बारह साल के जेरोम के सर का भारी घड़ा हर समय शर्म से भरा रहता है कि पड़ोस के अन्य घरों की तरह उसका घर 'नॉर्मल' क्यों नहीं. घर के अहाते में तमाशा बने बाप के आगे जेरोम गिड़गिड़ाता है कि पप्पा, प्लीज़, पड़ोस के सबलोग हमें पागल समझते है? बाप बच्च्ो को आश्वस्त करता है कि सही समझते हैं, वी आर ए क्रेजी फ़ैमिली! मैं जिस तरह खुशी में घबराकर सिगरेट जला लेता हूं, जेरोम का हूनरमंद छोटा भाई लेओं गले में फंदा लगा लेने का टाईमपास करता है, स्क्रू ड्राइवर से खिड़की तोड़कर छुट्टी पर बाहर गए पड़ोसियों के घर 'डाका' डालता है, माथे पर दुख ज़्यादा चढ़ने लगे (या असमंजस. दोनों एक ही नहीं?) तो घबराकर छुरी से कंधा चीर लेता है, या बीस मीटर ऊंचाई से लहराकर नीचे कूद जाता है. यह सारी फुलकारियां कैनेडियन फ्रेंच फ़िल्म 'कसम खाकर कहता हूं, मैंने नहीं किया' की फूल-पत्तियां हैं. जेरोम की दस वर्षीय दु:खहारी पगलाहटों की संगत में मॉंट्रियल की हरियाली में हरा होते हुए मन बाग़-बाग़ हो जाता है. पता नहीं कुछ खुराफाती कैसे होता है कि उदासियों का ऐसा मीठा सिनेमा रच लेते हैं. जबकि फिलीप फलादेउ उम्र में मुझसे सात वर्ष छोटा है और कुछ दिनों पहले मैंने उसकी एक और फ़िल्म देखी थी, 'फ्रिज़ का बायां किनारा', दु:खभूगोल के उल्टे-सीधे मनचीरकारी उसमें भी थे, पर ऐसा मार्मिक उत्पात कहां था? आंद्रे तरपिन की ऐसी सिनेकारी कहां थी, कि पैट्रिक वॉटसन का, बांस के जंगलों में दीवारों के बीच दबी, फंसी, ऐंठी बजती हवा की मनतोड़ संगीत की संगत नहीं थी, इसलिए?
मैं बहकता जाऊंगा इसलिए बेहतर है पहले आप उस बहन में गिरकर बहक जाने की जगह पैट्रिक के एक ट्रैक में मन का सुर सेट कर लें. साथ ही 'कसम' का ट्रेलर देख लें (हालांकि ट्रेलर फ़िल्म की खूबसूरती का रत्ती भर कंपेनसेशन नहीं)..
क्या है कैनडा में, कहां से उस शांत लगभग निर्विकार लैंडस्कैप में मनहारे के इंटेंस पहाड़ फूटते रहते हैं? ऑलिवियेर असाये का 'क्लीन' और 'समर अवर्स' और डेनी आरकां की (जीसस ऑफ़ मांट्रियल, द बारबेरियन इनवेज़ंस) जैसी अनोखी, विरल सिनेनिबंध फूटते रहते हैं? असाये ने पिछले साल टेलीविज़न के लिए साढ़े पांच घंटे की 'कारलोस' तैयार की (प्रमोद सिंह ने देख ली, और बुरी नहीं है)..
कृपया कुछ और फ़िल्मों पर नज़र रखें (क्योंकि कैनेडियन फ़िल्ममेकर हमसे भले मनवाना चाहें दु:ख पर उनकी बपौती नहीं. मन में लेओं का स्क्रूड्राइवर चलाने को पड़ोस का अमरीका भी बीच-बीच में वैसा ही हहियाता रहता है. नोट करें 'द किड्स आर ऑल राइट', केविन स्पेसी की 'श्रिंक', 'लाइफ ड्यूरिंग वॉरटाइम'. फिर ऑस्ट्रेलिया भी पीछे नहीं छूट रहा, उसके शो-केस में है 'एनीमल किंगडम',, एनीमेटेड 'मैरी एंड मैक्स' और 'लैंटाना'. पिछले दिनों सुना युक्राइना भी अपनी आमद बताने पिछले वर्ष कान अपनी एक फिल्म 'माई जॉयज़' के साथ पहुंचा हुआ था (नाम से धोखे़ में न जायें, हालांकि फ़िल्म अभी मैंने देखी नहीं है).
जय हो सदाबहार संसार. चलते-चलते पैट्रिक का एक और यह ट्रैक भी सुनते चलिए..
बकिया आप सभी को नया साल मुबारक हो..
2 comments:
शुक्रिया..एक नाम तो बढ़ा विजुअल ख्वाहिशों की लिस्ट मे..बल्कि कुछ एक और नाम..मगर जितना अभी आपकी ’कसम’ के बारे मे चेक कर पाया..इससे स्ट्राइकिंग सिमिलरिटीज वाली एक अन्य कैनेडियन फ़िल्म ’लिओलो’ याद आयी..१९९२ मे आयी जौन क्लॉड लौज़ों की यह अविश्वसनीय हद तक दिमाग खदबदाने वाली यह फ़िल्म का कुछ-एक महीने पहले ही पारायण करने का मौका मिला था..और तब यह कई दिन तक दिमाग पर पीपल की चुडैल की तरह सवार रही थी..जेरोम की उम्र के ही लड़के लिओलो की विचित्र लोकेलिटी और उसकी वाइल्डिश इमेजिनेशन्स की दास्तां यह फ़िल्म क्रियेटिविटी की सीमाओं का दुस्साहसिक तरीके से अतिक्रमण करती लगी..बालसुलभ कोमल जिज्ञासाओं के साथ किशोरवय जुगुप्साओं का काकटेल एक किस्म के पोएटिक-सरियलिज्म के अजूबे प्याले मे ढल कर इतना तीखा हो जाता है कि व्यूवर के सिनेमैटिक टेस्ट को चुनौती देता है..इस चलचित्र ने मुझे भी अपने सिनेमाई स्वाद को रिडिफ़ाइन करने पर विवश किया था..क्या इधर भी ऐसा कुछ स्म्भव हो पायेगा?..देखते हैं..
@शुक्रिया अपूर्व प्यारे,
लेओलो मैंने देखी नहीं, चलो, इसी बहाने तुमने मेरे देखने के लिस्ट में भी एक इजाफ़ा किया.
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