12/14/2011

प्‍यार ही प्‍यार, बेशुमार..

मन में प्‍यार की तरंगें पछाड़ मारती हों तो दिल बड़ी बेदर्दी से टूटता है की बात हमें बिना इम्तियाज़ अली की- ओह, कैसी तो तिलकुट दिलकारी- समझदारी, और संजय 'कली' भंसाली की म्‍यूज़िकल कशीदाकारी के, बड़ी ख़ामोशी से, और सिर नवाये की होशियारी में, बाबू कुल्‍ली भाट समझा गए हैं, फिर भी जो ये फटा दिल है कि अपने चिथड़ों को फड़फड़ाने से, प्‍यार की धूलसनी हवाओं में नहाने से, बाज नहीं ही आता, क्‍यों जा-जाकर सिर धंसाता रहता है? शायद बाबू सिल्वियो सोल्दिनी को चोटों में नहाये, सिनेमा का टिकट खरीदे को दरद-बहलाये रखने में सुख मिलता है? नहीं तो सोचिए अदरवाइस क्‍या वज़ह होगी कि 'ब्रेड और टयुलिप्‍स' की मुस्कियाई खुशगवारी से निकलते ही दर्शक 'दिन और बदलियां', 'और क्‍या चाहूं हूं?' की दुखकारी आंधियों से भला क्‍यों टकराने लगता है? जो हो, सोल्दिनी प्‍यार की बाबत कोई अनोखी जानकारी नहीं दे रहे हैं, बिना कुल्‍ली भाट का इतालवी अनुवाद पढ़े उसकी समझकारी में हमें मुस्‍तैद कर रहे हैं. यूं भी सत्‍तर के मुंह उठाते, आते-आते फासबिंडर ने त्रूफ़ो और गोदार को एक बाजू दरकिनार करके हमें समझा दिया ही था कि रोमर की फ़िल्‍मों के महीन रोमान के चक्‍कर में मत पड़ो, मुझसे समझ लो, कि प्‍यार में सुख नहीं है. दि एंड.

फिर भी भले लोग हैं, प्‍यार के तालाब में गोड़ उतारकर तैरने पहुंच ही जाते हैं, बाज क्‍यों नहीं आते?  माने सोचनेवाली बात है कि प्‍यार के ब्‍लूज़ की पिपिहरी सुदूर नीचे कहीं ब्राजील में नहीं बज रही, रायन गोस्लिंग जैसा उभरता सितारा बीच हॉलीवुड बजा रहा है. बेनिचो देल तोरो की मासूमियत में उलझकर उम्‍मीद का घर मत बनाइये, मार्क रफ्फलो के हास्‍यास्‍पद होने से सबक लीजिए, खुद को ऊपरी चमक और रंगीन झालरकारियों से बचाइए. मैं तो कहता हूं बच्‍चों की आड़ लेकर लोग भावनाओं का खेल करने लगते हैं, कोई सीधे परिवार को बे-आड़ करके सामने लाने का दुस्‍सह साहस क्‍यों नहीं करता? क्‍या परिवार में रहने की तकलीफ़ और उसके भोलेपने का बेमतलबपना समझने के लिए हमें डेनमार्क जाना होगा? हॉलीवुड हमें पारिवारिक प्रेम नहीं समझाता? नहीं, समझाता है देखिए, यहां भी समझा रहा है फिर यहां भी. मगर सबसे अच्‍छा, फिर, अपने बेल्जियम के दारदेन बंधु ही समझाते हैं. उनकी ताज़ा डर्टी पिक्‍चर देखिए, और प्‍यार से बाज आइए. सचमुच. 

12/06/2011

देव साहब और देवानंद

इस क़यास के अब क्‍या मायने कि ज़ीनत और ज़ाहिदा की नज़रों से खुद को देखने से अलग, देव साहब ने रोस्‍सेलिनी और दी सिका की फ़ि‍ल्‍में कभी देखी थी या नहीं. करीयर की शुरुआत के साथी गुरुदत्‍त के काम को ही कितना, किन नज़रों से देखते रहे थे, और ‘गाइड’ के सेट पर वहीदा से कभी कैज़ुअली पूछा था या नहीं कि “वहीदा, माई स्‍वीटहार्ट, मगर क्‍या ज़रुरत थी गुरु को ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्‍या है’ जैसे नेगेटिव लिरिक्‍स रफ़ी साब से गवाने की? 'लाख मना ले दुनिया, साथ न ये छूटेगा' नहीं गवा सकते थे? द वर्ल्‍ड नीड्स पॉज़ि‍टिव एनर्जी, यू सी?” हो सकता है न पूछा हो. हो सकता है ‘वहीदा, माई स्‍वीटहार्ट’ कहने के बाद उदयपुर के महाराजा की भलमनसी और लंदन की सुरमई सांझों की याद में जाम पीते रहे हों, गुरुदत्‍त का एक मर्तबे ज़ि‍क्र तक न किया हो. हो सकता है देव साहब ने ‘क़ागज़ के फूल’ देखी भी न हो.

कौन थे देव साहब? क्‍या राजू गाइड उन्‍हें जानता था? छोटा भाई विजय आनंद तो उन देव साहब को नहीं ही जानता था जो टैड दानियेलेव्‍स्‍की और पर्ल बक के साथ नारायण की किताब ‘गाइड’ की एक अमरीकी खिचड़ी तैयार करने के बाद उसके एक हिंदुस्‍तानी ऑमलेट की तैयारी में (मदद के नाम पर) गोल्‍डी को ‘उलझाना’ चाह रहे थे. बाद में ‘गाइड’ का हिंदी वर्ज़न बना तो टैड और बक के पीछे-पीछे शामिल बाजा, सैंडविच होने के बिना, और विजय आनंद की अपनी शर्तों पर बना, क्‍योंकि देव साहब के रास्‍तों पर सिर्फ़ देव साहब ही चल सकते थे, वह बंशी और किसी से न बज सकती. वह फ़ि‍ल्‍म तो कतई न बन सकती जो कोई विजय आनंद बनाना चाहता. सन् सत्‍तर में ‘प्रेम पुजारी’ से शुरु करके सन् ग्‍यारह के ‘चार्जशीट’ तक के चालीस वर्षों में लगभग बीस फ़ि‍ल्‍मों का निर्देशकीय सफ़र निपटा चुके देव साहब का उत्‍साह बेमिसाल और लाजवाब है, मगर उस यात्रा के पीछे के व्‍यक्ति को समझना टेढ़ी खीर है, सबके बस की बात नहीं. शायद गोल्‍डी आनंद के बस की भी न रही हो. संभव है ‘स्‍वामी दादा’ और ‘अव्‍वल नंबर’ के आस-पास कभी हाथ जोड़ कर गोल्‍डी तक ने माफ़ी मांग ली हो कि “अब मैं आपकी फ़ि‍ल्‍में नहीं देख सकता, सॉरी,” और उन्‍नीस सेकेंड के गंभीरतम पॉज़ के बाद इतना और जोड़ा हो, “और हां, देव साहब, बुढ़ापे में अब जाकर यह बात समझ आई, कि मैं आपको कभी जान नहीं सका, हू आर यू?

