12/13/2009

दु:ख के रिसाव..

सामान्‍यतया, प्रकट तौर पर इतिहास हमेशा हमसे ज़रा दूर, कहीं बाहर चल रही परिघटना की तस्‍वीर बनी रहती है. वह अभागे लोग होते हैं जिनका जीवन सीधे उस भंवर की चपेट में आ जाए. क्‍लॉदिया ल्‍लोसा निर्देशित पेरु की फ़ि‍ल्‍म 'द मिल्‍क ऑव सॉरो' कुछ ऐसे ही अभागे संसार का सफर है. अपनी मां के मरने के बाद बहुत डरी हुई जवान नायिका फाउस्‍ता डगमग पैरों अपने अतीत में उलझी अपना वर्तमान सहेजने की कोशिश कर रही है. मज़ेदार यह है कि फाउस्‍ता की कहानी बड़ी आसानी से एक समूची सभ्‍यता का विहंगम दस्‍तावेज़ बनने लगता है. अंग्रेजी के एक ब्‍लॉग पर फ़ि‍ल्‍म की एक सीधी समीक्षा है, दिलचस्‍पी बने तो उधर नज़र मार लें. ब्रॉडबैंड अनलिमिटेड के जो सिपाही फ़िल्‍म डाउनलोड करना चाहते हैं तो उसका टौरेंट लिंक यह रहा.

गोले, सामानों के शोले.. द स्‍टोरी ऑव स्टफ़

चीज़ों की ठीक-ठीक पहचान न होने से फिर चिरकुटइयां होती है. कल मुझसे हुई. लगा जैसे ड्रॉपबाक्‍स बता रहा है अपने पीसी का माल मैं उनके फॉल्‍डर में कॉपी करके चिपका दूं और फिर जिनसे कहूं वे ऑनलाइन उसे ड्रॉपबाक्‍स के फोल्‍डर में खोलकर पा लेंगे, डाउनलोड की ज़रुरत न होगी, सामान्‍य-ज्ञान वाला सामान्‍य और ज्ञान दोनों तत्‍वों को हवा करके मैं मुगालते में रहा कि इंटरनेट हवा में हवाई चीज़ें खुद-ब-खुद हो जायेंगी, लेकिन कहां से होतीं, भई? और क्‍यों होती? ऐसे तो घटिया साइंस-फ़ि‍क्‍शन तक में न होती होंगी.

ख़ैर, मतलब चिरकुटई हुई, फ़ि‍ल्‍म को जो जान नहीं रहे, शायद चाह भी नहीं रहे, उनके झोले में ठेलने की कसरत की गुनहग़ारी कुबूलता हूं, बकिया क्‍या, बकिया यही कि भई, अज्ञानी के ज्ञान से तो यह सब आगे भी होता रहेगा ही. जैसे अभी कह रहा हूं कि यह कुछ पचासेक एमबी की सरल-सी समझदार एनीमेशन फ़ि‍ल्‍म है, आप जाकर देख लो, देख ही नहीं लो देखने से पहले एक नज़र यह उनके वेबसाइट पर भी डाल लो. दिलचस्‍पी बनी रहे तो यह फ़ि‍ल्‍म की लिखाई के पीडीएफ फ़ाइल का लिंक रहा, इस पर भी नज़र से दौड़ लें..

(भूपेन के लिए)

12/08/2009

आयम यूअर मैन..

अच्‍छा लगता है कि बाज़ार के शोर और बेमतलब बकलोलियों के इस दौर में, अब भी, रहते-रहते ऐसी फ़ि‍ल्‍म से टकरा जायें कि मन में तरावट फैल जाये, फ़ि‍ल्‍म के खत्‍म हो चुकने के बाद भी देर तक मन में कैसी तो अच्‍छी शराब पिये का असर बना रहे.. कुछ दिनों पहले अभय की मार्फ़त यूं ही संयोग से हाथ चढ़ी एक हिन्‍दुस्‍तानी डॉक्‍यूमेंट्री थी, ‘मालेगांव का सुपरमैन’, और यह दूसरी भी अभय के झोले से ही आयी- "Leonard Cohen: I'm Your Man", लेयनर्ड कोहेन की बतकहियां और उनके संगीत से मोहब्‍बत रखनेवाले दूसरे ‘गवैये’ उनके गानों को गाते हुए.. यू-ट्यूब का एक, दो, तीन लिंक जोड़ रहा हूं, और यह आखिर में चौथा, खुद पुरनके ‘लायन’ बाबा, बोनो की संगत में अपनी बादशाही गाते हुए, सुनते हुए मन तरे तो फ़ि‍ल्‍म भी देर-सबेर आप खोज लीजिएगा ही, नहीं खोज पाइएगा? गानों के कुछ लिंक यह रहे..

12/05/2009

एक पुरानी रुसी फ़ि‍ल्‍म के स्‍नैप्‍स..

मालूम नहीं था ब्‍लादिमीर मोतिल नाम का कोई निर्देशक रहा है, या रुस में कभी कोई 'वेस्‍टर्न' बनी है. सधी नज़र की बड़ी सुलझी कारस्‍तानी (अंग्रेजी में जिसे 'कूल' कहते) देखने के बाद खबर हुई वेस्‍टर्न के जानर की सोवियत रुस में पहली कोशिश थी, और दस लटके, ज़्यादा झटकों के बाद फ़ि‍ल्‍म बनकर जब 1970 में रिलीज़ हुई तो लोगों ने इतना पसंद किया कि बड़े लोगों की बड़ी-बड़ी फ़ि‍ल्‍म्‍ों भुला दी गई हैं, लेकिन 'रेगिस्‍तान का सफ़ेद सूरज' अब तक देखा जा रहा है..









11/13/2009

तीन फ़ि‍ल्‍में..

