2/21/2007

देवीगढ में मुलायम के एकलव्‍य

हमने एकलव्‍य नहीं देखी. अमिताभ बच्‍चन की गुत्थियों को सुलझाने में अब हमारी रुचि नहीं रही. कुछ साथियों में वह स्‍नेह और लगाव अभी भी बना हुआ है. दिल्‍ली में रवीश कुमार फिल्‍म देखने गए और नई गुत्थियों में उलझकर लौटे हैं. आप भी उलझिये.

एकलव्य फिल्म देख ली. फिल्म के साथ साथ इंटरवल में समाजवादी पार्टी का विज्ञापन भी देखा. पूरी फिल्म और विज्ञापन के अमिताभ में फर्क करना मुश्किल हो गया. दोनों ही जगहों पर अमिताभ सेवक यानी एकलव्य की तरह लग रहे थे. वैसे भी पर्दे के अमिताभ और असली ज़िंदगी के अमिताभ में फर्क करना मुश्किल होता है. सुपर स्टार भले ही इस अंतर को सहजता से जीते हों उनके दीवानों के लिए यह मुमकिन नहीं.

महाभारत की परंपरा में एकलव्य का किरदार एक बेईमान गुरु और एक मूर्ख शिष्य की कहानी है. द्रोण ने कपट किया और कम प्रतिभाशाली अर्जुन को अमर करवाया. होनहार धनुर्धर एकलव्य के पास मौका था नई परंपना गढ़ने का. मगर वह द्रोण की चालाकी में फंस गया. आज के सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले मास्टर भी द्रोण है. वो सवाल करने की शिक्षा नहीं देते बल्कि सवालों का दक्षिणा मांग लेते हैं. एकलव्य ने अपना अंगूठा देकर इतिहास और दलितों को एक महानायक देने का मौका गंवा दिया. वो परंपराओं के अहसान तले दब गया. फिल्म की शुरुआत में उस एक लव्य को चुनौती दी जाती है. एक बच्चा कहता है मैं नहीं मानता एकलव्य सही था. बच्चे की आवाज़ में एकलव्य की मानसिकता को चुनौती दी जाती है. एक संदेश है कि धर्म वो नहीं जो शास्त्र और परंपरा है. धर्म वो है जो बुद्धि है.

अमर सिंह ने अमिताभ बच्चन का साथ दिया है. कांग्रेस ने भी अमिताभ की दोस्ती का इस्तमाल किया है. समाजवादी पार्टी ने पहले मदद की अब इस्तमाल कर रही है. फिल्म देखते-देखते यही सब सवाल उठने लगते हैं कि समाजवादी पार्टी के विज्ञापन वाले अमिताभ और एकलव्य के किरदार वाले अमिताभ में क्या फर्क है? क्या अमिताभ दोनों ही जगह अहसानों से दबे एकलव्य हैं? उनके सामने परंपरा मजबूरी खड़ी कर रही है. मदद करने वालों को भूला देने पर इतिहास कुछ और कहता है. इसलिए अमिताभ समाजवादी पार्टी के विज्ञापन में एक सेवक भाव की तरह नारे लगा रहे हैं. अहसान धर्म का भाव. एकलव्य भी यहीं मजबूर था. वो द्रोण की प्रतिमा का अहसानमंद हो गया. यहीं पर फिल्म और विज्ञापन का भेद मिटने लगता है. फिल्म का एकलव्य नौ पीढ़ियों के नाम पर धर्म की रक्षा करता है. हत्या करता है. सच को छुपाता है. झूठ के सहारे जीता है. सच कहने का साहस नहीं कर पाता. फिल्म के आखिर में पुलिस अफसर के झूठे चिट्ठी की बात पर भी धर्म का पालन कर सच नहीं बोलता. बल्कि झूठ के सहारे एक और ज़िंदगी जीने का रास्ता चुनता है. कहानी में एक जगह सैफ अली कहता है धर्म वो है जो बुद्धि है. मगर एकलव्य के रुप में एक सेवक बहादुरी से अपनी बुज़दिली को छुपाने की कोशिश करता है. सच से भाग जाता है.

मुलायम के एकलव्य भी विधु विनोद चोपड़ा के एकलव्य की तरह हैं. राजनीति से दूर रहने की बात करने वाला हमारे समय के इस महानायक को राजनीतिक विज्ञापन से परहेज़ नहीं है. वो सेवक की तरह सच को सामने रखता है. सिस्टम की बुराइयों से लड़ने की कहानियों से अमर हुआ यह महानायक सिस्टम की बुराइयों को आंकड़ों को झूठलाने के सियासी खेल में सेवक बन गया है. निठारी के मासूम बच्चों की तरफ नहीं देखता. उसमें अब बगावत नहीं है. सियासत है. नेता के प्रति परंपरागत समर्पण. यह एंग्री यंग मैन नहीं हो सकता. क्लेवर ओल्ड मैन लगता है. अमिताभ ने एंग्री यंग मैन के किरदारों से लाखों लोगों को दीवाना बनाया अब समाजवादी पार्टी के विज्ञापन से दीवानों को वोटर बना रहे हैं. द्रोण मुलायम ने एकलव्य अमिताभ का अंगूठा मांग लिया है.

मैं नहीं जानता कि विधु विनोद चोपड़ा ने महानायक के लिए सेवक का किरदार क्यों चुना? क्या वो आज के अमिताभ की हकीकत को एक किरदार के ज़रिये पर्दे पर उतार दिया है? या चोपड़ा अमिताभ को एक रास्ता दिखाना चाहते हैं? एकलव्य मत बनिये. हर दीवार को गिरा देने वाला दीवार फिल्म का विजय एकलव्य में सेवा की दीवार बनता है. यह एक महानायक का पतन तो नहीं? उससे कहीं ज़्यादा बड़ा किरदार संजय दत्त का है. एक दलित पुलिस अफसर का किरदार. वो देवीगढ़ के राणा के दो हज़ार साल के शाही विरासत को अपने पांच हज़ार साल के शोषण की मिसाल से चुनौती देता है. संजय दत्त के पुलिस अफसर ने एकलव्य की मजबूरी को निकाल फेंका है. यह एक दलित पुलिस अफसर का आत्मविश्वास नहीं बल्कि उसकी बुद्धि का इस्तमाल है. वो प्रतिभा और परंपरा में फर्क करता है. अपनी प्रतिभा के बल पर वर्तमान में जगह बनाता है. आने वाली दलित पीढ़ियों के लिए एक परंपरा बनाता है. वो कह रहा है मैं एकलव्य का मुरीद हो सकता हूं क्योंकि उससे छल हुआ मगर एकलव्य नहीं हो सकता. मुझे कोई मेरी जाति के नाम से गाली नहीं दे सकता. काश अमिताभ संजय दत्ता वाला किरदार करते तो मेरी ज़हन में महानायक ही रहते. यूपी में दम है क्योंकि जुर्म बहुत कम है. इस विज्ञापन को देख कर अपने अंदर रोता रहा जैसे अमिताभ एकलव्य के किरदार में अपनी साहचर्य के मौत पर सिसकते रहे. क्या वो एकलव्य की मानसिकता से निकलता चाहते हैं? एकलव्य को कौन याद करता है. एकलव्य एक सबक है. जो छला गया वो एकलव्य है. महानायक नहीं.

(कस्‍बा से साभार)

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