12/17/2008
मुख्यधारा से बाहर के असुविधाजनक टेढ़े रास्ते..
देख रहा हूं, लिंक्स लपेट रहा हूं: जिया झ्यांगके की चीनी दुनिया, कॉमिक आर्टिस्ट से सिनेमा में हाथ आजमा रहे एनकी बिलाल की फ्रेंच बंकर पैलेस हॉटेल, और कॉंन्सतांतिन लॉपुशांस्क्ी की रूसी द अग्ली स्वान्स..
12/13/2008
कैपिटलिज़्म एंड अदर किड्स स्टफ
दस-दस मिनट के पांच टुकड़े हैं, इस दुनिया का हिसाब-किताब कैसे चलता है जानने में आपकी बालसुलभ जिज्ञासा हो तो देख डालिये. मैंने नेट से डाऊनलोड करके पूरी डॉक्यूमेंट्री एक साथ देखी, बालसुलभ प्रसन्नता हुई. हमारे, अनिल व अभय जैसे पहुंचे हुए बुद्धिज्ञानी क्यों नहीं बैठे-बैठे ऐसी फ़िल्में बना पाते हैं मेरे लिए गहरे ताज़्ज़ुब का विषय है. जबकि पैडी जो शैनन ने बैठे-बैठे इतने मुश्किल विषय को बच्चों की सहजता से कह लिया है वह ऐसा ताज़्ज़ुब नहीं जगाता. न वल्र्ड सोशलिस्ट मूवमेंट का ऐसे बुद्धिसरस उद्यम में समय जाया करना. क्योंकि सच्चायी तो यही है कि बुद्धि-उद्यम के अब जितने उपक्रम हैं, सब मुनाफ़ा-उपक्रमों का माध्यम बनकर रह गये हैं, जनजागरण के किसी सरल-गरल प्रवर्तन में उनकी दिलचस्पी कहां बनती है?..
ख़ैर, जिनकी बनी है उसका आप फ़ायदा उठायें. देख ही डालें. घर में बच्चा दौड़-दौड़कर सवाल करता हो तो उसे भी साथ बिठाकर देखें, पत्नी भी सिर्फ़ गृहशोभिका व गृहशोभा-पाठिका न हुई तो उसे भी न्यौतें कि संगिनी, आओ, शाहरुख को तो समझती ही रही हो, आओ, आज ज़रा शैनन समझ लें.
मज़ाक दरकिनार, सच्ची में, विचारने की फ़ुरसत निकालकर देखिये, दिखाइये. शैनन साहब ने पूंजीवाद-प्रपंच की बड़ी सरल पंजीरी बनाकर पेश की है. आज जब हम एक बार फिर अंतर में झांकने को मजबूर हो रहे हैं, वैकल्पिक जीवन के उपादानों पर दिमाग़ चलाने का यह मौका आजमाना बुरा विचार न होगा.
कैपिटलिज़्म एंड अदर किड्स स्टफ के टुकड़े क्रमवार देखने के लिये आगे नंबरवार क्लिकयायें: एक, दो, तीन, चार, पांच, छै.
ख़ैर, जिनकी बनी है उसका आप फ़ायदा उठायें. देख ही डालें. घर में बच्चा दौड़-दौड़कर सवाल करता हो तो उसे भी साथ बिठाकर देखें, पत्नी भी सिर्फ़ गृहशोभिका व गृहशोभा-पाठिका न हुई तो उसे भी न्यौतें कि संगिनी, आओ, शाहरुख को तो समझती ही रही हो, आओ, आज ज़रा शैनन समझ लें.
मज़ाक दरकिनार, सच्ची में, विचारने की फ़ुरसत निकालकर देखिये, दिखाइये. शैनन साहब ने पूंजीवाद-प्रपंच की बड़ी सरल पंजीरी बनाकर पेश की है. आज जब हम एक बार फिर अंतर में झांकने को मजबूर हो रहे हैं, वैकल्पिक जीवन के उपादानों पर दिमाग़ चलाने का यह मौका आजमाना बुरा विचार न होगा.
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11/16/2008
आकी, आमिर और दोस्त का गुस्सा..
हमारे मेलबॉक्स में हमारे एक कैमरामैन नौजवान मित्र हैं, उनका एक मेल पड़ा था. फि़नलैण्ड के फ़िल्मकार आकी काउरिसमाकी की एक फ़िल्म देख लेने का आह्लाद था- हम सबों को होता है- नीचे कैज़ुअल तरीके से एक गुस्सा भी ज़ाहिर था जिस कॉलोनाइज़्ड पीटी मानसिकता के बारे में हम शायद ही कभी सोच पाते हैं..
नीचे मित्र की चिट्रूठी चिपका रहा हूं:
नीचे मित्र की चिट्रूठी चिपका रहा हूं:
saw drifting clouds on a channel called world movies the other day. achhi channel hai.. something interesting keeps coming every now and then
read this about kaurismaki... .bande mein dam hai...
In terms of awards, Kaurismäki's most successful movie to date has been The Man Without a Past. It won the Grand Prix and the Prize of the Ecumenical Jury at the Cannes Film Festival in 2002 and was nominated for an Academy Award in the Best Foreign Language Film category in 2003. However, Kaurismäki refused to attend the gala, noting that he didn't particularly feel like partying in a nation that is currently in a state of war. Kaurismäki's next film Lights in the Dusk was also chosen to be Finland's nominee in the category for best foreign film. Kaurismäki again decided to boycott the Awards and refused the nomination as a protest against US President George W. Bush's foreign policy [1].
In 2003, in one of his most famous protests, Kaurismäki boycotted the 40th New York Film Festival backing his Iranian fellow director, Abbas Kiarostami who was not given a US visa in time for the festival.
compare that with your favorite directors like amir khan who go running off to hollywood for the oscars. kya pramod? kuchh karo yaar!
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10/13/2008
तीन फ़िल्में..