डॉक्‍यूमेंट्री थी, फ़ि‍ल्‍म देखे कुछ दिन हो गए लेकिन अवचेतन में अभी भी जैसे कहीं अटकी हुई है. कुछ ख़ास फ़ि‍ल्‍मों के साथ क्‍या होता है ऐसा कि एक अच्‍छी बितायी शाम की तरह स्‍मृति और संवेदना में कहीं कुछ छूटा रह जाता है? पियेर बोर्दू, पहले कभी नाम सुना नहीं था, इतना लिखा है उसमें का कुछ भी पढ़ा तो नहीं ही था, फ़ि‍ल्‍म देखते हुए ही ख़बर हुई कि 2001 की डॉक्‍यूमेंटेड कृति के एक वर्ष के अंतराल में ही बोर्दू साहब दिवंगत हुए. कभी मौका लगा तो लौटकर फिर कभी इस फ़ि‍ल्‍म को याद करेंगे, फिलहाल टौरेंट का एक लिंक उन ब्रॉडबैंड बरतनेवाले बंधुओं के लिए चिपका दे रहे हैं जो उत्‍साह में बोर्दू के जीवन व वैचारिक उठापटक के कुछ मौके देखने के मोह में अगर डाऊनलोड करना चाहें. एक दूसरी फ़ि‍ल्‍म सुख के बारे में है: आन्‍येस वार्दा की पुरानी 1965 की, कैसे चटख रंगों के चकमक रोमान में शुरु होती है, लेकिन नाटकीय अंत जैसे कहीं फ़ि‍ल्‍म को बेमज़ा, बेस्‍वाद छोड़ जाती है. फिर एक निहायत हल्‍के थ्रिलर-धागे में गुंथी, लेकिन दूसरी मज़ेदारियों में खूबसूरती से सजी कोरियन फ़ि‍ल्‍म देखी. अपने देश में भी बन सकती थी, लेकिन नहीं बनेगी, उसी तरह जैसे हमारे समय की परतों को धीमे-धीमे बेपरत करता हिंदी में एक अच्‍छा उपन्‍यास हो सकता था, लेकिन नहीं होगा..

10/19/2009

द स्‍टेशन एजेंट

इस संशयभरे समय में अब कभी कैसा सुखद संयोग होता है कि फ़ि‍ल्म देखते हुए कोई चमकदार चालाकी देख रहे हों जैसी अनुभूति नहीं होती. सामान्य लोगों के लगभग घटनाविहीन जीवन-प्रसंगों के चित्र गरिमा के सुलगते बिम्बि बन जाते हैं, और मन उसमें धंसा देरतक चिटकता रहे, अब सचमुच कहां, कितना होता है? इस उत्तरर-आधुनिकता के उत्तरार्द्ध में जब चेख़ोवियन कहानी-कहन स्वयं हाशिये की चीज़ हो गए हों, कथा-तत्वों से खेल सकने की अंतर्निहित गुणशीलता कहनेवाले की मेधा का परिचायक बनती-घोषित हो, गुणीजनों की वाहवाही बटोरती हो, जो दिख रहा है वही, उतना ही कह रहा हूं की सीधी राह का पथिक गज़ब का सनकी, संभवत: दुस्साहसी कहलाये, कलाकार-फ़ि‍ल्मकार क्यों कहलायेगा भला? फिर भी सुखद आश्चर्य का विषय है कि रहते-रहते कलाबाज़ार के चालाक अंबार में ऐसी फ़ि‍ल्में प्रकट होती रहती हैं, और हॉलीवुडीय ढर्रे पर उन्हें ढेर, ढेर, ढेर सारा धन न भी मिले, दुलार बहुत सारा मिलता रहा है, आंखें खोज-खोजकर इन फ़ि‍ल्मों को देख लेती रही हैं. ऐसी ही एक उदास, और धीरे-धीरे मन और दिमाग़ पर चढ़ती शाइनी गाबेल की एक फ़ि‍ल्म 2004 में आई थी, ‘अ लव सॉंग फॉर बॉबी लोंग’, फ़ि‍ल्म में जॉन ट्रवोल्टा और स्कारलेट जॉहानसन थे से विशेष फर्क नहीं पड़ता, और न ही इसे कोई जिक्र करने लायक बड़े अवार्ड से नवाजा गया, मगर जिन्होंने फ़ि‍ल्म देखी है उनसे फ़ि‍ल्म के बाबत पूछकर फिर उनके चेहरे के भाव पढ़ि‍ये, उस भाव में वे सारे अवार्ड समाहित होंगे जो गाबेल को सार्वजनिक तौर पर प्राप्त नहीं हुए!

कहानी और चरित्रों में अटक जाना, फ़ि‍ल्म के खत्म होने के बहुत-बहुत दिनों बाद तक उसे अपनी त्वचा के भीतर लिये जीते रहना पहले एक ताक़त हुआ करती थी जो इस हल्ले-गुल्ले और रोज़ नये माल की तरफ़ आंख करो के आततायी वक़्त ने फ़ि‍ल्मों से छीन लिया है (आमतौर पर कलाजगत और साहित्य़ भी उससे अछूते कहां रहे हैं?), फिर भी रहते-रहते कोई दुस्साहसी होता है जो ‘लिटिल मिस सनशाइन’ की कसरत कर डालता है, थॉमस मैकार्थी बहुत सालों से एक्टिंग करते रहे हैं, निर्देशन अभी तक दो का ही किया है, 2007 में एक फ़ि‍ल्मं आई थी, ‘द विज़ि‍टर’, मालूम नहीं ब्लॉग पर कभी जिक्र किया या नहीं, वह भी काफी निर्दोष किस्म का काम था, और अभी कुछ घंटों पहले देखी, ‘द स्टेशन एजेंट’ वह 2003 की और बतौर निर्देशक पहली फ़ि‍ल्म थी, और हाशिये पर अपने अकेलेपन में पड़े लोगों की ऐसी सरल, चमकभरी फ़ि‍ल्म है कि देखते हुए कभी-कभी सचमुच वहम होता है कि आधुनिकता के उत्तर, उत्तरार्द्ध, छद्म सब अभी भी बहुत दूर हैं.