यह अंतिम पंक्ति गोल्‍डी आनंद ने नहीं कही थी, मेरी कल्‍पना मुझसे कहलवा रही है. क्‍योंकि ‘गैंगस्‍टर’, ‘मैं सोलह बरस की’, ‘सेंसर’, ‘लव एट टाईम्‍स स्‍क्‍वॉयर’, ‘मिस्‍टर प्राइम मिनिस्‍टर’ (और देव साहब का बस चलता तो लंदन और न्‍यूयॉर्क से जाने अभी क्‍या-क्‍या शूट करते होते, इंटरनेट के दौर में वह अनंतकाल तक हमारी आंखों के आगे उतरता, तैरता रहता) के बाद सवाल रह ही जाता है कि कौन थे देव साहब? राजू गाइड तो उन्‍हें नहीं ही जानता था, गोल्‍डी आनंद भी नहीं जानते थे, फिर किशोर साहू, सचिन दा, ज़ाहिदा, ज़ीनी बेबी कौन जानता था उन्‍हें? पत्‍नी कल्‍पना कार्तिक जानती थी? पुत्र सुनैल आनंद? ग्रैगरी पेक, सुरैया, एनीवन, एनीबडी? वॉज़ देव साहब रियल? आई मीन रियली, रियल?

हमारे घर में देव साहब को कोई नहीं जानता था. जबकि देवानंद की बात एकदम अलग थी. चचेरी, ममेरी, फुफेरी बहनें ही नहीं, उनकी मम्मियां, मामा, हमारे स्‍कूल के पीटी टीचर से लेकर होम साइंस की आंटी और हमारे साइकिलों का पंचर पीटनेवाला नंदू, सब नाक-भौं बनाने की घटिया एक्टिंग (देवानंद की ही तरह) कितनी भी क्‍यों न करते रहे हों, मन ही मन सब देवानंद को पसन्‍द करते थे. रस्‍सी पर सूखने के लिए साड़ी डालते हुए कोई भी मौसी गाने लगती ‘दिल पुकारे, आ रे आरे आरे?’ आंखों में प्रेम के डोरे लहराती मौसी का देवानंद को पुकारना मौसों, चाचाओं और उनके भैयों को उलझन व तनाव में नहीं लपेटता था. सब जानते होते देवानंद को गुहारने में एक निर्दोष हंसी की निर्दोष कामना होती, कोई 'संसारी' स्‍वार्थ न होता, ‘फूल और पत्‍थर’ के धर्मेंदर की दैहिक ताप और ‘दिल एक मंदिर’ के राजिंदर कुमार की आंसू-बहावक भाप न होती. ‘अरे यार मेरे तुम भी हो ग़ज़ब’ और ‘शोखियों में घोला जाये थोड़ा-सा शबाब’ गाते हुए, गाल में हल्‍की दरार दिखाकर देवानंद ज़रा-सा हंस देते, मौसियों का मलिन फ़ीकापन, दिन, संवर जाता, ऐसे मीठे और इतनी ज़रा-सी ही तो उम्‍मीद थे देवानंद. मेले में मां की गोद के बच्‍चे को दीखे दूसरे बच्‍चे के हाथों लाल गुब्‍बारे की तरह. उसके बियॉंड सब जानते पैरों पर लंबे हाथ गिराये, ज़रा-सा कंधा उचकाये, उतरती ढलान पर ‘आज की सारी रात जायेगी, तुमको भी कैसे नींद आयेगी’ गुनगुनाते देवानंद एक छोर से भागते दूसरे छोर निकल जायेंगे, ‘खोया-खोया चांद’ और ‘खुले आसमानों’ का मोहक ख़्याल बचा रहेगा, गाने और देवानंद की चमकती, निर्दोष बहक गुज़र जाने की खाली जगह में उसके बाद कोई वास्‍तविक प्रेम और उसके निटी-ग्रिटी सोर्ट आउट करता वास्‍तव का प्रेमी- ‘आवारा’ का राज कपूर, या ‘देवदास’ का दिलीप कुमार-सा ही सही- नहीं होगा.

शायद इसीलिए सब, और अवचेतन में बहुधा बिना-जाने- और राज कपूर और दिलीप कुमार की बनिस्‍बत कहीं ज़्यादा- देवानंद को प्‍यार करते थे. क्‍योंकि देवानंद के होने में एक साफ़-सुथरी हंसी के आश्‍वासन से अलग समय और समाज की पेचिदगियों की कोई मांग न होती. समय और समाज में ‘जीने की तमन्‍ना’ को निरखती, सिरजती रोज़ी को कनखियों में सराहता राजू हमेशा निष्‍पाप और बहुत सच्‍चा लगता, हां, एक केले की भूख में चेहरा मरोड़ते उसे देखते ही मगर दर्शक जान जाता देवानंद भूखा होने की एक्टिंग कर रहा है. वास्‍तविक कैसी भी परिस्थिति में प्‍लेस होते ही देवानंद एकदम सहजता व आसानी से अवास्‍तविक हो जाते, जबकि ‘ओ मेरे हमराही, मेरी हाथ थामे चलना, बदले दुनिया सारी, तू ना बदलना’ में पक्‍का भरोसा होता कि देवानंद हमेशा हाथ थामे होंगे, उनकी हंसी कभी नहीं बदलेगी. यही, इतना देवानंद का चार्म था. उनकी विशिष्‍टता, उनका अनूठापन. वह अपनी हिरोइनों को सच्‍चे आशिक की तरह बराबरी की संगत देते थे, 'आवारा' के राजू की तरह कभी अपनी नर्गिस के बाल खींचकर मोहब्‍बत का इसरार न करते, किसी दु:स्‍वप्‍न में भी नहीं, न 'पत्‍थर के सनम, तुझे हमने खुदा जाना' का शिकायती शोर उठाते, दिल टूटता तो हाथ में जाम लिये दबी आवाज़ गुनगुनाते 'दिन ढल जाये, रात न जाये', और गा चुकने के बाद धुले चेहरे के साथ बाहर आते तो 'तीन देवियां' की नंदा ही नहीं, कल्‍पना और सिमी सब यक़ीन करतीं कि देवदत्‍त उनका और सिर्फ़ उन्‍हीं का है. 