ज़्यादा नहीं कहूंगा. बस यही कि अच्छी फ़िल्में देखना एक भरोसा देती हैं कि बदलते समय के भभ्भड़ में अभी भी सिनेमा की संभावनाओं का अंत नहीं हो गया है. यह बात तब और दिलचस्प लगती है जब यह भेद किसी फ़िल्मकार की पहली ही फ़िल्म में दिखे. इज़रायली 'जेलीफिश' और मैक्सिकन 'वॉयलिन' दोनों ही शिरा गेफेन, एतगर केरेट की मियां-बीवी टीम व फेर्नांदो वारगास की पहली फ़िल्में हैं. तुनिसिया में जन्मे फ्रांस के अब्देललतीफ़ केचिके की 'कुशकुश' पहली नहीं, तीसरी है और अपने लय और तनाव में रह-रहकर जॉन कैसावेट्स की याद दिलाती है.
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9/27/2008
दु:ख की छंटती बदलियां..
पीटूपी की मेहरबानी कि रहते-रहते फ़िल्मी नगीने हाथ लगते रहते हैं, और यह बात, शिद्दत से, भूलती नहीं कि हिंदी फ़िल्में क्यों और कैसे इतनी अझेल हैं. आज सुबह की अच्छी शुरुआत फ़िनिश निर्देशक आकि कॉउरिसमाकी की ‘ला विये दि बोहेम’ (1992) और ‘ड्रिफ्टिंग क्लाउड्स’ (1996) के रतन से हुई है. कॉउरिसमाकी की ज़्यादातर फ़िल्मों की तरह, यहां भी, कहानी के किरदार बहुत सहज-स्वाभाविक तरीके से, दु:ख के हदों को छूते हुए कहीं बहुत उसके पार निकल जाते हैं, और हमेशा की तरह, मज़ा यह कि सिर गिराकर रोते-गिड़गिड़ाते नहीं, उलटे, बड़ी मासूमियत से, अच्छे वक़्त की वापसी का अपने दु:स्साहसी तरीकों से इंतज़ार करते हैं. उनके दुस्साहस की हद होती है कि कभी-कभी सचमुच दु:ख ही गिड़गिड़ाता उनके रास्ते से हट जाता है..
लड़ियाहट में कॉउरिसमाकी और उनकी फ़िल्मों पर फिर कभी लिखूंगा, फ़िलहाल ‘ड्रिफ्टिंग क्लाउड्स’ के एंड क्रेडिट का गाना ठेल रहा हूं.
फ़िनिश गाने का एक बेसिक अंग्रेजी तर्ज़ुमा यह रहा:
लड़ियाहट में कॉउरिसमाकी और उनकी फ़िल्मों पर फिर कभी लिखूंगा, फ़िलहाल ‘ड्रिफ्टिंग क्लाउड्स’ के एंड क्रेडिट का गाना ठेल रहा हूं.
फ़िनिश गाने का एक बेसिक अंग्रेजी तर्ज़ुमा यह रहा:
I didn't know what I'd foundकॉउरिसमाकी की फ़िल्मों पर ज़रा एक डिटेली नज़र मारना चाहते हैं तो उसका लिंक यह रहा.
when I asked you for a dance.
They played a song with a beat,
you said: come closer.
Everything hid away
when the moon got lost in the clouds -
and the park got dark
and there's always a reason why.
The band takes a break
and I ask to walk you home.
You just laugh in silence,
others turn to watch.
The night's not over,
the record plays forever-
all I can do is wait.
But the clouds are drifting far away,
you try to reach them in vain -
the clouds are drifting far away,
and so am I...
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9/26/2008
तीन बंदर
आमतौर पर होता यह है कि काम लायक किसी निर्देशक की पहली फ़िल्म में स्पार्क होता है, बाद में, धीरे-धीरे फिर निर्देशक मियां फ़िल्म बनाने की नौकरी बजाने लगते हैं. तुर्की के नूरी चेलान की तीसरी व अपने लिए पहली फ़िल्म ‘उज़ाक’ मैंने कुछ वर्ष हुए देखी थी, उसके बाद ‘मौसम’ और कल, एनडीटीवी-लुमियेर व पीवीआर की मेहरबानी से, ‘तीन बंदर’ देखी, देखकर लगा चेलान हर नयी फ़िल्म के साथ अपने माध्यम के कलात्मक नियंत्रण की नयी ऊंचाइयां छू रहे हैं. टाईट शॉट्स में असहज चेहरों पर कैमरा होल्ड किये आत्मा के पतन को देखने का, यूं लगता है, चेलान ने एक नया स्टाईल इवॉल्व कर लिया है. चेलान के बारे में फिर कहूंगा, फ़िलहाल इतना ही कि आप पीवीआर वाले सिनेमा के किसी महानगर में बसते हैं तो ज़रा सा उसका फ़ायदा उठाइये और इसके पहले कि दूसरे तमाशों में ‘तीन बंदर’ सिनेमाघरों से उठ जाये, जाकर चोट खाये चार क़िरदारों के आत्मा के पतन की यह गहरी, गूढ़ सिनेमाई कविता देख आईये.
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9/23/2008
किसे ज़रूरत है फ़िल्म समीक्षकों की?
किसी फ़िल्म की किस्मत का फ़ैसला उसकी समीक्षा करनेवालों की लिखायी से होना धीमे- धीमे क्रमश: हुआ है. ब्रितानी फ़िल्म पत्रिका साइट एंड साऊंड के ताज़ा अंक में निक जेम्स इस पर कुछ विस्तार से बता रहे हैं..
“We live in a culture that is either afraid or disdainful of unvarnished truth and of sceptical analysis. The culture prefers, it seems, the sponsored slogan to judicious assessment. Given that the newspapers are so in thrall to marketing, you might think that they would feel responsible for their own decline. But plenty of veteran hacks claim it was always like this…”
पूरा लेख यहां पढ़ें.
“We live in a culture that is either afraid or disdainful of unvarnished truth and of sceptical analysis. The culture prefers, it seems, the sponsored slogan to judicious assessment. Given that the newspapers are so in thrall to marketing, you might think that they would feel responsible for their own decline. But plenty of veteran hacks claim it was always like this…”
पूरा लेख यहां पढ़ें.