लहे तो आप भी ज़रूर देखिए. महज़ संयोग ही कहेंगे कि ब्‍लॉग पर इससे पहलेवाली पोस्‍ट के 'अप' के लिखनेवालों में एक नाम थॉमस का भी था!

8/03/2009

अप..



महाराज, आइए, आराम से नीचे आइये.. या फिर ऐसा है मुझी को ऊपर कहीं नीले में उड़वाइये.. अब जो करना है, जल्‍दी बताइये.. मैं बस राह तक रहा हूं (आप लव आज तक का तक रहे होंगे, मैं बुड्ढे को ही निरख रहा हूं, पिक्‍सार की नयी एनीमेशन है.. हालांकि पोस्‍टर के बाद अभी असल चीज़ निरखना बाकी है)..

रात को तीन निर्देशकों की मिलकर बनायी 'टोकियो' देख रहा था, चखने को वह शराब भी बुरी नहीं. तीन कहानियों में एक अपने जून हो बॉंग की है.

7/14/2009

अंतर्लोक के झमेलों की कैसी तो फ़ि‍ल्‍में.. कैसे फ़ि‍ल्‍मकार..

झमेलाबझे (डिसफंक्‍शनल) परिवारों के दु:ख.. कैसे-कैसे दु:ख.. देखने लगो तो फिर क्‍या-क्‍या दिखने लगता है, कहां-कहां नहीं दिखता! घटक की 'मेघे ढाका तारा' याद है? परिवारों के भीतर 'मुग़ले-आज़म' होता है न 'हम आपके हैं कौन', ज़्यादा कहानियां 'लिटिल मिस सनशाइन', 'फमिल्‍या रोदांते' और लुक्रेचिया मारतेल की 'द स्‍वांप', 'हेडलेस वूमन' के दायरों में घूमती हैं, लेकिन अंदर के टंटे जब और भी भयकारी हों तब? फिर क्‍या करे आदमी? और जब आदमी आदमी न हुआ हो बच्‍चा हो? जैसे 'द आर्ट ऑफ क्राइंग' का ऐलेन? झमझम बरसाती दोपहर में फ़ि‍ल्‍म देखी देखकर ऐलेन का अंतर्लोक समझने की कोशिश कर रहा हूं.

फिर ऐलेन से ज्यादा मर्मांतककारी तक़लीफ़ है ऐन की, इज़ाबेल कोइक्‍सेत का नाम नहीं सुना था, पहली फ़ि‍ल्‍म देखी, देखकर काम से दंग हूं..

या एंजेला शानेलेक की फ़ि‍ल्‍म 'नाखमिताग' देख रहा था फॉर्म में इस तरह की ट्रांसपरेंसी, ऐसी सधाई कोई कैसे हासिल करता है सोच-सोचकर उलझन हो रही है. हालांकि पिछले दिनों वॉंग जून-हो, लुकास मूदीस्‍सॉन, इज़ाबेल, एंजेला जैसे सलीमाकार अचक्‍के हाथ चढ़े इससे गदगद भी हूं..

7/10/2009

जय ज़्यां..

कभी ऐसा संयोग नहीं बना कि रेनुआर की काफी फ़ि‍ल्‍में एक साथ देखी. सब अभी तक देखी भी नहीं. और अलग-अलग जब देखना हुआ तो लंबे अंतरालों में हुआ. यूनिवर्सिटी के फ़ि‍ल्‍म क्‍लब में उन्‍हें पहली बार देखा था, लेकिन जाननेवाले न जानें मायेस्‍त्रो साहब की फ़ि‍ल्‍मोग्राफी बड़ी विशाल है, और हमारी तरह के मंदबुद्धि अब जाकर ज़रा समझ पा रहे हैं कि उनमें किस-किस तरह के छिपे भेद और कमाल हैं! अभी रात ही को उनकी एक और फ़ि‍ल्‍म पर नज़र पड़ी जिसमें कहानी जैसी कोई कहानी भी नहीं, बस इतना नचवैयों का एक धुनी मैनेजर है पैसों की तंगी और बीस झंझटों के बीच किसी तरह मूलान रूज़ पर अपना मेला जमाना चाहता है, बस, बुढ़ा रहे जां गाबीं के सहज अभिनय में इतनी सी ही है कहानी, मगर फिर कैसी तो तरल-गरल मानवीयता में नहायी हुई, ओह. ओह ओह ओह, कहां से रेनुआर के पास इतनी मानवीयता थी, माथे पर ज़ोर डालकर सोचते हुए लगता है बहुत ज़्यादा सरप्‍लस में थी..

सिनेमा कैसा चमत्‍कार है देखने के लिए तो लोग बहुत फ़ि‍ल्‍मकारों की मोहब्‍बत में रहते हैं, जीवन की मोहब्‍बत को सिनेमा में पढ़ने के लिए फ़ि‍ल्‍में देखनी हों और बार-बार उसमें डुबकी लगाते रहना हो तो संभवत: उसके लिए ज़्यां रेनुआर सबसे ऊंचे कद के सिलेमा-जीवनकार शाहकार हैं!

7/09/2009

खुद को समझायें बतायें क्‍या?..