देवानंद उतना ही रियल थे जितना रियल टिनटिन है, जैसे एक पूरी पीढ़ी के लिए एल्‍वीस प्रेस्‍ली का होना, उस रोमान में नहाये, जीवन जीना हुआ. इस मायने में वे शायद भारतीय सिनेमा के अकेले, अनूठे मिथकीय सुपरस्‍टार साबित हों. अलबत्‍ता ‘हम एक हैं’ से ‘चार्जशीट’ के देव साहब की कहानी कहीं ज़्यादा टेढ़ी है, मगर जैसा मैंने पहले कहा ही, देवानंद को प्‍यार करनेवाले ढेरों लोगों को मैं जानता हूं, देव साहब को कौन जानता है?

9/05/2011

सब धंधा है उर्फ़ नेटवर्क का ज़हर

चेख़व की कहानी पर ''गाढ़ी आंखें'' सी फ़रेबी फ़िल्‍म बनानेवाले, और ''सूरज की आंच में'' की मशहूरी पाये निकिता मिख़ालकोव ने अपने हालिया मैग्‍नम-ऑपस से कुछ वर्षों पहले, 2007 में इन फैक्‍ट, ''12'' नामकी फ़िल्‍म बनाई थी, वही, अपनी सिडनी लुमेट वाली पुरानी का री-मेक, डील-डौल दुरुस्‍त-सी ही फ़िल्‍म है, मगर सिडनी लुमेट और हेनरी फोंडा वाली मार्मिक दादागिरी, कसी नाटकीय बुनावट, के आगे वह कहीं नहीं ठहरती. 1957 में लुमेट के करियर की वह ब्रिलियेंट बिगनिंग थी. 1962 में लुमेट ने एक और मशहूर नाटक, इस मर्तबा यूजीन ओ'नेल के मशहूर- लांग डेज़ जर्नी इनटू नाईट- को फ़िल्‍मबंद किया था. कसे हुए परफॉरमेंस और घने दृश्‍यों की प्‍यारी फ़िल्‍म है (लगे हाथ याद दिलाता चलूं, नेल के चार नाटकों को जोड़कर एक और फ़िल्‍म बनी थी, लुमेट एक्‍सरसाइज़ से बाईस साल पहले, 1940 में जवान जॉन वेन को लेकर जॉन फॉर्ड ने बनाई थी, इन फैक्‍ट वह भी अभी बासी नहीं हुई. लेकिन फोर्ड का क्‍या काम बासी हुआ है? कुछ समय पहले 'द सर्चर्स' देखी थी, नहीं लगा था कहीं भी कुछ फीका हुआ है.).

मगर मैं यहां फोर्ड, नेल, चेख़व और रेजिनाल्‍ड रोज़ की याद पर जमी धूल उठाने नहीं आया. प्रसंग लुमेट की सन् छहत्‍तर में बनी एक अन्‍य फ़िल्म‍ है, टीवी रेटिंग को लेकर चैनल के भीतर के मालिकान की महीन गुंडइयां और मनूवरिंग की होनहारी, बरखाधारी निर्मम खौफ़नाक़ खेल. टेलीविज़न की बरखाओं को देखकर बड़े होने वाले (और अन्‍ना के पीछे वापस टेलीविज़न को विश्‍वसनीयता दिये देने वाले) बहुत सारे शराफ़त के धनी बच्‍चे तब नेटवर्क के ज़माने में पैदा नहीं हुए होंगे. मज़ेदार है कि मगर तभी, खाते-पीते और वियतनाम-अघाये मुल्‍क अमरीका में ही सही, वाजिब तरीके से सामाजिक सरोकारों की ऑलरेडी टीवी ऐसी की तैसी बजाने लगा था. जिसके भीतर कैसी भी सामाजिक हिस्‍सेदारी, आक्रामक होने के सारे स्‍वांगों के बावज़ूद, का मतलब रेटिंग सहेजने की तिलकुट हरकतों से और ज़्यादा कभी भी कुछ नहीं था. यू-ट्यूब पर एक ट्रेलर देखने से पहले पीटर फिंच का पहले यह एक उच्‍छावास देख लीजिए, उसके बाद यहां देखिए, ऊपर बैठे मालिकान किस नज़ाकत, और भाषा में टीवी पर लोकप्रिय हीरो हुए एक बुर्जूग एंकर की कैसी, क्‍या ख़बर लेते हैं. फ़िल्‍म देखने की एक तुरत वाली बेचैनी होती हो तो उसका एक तुरत समाधान यहां है.

9/04/2011

चिन्‍ना पोन्‍नु, सोन्‍नु?


चिन्‍ना पोन्‍नु के पागलपने, वहशीघने का कोई क्‍या कर सकता है? तामिलनाडु में ही सही, गनीमत है हिन्‍दुस्‍तान के सार्वजनिक स्‍पेस में सामाजिक बंजारेपन, दीवानेपन की अभी जगह बची हुई है..

9/02/2011

बचपन के मॉर्निंग शोज़ और अन्‍य ब्‍ल्‍यूज़..

