कभी ऐसा संयोग नहीं बना कि रेनुआर की काफी फ़िल्में एक साथ देखी. सब अभी तक देखी भी नहीं. और अलग-अलग जब देखना हुआ तो लंबे अंतरालों में हुआ. यूनिवर्सिटी के फ़िल्म क्लब में उन्हें पहली बार देखा था, लेकिन जाननेवाले न जानें मायेस्त्रो साहब की फ़िल्मोग्राफी बड़ी विशाल है, और हमारी तरह के मंदबुद्धि अब जाकर ज़रा समझ पा रहे हैं कि उनमें किस-किस तरह के छिपे भेद और कमाल हैं! अभी रात ही को उनकी एक और फ़िल्म पर नज़र पड़ी जिसमें कहानी जैसी कोई कहानी भी नहीं, बस इतना नचवैयों का एक धुनी मैनेजर है पैसों की तंगी और बीस झंझटों के बीच किसी तरह मूलान रूज़ पर अपना मेला जमाना चाहता है, बस, बुढ़ा रहे जां गाबीं के सहज अभिनय में इतनी सी ही है कहानी, मगर फिर कैसी तो तरल-गरल मानवीयता में नहायी हुई, ओह. ओह ओह ओह, कहां से रेनुआर के पास इतनी मानवीयता थी, माथे पर ज़ोर डालकर सोचते हुए लगता है बहुत ज़्यादा सरप्लस में थी..
सिनेमा कैसा चमत्कार है देखने के लिए तो लोग बहुत फ़िल्मकारों की मोहब्बत में रहते हैं, जीवन की मोहब्बत को सिनेमा में पढ़ने के लिए फ़िल्में देखनी हों और बार-बार उसमें डुबकी लगाते रहना हो तो संभवत: उसके लिए ज़्यां रेनुआर सबसे ऊंचे कद के सिलेमा-जीवनकार शाहकार हैं!
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