भागाभागी में जीवन के कैसे दुर्योग हैं कि जिस दुनिया में आपका मन रमता है अब उसकी तक ज़रूरी नहीं खुद को ठीक-ठीक ख़बर रहे (वैसे मैं तो भागता भी कहां हूं? जो और जितना भागना है खुद से ही भागना है!). सिनेमा की रखता हूं फिर पता चलता है शायद नहीं रख सका हूं. अभी थोड़ा समय हुआ एक स्‍वीडिश फ़ि‍ल्‍म ‘तिलस्‍सामांस’ (साथ-साथ) पर नज़र गई तो पता चला 2000 की है हमारे अब जाकर हाथ लगी है. साथ ही यह भी पता चला लुकास मूदीस्‍सॉन इसके पहले ‘शो मी लव’ बना चुके हैं, ‘तिलस्‍सामांस’ के बाद ‘लिल्‍या 4 एवर’ वाली शोहरत कमा चुके हैं, और उसके बाद काफी निजी किस्‍म की चार और फ़ि‍ल्‍में बनाई हैं. कहने का मतलब लगता है बीच मेले में खड़े रहते हैं और कितने मीत हैं उनके प्रीत पर नज़र नहीं पड़ती! कहां फंसी रहती है? कहीं तो रहती होगी जो ‘मेमरिज़ ऑव मर्डर’ के कोरियाई निर्देशक बॉंग जून-हो के काम त‍क पर भी नहीं पड़ी थी. सचमुच, कोई बताये खुद को बतायें क्‍या?

यह बॉंग जून-हो से एक बातचीत का लिंक है. यह एक दूसरा है. यह एक लुकास के साथ इंटरव्‍यू का लिंक है.

(ऊपर: 'मेमरिज़ ऑव मर्डर' का कोरियाई पोस्‍टर)

7/04/2009

वामोस, कॉम्‍पानियेरो

मुश्किल विषयों पर आसान-सी दिखती तरंगभरी फ़ि‍ल्‍म बना लेना कलेजे का काम होगा. लेकिन चिलीयन निर्देशक अलेहांद्रो अमेनबार शायद कलेजा जेब में लेकर घूमते हैं. उनकी ताज़ा फ़ि‍ल्‍म- चौथी शताब्‍दी के मिस्‍त्र में एक महिला दार्शनिक के गिर्द घूमती- ‘अगोरा’ से भी यही अंदाज़ मिलता है कि कलेजे के साथ एक फ़ि‍ल्‍म कहां-कहां किन गहराइयों तक उतर सकती है. ‘अगोरा’ 62वें कान फ़ेस्टिवल के ऑफिशियल सेलेक्‍शन में थी, लेकिन मैंने देखी नहीं, यहां उसकी बात नहीं कर रहा, एक और वास्‍तविक कहानी- उतनी पुरानी नहीं- 25 वर्ष की उम्र में दुर्घटनाग्रस्‍त होकर पूरी तरह विकलांगता का शिकार हुए रामोन साम्‍पेद्रो जो अगले 29 वर्षों तक अपने आत्‍महत्‍या के ‘अधिकार’ के लिए अदालती लड़ाई लड़ते रहे, और 1998 में साइनाइड पीकर अपनी जान ली, 2004 में अलेहांद्रो ने बिछौने में क़ैद रामोन के जीवन पर ‘द सी इनसाइड’ फ़ि‍ल्‍म बनायी, उसकी तारीफ़ में कुछ पंक्तियां लिखना चाहता हूं.

और रामोन साम्‍पेद्रो के जीवन की मुश्किलों, स्‍वयं को खत्‍म करने के उसके चुनाव की नैतिक जिरह में नहीं उतरूंगा, अलग-अलग समाजों में उसके अलग नैतिक परिदृश्‍य होंगे, हमारे यहां तो समलैंगिकता से पार पाने में ही अभी शासन को हंफहंफी छूट रही है, मैं फ़ि‍ल्‍म की संगत के सुख तक स्‍वयं को सीमित रखूंगा.

साहित्‍य में ऐसा नहीं होता, पर फ़ि‍ल्‍मों के साथ कभी-कभी सचमुच ऐसा हो जाता है कि लगता है कोई जादू था, सब चीज़ें जैसी चाहिये ठीक वैसे अपनी जगह सेट हो जाती हैं. अभी कुछ महीनों पहले देखी ‘द डाइविंग बेल एंड द बटरफ्लाई’ के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था. मज़ेदार बात यह है कि वह फ़ि‍ल्‍म भी शारीरिक रूप से पूरी तरह अक्षम चरित्र के गिर्द केंद्रित थी, शुरू में एक खास तरह का धीरज मांगती है लेकिन फिर जैसे ही आप फ़ि‍ल्‍म के साथ हो लेते हैं लगता है इससे बेहतर, इससे खूबसूरत मार्मिक यात्रा संभव नहीं था!

द सी इनसाइड’ के संसार में बहुत लैंडस्‍केप नहीं है. बिस्‍तरे पर रामोन और उसकी देखभाल में जुटा बड़े किसान भाई का परिवार है, फिर कुछ वैसे लोग हैं जो उसकी अदालती लड़ाई का हिस्‍सा हैं. मगर रामोन के रूप में यावियार वारदेम से अलग बाकी चरित्रों की कास्टिंग ही नहीं, हर किसी का चयन आपको हतप्रभ करता रहता है कि सबकुछ इतना दुरुस्‍त कैसे हो गया, रामोन की बातें सही मात्रा में तकलीफ़ और ह्यूमर का ऐसा मेल कैसे हुईं. और फिर मज़ेदार कि ऐसे विषय के बावज़ूद फ़ि‍ल्‍म में किसी तरह की आंसू-बहव्‍वल भावुकता नहीं है. फ़ि‍ल्‍म रामोन को वह समूची गरिमा देती है जिसकी कामना में वह अपना जीवन खत्‍म कर लेना चाहता रहा होगा.

ब्रावो अलेहांद्रो.