अब सोचकर हैरानी होती है, कि कैसा किस तरह की संगठनात्‍मक समझ थी, क्‍या इकॉनमी थी, कि आज से लगभग पैंतालीस साल पहले, उड़ीसा-से पिछड़े राज्‍य के एक टिनहा शहर में एक से एक सारी फ़ि‍ल्‍में पहुंच जाती थीं? रेगुलर रन में न भी हों तो मॉर्निंग शोज़ में जगह बनाई चली ही आती थीं. ग्रेगरी पेक की ‘रोमन हॉलिडे’, ‘मकेनाज़ गोल्ड‍’ से लेकर ‘ज़ुलू’, देवानंद की 'जाली नोट’, ‘काला बाज़ार’, ‘बात एक रात की’, लीन की ‘रायन्‍स डॉटर’, ‘ब्रीफ एनकाउंटर’, शेख मुख़्तार और संजीव कुमार की खूंखार काली-सफ़ेद फ़ि‍ल्‍में, बिमल रॉय की ‘दो बीघा ज़मीन’, ‘प्रेमपत्र’ सारी की सारी तभी देखी थी जब अभी- अंग्रेजी नहीं हिंदी में ही- ग्रेगरी लिखने की तमीज नहीं बनी होगी, और ऑलमोस्‍ट सब फ़ि‍ल्‍में मॉर्निंग शोज़ में ही देखी थीं. ज़्यादातर कोर्णाक टाकीज़ में (कौन पागल था जो ऐसा सिनेमा चला रहा था? पिछले दस वर्षों की जितनी खबर है उसके अनुसार अब वहां सिर्फ़ उड़ि‍या फ़ि‍ल्‍में ही दिखाई जाती हैं!). मगर बचपन के उन भोले, तंगहाल दिनों में भी, बु‍द्धि इतनी खुल गई थी कि आमतौर पर अच्‍छे लगते बिमल रॉय की ‘दो बीघा ज़मीन’ के रोने-धोने से उकताहट होती; उस तरह के जितने रोवनिया, और फलतुआ के हंसोड़, चाइल्‍ड आर्टिस्‍ट थे उन सब रतन कुमारों, सुधीर और सुशील कुमारों को धर-धरके थुरियाने की इच्‍छा होती, कि अबे होनहारी के नालायको, तुम्‍हारी उम्र के बच्‍चे ऐसे होते हैं? (या होते होंगे तभी हिन्‍दी फ़ि‍ल्‍में ऐसी रोवनिया-बहार, भदर-भदर भावकुंड में नहाई भावना-अंगार बनती हैं?). अपनी बुद्धि में रतन कुमारों, बेबी नाज़ों से तब भी शेख़ मुख़्तार ज़्यादा भला, भोला और निष्‍पाप लगते. कोई बच्‍चा अच्‍छा लगता तो वो ‘कारवां’ और ‘आन मिलो सजना’ का जूनियर महमूद होता. अच्‍छे बालकों की होनहार नालायकीयत की हाय-हाय की बनिस्‍बत उसके हरामीपने सॉलिड और सुहाने लगते.

ख़ैर, मैं फिर बहक गया (वैसे ईश्‍वर जहां कहीं भी हों जूनियर महमूद को सुखी रखे. ईश्‍वर जहां कहीं भी हैं या नहीं मालूम नहीं, मगर जानता हूं जूनियर महमूद इसी शहर में है, मगर कितना सुखी है नहीं जान रहा हूं. इसी शहर में रहते हुए मैं ही कहां सुखी हो पा रहा हूं?).. बात बचपन के मॉर्निंग शोज़ की हो रही थी. अच्‍छे लगते 'हाउस नंबर 44' की कल्‍पना कार्तिक और ‘दो बीघा ज़मीन’ के बाहर के बिमल रॉय की हो रही थी. याद है ‘प्रेमपत्र’ देखते हुए मैं बहुत भावुक हुआ था. तलत महमूद की आवाज़ में गाते हुए शशी कपूर और अच्‍छी साधना के बीच की ग़लतफ़हमी कितनी जल्‍दी खत्‍म हो (कि ओ भगवान, नहीं ही होगी?) के तनाव में बगल की सीट पर बैठे अपने दोस्‍त को किसी भी क्षण तीन थप्‍पड़ मार सकता था (या बाहर, साईकिल स्‍टैंड में जाकर बारह साइकिलों के ट्यूब की हवा खोल दे सकता था, ओ गॉड!). ओह, जीवन में कहीं नहीं था, मगर प्रेम की मिसअंडरस्‍टैंडिंग की भीनी अनुभूतियों के कैसे सुहाने दिन थे! तलत महमूद गाता शशी कपूर ही नहीं, एक और लव इंटरेस्‍ट प्‍ले कर रहा (बाद के दिनों में विलेन का टुटपुंजिया दाहिना हाथ) सुधीर भी अच्‍छा लगता.

समझदार लोगों ने ही नहीं, मैंने खुद तक, खुद से दर्जनों मर्तबा कहा है पीछे छूटी चीज़ों को पीछे मुड़कर मत पकड़ों, हाथ का करंट ही नहीं लगता, दिल पर भी बहुत ठेस पहुंचती है, मगर देखिए, हाथ हैं कि पीछे छूटकर बीच-बीच में कुछ टटोल आने से बाज नहीं आते. सदियों पहले अर्नस्‍ट लुबिश की कुछ फ़ि‍ल्‍में देखी थीं, फिर से टटोलता ‘द शॉप अराउंड द कॉर्नर’ और ‘टू बी ऑर नॉट टू बी’ में घुसा और उनकी सरल कसावट से लाजवाज हो गया. चालीस के दशक की फ़ि‍ल्‍में और अभी तक एकदम, ज़रा भी बासी नहीं हुई हैं. मगर वह सिर्फ़ लुबिश और अच्‍छे हॉलीवुड का मामला नहीं है, तिरालीस की बनी इटली के विस्‍कोंती की ‘ओस्‍सेसियोने’ देखिए, वह इतने वर्षों के फ़ासले पर अभी भी एकदम आधुनिक लगती है, या सत्‍तावन की ‘द व्‍हाइट नाइट्स’, कहीं से भी ‘डेट’ नहीं हुई. बचपन की देखी हिंदी की ‘गंगा जमुना’ थी (निर्देशक: नितिन बोस. शायद एक के बाद एक उसे तीन मर्तबा तो ज़रूर ही देखा होगा, अभी कुछ दिनों पहले फिर देखा तो मन के ट्यूब की सारी हवा निकल गई, बड़ा खाली-खाली-सा लगा कि दिलीप कुमार ही नहीं, वैजयंती माला, कन्‍हैया लाल तक अच्‍छे लगते हैं, डायलाग कसे लिखे गए हैं, मगर सब अंतत: शुद्ध किस्‍सागोई ही है, उससे ज्यादा की आकांक्षा फिल्‍म कहीं करता नहीं दिखता, और ढाई घंटे की फ़ि‍ल्‍म में शुद्ध सिनेमाई आनंद कहें तो आठ मिनट से ज्यादा आपको नहीं मिलता! मुझे नहीं ही मिला. वैसे ही बिमल राय की सन् साठ में बनी एक फ़ि‍ल्‍म है, ‘परख’. संगीत के साथ कहानी भी सलिल चौधुरी की है, मोतीलाल और अच्‍छी साधना है, (गाने सब प्‍यारे हैं. ग्रेट सलिल चौधुरी.) मगर एक बेसिक-सी कहानी कहने से अलग फ़ि‍ल्‍म और कुछ करती नज़र नहीं आती. एक गाने के पिक्‍चराइज़ेशन से अलग दस दिन पहले की देखी फिल्‍म का अब मैं अलग से कुछ भी और याद नहीं रखना चाहता.