8/02/2008
द एसेंट ऑफ़ मैन
ओहो, बैठे-बिठाये कभी हाथ क्या लंगी लग जाती है, और ठीक से भी लग जाती है! आत्मा के परिहार, मुझसे पतित के उद्धार को, देखिये, हाथ एक डॉक्यूमेंट्री लग गयी है, और जबकि मैंने शनिचर का उपवास भी नहीं किया! सोमवार वाला ही शनिचर को कर लिया हो ऐसा भी नहीं. प्रभु भी क्या-क्या लीला करते रहते हैं.. मुझसे अज्ञानी को, बीस मर्तबा हरवाकर, फिर-फिर विज्ञानी बयारों की दिशा में उछालते रहते हैं, ब्रॉनोव्स्की साहब की दया से मानवता का ज़रा सा ककहरा समझ गया तो सबसे पहले आप अपनी खैर समझिये! होगा यही कि हर तीसरे पोस्ट में मैं विज्ञान बापू की तरह सामने आ जाया करूंगा, और आपका अज्ञान-निर्विज्ञान जो है घबराकर एकदम से पीछे चला जाया करेगा!
ख़ैर, द एसेंट ऑफ़ मैन की बाबत तारीफ़ एक मित्र से सुनता काफी पहले से रहा था, अब डॉक्यूमेंट्री पाने के बाद होगा यह कि मित्र को मुंह खोलने का मौका देने की जगह सीधे जनाब जेकॅब ब्रॉनोव्स्की को सुन सकूंगा. सुनने के साथ-साथ देख भी सकूंगा! और खुशी की बात है कि काफी देर तक देखता रह सकूंगा. पचास-पचास मिनट के तेरह एपिसोड्स हैं तो मतलब सीधे ग्यारह घंटों का गुरुज्ञान है (और आशाराम बापू वाले स्तर का नहीं ही होगा). ओहोहो, कैसी तो वित्तचित्रीय भक्ति उमड़ी पड़ रही है! अच्छा है आप एकता कपूरवाला महाभारत देखिये, मैं मानव महालीला देखूं!
ख़ैर, द एसेंट ऑफ़ मैन की बाबत तारीफ़ एक मित्र से सुनता काफी पहले से रहा था, अब डॉक्यूमेंट्री पाने के बाद होगा यह कि मित्र को मुंह खोलने का मौका देने की जगह सीधे जनाब जेकॅब ब्रॉनोव्स्की को सुन सकूंगा. सुनने के साथ-साथ देख भी सकूंगा! और खुशी की बात है कि काफी देर तक देखता रह सकूंगा. पचास-पचास मिनट के तेरह एपिसोड्स हैं तो मतलब सीधे ग्यारह घंटों का गुरुज्ञान है (और आशाराम बापू वाले स्तर का नहीं ही होगा). ओहोहो, कैसी तो वित्तचित्रीय भक्ति उमड़ी पड़ रही है! अच्छा है आप एकता कपूरवाला महाभारत देखिये, मैं मानव महालीला देखूं!
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7/08/2008
टीवी पर आज शाम सवा़ आठ बजे..
हड़बड़ की यह छोटी, सूचनात्मक पोस्ट उन मित्रों के लिए है जो घर पर टीवी और केबल के सुख से सुखी हैं (हैं?), और जिनके पास आज शाम थोड़ी मोहलत है. दरअसल 1966 में बनी- 'अल्जीरिया की लड़ाई' फ्रांसीसी शासन के खिलाफ़ अल्जीरिया के आत्मनिर्णय के अधिकार की तकलीफ़देह लड़ाई के गिर्द बुनी जिल्लो पोंतेकोर्वो की यह फ़िल्म किसी भी औपनिवेशिक शासन मशीनरी के काम करने के निर्मम तरीकों व साधनहीन लोगों के दुस्साहसी लड़ाइयों का एक अच्छा ताना-बाना बुनती है. उन गिनी-चुनी फ़िल्मों में है जो फिक्शन में डॉक्यूमेंटरी के तत्वों का सफलतापूर्वक इस्तेमाल कर सकी है, और इतने वर्षों बाद अभी भी 'डेटेड' नहीं हुई है.
मौका लगे तो आज शाम सवा आठ बजे यूटीवी वर्ल्डमूवीज़ पर ज़रूर देखें. फ़िल्म संबंधी एक अन्य लिंक.
मौका लगे तो आज शाम सवा आठ बजे यूटीवी वर्ल्डमूवीज़ पर ज़रूर देखें. फ़िल्म संबंधी एक अन्य लिंक.
7/04/2008
सोनार केल्ला.. और थोड़ा नया जापान और पुरानी इटली
पहले की छुटी रह गयी कुछ ख़ास फ़िल्मों में एक नाम जो था,सत्यजीत राय की ‘सोने का किला’ देखी. 1974 में बच्चों के लिए खुद की लिखी नोवेल्ला पर बनायी फ़िल्म की बेसिक कहानी यह है: मुकुल नामके एक बच्चे का अपने किसी पिछले जन्म को याद कर-करके उसके सुनहले स्केचेज़ उकेरता है. संतप्त परिवार की मदद को एक बड़े पैरासाइकोलॉजिस्ट डॉक्टर बच्चे को अपने संग लेकर उस जगह की खोज में राजस्थान निकलते हैं.. कि बच्चे का उसके अतीत से साक्षात करवा सके. डॉक्टर के पीछे-पीछे दो पुराने ठग भी राजस्थान की ओर निकलते हैं. कि बच्चे को डॉक्टर से अगवा करके बच्चे के स्मरण से चिन्हित ‘सोने’ के किले और वहां गड़े धन तक पहुंच सकें. मगर बच्चे और धन के पीछे निकलनेवाले ठग अकेले नहीं हैं, उनकी सूराग में अपने किशोर असिस्टेंट तपेश के साथ डिटेक्टिव फेलु दा भी राजस्थान की ओर निकलते हैं..
