‍कत है, लोग कितना भी पा लें, उनकी भूख खत्‍म नहीं होती. और ताजुब्‍ब होता है गुरु दत्‍त इस तरह की सोच प्रोमोट कर रहे थे! गीता दत्‍त जैसी सुरीली आवाज़ को लाकर घर में बिठा लिया, चौदहवीं का चांद उठाकर उड लिये, फिर भी कागज़ के फूल और प्‍यासा की हाय-हाय कर रहे थे. ठीक है कि आपके प्‍यासा के विजय को ज़रा इधर-उधर कांटों की चोट लग गई होगी (माला सिन्‍हा जैसियों से और आप उम्‍मीद क्‍या कर रहे थे? मगर बाजू में वहीदा तो आपके पीछे जान दे रही थी, न? फिर? वहीदाओं और मधुबालाओं की छतरियों के नीचे आपके लिए भंवरा बडा नादान है, आज पिया मोहे अंग लगा ले वाली मस्तियां गाई जा रही थीं और साहब, आप फिर भी कंप्‍लेन किये जाये रहे हैं? अरे, आप ही क्‍यों, आपका खडा किया विजय तो आज तक काट रहा है, और जो और जितना वह काट रहा है उसमें कुछ भी ऐसा नहीं जिसे आप कांटों का हार कहकर धीरे से आगे सरका दें!

मानसिक अव्‍यवस्‍था ही वजह रही होगी जिसने आपको पटखनी दिलवाकर दारु-सारु की लत दे दी. वर्ना हुज़ूर, आप तो बाजी के बाद से ही रंग में थे. गीता बाली और शकीला का जैसा इस्‍तेमाल आपने करवाया, वह और किस दूसरे माई के लाल डाइरेक्‍टर के बूते की बात थी? और हिंदी सिनेमा में जॉनी वॉकर आप लेकर आये. वहीदा को आपने इंट्रोड्यूस किया. राज खोसला जैसा निर्देशक आपका असिसटेंट था. हिंदी सिनेमा को आपने इतने कमाल के गाने दिये, और जनाब, कहते हैं कांटों का हार मिला! सच्‍ची, गुरु भाई, आपने यह अच्‍छी परंपरा नहीं डाली. कल को आपकी देखादेखी विजय बाबू भी अखबारों और खबरी चैनलों पर रोना शुरु कर देंगे कि उन्‍हें एक के बाद एक कांटों का हार मिल रहा है! यह आपने क्‍यों किया गुरु दत्‍त बाबू? साहिर साहब, सुन रहे हैं?... कोई जवाब नहीं दे रहा. हिंदुस्‍तान के तरक्‍की पसंदों के साथ यही दिक्‍कत है. मौके की जो सही समीक्षा होनी चाहिये उसकी बजाय कुछ और ही राग अलापते रहते हैं! या फिर यही बात होगी कि गुरु दत्‍त की आड लेकर साहिर साब हम सबों को वही बना रहे थे जिसका रवीश ने जिक्र किया है.

2/12/2007

कैमरे के पीछे से विकट बंबई को कैसे देखें

ब्‍लैक फ्राइडे: 1993 के बंबई बम कांड पर हुसैन ज़ैदी की इसी नाम की किताब पर आधारित व अनुराग कश्‍यप निर्देशित


बहुत सारे लोग हैं जो हिंदी सिनेमा के आम हालात से खुश नहीं रहते, मगर साथ ही उनके पास कोई सुलझा जवाब नहीं होता कि आखिर वह क्‍या है जो हिंदी सिनेमा में मिसिंग है. इस सवाल के ढेरों उत्‍तर होंगे मगर एक उत्‍तर अनुराग कश्‍यप की ब्‍लैक फ्राइडे बखूबी से देती है.

समूची दुनिया में अच्‍छे सिनेमा का यह एक सामान्‍य गुण है कि वह फिल्‍म में दर्शाये गए समय और स्‍थान के प्रति वफ़ादार रहे. जिन फिल्‍मों की हमारे यहां के समझदार समीक्षक गदगद भाव से पीठ थपथपाते हैं, वह फिल्‍में भी इस ज़रुरत को पूरा नहीं करतीं. प्रदीप सरकार की परिणिता नहीं करती, मणि रत्‍नम की बोंबे भी नहीं करती, और न ही गुरु करती है. यहां हम करण जौहरों व उनकी लाईन पीटने वाले दूसरे बाजीगरों की तो बात नहीं ही कर रहे मगर दिल चाहता है, लगान, स्‍वदेस जैसी तथाकथित ईमानदार कोशिशें भी एक सजावटी संसार बुनकर दर्शकों से उसमें भरोसा कर लेने का आग्रह करती-सी दिखती हैं. सत्‍या देखते हुए बहुतों को झटका लगा था कि शायद वह वैसी ही बंबई देख रहे हैं जैसी कि असलियत में वह है. मगर राम गोपाल वर्मा जैसे निर्देशक धंधे और स्‍टाईल में यकीन रखते हैं, नकि सच्‍चाई की परतों को पकडने में. ब्‍लैक फ्राइडे इस ज़रुरत को बहुत सादे और कैज़ुअल तरीके से पूरा करती है. शायद इसलिए भी उसे देखना खास अनुभव बनता है. जो असल बंबईवासी हैं और उसके उलझे तकाज़ों का प्रतिदिन सामना करते हैं उन्‍हें अनुराग की फिल्‍म में वह सबकुछ दिखेगा जो बंबई उन्‍हें हर रोज़ दिखाती है. गंदी, उबड-खाबड, बेतरतीब. यहां मणि रत्‍नम के अट्ठारह फुट सीलिंग वाले हवादार कमरे नहीं और न ही उछालें मारते समंदर की लहरो के फिल्‍मी कैलेंडर. यह संकरी, तंग, सहमी-सी बंबई है; जिसमें शोर है, गुस्‍सा है, और लंबी भटकनें हैं.