इक ज़रा-सी पिद्दी किस्‍सागोई तक ही जाकर कहां, क्‍यों अटक जाती हैं हमारी हिन्‍दी फ़ि‍ल्‍में? या हमारी हिन्‍दी का साहित्‍य ही? ऐसा बाहर के संसारों में ही होता है, क्‍यों होता है, कि पॉपुलर फ़ि‍ल्‍म बनानेवाले भी ‘जुलिया’ और ‘द फिक्‍सर’ जैसी पेचीदा, रिस्‍की स्‍टोरीटेलिंग में न केवल उतरें, उसे करीने से निबाह भी जायें? ‘हाई नून’ सा कसा वेस्‍टर्न बनानेवाला फ़ि‍ल्‍ममेकर ही ‘ए मैन फॉर ऑल सीजंस’ जैसी मुश्किल घड़ी में जीवन कैसे जियें की विमर्शवादी फ़ि‍ल्‍म भी किस सरस नफ़ासत से बनाये लिये जाता है? या ‘ग्रां-प्री’ और ‘द ट्रेन’ जैसी एक्‍शन फ़ि‍ल्‍मों का निर्देशकफिक्‍सर’ जैसी दार्शनिक स्‍टोरीटेलिंग में घुसने का रिस्‍क उठाता है! एलेन बेट्सज़ोरबा द ग्रीक’ का मानवीय उच्‍छावास ही नहीं, ‘वीमेन इन लव’, ‘एन अनमैरिड वुमन’ के साथ ‘द फिक्‍सर’ जैसी टेढ़ी, भारी फ़ि‍ल्‍म में अभिनय करने का ज़ोखिम उठाता है?

पूरा जीवन सिनेमाटॉग्राफी में खपाने, ‘मेफिस्‍टो’, ‘आंगी वेरा’ जैसी अनूठी से लेकर ‘मलेना’ सी चिरकुटई शूट कर चुकने के बाद, अपने लंबे करियर के दूसरे छोर पर आकर, लाजोस कोलताई- एक सिनेमाटॉग्राफ़र- अपनी पहली फ़ि‍ल्म‍ का निर्देशन अपने हाथ में लेता है तो वह ‘ज़ि‍न्‍दगी ना मिलेगी दोबारा’ का रोमानी कोलतार सजाने की जगह होलोकास्‍ट और ऑश्वित्‍ज़ के मुश्किल बीहड़ में न केवल उतरा जाता है, उसे बिना ˆलाइफ़ इज़ ब्‍यूटिफुल’ का भदेस बनाये खूबसूरत, सघन मार्मिक सिनेमाई पाठ भी बनाये लिये जाता है? एकदम उम्‍दा कास्टिंग, एन्नियो मोरिकोने का प्‍यारा बैकग्राउंड स्‍कोर, और उन्‍नीस सौ पचहत्‍तर में लिखे अपने पहले उपन्‍यास 'फेटलेसनेस' पर खुद इमरे कर्तेज़ की लिखी खूबसूरत स्क्रिप्‍ट (हिंदी में किताब का अनुवाद वाणी ने छापा है, किसी ने पढ़ रखा हो तो बताये कैसा अनुवाद है).

कैसे बना लेते हैं लोग मुश्किल सिनेमा, जुलिया के जेसन रोबार्ड्स जैसी बिना बहुत देह हिलाये अनोठी एक्टिंग कर ले जाते हैं, जबकि हमारे यहां हम फकत एक गाने का पिक्‍चराइज़ेशन तक करके रह जाते हैं?

8/18/2011

खूबसूरत अजनबी (पहचाने निहायते विरूप)..

वर्षों पहले किसी दूतावासी स्क्रिनिंग में एक रूसी फ़ि‍ल्म‍ देखकर दंग हुआ था, इतने अर्से बाद दुबारा देखकर फिर सन्‍न होता रहा. यह सोचकर और सन्‍नाता रहा कि मैं ही नहीं, फिल्‍मों में रुचि रखनेवाले ढेरों और लोग होंगे जो उन्‍चालीस वर्ष की कम उम्र में गुज़र गई रूसी फिल्‍ममेकर लारिसा शेपित्‍को के नाम-काम से परिचित न होंगे! दुनिया और राजनीति के खेल अनोखे होते हैं, कुछ लोगों को, और कुछ कृतियों को दुनिया इस छोर से उस ओर तक जान जाती है और कुछ विरल मार्मिकताअें के सघन पाठ होते हैं पढ़नेवालों तक उनका ''क'' तक नहीं पहुंचता. (अंग्रेजी में शीर्षक) ''द एसेंट'' जैसी फ़ि‍ल्‍म बनाने, व बर्लिन में उसके लिए गोल्‍डर बीयर का पुरस्‍कार से नवाजे जाने के बावजूद लारिसा को अब जबकि सोवियत शासन भी सुदूर का किस्‍सा हुआ क्‍यों ज्‍यादा नहीं जाना गया की कहानी ''गार्डियन'' में उनके स्‍मरण पर छपी इस छोटी टिप्‍पणी से कुछ पता चलती है. एक छोटी याद यह यू-ट्यूब के पन्‍ने पर है. लारिसा का यह आईएमडीबी पेज़ का लिंक है, जिन भाइयों से जितनी और जो लहे, फ़ि‍ल्‍में देखकर खुद को धन्‍य करें.

पिछले साल एक और रूसी फ़ि‍ल्‍म (''आओ और देखो'') देखकर दांत और उंगली दबाता रहा था, अभी जानकर फिर दबा रहा हूं कि उस फ़ि‍ल्‍म को बनानेवाले एलेम क्‍लि‍मोव लारिसा के पति थे. एक और फिल्‍म, ईरानी, देखकर लाजवाब हुआ, यहां भी मज़ेदार है कि बहराम बेज़ई के नाम से भी नहीं ही वाक़ि‍फ था. एकदम दुलरिनी फ़ि‍ल्‍म है ''बाशु..''. 