7/02/2009

फ़ि‍ल्‍मी भटकानी: नई पुरानी



लीना वर्टमुलर की इटैलियन ‘सेवेन व्‍यूटिज़’, अर्जेंटिनी लुचिया प्‍योंजो की ‘XXY’, जोकिम त्रायर की लेखकीय जीवन के सजीले भविष्‍य व दोस्तियों की महीन छानबीन करती नोर्वेजियन 'रिप्राइस', यान कादर की प्‍यारी काली-सफ़ेद चेक फ़ि‍ल्‍म 'बड़ी सड़क की दूकान', वित्‍तोरियो दि सिका की एकदम शुरुआती 1944 की 'बच्‍चे हमें देख रहे हैं', लुई बुनुएल के मैक्सिकन दौर की आखिरी 'द एक्‍सटर्मिनेटिंग एंजल', जापानी घटक(?)मिकियो नारुसे की 'बेटी, बीवियां और एक मां'. फिर सदाबहार मेरे पुराने पसंदीदा जॉन फ्रांकेनहाइमर की चमकदार काली-सफ़ेद बर्ट लैंकास्‍टर स्‍टारर फ्रेंच पार्टिज़न लड़ाई के दिनों की कहानी 'द ट्रेन', इलीया कज़ान की मारलन ब्रांडो, एंथनी क्‍वीन स्‍टारर रोमेंटिक रेवोल्‍यूशनरी स्‍टाइनबेक लिखित स्क्रिप्‍ट 'विवा ज़पाता!.

6/28/2009

जब हमारा घर तैयार होगा: बेला तार की दुनिया

1955 की पैदाइश बेला तार हंगेरियन फ़ि‍ल्‍मकार हैं. भारत में तार की फ़ि‍ल्‍मों से लोगों की विशेष पहचान नहीं, और पहचान बनी भी है तो आमतौर पर सीधे अतिवादी धुरियों तक जाती है. ख़ास तौर पर उनके करियर की बाद की- डैमनैशन, सतानतांगो सी फ़ि‍ल्‍मों में फ़ॉर्म की जैसी प्रभावी उपस्थिति है और हॉलीवुडीय पारंपरिक सिनेमाई मनरंजन के तत्‍वों से जिस तरह का दुराव-विलगाव है, उसमें आदमी या तो बेला की फ़ि‍ल्‍मों का दीवाना बन जाता है या फिर उनसे नफ़रत करने लगता है.

थोड़ी देर पर पहले उनकी दूसरी फ़ि‍ल्‍म ‘द फ़ैमिली नेस्‍ट’ देख रहा था- हमेशा सिर पर चढ़े रहनेवाले पैट्रनाइजिंग ससुर के साथ वन रुम किचन वाले सेट में रह रही और रोज़ उल्‍टे-सीधे झगड़ों में उलझ रही जवान औरत जिसकी उस दुनिया से बाहर निकलने के बहुत रास्‍ते नहीं हैं- भारतीय संदर्भों में काफी दिलचस्‍प लग रही थी.

फ़ि‍ल्‍म का अंत एक छोटे गाने से होता है उसे नीचे डाल रहा हूं:

When our house is ready...
You will be our first guest
If you come in the evening
we will dine together...
and you can sleep in our spare room.
We will watch over your dreams.
And while you sleep your dreams will come true.
It will be such a nice little house.
We will always have plenty of friends.
We will all sing sentimental songs...
...when our house is ready.
बेला तार की फिल्‍मकारी पर यह एक मनोरंजक लिंक है. यह यूट्यूब से उनकी एक फ़ि‍ल्‍म की शुरुआत का छोटा टुकड़ा. यह उनसे एक संक्षिप्‍त प्रिंट का इंटरव्‍यू. और एक यह दूसरा, वीडियो पर यूट्यूब से.

5/05/2009

टीवी पर आज शाम



वर्ल्‍डमूवीज़ चैनल पर आज शाम एक के बाद एक दो निहायत अच्‍छी फ़ि‍ल्‍में हैं, दोनों ईरानी, पहली पौने सात बजे जनाब जाफर पनाही की 'आईने', दूसरी साढ़े आठ बजे माजिद मजीदी की 'द सॉंग ऑफ़ स्‍पैरोज़'.. जिनसे लहे, ज़रूर देखें..

4/17/2009

आइ एम इज़ी..

सतह पर जो दिखता है तह में जाकर फिर कैसे-कैसे तो खोह नज़र आने लगते हैं, नहीं? ऐसे टेढ़े सवालों का बड़ा ही सीधा जवाब ऑल्‍टमैन से बेहतर कौन समझता होगा! 1975 में रिलीज़्ड रॉबर्ट ऑल्‍टमैन की मज़ेदार, परतदार फ़ि‍ल्‍म ‘नैशविल’ से कीथ कैराडाइन का उनका ऑस्‍कर विनिंग गाना..



गाने के मूल शब्‍द:

It's not my way to love you just when no one's lookin'/ It's not my way to take your hand if I'm not sure/ It's not my way to let you see what's goin' on inside of me/ When it's a love you won't be needing if you're not free/ Please stop pullin' at my sleeve if you're just playin'/ If you won't take the things you make me wanna give/ I never cared too much for games and this one's drivin' me insane/ You're not half as free to wander as you claim/ But I'm easy/ Yeah, I'm easy.

Give the word I'll play your game as though that's how it oughta be/ Because I'm easy/ Don't lead me on if there's nowhere for you to take me/ If lovin' you would have to be a sometime thing/ I can't put bars on my insides/ My love is somethin' I can't hide/ It still hurts when I recall the times I've tried/ But I'm easy/ Yeah, I'm easy.

Take my hand and pull me down/ I won't put up any fight because I'm easy/ Don't do me favors let me watch you from a distance/ 'Cause when you're near I find it hard to keep my head/ And when your eyes throw light at mine it's enough to change my mind/ Make me leave my cautious words and ways behind/ That's why I'm easy/ Yeah, I'm easy.