आम तौर पर किताबी सामग्री, और वह भी जब वह दंगों की पडताल जैसे रिपोर्टिंग वाली विषय-वस्‍तु हो, अपने में फिल्‍म के आसानी से उबाऊ होने का खतरा लिये रहती है. मगर अनुराग घिसे हुए वीडियो फुटेज और कुछ नाटकीय एक्‍शन शूट का सहारा लेकर धीरे-धीरे हमें एक ऐसी दुनिया में उतारते हैं जिसका परिदृश्‍य न केवल बंबई की जानी-पहचानी व दूर-दराज़ के बहुत सारे वे इलाके हैं जिन्‍हें हिंदी फिल्‍मों में पहले कभी नहीं देखा गया, बल्कि वह बंबई से बाहर की दुनियाओं को भी काफी डि-ग्‍लैमराईज्‍ड तरीके से दिखाती हुई कहानी आगे बढाती चलती है. इतने बडे परिदृश्‍य व इतने सारे चरित्रों को हैंडल करते समय इसका भी खतरा होता है कि सबकुछ थोडा सामान्‍यीकृत और स्‍केची हो जाये, मगर इसे अनुराग का कौशल कहना चाहिये कि बावजूद इस बडे कैनवास के, वह न केवल अपने किरदार ढूंढ लेते हैं, उनकी कुछ अंतरंग छाप भी बुनते चलते हैं. टेररिस्‍ट के पीछे थका और डरा भागता कांस्‍टेबल, डांगले की शक्‍ल में किशोर कदम जैसा अपने काम के प्रति फॉकस्‍ड, नॉन-सेंटिमेंटल, नो-नॉनसेंस इंस्‍पेक्‍टर, या के के मेनन का राकेश मारिया, आदित्‍य श्रीवास्‍तव के बादशाह खान की थकान और कुंठा, या गजराज राव का दाऊद फणसे और पवन मल्‍होत्रा के टाईगर मेमन का खास बंबईया प्रैग्‍मेटिज्‍म- सब हमारे लिए बहुत वास्‍तविक व रोचक बने रहते हैं. कई मौकों पर संवादों की बुनावट, या परिस्थितियों के भारी तनाव वाले सामान्‍य माहौल के बावजूद फिल्‍म में छोटे-छोटे ऐसे प्रसंग आते रहते हैं कि हम इस भारी तक़लीफ को थोडा मुस्‍कराते हुए बर्दाश्‍त कर सकें.

फिल्‍म में साऊंड और संगीत दोनों का काफी दबा हुआ और अच्‍छा इस्‍तेमाल है. फिल्‍म का संपादन (आरती बजाज) भी काफी उम्‍दा है. कैमरा कभी भी फिल्‍म को खूबसूरत और कलरफुल बनाने की कोशिश नहीं करती, जो ब्‍लैक फ्राईडे के संदर्भ में अच्‍छी समझदारी की बात है.

मुझे नहीं मालूम आनेवाले वर्षों में अनुराग की फिल्‍मकारी क्‍या रास्‍ता अख्तियार करेगी (इन दिनों वह जॉन अब्राहम की संगत में बहुत खुश-खुश नज़र आते और खामखा के बडबोलेपन के नशे में दिखते हैं), लेकिन किन्‍हीं भी रुपों में अगर ब्‍लैक फ्राइडे वाली इंटेंसिटी व ईमानदारी बनाये रखने में वह कामयाब होती है तो हिंदी सिनेमा के लिए यह सचमुच स्‍वागत-योग्‍य बात होगी. और हां, आपमें से जिन-जिन के लिए संभव हो, वह जायें और ब्‍लैक फ्राईडे की अनगढ काबिल करीनेपन का स्‍वाद चखें.

2/10/2007

राजा बाबू की रामलीला

बच्‍चा, दुलरुआ, लल्‍ला, राजा बाबू- इन संबोधनों को मुंह में गीले-गीले घुमा के कितना अच्‍छा लगता है. हम बेचैन बने रहते हैं कि कहां से अपना राजा बाबू खोजकर लायें, फिर अखबार और मीडिया मोहब्‍बत से हमारे लिये हमारा राजा बाबू खडा करते हैं, और हम दायें और बायें झुक-झुककर कैच लोपते रहते हैं. फिर उम्‍मीद बांध कर मौके की ताक में रहते हैं कि कब राजा बाबू की पंडाल सजे और कब हम बाहर लगी भीड में शामिल होकर प्रसन्‍नचित्‍त ताली बजाना शुरु करें!

राजा बाबू के पंडाल के बाहर भीड में खडे होकर ताली बजाना तो ज़रा हमारी फितरत में है. जब तक राजा बाबू की चितवन न दिखे, दिन बडा उदास-उदास-सा लगता है. राजा बाबू का जिक्र छिडते ही हमारे मुंह की लाली लौट आती है. ये लो, आ रहे हैं. पहुंच गए राजा बाबू. बेन्‍टले का दरवाज़ा खोला! किसका दरवाज़ा? अबे, बेन्‍टले का! फिरंग गाडी है! सेकेंड हैंड स्‍कूटी में चलते हो, ससुर, तुम क्‍या समझोगे? बडके सरकार अपने बास्‍ते नवका रॉल्‍स रायस लेके आये हैं, बेटवा को बेन्‍टले गिफ्ट किया है, इसको कहते हैं, गुरु, नक्‍शा! बियाह कब हो रहा है? बांदरा में नया बंगला देके सेट किया है तो बियाह भी जल्दिये होगा! कैसा दुलरुआ, पियारा छौंडा है, नहीं, जी? करेक्‍ट बोलते हो, मुनमुन. मगर अब मुंह साटे रहो और हमको ज़रा बेन्‍टले का नज़ारा देखने दो!

