12/14/2011

प्‍यार ही प्‍यार, बेशुमार..

मन में प्‍यार की तरंगें पछाड़ मारती हों तो दिल बड़ी बेदर्दी से टूटता है की बात हमें बिना इम्तियाज़ अली की- ओह, कैसी तो तिलकुट दिलकारी- समझदारी, और संजय 'कली' भंसाली की म्‍यूज़िकल कशीदाकारी के, बड़ी ख़ामोशी से, और सिर नवाये की होशियारी में, बाबू कुल्‍ली भाट समझा गए हैं, फिर भी जो ये फटा दिल है कि अपने चिथड़ों को फड़फड़ाने से, प्‍यार की धूलसनी हवाओं में नहाने से, बाज नहीं ही आता, क्‍यों जा-जाकर सिर धंसाता रहता है? शायद बाबू सिल्वियो सोल्दिनी को चोटों में नहाये, सिनेमा का टिकट खरीदे को दरद-बहलाये रखने में सुख मिलता है? नहीं तो सोचिए अदरवाइस क्‍या वज़ह होगी कि 'ब्रेड और टयुलिप्‍स' की मुस्कियाई खुशगवारी से निकलते ही दर्शक 'दिन और बदलियां', 'और क्‍या चाहूं हूं?' की दुखकारी आंधियों से भला क्‍यों टकराने लगता है? जो हो, सोल्दिनी प्‍यार की बाबत कोई अनोखी जानकारी नहीं दे रहे हैं, बिना कुल्‍ली भाट का इतालवी अनुवाद पढ़े उसकी समझकारी में हमें मुस्‍तैद कर रहे हैं. यूं भी सत्‍तर के मुंह उठाते, आते-आते फासबिंडर ने त्रूफ़ो और गोदार को एक बाजू दरकिनार करके हमें समझा दिया ही था कि रोमर की फ़िल्‍मों के महीन रोमान के चक्‍कर में मत पड़ो, मुझसे समझ लो, कि प्‍यार में सुख नहीं है. दि एंड.

फिर भी भले लोग हैं, प्‍यार के तालाब में गोड़ उतारकर तैरने पहुंच ही जाते हैं, बाज क्‍यों नहीं आते?  माने सोचनेवाली बात है कि प्‍यार के ब्‍लूज़ की पिपिहरी सुदूर नीचे कहीं ब्राजील में नहीं बज रही, रायन गोस्लिंग जैसा उभरता सितारा बीच हॉलीवुड बजा रहा है. बेनिचो देल तोरो की मासूमियत में उलझकर उम्‍मीद का घर मत बनाइये, मार्क रफ्फलो के हास्‍यास्‍पद होने से सबक लीजिए, खुद को ऊपरी चमक और रंगीन झालरकारियों से बचाइए. मैं तो कहता हूं बच्‍चों की आड़ लेकर लोग भावनाओं का खेल करने लगते हैं, कोई सीधे परिवार को बे-आड़ करके सामने लाने का दुस्‍सह साहस क्‍यों नहीं करता? क्‍या परिवार में रहने की तकलीफ़ और उसके भोलेपने का बेमतलबपना समझने के लिए हमें डेनमार्क जाना होगा? हॉलीवुड हमें पारिवारिक प्रेम नहीं समझाता? नहीं, समझाता है देखिए, यहां भी समझा रहा है फिर यहां भी. मगर सबसे अच्‍छा, फिर, अपने बेल्जियम के दारदेन बंधु ही समझाते हैं. उनकी ताज़ा डर्टी पिक्‍चर देखिए, और प्‍यार से बाज आइए. सचमुच. 