पूर्वजन्म की स्मृतियों के बवंडर, रेल और मोटरगाड़ियों के सफर, और रहस्य-रोमांच के ताने-बानों के बीच राजस्थान जैसे विज़ुअल डेस्टिनेशन पर क्लाइमेटिक बिल्ड-अप. पश्चिम बंगाल सरकार के पैसों से बनी फ़िल्म जब रिलीज़ हुई थी तो लोगों ने ठीक-ठाक मात्रा में पसंद किया था, लेकिन पैंतीस वर्षों की दूरी पर अब फ़िल्म देखते हुए थोड़ा ‘डेटेड’ लग रही थी. स्क्रिप्ट में अगर कोई तनाव था भी तो सौमेंदु राय के कैमरे में कतई नहीं था. फ़िल्म के खत्म होने के बाद बच्चे के स्मरण का निदान हो जाता है, लेकिन मुझ दर्शक के स्मरण में क्या गहरी अनुभूति बनती-बची रहेगी, इसका मुझे संशय है.
इसी के आगे-पीछे 1962 में बनी एरमान्नो ओल्मी की ‘ई फिदन्ज़ाती’ (मंगेतर का बहुवचन क्या कहेंगे?) देखी. धीमे-धीमे एक गंवई दुनिया के औद्योगिकीकरण की पृष्ठभूमि में रोमान व विरह के तीखे इमेज़ेस. दूसरी एक अन्य फ़िल्म थी जापानी (2007 में बनी, निर्देशक: सातोशी मिकी)‘टोकियो में भटकन’. आपकी टोकियो में दिलचस्पी हो तो एक मर्तबा आप इस भटकन में भटक सकते हैं, वर्ना मन की गुत्थियों की भटकन के लिहाज़ से फ़िल्म में विशेष गहराई नहीं. यू-ट्यूब के पर चढ़े इस ट्रेलर से एक अंदाज़ ले लीजिये.
पूर्वजन्म की स्मृतियों के बवंडर, रेल और मोटरगाड़ियों के सफर, और रहस्य-रोमांच के ताने-बानों के बीच राजस्थान जैसे विज़ुअल डेस्टिनेशन पर क्लाइमेटिक बिल्ड-अप. पश्चिम बंगाल सरकार के पैसों से बनी फ़िल्म जब रिलीज़ हुई थी तो लोगों ने ठीक-ठाक मात्रा में पसंद किया था, लेकिन पैंतीस वर्षों की दूरी पर अब फ़िल्म देखते हुए थोड़ा ‘डेटेड’ लग रही थी. स्क्रिप्ट में अगर कोई तनाव था भी तो सौमेंदु राय के कैमरे में कतई नहीं था. फ़िल्म के खत्म होने के बाद बच्चे के स्मरण का निदान हो जाता है, लेकिन मुझ दर्शक के स्मरण में क्या गहरी अनुभूति बनती-बची रहेगी, इसका मुझे संशय है.
इसी के आगे-पीछे 1962 में बनी एरमान्नो ओल्मी की ‘ई फिदन्ज़ाती’ (मंगेतर का बहुवचन क्या कहेंगे?) देखी. धीमे-धीमे एक गंवई दुनिया के औद्योगिकीकरण की पृष्ठभूमि में रोमान व विरह के तीखे इमेज़ेस. दूसरी एक अन्य फ़िल्म थी जापानी (2007 में बनी, निर्देशक: सातोशी मिकी)‘टोकियो में भटकन’. आपकी टोकियो में दिलचस्पी हो तो एक मर्तबा आप इस भटकन में भटक सकते हैं, वर्ना मन की गुत्थियों की भटकन के लिहाज़ से फ़िल्म में विशेष गहराई नहीं. यू-ट्यूब के पर चढ़े इस ट्रेलर से एक अंदाज़ ले लीजिये.
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6/18/2008
एबीसी अफ्रीका
अब्बास क्यारोस्तामी की डॉक्यूमेंट्री ‘एबीसी अफ्रीका’ नयी फ़िल्म नहीं है (2001 में बनी थी, उसके बाद से वह सात और फ़िल्में सिरज चुके हैं, कोई फ़िल्मकार इससे ज़्यादा प्रॉलिफिक और क्या होगा?).. मगर एबीसी अफ्रीका की खासियत इसका डिजिटल फॉरमेट (मिनी डीवी) में शूट किया होना है, तो इस लिहाज़ से क्यारोस्तामी के स्तर के निर्देशक की हम यहां दूसरे किस्म की सक्रियता को देखने का सुख पाते हैं..
यूगांडा के एआईडीएस पीड़ित परिजनों के अनाथ बच्चों की मदद करनेवाली अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी के सहयोग से बनी फ़िल्म अभागे बच्चों की इसी दुनिया में घूमती है, लिटरली; कुछ ऐसा, इतना ही सरल फ़िल्म का ढांचा है: बीच-बीच में पीछे छूटती सड़कों का भव्य, अनूठा लैंडस्केप है, और फिर नाचते, ठुमकते, कैमरे के आगे आ-आकर मुंह बिराते बच्चों की हुड़दंग है.. ओर-छोर तक फैली गरीबी, असहाय सामाजिक लोक व उसमें असहाय कभी भी आते रहनेवाली मृत्यु का अनाटकीय डॉक्यमेंटेशन है.
एबीसी अफ्रीका व उसके प्रति क्यारोस्तामी के नज़रिये के बारे में दिलचस्पी रखनेवाले तत्संबंधी सामग्री यहां और यहां पढ़ सकते हैं.
यूगांडा के एआईडीएस पीड़ित परिजनों के अनाथ बच्चों की मदद करनेवाली अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी के सहयोग से बनी फ़िल्म अभागे बच्चों की इसी दुनिया में घूमती है, लिटरली; कुछ ऐसा, इतना ही सरल फ़िल्म का ढांचा है: बीच-बीच में पीछे छूटती सड़कों का भव्य, अनूठा लैंडस्केप है, और फिर नाचते, ठुमकते, कैमरे के आगे आ-आकर मुंह बिराते बच्चों की हुड़दंग है.. ओर-छोर तक फैली गरीबी, असहाय सामाजिक लोक व उसमें असहाय कभी भी आते रहनेवाली मृत्यु का अनाटकीय डॉक्यमेंटेशन है.