करेक्‍ट है. राजा बाबू का समां बंधा हुआ है. सन् 2000 में पहली पिच्‍चर आई थी. रेफुजी. उसके बाद पंद्रह-ठो गोबर और किये- तेरा जादू चल गया (कहां चला?), ढाई आखर प्रेम के, शरारत, मुंबई से आया मेरा दोस्‍त, कुछ ना कहो, रन और तो क्‍या-क्‍या, साली, समवें नहीं बंध रही थी. फिर मणि सर जुवा का राज्‍जाभिषेक किये और जादू चलने लगा. बहुतै अच्‍छी एक्टिंग किहेस था, गुरु! कंपनी में अऊरे टाप किलास! मज़ाक छोडिये, एक्टिंग तो बंदे ने सीख ही ली है. सरकार का वह सीन याद कीजिये जिसमें गुंडो ने रात को घेर लिया है और जान मारने के लिये लखेद रहे हैं. मगर इसको राजा बाबू का ही कमाल कहियेगा कि जान पर बनी है और मियां की रवानी ये है मानो किसी हसीना के पीछे जॉगिंग कर रहे हों. अब जैसे दौड सकते हैं वैसे ही न दौडेंगे, यार? तुम्‍हारी एक्टिंग के पीछे अब अपनी जान तो नहीं दे देंगे (साला, अभी बियाह भी नहीं हुआ है)? फिर ये सच है कि इससे ज्‍यादा रियल लाईफ में कभी दौडे नहीं! जितना दौडे हैं उसको रियलिस्टिकली पोर्ट्रे कर रहे थे. देखो, बाप की तरह फुफकार मार के डायलॉग कहां बोलता है? गुरु में रियल एक्टिंग देखे कि नहीं! लकवा मारे हुए है मगर अदालत वाला सीन में ये नहीं कि डायलाग राईटर का डायलाग चबा-चबा के बोल रहे हैं, एक्‍के बार में निकाल लिया, लो, सीन ओवर! परफेक्‍ट डेलिवरी! खालिद मोहम्‍मद ने नेशनल डेली में सवाल किया इतना अच्‍छा परफॉरमेंस कहां से निकाल के लाये, बेटा, तुम तो धीरुभाई से मिले नहीं? जवान ने जवाब दिया गुरु धीरु नहीं वाशु है, वाशु भगनानी, हमारे प्रोड्यूसर हुआ करते थे, बाहर की दुनिया तो हमने देखी नहीं है, तो हम उन्‍हीं का हाव-भाव नकल कर लिये. जुवा का लल्‍लन भी कोई बाहिर का थोडे है, अपने अंकिल अमर सिंह जी हैं! सही बात है, सब काम घरै हो जाये तो बाहिर का क्‍या दरकार? बाहिर का दुनिया में बहुत धूल-धक्‍कड, भीड-गरदा है! और राजा बाबू को बेन्‍टले का एसी का आदत है, आपको कौनो एतराज़?

सही बात है. किरदारों को इतना सूक्ष्‍म व जीवंत तरीके से जीने में राजा बाबू कोई अकेले थोडी है. समूचा सुहाना हिंदी फिल्‍म लोक उसी लीक को तो पीटता रहता है. सुनील शेट्टी, जैकी बाबू, जितेंदर, राजिंदर कुमार, बिश्‍वजीत एक्टिंग के नाम पर सब नमूना थे लेकिन आपने छाती से लगाया था कि नहीं? फिर राजा बाबू को लेकर झुट्ठे काहे का बवाल? फिर सलमान और शाहरुख बाबू कौनो एक्टिंग के सरताज हैं? अपने यहां यही रामलीला कर-करके फिल्‍मफेयर अवॉर्ड बंटता है. बडके सरकार से भिखारी का भी रोल करवा लो वो अपना फ्रेंच कट नहीं काटेंगे. आखिर पब्लिक जानती है अपने बडके सरकार हैं चाहे रोल कौनो हो, तो फिर खामखा काहे का नौटंकी खेलना? इतना टाईम पहले खाकी में दाढी सफा किये थे और अब जाकर एकलब्‍ब में दाढी चेंपे हैं, और नकली दाढी लगाके, ससुर, कौन-कौन दुर्गत नहीं हो गया!

देखिये, साथी, ऐसा है आप राजा बाबू को छेंकिये नहीं. तीस पिच्‍चर करने के बाद तो जवान का समां बंधा है. मीडिया दिवानी हो रही है. देश भर की लईकि लोग तरंग में आह राजा बाबू, ओह राजा बाबू वाला गाना गा रही हैं. जिसके पीछे देश दिवाना था वो नीली और गुलाबी साडी में हमको अपना बना ले, सनम गा-गा के दिवानी हुई जा रही है तो फिर आप काहे फालतू भांग में पानी घोंट रहे हैं?

2/09/2007

बेरनार्दो बेर्तोलुची की बदमाशियां

पारमा के उच्‍च-मध्‍यवर्गीय परिवार में जन्‍मे बेरनार्दो के पिता अतिल्‍यो बेर्तोलुची जाने-माने कवि, पुरातत्‍वविद् और कला इतिहासकार थे. गाहे-बगाहे फिल्‍मों पर भी लिखा करते. माहौल का असर था, बेरनार्दो ने भी पंद्रह की उम्र में कवितायें लिखनी शुरु कर दीं, और जल्‍दी ही अपनी पहली किताब पर प्रेमियो वियारेज्‍यो जैसा बडा ईनाम भी जीता. मगर साहित्‍य बेरनार्दो का तक़दीर नहीं होनी थी. वह भाग-भागकर पैरिस के सिनेमाथेक जाते. सिनेमाथेक के जादुई नशे में डूबे रहते. उस संसार का गहरा अध्‍ययन कर सकें इसके लिए उन्‍होंने फर्राटे से फ्रेंच बोलना सीखा.