6 comments:

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

अज़दक वाली पोस्ट शुरु करने के बाद से सिलेमा वाली इस पोस्ट खत्म करने के बीच काफ़ी स्टॉप्स पडे.. कुछ किताबें, कुछ आर्टिक्ल्स, डॉक्यूमेंट्रिज़ फ़िर ये सारी फ़िल्में तो नहीं लेकिन यू-ट्यूब पर तुरंत इन सारी फ़िल्मों के ट्रेलर्स भी देखने थे। बाबू सिल्वियो सोल्दिनी का ’कम अनडन’ नहीं मिला तो IMDB पर ही देखे लेकिन देखे.. फ़ासबिंडर साहेब से भी रूबरू हुये.. कुछेक पारिवारिक सनीमा के ट्रेलर्स भी देखे और सोच रहे थे कि Babam Ve Oglum इन पारिवारिक सिनेमा की कतार में कहाँ पडेगी.. अपूर्व से इस फ़िल्म का नाम जानने के बाद ये फ़िल्म देखी थी, बडी पसंद आयी थी ये फ़िल्म..

azdak said...

मालूम नहीं, पंकज, तुम्‍हारी यह अपूर्व सुझाई तुरुक "हमरे बप्‍पा हम्‍मर बेटा" मेरे अपने निजी ख़्याल में, सलीम-जावेद वाले, बाप-बेटा टक्‍कर जानर के 'त्रिशुल', 'शक्ति' के मेलोड्रामा के कहीं ज्‍यादा नज़दीक लगती है. मेरा पर्सनल ऑपिनियन है. अब तुम अपूर्व से मत कहना. कहना ही हो तो पूछना माइक ले की पिछले साल की फ़िल्‍म है, 'अनादर ईयर', पारिवारिक अंतरंगता के कुछ उदास, सलोने रंग, पूछना तुम्‍हारे लिए कहां से लहवा सकता है..

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

थी वैसी ही, हम ही रुमाल लिये साथ बह लिये थे थोडा :)

हम ही खोजते हैं ’अनादर ईयर’ को.. खुद को खोजने के साथ साथ.. कहीं न कहीं तो ससुर मिलेंगे ही..

azdak said...

"तिलिस्‍मे-ए-होशरुबा" झोले में लिए अपने को खोजने मत निकलना लेकिन, खुद को ढूंढना ही होगा तो पॉल ऑस्‍टर की "न्‍यू यार्क ट्रिलजी" में भूलते-भटकते खोजना.
फिर किसी 'बरहमन' ने अगले साल की उम्‍मीदबरी का आसीरबाद किसी काफिर को दिया ही था बहुत पहले.

अपूर्व said...