Say you want me I'll come runnin' without takin'time to think/ Because I'm easy/ Yeah, I'm easy/ Take my hand and pull me down/ I won't put up any fight/ Because I'm easy/ Yeah, I'm easy/ Give the word I'll play your game as though that's how it oughta be/ Because I'm easy.

4/03/2009

फ़ि‍ल्‍में देखीं..



थाइलैण्‍ड के आदित्‍य अस्‍सारात की पहली- वंडरफुल टाउन, चेक यान रेबेक की पेलिस्‍की, फ्रेंच ज़ाक ऑदियार की द बीट दैट स्किप्‍ड माई हार्ट और दक्षिण कोरिया के सांगसू इम की द गुड लॉयर्स वाइफ़.. जोड़े गये लिंक से फ़ि‍ल्‍मों की एक बेसिक रिव्‍यू पर नज़र जायेगी..

तीन का एक: फिर एक बार हिंदी फ़ि‍ल्‍में..

हिंदी फ़ि‍ल्‍मों पर लिखना, लिखते रहना सचमुच कलेजे का काम है. ऐसा नहीं है कि हिंदी साहित्‍य पर लिखना कलेजे का काम नहीं है, लेकिन साहित्‍य के साथ सहूलियत है कि आप किताब बंद कर देते हैं चिरकुटई ओझल हो जाती है, जबकि हिंदी फ़ि‍ल्‍मों की रंगीनियां आपका पीछा नहीं छोड़तीं, बस के पिछाड़े से लेकर बाथरुम के आड़े तक ‘मसक अली, मसक अली!’ की मटक का सुरबहार तना रहता है. बार-बार याद कराता कि अभीतक हमको नहीं देखे? जन्‍म फिर ऐसे ही सकारथ कर रहे हो? आप अस्तित्‍ववादी चिंताओं में घबराकर ‘दिल्‍ली 6’ की ज़द में घुस ही गये तो फिर दूसरी वैचारिक घबराहटें शुरू हो जाती हैं. पहली तो यही कि हिंदी फ़ि‍ल्‍मों का निर्देशन करनेवाले ये प्रतिभा-पलीता किस देश के कैसे प्राणी हैं? और जैसे भी प्राणी हैं भक्ति व श्रद्धा में भले इनका रंग निखरता हो, फ़ि‍ल्‍म बनाने का करकट करतब किस भटके डॉक्‍टर ने इन्‍हें प्रीसक्राइब किया है? माने अभी ज्यादा वक़्त नहीं हुआ आपने ‘रंग दे बसंती’ के तरबूज के फांक काटे थे, और इतनी कर्कटता से अब तरबूज की तरकारी (या ‘दिल्‍ली 6’) परस रहे हैं? कहां गड़बड़ी कहां है, भाईजान? काम की कंसिंस्‍टेंसी कोई चीज़ होती है? कि स्‍टील की फैक्‍टरी में आप प्‍लास्टिक की चप्‍पल मैनुफैक्‍चर कर आते हैं? और बाहर आकर दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए मुस्‍कराते भी रहते हैं कि इट्स अ ट्रिब्‍यूट टू माई सिटी! इज़ दिज़ सम ट्रिब्‍यूट, मिस्‍टर मेहरा, ऑर हाथी की लीद? इट्स रियली नॉट फ़नी!

माने सचमुच यह दार्शनिक प्रश्‍न होगा कि आप किस एंगल से ‘दिल्‍ली 6’ को एक फ़ि‍ल्‍म मानें. माने इसलिए मानें कि फ़ि‍ल्‍म में बहुत सारे एक्‍टर हैं और वो बहुत सारी बकबक करते हैं और किसी घटिया वाईड एंगल वीडियो की तर्ज़ पर रामलीला जैसा कुछ जाने कितने जन्‍मों तक चलता रहता है? मैंने काफी समझा-बुझाकर खुद को तैयार किया था कि कम से कम मिस्‍टर जूनियर बच्‍चन को अमरीका से लौटा हुआ मान लूं, मगर इतनी रियायत भी मन पचा ले लगता है अभिषेक बाबा इतने पर के लिए भी तैयार नहीं थे. अमरीका से नहीं प्रतापगढ़ के किसी टैक्‍सी यूनियन के सेक्रेटरी के छुटके भइय्या रौशन ख़ानदान हैं पूरे वक्त इसीकी प्रतीति होती रही! कास्टिंग के बारे में सचमुच क्‍या कहा जाये, फ़ि‍ल्‍म की इकलौती अच्‍छी बात ‘मसक अली’ वाले गाने को देखते समय लगता है कबूतर की कास्टिंग सही हुई है. दिल्‍ली और चांदनी चौक लगता है मुमताज़ के 'दुश्‍मन' के ‘देखो, देखो, देखो, बाइस्‍कोप देखो’ से इंस्‍पायर होकर डायरेक्‍टर साहब कैप्‍चर कर रहे थे.

