2/05/2007

बहारें फिर भी आयेंगी

कहां आती हैं बहारें? गुरुदत्‍त के लिए नहीं आई थी. धर्मेंन्‍द्र का एक दौर था आई थीं अब नहीं आती. तनूजा और माला सिन्‍हा ने बहुत देखा बहारें अब नाती-पोतियों का चेहरा देखती हैं. अलबत्‍ता बच्‍चन के यहां थोडे दिनों के लिए लापता हुई थी मगर अब ऐसी भसकी बैठी है कि जाने का नाम नहीं ले रही. दंत मंजन, कैडबरी, बैंकिंग, शर्टिंग्‍स सब जगह से कट रहा है बहार, और इतना कट रहा है कि बेचारे के दाढी के बाल तक थके-थके दिखते हैं. बुहारन पर गई थी शिल्‍पा बहार पर उड रही है. मगर आती कहां हैं बहारें?

राजेश खन्‍ना के लिये कहां आई? गोविंदा भी इतना पंख फडफडा रहा है ढीठ नहीं ही आ रही. ऐसा ही है बहार का, ज्‍यादातर कविताओं में आती है जीवन में आती है तो छांट-छांट कर चुनती है कहां पहुंचना है.

विद्युत सरकार आसनसोल पैसेंजर पर बैठा घर लौट रहा है. बत्‍तीस की उमर तक बहुत बेचैन रहा था विद्युत मगर अब उसने उम्‍मीद छोड दी है. शायद वह समझता है उसी के लिये क्‍यों, आसनसोल पैसेंजर के किसी मुसाफिर पर नहीं रीझने वाली है बहार.


2 comments:

मैथिली गुप्त said...

जबर्दस्त, साधुवाद (लालू के साला वाला साधु नहीं)

Sunil Deepak said...

बहार तो मौसम है और मौसम बदलते रहें तभी अच्छे लगते हैं.