एबीसी अफ्रीका व उसके प्रति क्यारोस्तामी के नज़रिये के बारे में दिलचस्पी रखनेवाले तत्संबंधी सामग्री यहां और यहां पढ़ सकते हैं.
6/16/2008
जाने वो कैसे लोग थे..
कंधे पर महंगा शॉल और जाने कौन मनीष-मलंग-कलंग मल्होत्रा स्टाईल के फूल-तारों वाली बुनकारी का कुरता धारे रितुपोर्नो घोष और करीयर में उजियारे हो रहे संजय-ओहो कला-भयी-मूर्तिमान-भंसाली के डिज़ाइनर क्लोथ्स के बनियाई आज के समय में पैरों में स्लीपर डाले वेनिस में मंच पर लियोने दोरो लेने चढ़े तारकॉव्स्की, या सनकियाये फेल्लिनी या बौद्धियाये घटक की कल्पना कितना असंभव लगती है. आज यह लोग होते तो फ़िल्म बना रहे होते, या एनडीटीवी पर ‘गुड लाइफ’ व ‘टाइम्स’ के टीप्स दे रहे होते? ऐसी सनक व सृजनयात्राओं की समाज व समय में जगह बची है? नहीं बची है तो वह दीवाना करनेवाला सिनेमा बचा रहेगा? क्योंकि फ़िल्म जो हो, नाइके के जूतों और एक चिकन हॉट डॉग की तरह ज़रा सा तृप्त कर ले, ऐसा मनोरंजन मात्र तो है नहीं.. उसे पगलई की खूराक चाहिए.. इन्हीं पगलहटों के बीच एक फेल्लिनीलोक का बुनना संभव होता है.. सवाल है समाज व समय को ऐसे फेल्लिनीलोक की अब कोई ज़रूरत बची है?.. लायंस ऑव पंजाब प्रेज़ेंट्स के लिखवैया अनुबव पाल की इस दिलफ़रेब कसकों पर एक नज़र फेर लीजिये..
2/17/2008
द बैंड्स विज़िट
चिरकुट भावुक नौटंकियों से अलग सिनेमा में अब भी उम्मीद है? बहुत ऐसे मौके बनते हैं? और बनते हैं तो हमें देखने को कहां मिलते हैं? मगर कल देखने को मिला और देखते हुए हम धन्य हुए. सतासी मिनट की इज़राइली फ़िल्म ‘द बैंड्स विज़िट’ बड़े सीधे लोगों की बड़ी सीधी-सी कहानी है. फ़िल्म का डिज़ाईन भी सरल व कॉमिक है, मगर इसी सरलता में बड़ी ऊंची व गहरी बातें घूमती रहती हैं. ओह, मन तृप्त हुआ..
मिस्त्र से एक नये अरब संस्कृति केंद्र के उद्घाटन के सिलसिले में इज़राइल पहुंचा अलेक्सांद्रिया सेरेमोनियल पुलिस बैंड के पुरनिया, सिंपलटन सिपाही अपनी बस से उतरने के बाद उत्साह में इंतज़ार कर रहे हैं कि उनकी अगवानी के लिए फूल लिये कोई दस्ता आयेगा. फूल तो क्या कोई बबूल लिये भी नहीं पहुंचता. ग्रुप के एक नौजवान सदस्य के भाषाई कन्फ़्यूज़न में दस्ता एक ऐसे सूनसान उजाड़ पहुंच जाता है जहां अरब हैं न संस्कृति. जगह ऐसी है कि रात गुजारने के लिए एक होटल तक नहीं. उस बियाबान में कुछ सीधे-टेढ़े स्थानीय चरित्र हैं, मजबूरी में जिनकी संगत में यह बेसुरा फूंक-फूंक के समय गुजारना है. और इस थोड़े से एक दिन के चंद घंटों के समय में ही उखड़े, बिखरे, बेमतलब हो गए लोगों की संगत में मानवीयता की हम एक प्यारी सी झांकी पा लेते हैं. यू ट्यूब पर फिल्म के ट्रेलर की एक झांकी आप भी पाइए. एरान कॉलिनिन की पहली फ़िल्म है. खुदा करे आगे भी वह ऐसी ही सरल व सन्न करते रहनेवाली फ़िल्में बनायें.
एरान कॉलिनिन से एक और इंटरव्यू..
मिस्त्र से एक नये अरब संस्कृति केंद्र के उद्घाटन के सिलसिले में इज़राइल पहुंचा अलेक्सांद्रिया सेरेमोनियल पुलिस बैंड के पुरनिया, सिंपलटन सिपाही अपनी बस से उतरने के बाद उत्साह में इंतज़ार कर रहे हैं कि उनकी अगवानी के लिए फूल लिये कोई दस्ता आयेगा. फूल तो क्या कोई बबूल लिये भी नहीं पहुंचता. ग्रुप के एक नौजवान सदस्य के भाषाई कन्फ़्यूज़न में दस्ता एक ऐसे सूनसान उजाड़ पहुंच जाता है जहां अरब हैं न संस्कृति. जगह ऐसी है कि रात गुजारने के लिए एक होटल तक नहीं. उस बियाबान में कुछ सीधे-टेढ़े स्थानीय चरित्र हैं, मजबूरी में जिनकी संगत में यह बेसुरा फूंक-फूंक के समय गुजारना है. और इस थोड़े से एक दिन के चंद घंटों के समय में ही उखड़े, बिखरे, बेमतलब हो गए लोगों की संगत में मानवीयता की हम एक प्यारी सी झांकी पा लेते हैं. यू ट्यूब पर फिल्म के ट्रेलर की एक झांकी आप भी पाइए. एरान कॉलिनिन की पहली फ़िल्म है. खुदा करे आगे भी वह ऐसी ही सरल व सन्न करते रहनेवाली फ़िल्में बनायें.
एरान कॉलिनिन से एक और इंटरव्यू..