अबे, सचमुच कोई हिंदी फ़ि‍ल्‍म क्‍यों देखे? मगर यह फिर वही बात हुई कि कोई हिंदी में किताबें क्‍यों पढ़े. आदमी अकेलेपन से घबराकर जैसे शादी कर लेता है, मैं हिंदी की किताब एक ओर हटाकर हिंदी फ़ि‍ल्‍म देखने चला जाता हूं! इसी तरह के मानसिक भटकाव में ‘गुलाल’ देखने चला गया होऊंगा. फ़ि‍ल्‍म के दस मिनट नहीं बीते होंगे, ख़ून खौलानेवाली बहुत सारी बड़ी-बड़ी बातें होने लगीं, मैं भी खौलता हुआ वयस्‍क दर्शक बनने की भूमिका बनाने लगा. मगर फिर बहुत जल्‍दी थियेट्रिकल गानों की थियेट्रिकल अदाओं से ऊब इस समझ पर भी आकर आराम करने लगा कि फलां जगह घुसा देंगे, डंडा कर देंगे की महीन बुनावट वाली ये दुनिया हमें पारंपरिक हिंदी सिनेमा से अलग दुनिया देखने के क्‍या नये मुहावरे दे रही है, सचमुच दे रही है?देव डी’ पर बड़े सारे भाई और बच्‍च लोग गिर-गिरके बिछते और बिछ-बिछके गिरते रहे मगर वह टुकड़ा-टुकड़ा दिल की कौन नयी दुनिया खोल रही थी? या ड्रग्‍स, सैक्‍स, वॉयलेंस का एक ज़रा सा हटके वही पुराना कॉकटेल ठेल रही थी? कुछ लोग मेरे कहे से संभवत: नाराज़ हो जायें, कि मैं फ़ेयर नहीं कह रहा एटसेट्रा मगर माफ़ कीजिये, दोस्‍तो, मेरे पास इस सिनेमा के लिए ‘सिनेमा ऑफ़ डिसपेयर’ से अलग और कोई नाम नहीं सूझता. एंड इन माई अर्नेस्‍ट सिंसीयरिटी आई जेनुइनली क्‍वेश्‍चन ऑल दोज़ फ़ि‍ल्‍म एंथुसियास्‍ट्स हू आर गोइंग गागा ओवर गुलाल..

गुलाल से निकलकर ‘बारह आना’ लोक में गया, और सच कहूं फ्लैट, इकहरा डायरेक्‍शन, खराब ऐक्‍टरों व निहायत सिरखाऊ बैकग्राउंड स्‍कोर के बावज़ूद फ़ि‍ल्‍म देखने का मलाल नहीं हुआ. आसान रास्‍तों की सहूलियत से मुक्‍त, नेकनीयती और मुश्किल स्क्रिप्‍ट धीरे-धीरे अपने को संभाले ठीक-ठाक निकल जाती है. गुलाल की बजाय बारह आना वाली दुनिया में होना ज़्यादा अर्थपूर्ण लगता है.

2/14/2009

परी.. पैरिस.. पेशानियां..



Paris.. Snippets of life, characters coming into each-other, going up and down.. a really, nice innocent cinematic trip.. three cheers for director Cédric Klapisch..

2/11/2009

देव डी, अनुराग, डैनी बॉयल और हमारा समय इत्‍यादि..

बॉलीवुड की ऐसी दुनिया में जो विश्‍व सिनेमा के बरक्स अभी तक अपना ककहरा भी ढंग से दुरुस्‍त नहीं कर पायी है, अनुराग में ढेरों खूबियां हैं. अपनी और अपनी से ज़रा ऊपर की पीढ़ी के बाकी सेनानायकों के उन नक़्शेकदमों- जिनमें लोग किसी अच्‍छी-खराब कैसी भी शुरुआत के बाद सिर्फ़ और सिर्फ़ बड़ी फ़ि‍ल्‍में, और बड़े स्‍टारों का रूख करते हैं- से निहायत अलग अनुराग का अभी तक का ग्राफ़ परिचित बंबइया मुहावरों से बाहर के एक्‍टरों को इकट्ठा करके अपने ढंग की फ़ि‍ल्‍म बनाना रहा है. ‘नो स्‍मोकिंग’ जैसी फ़ि‍ल्‍म में उसका सुर बिगड़ भले गया हो, अनुराग की बुनावट की कंसिस्‍टेंसी अपनी उन्‍हीं पहचानी बारोक रास्‍तों पर चलती दिखती है. बॉलीवुड की बंधी-बंधायी इस अटरम-खटरम राग में अनुराग ने एक और दिलचस्‍प और नये एलीमेंट का जो इज़ाफा किया है वह बंधे-बंधाये लोकेशनों से बाहर फ़ि‍ल्‍म के एक्‍चुअल शूट को बाहरी वास्‍तविक संसार की खुली बीहड़ता में ले जाकर एकदम से बेलौस तरीके से फैला देना है, और इस लिहाज से अनुराग मणि रत्‍नम की ‘सजायी’ और डैनी बॉयल की ‘स्‍लमडॉग मिलिनेयर’ की ‘बुनाई’ सबसे चार कदम आगे चलते हैं. आज के बॉलीवुडीय वास्‍तविकता के मद्देनज़र अनुराग की इन अदाओं में ऐसा ‘इलान’ है कि तबीयत होती है जाकर बच्‍चे का कंधा ठोंक आयें. वाकई यह बड़ा अचीवमेंट है. फिर? अनुराग में यह प्रतिभा भी है कि छोटे-छोटे सिनेमाई क्षणों में कैज़ुअल तरीके से खूब सारे डिटेल्‍स पिरो लें, और ऐसा नहीं कि फिर वहां अपनी मोहिनी पर इतराते अटके रहें, बिंदास तरीके से आगे निकल जायें, तो इतने सारे तो हाई पीक्‍स हैं अनुराग की सिनेमायी संगत में, फिर भी कल ‘देव डी’ देखी और दिल एकदम टूट सा गया! क्‍यों टूटा में इंडल्‍ज नहीं करूंगा, यह अनुराग नहीं समाज के फलक के बड़े सवाल हैं इनके बारे में चंद बातें करूंगा, अकल में और चीज़ें घुसीं तो उनकी चर्चा आगे फिर होती रहेगी..

