
बात खिंचती चली जाएगी और इन दो कौड़ी के कूल ड्यूड्स के साथ हम मुंबई के यथार्थ के किसी भी डिसेंट रिप्रेज़ेंटेशन तक नहीं पहुंचेंगे. क्योंकि कूलनेस के एक डेकोरेटिव ‘प्रेज़ेंटेशन’ से ज्यादा वास्तविकता का कोई तत्व उसमें है ही नहीं..
इन सवालों पर मीडिया की बौद्धिकता भी उतनी ही दो कौड़ी की है जितनी दो कौड़ी के अपने ये कूल ड्यूड्स.. और उनके सिरजनहार. एक फ़िल्म का प्रशंसात्मक कोरस खतम नहीं होता कि दूसरे की शान में दायें से बायें दुदुंभि बजने लगती है. ‘सरकार’ अनोखी, ‘ब्लैक’ गजब.. और पता नहीं क्या-क्या झंडिया चिपकती और तमगे बंटते रहते हैं! कोई इन भले आदमियों से पूछता नहीं कि हिंदी सिनेमा में अनूठेपन का ऐसा ही इतिहास रचा जा रहा है तो भला ऐसा क्यों होता है कि किसी भी बड़े अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्मोत्सव की प्रतियोगिता श्रेणी में छोटे-छोटे मुल्कों का प्रतिनिधित्व तो रहता है लेकिन भारतीय फ़िल्मों को विरले ही चयन के क़ाबिल समझा जाता है? इसलिए नहीं कि भारतीय सिनेमा से अंतर्राष्ट्रीय फेस्टिवल्स का कोई तक़रारी संबंध है. नहीं. इसलिए कि सिनेमा के अंतर्राष्ट्रीय यथार्थ में भारतीय मुख्यधारा- या कोई भी धारा- कूलनेस को मैनिफैक्चर करने की अदाएं भले सीख गई हो, यथार्थ से सिनेमाई समीकरण कैसे बनाए, इसकी तमीज़ उसे अभी भी बनानी सीखनी है!
मगर ‘मेट्रो’ की बात करते हुए इतनी सारी पहले व पीछे की चर्चा क्यों? इसीलिए कि ढेरों समझदार बंधुगण- अख़बारों के अंदर व अख़बारों से बाहर घरों में चाय पीते हुए दोस्तों के बीच भी- अचानक फिर से अनुराग बसु के ‘मेट्रो’ पर बात करते हुए मुंबई के यथार्थ के डिपिक्शन की भावनात्मक, रोमानी अदाएं देते दिख रहे हैं..
आज इतना ही.. अनुराग बसु के ‘मेट्रो’ पर विस्तार से कल लौटेंगे.