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2/15/2008
मिथ्या
डाइरेक्टर: रजत कपूर
लेखन: रजत कपूर, सौरभ शुक्ला
कैमरा: राफे महमूद
साल: 2008
रेटिंग: **
मिथ्या के साथ एक बड़ा सच यह है कि फ़िल्म बड़ी ‘मीठी’ है. बेसिक कहानी व उसकी एब्सर्ड त्रासदी की बुनावट ऐसी है (एक एक्टर क्या करे जब उसका अभिनय ही उसकी पहचान खा जाये?) कि ढेरों कड़वाहट के मौके बनते हैं, लेकिन फ़िल्म उन कड़वाहटों में धंसती नहीं. बाजू-बाजू लुत्फ़ उठाती रहती है. डिटैचमेंट बना रहता है. तो मीठे के सुर का यह बेसिक कथात्मक बेसुरपना ही फ़िल्म का डिज़ाईन बनकर मिथ्या का बंटाधार कर देती है. बात समझ में नहीं आई? इससे ज़्यादा मैं समझा भी नहीं सकता. क्योंकि मिथ्या की मुश्किलों की इतनी ही समझ मेरी भी बन पा रही थी. लचर और ढीली फ़िल्म कहकर फ़िल्म से हाथ झाड़ लेने के आसान रास्ते पर मैं जाना नहीं चाहता. क्योंकि जिन्होंने रजत की दूसरी फ़िल्में देखी हों उनके रेफरेंस में फिर याद कर लेना चाहता हूं कि मिथ्या रजत की सबसे बेहतर फ़िल्म है- अपने क्राफ्ट पर कंट्रोल के लिहाज़ से. कहानी व उसे कहने के सुर का कंट्रोल नहीं है मगर शायद वह रजत की फिल्ममेकिंग है नहीं. आनेवाले समयों में भी दिखेगी, मुझे नहीं लगता.
सस्ते में स्मार्ट फ़िल्ममेकिंग का जो रजत ने एक खास स्टाईल इवॉल्व किया है, वह काबिले-दाद है. मिथ्या में वह काफी रिफांइड लेवल की है. छोटे-छोटे सिनेमेटिक इंडलजेंसेस हैं जो कभी उसे फ्रेंच कॉमिक फ़िल्मों के पज़लिंग लोक में उतार देते हैं, तो कभी फ़िल्म में हल्के से कोई ‘बुनुएलियन’ टच चला आता है. नेहा धूपिया जैसी सपाट एक्टर फ्रेंच मिस्टीक अक्वायर किये रहती है, यह अपने में अचीवमेंट नहीं लेकिन अम्यूज़िंग ज़रूर है. रणवीर को एक्टिंग करते देखना और देखते रहने से पूरी फ़िल्म में आप कभी थकते नहीं. इतने थोड़े समय में टीवी पर डीजेगिरी करते हुए रणवीर ने एक्टिंग में जो हाई जंप्स लिये हैं वह हिंदी फिल्मों के संदर्भ में सचमुच बड़ा अचीवमेंट है. छोटे रोल में विनय पाठक, ब्रिजेंद्र काला समेत बाकी एक्टरों को देखना भी कंटिन्युसली एंटरटेन किये रहता है. कहानी के लोचे हैं, अग्रीड, लेकिन वह रजत के साथ हमेशा रहेंगे, अदरवाइस मिथ्या वैसी मिथ्या नहीं है जैसी बॉक्स ऑफिस की खिड़की पर नज़र आ रही है.
सिर्फ़ कहानी देखने के लिए आप फ़िल्म देखनेवाले दर्शक न हों, और रजत की फ़िल्ममेकिंग में आपकी कुछ दिलचस्पी हो तो एक मर्तबा मिथ्या देख आइए. रेकमेंडेड.
लेखन: रजत कपूर, सौरभ शुक्ला
कैमरा: राफे महमूद
साल: 2008
रेटिंग: **
मिथ्या के साथ एक बड़ा सच यह है कि फ़िल्म बड़ी ‘मीठी’ है. बेसिक कहानी व उसकी एब्सर्ड त्रासदी की बुनावट ऐसी है (एक एक्टर क्या करे जब उसका अभिनय ही उसकी पहचान खा जाये?) कि ढेरों कड़वाहट के मौके बनते हैं, लेकिन फ़िल्म उन कड़वाहटों में धंसती नहीं. बाजू-बाजू लुत्फ़ उठाती रहती है. डिटैचमेंट बना रहता है. तो मीठे के सुर का यह बेसिक कथात्मक बेसुरपना ही फ़िल्म का डिज़ाईन बनकर मिथ्या का बंटाधार कर देती है. बात समझ में नहीं आई? इससे ज़्यादा मैं समझा भी नहीं सकता. क्योंकि मिथ्या की मुश्किलों की इतनी ही समझ मेरी भी बन पा रही थी. लचर और ढीली फ़िल्म कहकर फ़िल्म से हाथ झाड़ लेने के आसान रास्ते पर मैं जाना नहीं चाहता. क्योंकि जिन्होंने रजत की दूसरी फ़िल्में देखी हों उनके रेफरेंस में फिर याद कर लेना चाहता हूं कि मिथ्या रजत की सबसे बेहतर फ़िल्म है- अपने क्राफ्ट पर कंट्रोल के लिहाज़ से. कहानी व उसे कहने के सुर का कंट्रोल नहीं है मगर शायद वह रजत की फिल्ममेकिंग है नहीं. आनेवाले समयों में भी दिखेगी, मुझे नहीं लगता.