हाल में दो हिन्‍दी फ़िल्‍में भी देखीं. पहली को देखकर (हांफ और कांख-कांखकर) दांतों के बीच उंगलियां दबाई ही नहीं थीं, काट भी ली थी (शर्म से), आश्‍चर्य की बात दूसरी फिल्‍म देखकर ऐसी कांखने किम्‍बा लजाने की नौबत नहीं आई..

7/28/2011

बड़ी कहानी में एक छोटा, विषयांतर..

मार्क ट्वेन रॉक स्‍टार नहीं थे, मगर फसल कुछ उन्‍हीं जैसा बो रहे थे (या कहें, ज़मीन गोड़ रहे थे). आमतौर पर जैसाकि होनहार कलाकारों के साथ कभी नहीं होता, ट्वेन के साथ हुआ, मतलब किताबों की बिक्री पर साहित्‍यकुंवर ने खूब कमाई कर ली, मगर फिर, होनहारी की सही लाईन पर, सारे पैसे गंवा भी दिये! माथे का कर्ज और ढेर सारा शर्म हैंडिलयाने की गर्ज में, अंतत: मजबूर होकर बाबू साहब ट्रवेन ने- जवानी के दिनों के जल्‍द कमाई के आजमाये नुस्‍खे का जाल बुढ़ौती में एक बार फिर फैलाया, मतलब रॉक स्‍टारों की तर्ज़ पर इस और उस शहर घूम-घूमकर अपनी 'पेड' बतकहियों के दौरों पर निकले. उन्‍नीसवीं सदी के लगभग अंत में, सन् छयान्‍नबे अपनी साठवीं वर्षगांठ के उपरांत ट्वेन करीबन तीन महीने हिंदुस्‍तान रहे, यहां से साहित्‍यकुंवर दक्षिण अफ्रीका निकले, तभी की एक ज़रा-सी झांकी है, केन बर्न्‍स‍ की डॉक्‍यूमेंटरी से, साभार..

5/09/2011

धूप में ठांह खोजते, आंखें मूंदे देखते..





गरमी में पैरों पर जलती रेत गिरा रहे हैं. फ़िल्‍में देखकर फिर नई तक़लीफ़ें बढ़ा रहे हैं. कुछ दीख गईं, कुछ अभी भी देखी जानी हैं. रेंगनी पर कपड़े फैलाता हूं, नाम, गिनाता हूं: थाईलैण्‍ड की 'अंकल बूनमी हू कैन रिकॉल हिज़ पास्‍ट लाइव्‍स', कनैडियन 'मैप ऑफ़ द ह्यूमन हार्ट', 'द नैसेसिटीज़ ऑफ़ लाइफ़', इरानी 'फायरवर्क्‍स वेड्नसडे', जॉन ह्यूस्‍टन की 'द लाइफ़ एंड टाईम ऑफ़ जज रॉय बीन', पाओलो वित्‍ज़ी की इटालियन 'द फर्स्‍ट ब्‍युटिफुल थिंग'. सन् अड़तालीस में बनी चीन की 'छोटे शहर में बसंत', कुछ डॉक्‍यूमेंट्रीज़ हैं: 'द बॉटनी ऑफ़ डेज़ायर', 'हेलवेटिका' मोनोलॉगर स्‍पाल्डिंग ग्रे के जीवन पर सोदरबर्ग की 'एंड एवरीथिंग इज़ गोइंग फाईन'. ,

3/17/2011

माई फ्रेंच सिन (सच्‍ची)

सच पूछिये तो जापानी सुनामी के विध्‍वंसों के नीचे कराहती दुनिया में प्रेम पर सोचने का यह समय नहीं है. जापान सोचने से फ़ुरसत बने तो लोग थोड़ा लीबिया ही सोच लें, प्रेम पर सोचने को अभी आगे बहुत समय मिलेगा, रहेगा. मैं यूं भी प्रेम-ट्रेम को लेकर बहुत उत्‍साही रहनेवाला जीव नहीं. मगर देखिए, स्थितियां होती हैं, आदत का मारा आदमी होता है, बात जापान से शुरु करके लिये प्रेम पर ही आता है. सोचकर शर्म हो रही है. मगर प्रेमगिरा पंक शर्म ही करता रहा तो फिर प्रेम किस खुराक के बूते करेगा? सॉरी.

तो मैं कह रहा था? हां. भीड़ में अचक्‍के भेंटाये दिलकश, अंतरंग साथ की तरह मिल जाती हैं फ़ि‍ल्‍में. कुछ. कभी. (बीवेयर, हिंदी सिनेमा में नहीं मिलतीं. ऑलमोस्‍ट. किसी अच्‍छे की उम्‍मीद के शगुन की शक्‍ल में भी नहीं. इतने क्‍या फर्क पड़ता है जितने भी खून माफ, या दोगली नकचढ़ी जिंदगी के नाम पर बचकानी, हास्‍यास्‍पद अदाबाजियां मिलती हैं, जिनकी संगत में अच्‍छा-खासा मुस्‍कराता आदमी दर्द से सिर पकड़ ले, शर्म से झुका ले, या भागकर डॉक्‍दर से मशविरा करने पहुंच जाये कि बुरी फिल्‍मों से बच लेने की क्‍या दवाइयां हैं..) कि प्रेम विरोधी मन भी असमंजस में ज़रा देर को भावुक हो जाये. सामनेवाले को रात के खाने के लिए रोक लेने जितना आत्‍मीय हो जाये, मनुष्‍यत्‍व का स्‍केल निकालकर अपनी छोटाई नापकर शर्मिंदा होने लगे. कि शर्मिंदगी में भी देर तक मन खिला रहे. ताज्‍जुब करता कि एक सीधी सी कहानी ही तो थी, कि इस बुनावट में ऐसा क्‍या खास था जिसमें ढुलककर आप यूं उलझे, उलझते गए?