बडे कवि व मार्क्‍सवादी पसोलिनी अपनी पहली फिल्‍म अक्‍कातोने की तैयारियों की जोड-तोड में लगे हुए थे. पिता की साहित्यिक मित्रता बेरनार्दो के काम आई. पसोलिनी का पहला उपन्‍यास छपवाने में अतिल्‍यो की भूमिका रही थी. पसोलिनी ने उस ऋण को उनके बेटे को अपनी पहली फिल्‍म का असिस्‍टेंट रखते हुए उतारा. और शुरु हो गया बेरनार्दो का सफर. वह रोम विश्‍वविद्यालय में आधुनिक साहित्‍य की पढाई कर रहे थे. बेरनार्दो ने वह पढाई बिना स्‍नातक हुए छोड दी और 1962 में, महज 21 वर्ष की उम्र में अपनी पहली फीचर ‘ला कोम्‍मारे सेक्‍का’ निर्देशित की. यह अपेक्षाकृत आसान एक छोटी मर्डर मिस्‍ट्री थी, बेर्तोलुची की तरफ लोगों का असल ध्‍यान उनकी अगली फिल्‍म ‘प्रिमा देल्‍ला रेवोल्‍युत्‍ज़ोने’ (बिफोर द रेवोल्‍यूशन) के साथ गया (1964). इटली में एक से बढकर एक दिग्‍गजों के बीच किसी कमउम्र नौजवान का अपनी पहचान बनाना टेढी खीर थी, लेकिन बेर्तोलुची की वैचारिक बेचैनियों व फ़ॉर्म की विविधता ने बडे फलक पर उनका रंग जमाना शुरु किया.

1970 में बेर्तोलुची की दो फिल्‍में प्रदर्शित हुईं. पहली ‘द स्‍पाईडर्स स्‍ट्रैटेजेम’ बोर्खेस की रचना पर आधारित थी, तो दूसरी मोराविया की कहानी पर (द कन्फर्मिस्‍ट). दोनों अपनी बुनावट की जटिलता और कौशल में चौंकानेवाली फिल्‍में थीं. द कन्‍फर्मिस्‍ट में वित्‍तोरिया स्‍तोरारो का कैमरा जिस सघनता और स्‍केल पर तीसरे दशक की फासिस्‍ट इटली की अंदरुनी व बाहरी परतों को पकडता है, वैसे चाक्षुष अनुभवों से पहले लोगों का साबका नहीं पडा था. इस फिल्‍म ने एक सिनेमाटॉग्राफर स्‍टार पैदा कर दिया था. स्‍तोरारो और बेर्तोलुची की अगले दो दशकों तक रही और इस जोडी ने कुछ बहुत ही विशिष्‍ट सिनेमाई अनुभवों को साथ-साथ रचा.

लास्‍ट टैंगो ईन पैरिस’ दो साल बाद 1972 में आई. ज्‍यादातर बंधुओं के बीच यह फिल्‍म सैक्‍स के अपने विशद चित्रण के लिये जानी जाती है, मगर कम लोग जानते होंगे कि इस फिल्‍म ने बेर्तोलुची को साईकोअनालिस्‍टों के बीच कितना पॉपुलर किया था. भयानक परिस्थितियों में पत्‍नी की मौत के बाद इस फिल्‍म का नायक पॉल एक गुमनाम से सैक्‍सुअल रिश्‍ते में जीवन के अर्थ तलाशता है. मार्लन ब्रांडो के बहुतेरे चहेतों के लिये अब भी पॉल उनके करियर का सबसे बेहतर रोल है. लास्‍ट टैंगो के प्रदर्शन के दौरान सैक्‍स दृश्‍यों की वजह से ढेरों दिक्‍कतें हुईं. चर्च नाराज़ था, सरकार नाराज़ थी, तो दूसरी ओर अपने खेमे के चहेते फिल्‍मकार को इस कदर भटकता देख मार्क्‍सवादी बंधु भी बहुत प्रसन्‍न नहीं थे. मगर सैक्‍स और राजनीति की चाशनी बेर्तोलुची का खास मसाला रही है, और प्रोवोकेशन से उन्‍होंने कभी बचने की कोशिश नहीं की. लास्‍ट टैंगो की पूरी बुनावट- संपादन, कैमरा-वर्क, एक्टिंग, संगीत- सभी फिल्‍म मेकिंग के पारंपरिक प्रतिमानों को लगभग नकारती-सी खुद को रचती है.