पहले ही आये मगर..फिर पंकज साहब से कौआरोर मचाने निकल गये कि काहे हमरे कंधे पर धर के निसानेबाजी करते हैं साहब..अब मरहम-पट्टी करा के दोबारा आने लायक भये तो सोचा कि मूँड़ नवाते चलें और बता दें कि ’हमरे बाप हमरे बेटा’ वाले आपके पर्सनल ओपिनियन से हम भी सहमत हैं कि बड़ा गाढ़ा और सुद्ध मेलोड्रामा है..हालाँकि पसंद तो है हमें..और अगर बाप-बेट्टा को अलग धर दें तो हमारा पसंदीदा किरदार अम्मा का है..हकीकत के ज्यादे नजदीक..एक भावुक मजबूत और बहुत दुनियादार औरत की तरह जो परिवार की सब अलग-अलग रंग और जोड़ के ऊन के गुल्लों को एक सलाई की तरह बटोरे रखती है..जितना बस चलता है सो...खैर दारदेन हजरात की ’साइकिल संग लल्ला’ देखी गयी थी कुछ टाइम पहले और पसंद भी आयी थी..अपनी पिद्दी सी जिंदगी की गड़बड़ी से निकलता गुस्सा, प्यार, आक्रोश सब कहाँ निकाले बेटा..जाने क्यो इसे देखते वक्त एक और रूसी पिक्चर दि इटालियन भी याद आती रही..जो इससे ज्यादा ड्रामेटिक और फ़ार्मूलेदार है..मगर दुनिया के बीहड़ मेले मे खोये मा-बाप की तलाश अकेला बच्चा वाली फ़ीलिंग वही है..वैसे जहाँ तक हमे याद पड़ता है..तो बाप-बेटे के इस लेयरदार रिलेसन को दिखाने वाली हमारी सबसे फ़ेवरिट पिक्चर भी रूसी ही है..द रिटर्न...अनजाने बाप की अचानक वापसी की दो बेहद जुदा मगर मानवीय रियक्शन को बहुत सलीके से पर्दे पे उभारा है..कि कितना कुछ अनकहा छूटा जाता है पर्दे पर..और असली गाँठ तो उसी अनकहे मे छुपी रहती है मगर..और आपकी इस बात से तो इत्तफ़ाक है कि बच्चों की आड़ ले कर इमोसनबाजी की खूब खेल खेलते हैं हालीबुड के पंटर लोग..(पर्दे पर डेनमार्क जाने का मूवी टिकट कटा लिया है फिलहाल).सनशाइन की क्लीनिंग तो नही मगर विंटर की हड्डियाँ जरूर पसंद आयी हैं..और जेनिफ़र के पाँव भी पालने मे दिखे हैं....मगर नवम्बर के आखिरी सनीचर की तारीख याद रही जिस दिन ’हमें केविन के बा्रे मे बतियाने का है’ का अनोखा परिवार देखने को मिला..जहाँ माँ-बाप के बहाने बच्चों के लाड़-दुलार-बिगड़ाव-खिलाव की कहानी कितनी जमीनी और नो-नानसेंस तरीके से कही गयी है..हफ़्ता-दर-साल बच्चे के भेजे मे मोहब्बत नफ़रत के बीज कहां और कैसे पनपते हैं और उनके फ़ल कितने मीठे-कडुए फलते हैं.. पकते हैं इसकी बानगी देखना बहुत सारी चीजों को देखने का तरीका बदलवा गया हमारे लिये..फिर् टिल्डा सिफ़्टन की हाहाकारी ऐक्टिंग मेरे खयाल से साल के बहतरीन तजुर्बों मे से रही..और फ़ैमिली की गड़बड़ों के बीच बड़े होते बच्चों वाली एक कहानी फ़रहादी साहब की इरानी पिक्चर ’अ सपरेशन’ मे भी खूब दिखी..सोचता हूँ कि इतनी संवेदनशील और हकीकतबयानी वाली पिक्चरें बम्बई की कोख से काहे नही निकलतीं..जबकि सब्जेक्ट इतने इफ़रात मे बिखरे हैं इधर..हाँ इससे याद आया कि बेला मैडम की दाये या बायें (जो आपने कभी सजस्ट करी थी) मे भी बाप-बेटा वाला एंगल भी दिमाग मे रह जाने वाला ठहरा (हालांकि उस बेटे मे हमें साइकिल-चोर वाले बेटे की कुछ छाप जैसी लगी)..अब सेल्दीनो साहब का नाम भी नोट कर लिया है और फ़ासबिंडर साब का भी..फ़ुरसत से ठिकाने लगाया जायेगा..और वैसे तो अब्बी तक माइक ली साहब से मरहूम रहे..सो पंकज के संग उनकी खबर ली जायेगी..और अगर नही मिला तो सलीमा के प्रोजेक्टर रूम मे ही नकब लगाने का बंदोबस्त करेंगे..तब तक आप तो बस लिस्ट जारी करते रहिये...

अपूर्व said...

और हाँ बाप-बेट्टा के चक्कर मे एक नाम तो भूल ही गये..कुछ बखत पहले हाथ लगी थी एक इंडोनेशियन अनजानी सी पिक्चर ’दि जर्मेल’ (जै हो इंटरनेट बनाने वाले महान लोगों की वरना कहाँ हम और कहाँ इंडोनेशिया)..और देख के मजा आया था..दारदेन साहबों के किस्से वाला बच्चा..मगर यूरोपियन सबर्ब मे नही बल्कि ठेठ एशियन चहले की पैदाइश..समंदर की बीच कहीं मछली पकड़ने के रिग पर अपने भगोड़े बाप से रिजेक्ट हुआ बाकी काम करने वाले बच्चों की दुलत्तियाँ खाते हुए कैसे बड़ा हो जाता है ये पिक्चर देखते हुए ही समझ आता है..इन्ही सब चीजों ने तो हमारी दुनिया बचा रखी है..वरना हम तो...