सस्ते में स्मार्ट फ़िल्ममेकिंग का जो रजत ने एक खास स्टाईल इवॉल्व किया है, वह काबिले-दाद है. मिथ्या में वह काफी रिफांइड लेवल की है. छोटे-छोटे सिनेमेटिक इंडलजेंसेस हैं जो कभी उसे फ्रेंच कॉमिक फ़िल्मों के पज़लिंग लोक में उतार देते हैं, तो कभी फ़िल्म में हल्के से कोई ‘बुनुएलियन’ टच चला आता है. नेहा धूपिया जैसी सपाट एक्टर फ्रेंच मिस्टीक अक्वायर किये रहती है, यह अपने में अचीवमेंट नहीं लेकिन अम्यूज़िंग ज़रूर है. रणवीर को एक्टिंग करते देखना और देखते रहने से पूरी फ़िल्म में आप कभी थकते नहीं. इतने थोड़े समय में टीवी पर डीजेगिरी करते हुए रणवीर ने एक्टिंग में जो हाई जंप्स लिये हैं वह हिंदी फिल्मों के संदर्भ में सचमुच बड़ा अचीवमेंट है. छोटे रोल में विनय पाठक, ब्रिजेंद्र काला समेत बाकी एक्टरों को देखना भी कंटिन्युसली एंटरटेन किये रहता है. कहानी के लोचे हैं, अग्रीड, लेकिन वह रजत के साथ हमेशा रहेंगे, अदरवाइस मिथ्या वैसी मिथ्या नहीं है जैसी बॉक्स ऑफिस की खिड़की पर नज़र आ रही है.
सिर्फ़ कहानी देखने के लिए आप फ़िल्म देखनेवाले दर्शक न हों, और रजत की फ़िल्ममेकिंग में आपकी कुछ दिलचस्पी हो तो एक मर्तबा मिथ्या देख आइए. रेकमेंडेड.
1/31/2008
संडे
वर्ष: 2008
भाषा: हिंदी
लेखक: रॉबिन भट्ट और जाने कौन-कौन
डायरेक्टर: रोहित शेट्टी
रेटिंग: ?
चिरकुटई की कोई सीमा होती है? बहुत बार हिंदी फ़िल्म देखते हुए लगता है नहीं होती. संडे देखते हुए कुछ ऐसी ही विरल अनुभूति हुई. सिनेमा हॉल में मालूम नहीं कितने अभागे (या सुभागे?) थे, छूटे हुए पटाखों की तरह हीं-खीं हंस रहे थे. मुंह ही से हंस रहे थे. हमें समझ नहीं आ रहा था कैसे और कहां से हंसें.. कस्बाई शादियों के बारात में दलिद्दर ऑर्केस्ट्रा के लौंडे हाथ में माइक थामे जो रोमांचकारी मनोरंजन मुहैय्या करवाते हैं, कुछ वैसा ही आह्लादकारी मनोरंजन रोहित शेट्टी की यह फ़िल्म ठिलठिला रही थी. डायरेक्टर के आदर्श काफी कॉस्मिक ऊंचाइयों को छूते कभी अब्बास-मुस्तान तो कभी अनीस बज़्मी जैसी उन्नत प्रतिभाओं के पीछे दौड़ती कला, कौशल और कॉमर्स की नयी मंज़िलें तय करती रहती है. डायरेक्टर और संडे लिखनेवालों की कल्पनाशीलता की ही तरह अजय देवगन की एक्टिंग भी लगातार दंग करती रहती है. चेहरे पर ऐसी-ऐसी सूक्ष्म अनुभूतियां आती हैं कि आदमी सोचने पर मजबूर हो जाये कि भई, भावप्रवण अभिनय का यह चरम तो सुनील शेट्टी के चेहरे पर कहीं ज्यादा इंटेंसिटी से एक्सप्रेस होता है! फ़िल्म के लगभग सभी ही डिपार्टमेंट ऐसी ही सूक्ष्म और उन्नत कलात्मक भागदौड़ मचाये रहते हैं.. आपका दिमाग उन्नत हो तो आप सीट पर बैठे-बैठे दौड़ते हुए वैसी ही उन्नतावस्था की हींहीं-ठींठीं में अपने दो घंटे सार्थक कर सकते हैं.. हमारी तरह फंसी दिमाग के मालिक हों तो फ़िल्म देखने से बचिये क्योंकि संडे आपकी नाक में दम कर सकता है.. नाक ही नहीं शरीर के अन्य हिस्सों की फंक्शनिंग भी दुलम कर सकता है..
भाषा: हिंदी
लेखक: रॉबिन भट्ट और जाने कौन-कौन
डायरेक्टर: रोहित शेट्टी
रेटिंग: ?
चिरकुटई की कोई सीमा होती है? बहुत बार हिंदी फ़िल्म देखते हुए लगता है नहीं होती. संडे देखते हुए कुछ ऐसी ही विरल अनुभूति हुई. सिनेमा हॉल में मालूम नहीं कितने अभागे (या सुभागे?) थे, छूटे हुए पटाखों की तरह हीं-खीं हंस रहे थे. मुंह ही से हंस रहे थे. हमें समझ नहीं आ रहा था कैसे और कहां से हंसें.. कस्बाई शादियों के बारात में दलिद्दर ऑर्केस्ट्रा के लौंडे हाथ में माइक थामे जो रोमांचकारी मनोरंजन मुहैय्या करवाते हैं, कुछ वैसा ही आह्लादकारी मनोरंजन रोहित शेट्टी की यह फ़िल्म ठिलठिला रही थी. डायरेक्टर के आदर्श काफी कॉस्मिक ऊंचाइयों को छूते कभी अब्बास-मुस्तान तो कभी अनीस बज़्मी जैसी उन्नत प्रतिभाओं के पीछे दौड़ती कला, कौशल और कॉमर्स की नयी मंज़िलें तय करती रहती है. डायरेक्टर और संडे लिखनेवालों की कल्पनाशीलता की ही तरह अजय देवगन की एक्टिंग भी लगातार दंग करती रहती है. चेहरे पर ऐसी-ऐसी सूक्ष्म अनुभूतियां आती हैं कि आदमी सोचने पर मजबूर हो जाये कि भई, भावप्रवण अभिनय का यह चरम तो सुनील शेट्टी के चेहरे पर कहीं ज्यादा इंटेंसिटी से एक्सप्रेस होता है! फ़िल्म के लगभग सभी ही डिपार्टमेंट ऐसी ही सूक्ष्म और उन्नत कलात्मक भागदौड़ मचाये रहते हैं.. आपका दिमाग उन्नत हो तो आप सीट पर बैठे-बैठे दौड़ते हुए वैसी ही उन्नतावस्था की हींहीं-ठींठीं में अपने दो घंटे सार्थक कर सकते हैं.. हमारी तरह फंसी दिमाग के मालिक हों तो फ़िल्म देखने से बचिये क्योंकि संडे आपकी नाक में दम कर सकता है.. नाक ही नहीं शरीर के अन्य हिस्सों की फंक्शनिंग भी दुलम कर सकता है..