इटली में पारंपरिक बैकिंग का आसरा छोड फिल्‍म की नींव बडी हस्तियों को साथ लेकर मजबूत करने की लीक भी बेर्तोलुची ने ही डाली. लास्‍ट टैंगो की मार्लन ब्रांडो व मारिया स्‍नाईडर वाली बडी कास्टिंग में मास्सिमो जिरोत्‍ती सिर्फ इकलौते इतालवी नाम थे. अगली फिल्‍म ‘1900’ में यह जलवा और परवान चढा. बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों की इतालवी देहातों में सामंती दबदबे को दर्शानेवाली इस फिल्‍म में ज्‍यादातर किरदार हॉलीवुड के बडे नाम बर्ट लैंकास्‍टर, डोनाल्‍ड सदरलैंड और रॉबर्ट डी’नीरो सरीखे स्‍टार निभा रहे थे. फिल्‍म में भावुकता और मजमेबाजी ज्‍यादा और राजनीतिक गहराई कम थी. यह सिलसिला आगे भी ज़ारी रहा. 1987 में ‘द लास्‍ट एम्‍परर’ और 1990 में ‘द शेल्‍टरिंग स्‍काई’ दोनों सिनेमाई अर्थों में भव्‍य फिल्‍में थीं (एम्‍परर को ऑस्‍कर में नौ अकादमी पुरस्‍कारों के लिए नामांकित किया गया था, उसने सारे ईनाम जीते), मगर बेर्तोलुची के सिनेमा से मोहब्‍बत करनेवालों को लगता था जैसे कुछ उनकी धार मिसिंग है.

बाद के वर्षों में बेर्तोलुची ने ‘लिटिल बुद्धा’, और ‘स्टिलिंग व्‍यू‍टी’ जैसी किशोर प्रेम कथा बनाई. 2003 में ‘द ड्रीमर्स’ के साथ फिर से साठ के दशक में वापस लौटे, उसकी एक भावुक, सैक्‍सुअल पडताल की. 2007 में उन्‍होंने जुम्‍मा-जुम्‍मा अपनी नई फिल्‍म ‘बेल कांतो’ की घोषणा की है. उनकी लुभावनी शैली के पुराने दिवाने फिर बेसब्री से इंतज़ार करेंगे कि देखें, अबकी ऊंट किस करवट बैठता है.

ऊपर बायें कैमरे के पीछे बेर्तोलुची, दायें उनकी फिल्‍म 'द कन्‍फर्मिस्‍ट' का एक दृश्‍य.
बेर्तोलुची संबंधी किसी जिज्ञासा के लिये देखें: दुनिया के दिग्‍गज निर्देशक/बेर्तोलुची

2/08/2007

बडे कैनवास का माहिर चितेरा: बेर्नार्दो बेर्तोलुची

सिनेमा के इतिहास में ऐसा हमेशा नहीं होता कि उनका रचियता भी उतना ही स्‍टाईलिश हो जितनी उसकी फिल्‍में (यहां बहुत मौजूं नहीं लेकिन अपने विजय आनंद को याद कीजिये. गोल्‍डी साहब ने भले तीसरी मंजिल, ज्‍वुयेलथीफ और जॉनी मेरा नाम जैसी झटकेवाली बडी हिंदी फिल्‍में डायरेक्‍ट की हों, असल जीवन में निहायत लो-प्रोफाईल वाले धीमी आवाज़ के इंसान थे). बेर्नार्दो बेर्तोलुची का किस्‍सा थोडा अलहदा है. पिछले एक दशक में उनका जलवा थोडा फीका भले पडा हो, मगर अपने गिर्द रंगीन खबरें खडी करने का उनके पास वैसा ही कौशल है जिस कौशल से वह अपने फिल्‍मों का विहंगम व एन्‍चैंटिंग कैनवास सजाते हैं.

सन् पचास से सन् सत्‍तर का दौर इतालवी सिनेमा का स्‍वर्ण काल था. रोस्‍सेल्लिनी, दी’सिका व विस्‍कोंती ने नव-यथार्थवादी इतालवी सिनेमा को दुनिया में एक बडी पहचान दी थी. इनके पीछे-पीछे फेल्लिनी व अंतोनियोनी जैसी हस्तियां आईं जिन्‍होंने सिनेमा को नये मुहावरों का जामा दिया. सिनेमा सिर्फ पेट की भूख की राजनीतिक लडाई लडनेवाला जरिया नहीं, मनुष्‍य के अंदरुनी द्वंद्वों और स्‍वप्‍नों को चित्रित करने का पॉयटिक फ़ॉर्म है जैसा सिनेमा को नया अजेंडा दिया. मगर ये साठ के दशक के उथल-पुथल के आसन्‍न वर्ष थे. हवा में असंतोष और राजनीतिक बारुद की महक भरी हुई थी. फेल्लिनी के बाद फिल्‍मकारों की एक नई पांत सक्रिय हो गई थी, और पियेर पाओलो पसोलिनी व फ्रंचेस्‍को रोज़ी जैसे हस्‍ताक्षर एक बार फिर पुरानी मुर्तियों का भंजन करते हुए नई ऊर्जा के साथ नये राजनीतिक सिनेमा का दस्‍तावेज़ तैयार कर रहे थे. कुछ इन्‍हीं सुलगती हवाओं के बीच बेर्तोलुची की सिनेमा में नाटकीय एंट्री हुई.

विस्‍तृत परिचय कल या परसों कभी...

ऊपर जोकर के रंग में क्‍लोज़-अप फेल्लिनी का है; काली-सफेद तस्‍वीर सेट पर बैठे पियेर पाओलो पसोलिनी की है. पसोलिनी की पहली फिल्‍म अक्‍कातोने (1961) में बेरर्नादो बतौर असिस्‍टेंट उनके साथ शामिल हुए थे. पसोलिनी ने फिल्‍में लिखीं थीं मगर कैमरे के पीछे की दुनिया से उतने ही नावाकिफ थे जितना उनका नौसिखिया असिस्‍टेंट. बेर्तोलुची के मुताबिक, यह अनुभव बाद में उनके खूब काम आया. क्‍योंकि अक्‍कातोने के बनने के दरमियान ज्ञानी गुरु और उत्‍साही चेला दोनों लगभग साथ-साथ फिल्‍म-मेकिंग का ककहरा सीख रहे थे.

