7/28/2011

बड़ी कहानी में एक छोटा, विषयांतर..

मार्क ट्वेन रॉक स्‍टार नहीं थे, मगर फसल कुछ उन्‍हीं जैसा बो रहे थे (या कहें, ज़मीन गोड़ रहे थे). आमतौर पर जैसाकि होनहार कलाकारों के साथ कभी नहीं होता, ट्वेन के साथ हुआ, मतलब किताबों की बिक्री पर साहित्‍यकुंवर ने खूब कमाई कर ली, मगर फिर, होनहारी की सही लाईन पर, सारे पैसे गंवा भी दिये! माथे का कर्ज और ढेर सारा शर्म हैंडिलयाने की गर्ज में, अंतत: मजबूर होकर बाबू साहब ट्रवेन ने- जवानी के दिनों के जल्‍द कमाई के आजमाये नुस्‍खे का जाल बुढ़ौती में एक बार फिर फैलाया, मतलब रॉक स्‍टारों की तर्ज़ पर इस और उस शहर घूम-घूमकर अपनी 'पेड' बतकहियों के दौरों पर निकले. उन्‍नीसवीं सदी के लगभग अंत में, सन् छयान्‍नबे अपनी साठवीं वर्षगांठ के उपरांत ट्वेन करीबन तीन महीने हिंदुस्‍तान रहे, यहां से साहित्‍यकुंवर दक्षिण अफ्रीका निकले, तभी की एक ज़रा-सी झांकी है, केन बर्न्‍स‍ की डॉक्‍यूमेंटरी से, साभार..

2 comments:

अनूप शुक्ल said...

साहित्यकुंवर को देखसुनकर अच्छा लगा। शुक्रिया। :)

अपूर्व said...

साहित्यिक रॉकस्टार..एक नयी बात लगी इसे देखना..शुक्रिया...पर सोचा भी कि ट्वेन सर की यह सैवेजीय आत्मग्लानि सहज काव्यजनित है या एरिस्ट्रोक्रेटिक अपच का अफ़ारा बस??