1/27/2008
रिज़र्वेशन रोड
साल: 2007
भाषा: अंग्रेजी
लेखक: जॉन बर्न्हम श्वॉटर्ज़ व टेरी जॉर्ज
निर्देशक: टेरी जॉर्ज
रेटिंग: **
हमारी आत्मा में झांके फ़िल्म हमारे यहां इतना विकसित माध्यम नहीं. गाहे-बगाहे आंख में झांक जाये उतने से ही हम आत्मा जुड़ा लेते है. नहीं तो औसतन तो यही होता है कि ज़्यादा वक़्त किसी ‘संडे’, किसी ‘वेलकम’ की संगत में हेंहें-ठेंठें करते हैं और नहीं करनेवाले को बिना बोले नज़रों से जवाब देते हैं कि इसमें अजीब क्या है.. टेरी जॉर्ज़ की ‘रिज़र्वेशन रोड’ की यही खूबी है कि वह आत्मा में झांकती नहीं, फ़िल्माअवधि के अधिकांश में वहीं बनी रहती है. कभी इतनी-इतनी देर तक रहती है कि फ़िल्म के क़िरदारों के साथ हम भी वही तक़लीफ़ें और संत्रास जीने लगते हैं जिसने एक पारिवारिक दुर्घटना में उलझाकर एकदम से उनका धरातल बदल दिया है. बाज वक़्त लगता है त्रासदी में इन्वॉल्व्ड ये चरित्र हाड़-मांस की देह नहीं, मन:स्थितियों का विशुद्ध गैस और इमोशन हैं! थोड़ी नाटकीयता का रिस्क लेते हुए कहना चाहूंगा कि इन अर्थों में फ़िल्म के चरित्र जैसे लगातार एक दोस्तॉव्स्कीयन दुनिया में मूव करते रहते हैं. टेरी जॉर्ज़ की एक सबसे सराहनीय बात है कि कहानी की महानाटकीयता के बावजूद फ़िल्म कहीं भी नाटकीय लटकों में नहीं फंसती. फ़िल्म के शुरुआती दस मिनटों में अलबत्ता इस ख़तरे की आशंका होती है.. मगर उसके बाद की अवधि अच्छी, ईमानदार फ़िल्मों के भूखे दर्शक को खांटी सिनेमा से आश्वस्त करती है. अच्छे तो सब हैं लेकिन त्रासदी में सबसे ज्यादा उलझे चरित्रों को प्ले कर रहे जॉकिम फिनिक्स और मार्क रफ्फलो दोनों की एक्टिंग काफी इम्प्रेसिव है..
कंटेपररी समय में शहरी जीवन के मनोलोक के पारदर्शी सिनेमा में आपकी रुचि हो तो ‘रिज़र्वेशन रोड’ तक की एक कसरत आप भी कर आइए.
भाषा: अंग्रेजी
लेखक: जॉन बर्न्हम श्वॉटर्ज़ व टेरी जॉर्ज
निर्देशक: टेरी जॉर्ज
रेटिंग: **
हमारी आत्मा में झांके फ़िल्म हमारे यहां इतना विकसित माध्यम नहीं. गाहे-बगाहे आंख में झांक जाये उतने से ही हम आत्मा जुड़ा लेते है. नहीं तो औसतन तो यही होता है कि ज़्यादा वक़्त किसी ‘संडे’, किसी ‘वेलकम’ की संगत में हेंहें-ठेंठें करते हैं और नहीं करनेवाले को बिना बोले नज़रों से जवाब देते हैं कि इसमें अजीब क्या है.. टेरी जॉर्ज़ की ‘रिज़र्वेशन रोड’ की यही खूबी है कि वह आत्मा में झांकती नहीं, फ़िल्माअवधि के अधिकांश में वहीं बनी रहती है. कभी इतनी-इतनी देर तक रहती है कि फ़िल्म के क़िरदारों के साथ हम भी वही तक़लीफ़ें और संत्रास जीने लगते हैं जिसने एक पारिवारिक दुर्घटना में उलझाकर एकदम से उनका धरातल बदल दिया है. बाज वक़्त लगता है त्रासदी में इन्वॉल्व्ड ये चरित्र हाड़-मांस की देह नहीं, मन:स्थितियों का विशुद्ध गैस और इमोशन हैं! थोड़ी नाटकीयता का रिस्क लेते हुए कहना चाहूंगा कि इन अर्थों में फ़िल्म के चरित्र जैसे लगातार एक दोस्तॉव्स्कीयन दुनिया में मूव करते रहते हैं. टेरी जॉर्ज़ की एक सबसे सराहनीय बात है कि कहानी की महानाटकीयता के बावजूद फ़िल्म कहीं भी नाटकीय लटकों में नहीं फंसती. फ़िल्म के शुरुआती दस मिनटों में अलबत्ता इस ख़तरे की आशंका होती है.. मगर उसके बाद की अवधि अच्छी, ईमानदार फ़िल्मों के भूखे दर्शक को खांटी सिनेमा से आश्वस्त करती है. अच्छे तो सब हैं लेकिन त्रासदी में सबसे ज्यादा उलझे चरित्रों को प्ले कर रहे जॉकिम फिनिक्स और मार्क रफ्फलो दोनों की एक्टिंग काफी इम्प्रेसिव है..
कंटेपररी समय में शहरी जीवन के मनोलोक के पारदर्शी सिनेमा में आपकी रुचि हो तो ‘रिज़र्वेशन रोड’ तक की एक कसरत आप भी कर आइए.
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