2/06/2007

ओरहान पामुक के देश का फिल्‍मकार

यिलमाज़ गुने (1937-1984): थोडी उम्र बडे काम


सामाजिक द्वंद्वों की पडताल में जिनकी दिलचस्‍पी हो, और जिनके पास खोजने का कौशल हो, वे यिलमाज़ गुने की फिल्‍में ज़रुर खोजकर देखें. यह थोडा दुर्भाग्‍यपूर्ण है कि डीवीडी की मार्फत फिल्‍मों की पहुंच जब जेन्‍युनली खोजक आत्‍माओं के लिए काफी हदतक आसान हो गई है, फिर भी चंद बडे फिल्‍मकार हैं जिन्‍हें लोकेट करना कुछ वैसा ही मुश्किल है जैसा पिछली सदी के शुरुआती दौर में छपनेवाले हिंदी के जासूसी उपन्‍यास!
गुने की फिल्‍मों में मणि रत्‍नम की मोहनेवाली सिनेमाटॉग्राफी नहीं मिलेगी. वह निहायत अनगढ, बहुत बार अमेच्‍यरिश होने का-सा भ्रम देती बिंबों में खुद को बुनती है. उनके किरदार झुग्‍गी-झोपडियों व शहर के भीड-भडक्‍कों में भटकते, नई खडी होती इमारतों के गिर्द टहलते आवारागर्दों-चोट खाये लोगों की दुनिया है जिनका अपनी पीछे छूटी जगहों से संबंध काफी उलझ-सा गया है और नई जगहें भी जिन्‍हें अपनाने से कतराती हैं.
गुने की खुद की कहानी भी सिनेमा के दिग्‍गजों की पारंपरिक कथाओं से बहुत मेल नहीं खाती. तुर्की के दक्खिन अदना शहर से लगे एक देहात के कुर्द परिवार में जन्‍मे यिलमाज़ ने अंकारा व इस्‍तान्‍बुल में कानून और अर्थशास्‍त्र की शिक्षा ली, मगर इक्‍कीस की उम्र पहुंचते-पहुंचते बंदे ने तय कर लिया था उसे जीवन में क्‍या करना है. यह उन दिनों की बात है जब तुर्की में सरकारी संरक्षण की युद्ध फिल्‍में, भारी मैलोड्रामा व नाट्य रुपांतरणों की भरमार थी. आतिफ यिलमाज़ जैसे चंद लोग थे जो स्‍टुडियो सिस्‍टम के भारी दबदबे के बीच सिनेमा को अवाम की जिंदगी की तक़लीफों से जोडने की कोशिशों में लगे थे, और इन प्रयासों से धीमे-धीमे एक अलग किस्‍म की तुर्की/कुर्दिश सिनेमा अपनी पहचान खडी कर रही थी. गुने ने इन्‍हीं आतिफ साहब का पल्‍ला पकडा, उनके यहां असिसटैंटी की, पटकथायें लिखीं, और फिर एक्टिंग के मैदान में कूद पडे. लोगों ने इस ‘बदसूरत सुलतान’ को पसंद करना शुरु किया, और यिलमाज़ साल में कुछ बीसेक फिल्‍में करते हुए जल्‍दी ही तुर्की सिनेमा के धर्मेंद्र बन बैठे. मगर इस आसान शोहरत का आनंद लेते रहने की बजाय गुने ने सन् पैंसठ में निर्देशक होने की ठानी, अडसठ तक उन्‍होंने अपनी एक प्रॉडक्‍शन कंपनी खडी कर ली थी, गुने फिल्‍मसिलिक.
उमुत (1970) दो मरियल घोडों व लॉटरी टिकट की उम्‍मीदों पर पांच बच्‍चों, बीवी और एक बूढी दादी का घर चलानेवाले एक असफल व्‍यवसायी की कहानी है जिसके चारों ओर कर्जदार बढ रहे हैं, और जो फिल्‍म के आखिर में घर-परिवार से भागे हुए बंजर मैदानों में दौडता दिखता है; हम धीमे-धीमे समझते हैं वह पागल हो गया है. उमुत में स्‍पष्‍ट: ईटली के ज़वात्तिनीदीसिका के सिनेमा की छाप थी.
इसके बाद की फिल्‍में थीं: आजित, आचि, उमतसुजलार. मगर सन् बहत्‍तर के बाद से गुने का ज्‍यादा वक्‍त सलाखों के पीछे बितना लिखा था. गिरफ्तारी और अट्ठारह महीनों की सज़ा एक दफा पहले भी हुई थी, 1961 में, तब आरोप एक ‘कम्‍युनिस्‍ट’ उपन्‍यास लिखने का था. इस बार सरकार उन्‍हें अराजक छात्रों को उकसाने का दोषी बता रही थी. गिरफ्तारी के समय गुने अपनी फिल्‍म ‘जावालिलार’ के प्री-प्रोडक्‍शन में लगे थे (1975), पहले की एक और फिल्‍म एनदिस (1974) अभी अधूरी पडी थी (जिसे गुने के असिसटेंट सेरिफ गोरेन ने पूरा किया. आनेवाले वर्षों में गोरेन व गुने के सहयोग के इस उलझे साथ ने काफी उत्‍पादक काम किये. सलाखों के पीछे गुने पटकथायें लिखते, फिल्‍म की विस्‍तृत रुपरेखा व उसकी फाईनल कटिंग डिज़ाईन करते, और गोरेन का काम बाहर उसे अंजाम देने का होता).
सरकारी नीतियों के फेर व एक आम माफीनामे की छांह में गुने जेल से छोडे गये लेकिन उन्‍हें तत्‍काल एक जज की हत्‍या के आरोप में धर-दबोचा गया. इस बार जेल की यह संगत लंबी होनेवाली थी. इसी दरमियान गुने ने सुरु (1978) और दुश्‍मन (1979) जैसी चर्चित पटकथायें लिखीं (दोनों ही फिल्‍में बाहर ज़ेकी ओकतेन ने निर्देशित कीं). सुरु के बारे में गुने ने अपने आखिरी इंटरव्‍यू में कहा था कि सुरु दरअसल एक तरह से कुर्द लोगों का इतिहास है, मगर मैं इसमें कुर्दी ज़बान तक का इस्‍तेमाल नहीं कर सकता था, क्‍योंकि कुर्दी ज़बान का इस्‍तेमाल करने का मतलब होता फिल्‍म के हिस्‍सेदार सभी लोगों को जेल की हवा खिलवाना!
1981 में गुने जेल से भागकर फ्रांस पहुंचे, जहां उनकी फिल्‍म ‘योल’ को बयासी में पाम दॉर से पुरस्‍कृत किया गया (पहले की तरह बाहर फिल्‍म की असल शुटिंग सेरिफ गोरेन ने की थी). फ्रांसीसी सरकार की मदद से सन् तिरासी में जाकर गुने को कैमरे के पीछे जाकर फिर दुबारा निर्देशन का मौका मिला. इस बार कहानी जेल में कैद बच्‍चों की लौमहर्षक कथा थी (दुवार, 1983). अगले ही वर्ष पेट के कैंसर ने इस रोमांचक, अनोखे जीवटवाले व्‍यक्तित्‍व की कहानी का पटाक्षेप कर दिया.