तक़लीफ़ के एकांतिक क्षणों में व्‍यक्ति की वल्‍नरेबिलिटी के कुछ बड़े प्‍यारे मोमेंट्स हैं ‘देव डी’ में- कोमल, एक अकेले पत्‍ते की तरह लरज़ता, कांपता व्‍यक्ति. लेकिन प्रेम और सांसारिक अनुभव की इतनी भर गरिमा की अंडरस्‍टैंडिंग के बाद देव डी आगे कहीं नहीं जाती, सीधे यहीं बैठ जाती है. मैंने गिनती गिनना (या कायदे से उनको सुनना, समझना भी) भी बंद कर दिया था, लेकिन समीक्षक बताते हैं फ़ि‍ल्‍म में अट्ठारह गानों को बखूबी कहानी के तार में पिरोया गया है, अभय देओल ही नहीं, कल्‍की, माही सबके बड़े उम्‍दा परफ़ारमेंसेस हैं, एक हिंस्‍त्र किस्‍म की एनर्जी फ़ि‍ल्‍म की शुरुआत से लेकर आखिर तक बनी रहती है, लेकिन फ़ि‍ल्‍म में आप किसी सामूहिक मानवीयता का कोई गाना सुनने की उम्‍मीद पाले बैठे हों, तो जाने क्‍यों मन एकदम खाली-खाली सा महसूस करने लगता है, फ़ि‍ल्‍म तेजी से ऊब पैदा करना शुरू करती है, मानो कोई बड़ा विहंगम बारॉक कैनवस अचानक आंखों के आगे खुल गया हो, लेकिन उसकी कोई आत्‍मा न हो!

मगर उदासियों और नयी सम्‍भावनाओं का ककहरा बांचने में लगे बच्‍चों को फ़ि‍ल्‍म जंच रही है, इतनी जल्‍दी एक छोटे-से बड़े संसार में ‘इमोशनल अत्‍याचार’ एक बड़े अरबन मुहावरे की शक्‍ल में हिट हो गया है तो हम भी सोच में पड़े हैं, कि गुरु, चक्‍कर क्‍या है. पार्टनर, गिरे क्‍यों पड़ रहे हैं, लोग? अभी चंद महीनों पहले हमने ‘ओये लकी..’ के दिबाकर को शाबासीमाल पहनाया था, मज़े की बात वहां भी अभय थे, पतित नायक का नायकत्‍व था, लेकिन ओह, कैसी तो उदात्‍तता थी, एक मानवीय डिग्निटी थी दिबाकर की फ़ि‍ल्‍म में, चरित्रों की तक़लीफ़ में आपका मन फड़फड़ाता रहता है, देव डी में कभी आपकी आत्‍मा में ऐसे तीर नहीं धंसते, फिर भी फ़ि‍ल्‍म ने एक बड़े शहरी समुदाय का स्‍नेह फंसा रखा है (और वह सैक्‍स की वज़ह से है ऐसा मैं नहीं मानता), क्‍यों?..

शायद यह ऐसे ही नहीं हो गया है कि ‘देव डी’, और बड़े अर्थों में ‘स्‍लमडॉग मिलिनेयर’ भी, एक बड़े शहरी समुदाय के मन को भा रही है. ‘स्‍लमडॉग..’ तो भारतीय यथार्थ का एक क्रूड ऐसा पिक्‍चर पोस्‍टकार्ड है जो खास फिरंगी कंस्‍पंशन के लिए तैयार किया गया है, फिर यह यहां की इंडियन क्राउड को क्‍यों रास आ रहा है? शायद इसीलिए रास आ रहा है कि हमारे देखते-देखते यहां भी बड़े शहरों में एक ऐसी आबादी बड़ी हो गयी है जो अपने आसपास के यथार्थ को उन्‍हीं चश्‍मों से देखती है जिन चश्‍मों से कोई फिरंगी आंख हमारे समाज को देखेगी? थोड़ा पहले तक हक़ीकत यह थी ‘लगान’ के हाइजेनिक गांव इस शहरी तबके के मन में गांव की वास्‍तविकता का परिचायक थे, उसके बाद ‘रंग दे बसंती’ के म्‍यूजिकल फ्लाईट में इसने देशभक्ति का थोथा सबक पा लिया, अब यह अपने समाज को अपनी आंखों पहचानने, पहचान पाने की बनिस्‍बत डैनी बॉयल के स्‍केची, एक्‍सप्‍लॉयटेटिव ‘स्‍लमडॉग..’ की मार्फ़त पहचान लेने की सहूलियत में सुखी होती है. फ़ि‍ल्‍म और समाज दोनों ही के लिए यह शुभ संकेत नहीं है, बाह्य सामाजिक यथार्थ के वास्‍तविक रेशों से कटे, चरम सेल्‍फ़ इंडलजेंस के ये नये मेनीफ़ेस्‍टों हैं. ‘स्‍लमडॉग..’ के साथ यहा ‘देव डी’ की याद महज इस संयोग के लिए नहीं कर रहा हूं कि फिल्‍म में डैनी बॉयल के आभार का एक क्रेडिट टाइटल है, नहीं, देव डी भी अपनी समूची एनर्जी में चीख-चीखकर उसी सेल्‍फ़ इंडलजेंस का बड़ा घोषणापत्र बनाती रहती है जिसमें भयानक सोशल डिसकनेक्‍ट है, सिर्फ़ मैं है मैं है, सामाजिक रेफ़रेंसेस महज बैकग्राउंड डिटेल्‍स हैं (स्क्रिप्‍ट व फिल्‍म में यह गूंथ लेना अनायास ही नहीं रहा होगा कि देव नशे की हालत में अपनी कार से सात लोगों को कुचलता उनकी मौत का कारण बनता है, दर्शकों के लिए यह कहीं कंसर्न व टेंशन का विषय बनने की मांग नहीं करता!), समाज नहीं है. ऐसा सिनेमा अत्‍याचारी गानों का जश्‍नगाह भले बन जाये, भारतीय सिनेमा को कहीं ले जानेवाला सुरीला गान तो क्‍या बनेगा. एन एक्‍स्‍ट्रीमली सैड फेनोमेनन..