जैसे अभी कुछ दिनों पहले फेसबुक के अपने पन्‍ने पर मैंने जोडी फोस्‍टर की फ़ि‍ल्‍म, होम फॉर द हॉलिडेज़ का लिंक चिपकाया था, कि अरे, क्‍या रपटीली, दौड़ती फ़ि‍ल्‍म है. अपने अरमानों में बहुत महत्‍वाकांक्षी न भी हो तब भी हॉलीवुड का मस्‍ती-मस्‍ती में लजीज़, जलेबीदार तरीकों से कथा कहने का यह जानर कितना एंटरटेनिंग व प्रभावी होता है (जैसे बेन स्टिलर एक्‍टेड पिछले दिनों एक और फ़ि‍ल्‍म देखी थी, ‘ग्रीनबर्ग’). लेकिन सॉरी, मैं अपनी फ्रेंच प्रेयसी की बाबत कह रहा था.

काफी महीने हुए छोटे शहर की एक निर्दोष सी अनमैच्‍ड, डूम्‍ड फ्रेंच प्रेमकथा पर नज़र गई थी, फ़ि‍ल्‍म के नाम का स्‍थूल अंग्रेजी रुपान्‍तर था ‘गवैया’. जिस कमउम्र लड़की के पीछे बुढ़ा रहे, और धीरे-धीरे प्रेम के बाज़ार में अब बेमतलब हो चले ज़ेरार देपारद्यू को बहुत सारा दर्द मिलता है वह लड़की थी सेसिल द फ्रांस. बूढ़े ज़ेरार की तरह तभी मुझे सबक ले लेना चाहिए था, मैंने लिया भी था ही. कि सेसिल तुम्‍हारे और मेरे रास्‍ते बहुत अलग-अलग हैं. लेकिन देखिए, प्रेम में कैसे सरल, सीधी समझ उलटकर फिर सिर के बल भी खड़ा होती रहती है. ठने, ठाने तरीके से चाहता था सेसिल से दूर रहूं मगर लड़की है कि फिर दिखी. इस बार हॉलीवुड के पके बूढ़े की संगत में थी- क्लिंट ईस्‍टवुड की ‘हियरआफ्टर’ में थी, और अभी उस सुनामी का असर पूरी तरह चुका भी नहीं था कि मैं जाने कहां से एक पुरनके, 2006 के ‘ऑकेस्‍ट्रा सीट्स’ की महफ़ि‍ल में घुसा चला आया. इससे पहले भी दानियेल थॉम्‍पसन की दो फ़ि‍ल्‍में देखी थीं मगर नहीं जानता था लोगों की ही तरह संगीत का वह इतना उम्‍दा ऑर्केस्‍ट्रेशन अरेंज करवाना जानती हैं, कोरियोग्राफ़ी सजाना जानती हैं. और सब कशीदाकारी के बीचोंबीच अपनी सेसिल तो थी ही, बदकार अपने ऑर्डिनरीनेस में मुस्‍कराये जाती, मुझसे अड़ि‍यल को और असहज बनाती. मुझ पर नज़र जाते ही लड़की छूटकर बोली, ‘ओ मेर्द, हाऊ अग्‍ली यू आर?’ हड़बड़ी में नाक का पसीना पोंछते मैंने सहज होकर कहा, ‘चलो, कम से कम एक विषय पर तो हमारी राय मिलती ही है.’

सुनकर सेसिल हंसने लगी. उस हंसी में एक बार फिर लुटा मुझसा प्रेम-विरोधी भी चट जान गया कि हमारे बीच अभी कितनी-कितनी फिल्‍मों का संबंध बना रहनेवाला है.

1/22/2011

पूंजीवाद: एक प्रेमकथा

माईकेल मूर की 2009 में बनाई डॉक्यूमेंटरी, कैपिटलिज़्म अ लव स्टोरी. 2007 से 2010 के बीच अमरीका की अर्थिक मन्दी, वित्तीय संकट और पूँजीवाद के सड़ांध की विश्लेषणात्मक टिप्पणी दिखाता ये फिल्म उद्वेलित करता है.

हमारी यह समझ कि जिन विकसित देशों में शिक्षा और संपदा एक मोटे तरीके से लगभग अंतिम व्यक्ति तक- पूरे तौर पर नहीं भी लेकिन बुनियादी ज़रूरातों की हद तक कम से कम- पहुँच पा रही हो (शायद उन्हीं वजहों से वहां विकास संभव हुआ होगा ऐसा सोचना बेवकूफी नहीं ), उन समाजों में व्यक्तिगत लोभ उस पतनशील नीचाई तक नहीं पहुँचेगा जहाँ समाजिक सरंचना के बुनियादी तत्व खतरे में पड़ें. माईकेल मूर इस भोली समझ को झटके से तोड़ते हैं. जुवेनल चाईल्डकेयर के भ्रष्टाचारी मसले हों या फिर वाल स्ट्रीट कसीनो की कहानियाँ या फिर कम्पनियों द्वारा जीवन बीमा के खेल या होम फोरक्लोज़र्स की विदारक कहानियाँ. अंग्रेज़ी का एक शब्द है ऐवरिस, लोभ.

पूरी फिल्म देखते बार बार ये एहसास होता है कि इंसानी फितरत क्या सिर्फ इतनी है? फिल्म के एक सिक्वेंस में पूछा जाता है, डिफाईन रिच, जवाब आता है- फाईव मेन. तो यही है कहानी, चाहे किसी भी देश की हो, किसी भी राजनैतिक तंत्र की या फिर किसी भी सामाजिक पद्धति की.

इसी सिलसिले में हॉब्सबॉम का यह इंटरव्‍यू भी गौरतलब है, जहाँ वो कहते हैं: “The basic problems of the 21st century would require solutions that neither the pure market, nor pure liberal democracy can adequately deal with. And to that extent, a different combination, a different mix of public and private, of state action and control and freedom would have to be worked out.”

क़ुछ नाटकीय अदाबाजियों के बावज़ूद मूर की फिल्म में एक किस्म का भोला निर्दोषपना है जहाँ टेढे मसले और बीहड़ आर्थिक जटिलताओं को साफ सरल तरीके से दर्शकों तक पहुँचाया जाता है और मूर फिल्म के अंत तक दर्शक को अपना भागीदार बना लेने में सफल होते हैं. अंतिम दृश्य में क्राईम सीन की पीली पट्टी लगाते मूर दर्शकों को कहते हैं कि उन्हें दर्शकों का साथ चाहिये, उन सबों का जो थियेटर में ये फिल्म देख रहे हैं. ये फिल्म इसी चेतनता को पाने के लिये देखनी चाहिये. अपने समय की सच्चाई का एक छोटा टुकड़ा क्योंकि सिर्फ इतनी कमियाँ इतना ही भ्रष्टाचार है, सोचना भी किसी भोली नासमझ दुनिया का वासी होना है. ये सिर्फ टिप ऑफ द आईसबर्ग है.

