पूर्वजन्म की स्मृतियों के बवंडर, रेल और मोटरगाड़ियों के सफर, और रहस्य-रोमांच के ताने-बानों के बीच राजस्थान जैसे विज़ुअल डेस्टिनेशन पर क्लाइमेटिक बिल्ड-अप. पश्चिम बंगाल सरकार के पैसों से बनी फ़िल्म जब रिलीज़ हुई थी तो लोगों ने ठीक-ठाक मात्रा में पसंद किया था, लेकिन पैंतीस वर्षों की दूरी पर अब फ़िल्म देखते हुए थोड़ा ‘डेटेड’ लग रही थी. स्क्रिप्ट में अगर कोई तनाव था भी तो सौमेंदु राय के कैमरे में कतई नहीं था. फ़िल्म के खत्म होने के बाद बच्चे के स्मरण का निदान हो जाता है, लेकिन मुझ दर्शक के स्मरण में क्या गहरी अनुभूति बनती-बची रहेगी, इसका मुझे संशय है.
इसी के आगे-पीछे 1962 में बनी एरमान्नो ओल्मी की ‘ई फिदन्ज़ाती’ (मंगेतर का बहुवचन क्या कहेंगे?) देखी. धीमे-धीमे एक गंवई दुनिया के औद्योगिकीकरण की पृष्ठभूमि में रोमान व विरह के तीखे इमेज़ेस. दूसरी एक अन्य फ़िल्म थी जापानी (2007 में बनी, निर्देशक: सातोशी मिकी)‘टोकियो में भटकन’. आपकी टोकियो में दिलचस्पी हो तो एक मर्तबा आप इस भटकन में भटक सकते हैं, वर्ना मन की गुत्थियों की भटकन के लिहाज़ से फ़िल्म में विशेष गहराई नहीं. यू-ट्यूब के पर चढ़े इस ट्रेलर से एक अंदाज़ ले लीजिये.
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