2/05/2007

बहारें फिर भी आयेंगी

कहां आती हैं बहारें? गुरुदत्‍त के लिए नहीं आई थी. धर्मेंन्‍द्र का एक दौर था आई थीं अब नहीं आती. तनूजा और माला सिन्‍हा ने बहुत देखा बहारें अब नाती-पोतियों का चेहरा देखती हैं. अलबत्‍ता बच्‍चन के यहां थोडे दिनों के लिए लापता हुई थी मगर अब ऐसी भसकी बैठी है कि जाने का नाम नहीं ले रही. दंत मंजन, कैडबरी, बैंकिंग, शर्टिंग्‍स सब जगह से कट रहा है बहार, और इतना कट रहा है कि बेचारे के दाढी के बाल तक थके-थके दिखते हैं. बुहारन पर गई थी शिल्‍पा बहार पर उड रही है. मगर आती कहां हैं बहारें?

राजेश खन्‍ना के लिये कहां आई? गोविंदा भी इतना पंख फडफडा रहा है ढीठ नहीं ही आ रही. ऐसा ही है बहार का, ज्‍यादातर कविताओं में आती है जीवन में आती है तो छांट-छांट कर चुनती है कहां पहुंचना है.

विद्युत सरकार आसनसोल पैसेंजर पर बैठा घर लौट रहा है. बत्‍तीस की उमर तक बहुत बेचैन रहा था विद्युत मगर अब उसने उम्‍मीद छोड दी है. शायद वह समझता है उसी के लिये क्‍यों, आसनसोल पैसेंजर के किसी मुसाफिर पर नहीं रीझने वाली है बहार.


2/04/2007

कौन है काउरिसमाकी?

अब लगभग पचास की तरफ खींच रहे, आकि काउरिसमाकी की आप नज़दीक से तस्‍वीर देखें तो यही लगेगा जैसे कोई शराबी अपनी चौथी बोतल ढूंढता किसी गलत जगह पहुंच गया है. उनकी उंगलियों में सिगरेट कांपता रहता है, और आंखें मीडिया के किसी भी तमाशे से अपने को दूर बनाये रखने को छटपटाहट लिये अधमुंदी दिखती हैं. भले ही कान, बर्लिन व वेनिस जैसी जगहों पर काउरिसमाकी व उनकी फिल्‍मों को अपार स्‍नेह मिलता रहा हो.
आकि फिनलैंड जैसे छोटे उत्‍तरी युरोपीय देश से हैं जहां न तो कोई रमणीय लैंडस्‍कैप है या अदरवाईस ऐसी कोई खास चीज़ जिसके लिए वह मशहूर हो. बकौल खुद आकि, हेलसिंकी का सामान्‍य नज़ारा बर्फीली चादर की परत और सडकों पर एक सूनी उदासी की होती है. ऐसे में वहां कोई किस तरह की फिल्‍म बनाये. मगर इसी उदास दुनिया को आकि ने लगभग अपना ट्रेडमार्क-सा बना लिया. और सन् ईक्‍यासी से सालाना एक के एवरेज़ के साथ उनकी अब तक की छब्‍बीस फिल्‍में इन्‍हीं उदासियों की बहुरंगी कहानियां कहती हैं. उनके ज्‍यादातर किरदार निजी व सामाजिक दिक्‍कतों का शराब व अपने निहायत हयूमरस दार्शनिक वैचारिक बैसाखियों के सहारे पार पाने की कोशिश करते हैं, और बावजूद अस्‍वाभाविक, लगभग असंभव-सी स्थितियों के, उसे, कई बार, जीतते भी हैं (याद कीजिये शैडोज़ ईन पैराडाइज़, एरियल या फिर आई हायर्ड अ कंट्रैक्‍ट किलर जहां हताशा और अंधेरों की भरमार है, फिर भी आकि के चरित्र अपनी जिद व शिद्दत से अपने लिए रोशनी खडा कर लेते हैं. लेनिनग्राद काउबॉयज़ गो टू अमेरिका में एक बरबाद नमूनों का रॉकर्स बैंड फिल्‍म की शुरुआत में अपनी किस्‍मत आजमाने अमरीका निकलता है, जिसे न तो बहुत म्‍यूजिक की समझ है और न अंग्रेजी की, मगर फिल्‍म के आखिर में उन्‍होंने टॉप टेन के चार्ट में अपने लिये जगह बना ली है- अमरीका में नहीं, मैक्सिको में! प्‍यार भी आकि के चरित्र अपनी खास फिलसॉफिकल शैली में करते हैं. बदसूरती, पैसों का अभाव आकि के आशिकों को हताश व दीवार पर सिर तोडने को मजबूर नहीं करता. वे शराब और अपनी हार न माननेवाली जिजिविषा के सहारे धीमे-धीमे ठंडी, विरोधी स्थितियों को मात करते हैं) सरवाईवर्स के चुटीले व्‍यंग्‍य, सन् पचास के आस-पास का रॉक एंड रॉल का बैकग्राउंड व पिछले बीस वर्षों में यूरोप में हुए कुछ सबसे बेहतरीन काले-सफ़ेद फिल्‍मांकन के ठप्‍पे के साथ आकि का सिनेमा अपनी ठाठदार पहचान बनाता है.होटलों में बर्तन धोने, डाक पहुंचाने जैसे धंधों के साथ आजिविका चलाते हुए आकि ने थोडा वक्‍त फिल्‍म समीक्षा में भी हाथ आजमाया; उसके बाद बडे भाई मीका के साथ एक फिल्‍म प्रोड्क्‍शन कंपनी शुरु की (आकि की तरह भाई मीका भी फिल्‍मकार हैं, और उतने ही प्रॉलिफिक भी. हेलसिंकी में कहावत मशहूर है कि फिनलैंड में सन् अस्‍सी के बाद से अब तक की बनी फिल्‍मों की एक-चौथाई काउरिसमाकी भाईयों की देन है.). अपने किरदारों की ही तरह आकि मजबूत सरवाईवर हैं.

