7/02/2009
फ़िल्मी भटकानी: नई पुरानी
लीना वर्टमुलर की इटैलियन ‘सेवेन व्यूटिज़’, अर्जेंटिनी लुचिया प्योंजो की ‘XXY’, जोकिम त्रायर की लेखकीय जीवन के सजीले भविष्य व दोस्तियों की महीन छानबीन करती नोर्वेजियन 'रिप्राइस', यान कादर की प्यारी काली-सफ़ेद चेक फ़िल्म 'बड़ी सड़क की दूकान', वित्तोरियो दि सिका की एकदम शुरुआती 1944 की 'बच्चे हमें देख रहे हैं', लुई बुनुएल के मैक्सिकन दौर की आखिरी 'द एक्सटर्मिनेटिंग एंजल', जापानी घटक(?)मिकियो नारुसे की 'बेटी, बीवियां और एक मां'. फिर सदाबहार मेरे पुराने पसंदीदा जॉन फ्रांकेनहाइमर की चमकदार काली-सफ़ेद बर्ट लैंकास्टर स्टारर फ्रेंच पार्टिज़न लड़ाई के दिनों की कहानी 'द ट्रेन', इलीया कज़ान की मारलन ब्रांडो, एंथनी क्वीन स्टारर रोमेंटिक रेवोल्यूशनरी स्टाइनबेक लिखित स्क्रिप्ट 'विवा ज़पाता!.
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4 comments:
आप बहुत दिल जलाते हैं। किसी दिन पैन ड्राइव लेकर मुंबई आना ही पड़ेंगा!
@रवींद्र प्यारे,
वैसे मैंने लगभग ये सभी फ़िल्में किसी चोरबाज़ार से कहां उठायीं, नेटसंसार से ही पायी हैं..
तो फिर संडे को ढूंढ़ता हूं।
बधाई हो, इतना माल बटोरने के लिए. हम तो अभी वाल्ट्ज़ विद बशीर देख देखकर ही निहाल हो रहे हैं..
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