- प्रत्‍यक्षा

1/03/2011

Revisiting Bamako..

Bamako, 2006..

“So firstly, the world must consider Africa in a more impartial light. Because, when you look without bias, you realize that the “other” is really the same as you. However, as it stands today, the African is more different for others than others are for the African. In my opinion, perhaps it comes down to culture, Africans have a far greater sense of universality, than others do in their perception of Africans. This is very important point. My second concern is to articulate that, when all is said and done, the issue raised by “Bamako” is not a purely African issue. It is bigger than Africa. We’re talking about the world of money, the power of money. And if today, the prejudice of this world of money... Because Globalisation is about how we can make more money, and how quickly. It’s not about trying to embrace one another as quickly as possible, and give everyone kisses. This is not Globalisation. And this needs to be made clear. So, its very important for me that people understand that today, it’s not feasible to continue depriving part of the world of its wealth to make the rest more wealthy. If the consequences of this are clear in Africa today, It’s because Africa is weaker, and so the repercussions are visible. But the west, too, will have to pay the consequences of this world view, this money-centred ethic.”

Abderrahmane Sissako, from a video interview.

(above in the photo with Juliette Binoche, far left, at Cannes Festival, 2009)

1/02/2011

मैंने नहीं किया, शायद जीवन ने किया हो..

बारह साल के जेरोम के सर का भारी घड़ा हर समय शर्म से भरा रहता है कि पड़ोस के अन्‍य घरों की तरह उसका घर 'नॉर्मल' क्‍यों नहीं. घर के अहाते में तमाशा बने बाप के आगे जेरोम गिड़गिड़ाता है कि पप्‍पा, प्‍लीज़, पड़ोस के सबलोग हमें पागल समझते है? बाप बच्‍च्‍ो को आश्‍वस्‍त करता है कि सही समझते हैं, वी आर ए क्रेजी फ़ैमिली! मैं जिस तरह खुशी में घबराकर सिगरेट जला लेता हूं, जेरोम का हूनरमंद छोटा भाई लेओं गले में फंदा लगा लेने का टाईमपास करता है, स्‍क्रू ड्राइवर से खिड़की तोड़कर छुट्टी पर बाहर गए पड़ोसियों के घर 'डाका' डालता है, माथे पर दुख ज़्यादा चढ़ने लगे (या असमंजस. दोनों एक ही नहीं?) तो घबराकर छुरी से कंधा चीर लेता है, या बीस मीटर ऊंचाई से लहराकर नीचे कूद जाता है. यह सारी फुलकारियां कैनेडियन फ्रेंच फ़िल्‍म 'कसम खाकर कहता हूं, मैंने नहीं किया' की फूल-पत्तियां हैं. जेरोम की दस वर्षीय दु:खहारी पगलाहटों की संगत में मॉंट्रियल की हरियाली में हरा होते हुए मन बाग़-बाग़ हो जाता है. पता नहीं कुछ खुराफाती कैसे होता है कि उदासियों का ऐसा मीठा सिनेमा रच लेते हैं. जबकि फिलीप फलादेउ उम्र में मुझसे सात वर्ष छोटा है और कुछ दिनों पहले मैंने उसकी एक और फ़िल्‍म देखी थी, 'फ्रिज़ का बायां किनारा', दु:खभूगोल के उल्‍टे-सीधे मनचीरकारी उसमें भी थे, पर ऐसा मार्मिक उत्‍पात कहां था? आंद्रे तरपिन की ऐसी सिनेकारी कहां थी, कि पैट्रिक वॉटसन का, बांस के जंगलों में दीवारों के बीच दबी, फंसी, ऐंठी बजती हवा की मनतोड़ संगीत की संगत नहीं थी, इसलिए?

मैं बहकता जाऊंगा इसलिए बेहतर है पहले आप उस बहन में गिरकर बहक जाने की जगह पैट्रिक के एक ट्रैक में मन का सुर सेट कर लें. साथ ही 'कसम' का ट्रेलर देख लें (हालांकि ट्रेलर फ़िल्‍म की खूबसूरती का रत्‍ती भर कंपेनसेशन नहीं)..

क्‍या है कैनडा में, कहां से उस शांत लगभग निर्विकार लैंडस्‍कैप में मनहारे के इंटेंस पहाड़ फूटते रहते हैं? ऑलिवियेर असाये का 'क्लीन' और 'समर अवर्स' और डेनी आरकां की (जीसस ऑफ़ मांट्रियल, द बारबेरियन इनवेज़ंस) जैसी अनोखी, विरल सिनेनिबंध फूटते रहते हैं? असाये ने पिछले साल टेलीविज़न के लिए साढ़े पांच घंटे की 'कारलोस' तैयार की (प्रमोद सिंह ने देख ली, और बुरी नहीं है)..

कृपया कुछ और फ़ि‍ल्‍मों पर नज़र रखें (क्‍योंकि कैनेडियन फ़ि‍ल्‍ममेकर हमसे भले मनवाना चाहें दु:ख पर उनकी बपौती नहीं. मन में लेओं का स्‍क्रूड्राइवर चलाने को पड़ोस का अमरीका भी बीच-बीच में वैसा ही हहियाता रहता है. नोट करें 'द किड्स आर ऑल राइट', केविन स्‍पेसी की 'श्रिंक', 'लाइफ ड्यूरिंग वॉरटाइम'. फिर ऑस्‍ट्रेलिया भी पीछे नहीं छूट रहा, उसके शो-केस में है 'एनीमल किंगडम',, एनीमेटेड 'मैरी एंड मैक्‍स' और 'लैंटाना'. पिछले दिनों सुना युक्राइना भी अपनी आमद बताने पिछले वर्ष कान अपनी एक फिल्‍म 'माई जॉयज़' के साथ पहुंचा हुआ था (नाम से धोखे़ में न जायें, हालांकि फ़ि‍ल्‍म अभी मैंने देखी नहीं है).

जय हो सदाबहार संसार. चलते-चलते पैट्रिक का एक और यह ट्रैक भी सुनते चलिए..

बकिया आप सभी को नया साल मुबारक हो..