काउरिसमाकी बंधु संबंधी किसी जिज्ञासा के लिये देखें: http://www.sci.fi/~solaris/kauris
आकि की कुछ चुनींदा फिल्‍मों की समीक्षा के लिये यहां देखें: http://www.filmref.com/directors/dirpages/kaurismaki.html

2/03/2007

परज़ानिया: आईये, डरें

परज़ानिया’ को राष्‍ट्रीय अखबारों में तीन और चार-चार सितारे मिल रहे हैं. फिल्‍म गोधरा के बाद हुए गुजरात के दंगों जैसे मार्मिक विषय से तालुक्‍क रखती है. चोट खाई मां के रोल के लिए सारिका राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार से पुरस्‍कृत हुई हैं, अब इसके बाद फिल्‍म पर कहने को और क्‍या बचता है?
परज़ानिया’ राहुल ढोलकिया की दूसरी फिल्‍म है (इससे पहले 2002 में बंदे जिमी शेरगिल और परेश रावल को लेकर क्रॉसओवर की ‘कहता है दिल बार-बार’ नाम की एक उटपटांग सी फिल्‍म बनाई थी, अच्‍छा है जिसे अखबारवाले इन दिनों याद नहीं कर रहे). क्षमा कीजियेगा मैं यहां परज़ानिया की कहानी नहीं सुनाऊंगा (इतवारी अख़बार पर नज़र डालनेवाले ज्‍यादा भाई-बंद उससे परिचित होंगे ही. हिंदुओं के एक दंगाई हमले में एक पारसी परिवार का चहेता बेटा परज़ान गुम हो गया है. बाद में आगजनी, निठल्‍ली पुलिस व लावारिस मुर्दों से पटी सडकों के बीच साईरस और शेरनाज़ अपनी शर्म व तकलीफ़ जीते हुए अपने बेटे की खोज की लडाई में जुटे हुए हैं).
फिल्‍म का शुरुआती एक-तिहाई इस शरारती, खुशमिजाज़ बच्‍चे के आस-पास के अंतरंग, सामाजिक सौहार्दपूर्ण झलकियों के आजू-बाजू धीमे-धीमे तन रहे दंगाई बिल्‍ड-अप का है. फिल्‍म की असल दिक्‍कत उसके बाद शुरु होती है. फिल्‍म में दंगाईयों की दुनिया, उनकी नफ़रत, हिंसा, सरकारी मशीनरी की मिली-भगत और बाद में मानवाधिकार कमीशन की सुनवाई के सारे प्रसंग बहुत हद तक कुछ नुक्‍कड नाटकीय अंदाज़ से ज्‍यादा हमारे लिए विगत वर्षों के गुजराती इतिहास का हमारे लिए खुलासा नहीं करते. फिर झमेला यह है कि फिल्‍म की ज़बान अंग्रेजी है जो बहुत सारे मौकों पर फिल्‍म को लगभग हास्‍यास्‍पद बनाये रहती है, और उसमें जैसे बदजायका बढाने को एलेन नाम का एक अमरीकी किरदार भी कहानी का मुख्‍य हिस्‍सा है जो गांधी पर शोध करने भारत आया हुआ है (जिसकी एक्टिंग कॉरिन नेमेश कर रहे थे, वह फिल्‍म के असोसियेट प्रोड्यूसर भी हैं).
फिल्‍म की अच्‍छी बात सारिका, बच्‍चों समेत कुछ लोगों का अभिनय है, कुछ घरेलू अंतरंग क्षण हैं, मानवीय दुदर्शा के कुछ झटकेदार स्‍केचेज़ हैं, मगर उनका अनुपात फिल्‍म में बहुत ही कम है. ज्‍यादा दंगा है, और इतना तो हम जानते ही हैं कि दंगे डरावनी चीज़ हुआ करते हैं.