4/01/2007

एप्रिल वाला फ़ूल के फल

एप्रिल फ़ूल बनाया तो उनको गुस्‍सा आया (‍उनको.. किनको? सायरा बानो को. लगे हाथ ये भी क्लियर कर लीजिये वाला अप्रैल नहीं वाला एप्रिल, और में नुक़्ता वाला फ़ूल). मेरा क्‍या क़सूर, ज़माने का क़सूर, जिसने दस्‍तूर बनाया (सुबोध मुखर्जी के पैसे पर ये ऑन स्‍क्रीन घोषणा करनेवाले साहब हैं विश्‍वजीत. ऑफ स्‍क्रीन असली हल्‍ला शंकर जयकिशन के गाजे-बाजे पर रफ़ी साहब कर रहे थे). सोचकर कभी-कभी आपको तक़लीफ होने लगे कि रफ़ी साहब ने भी क्‍या-क्‍या हल्‍ला किया है. और भारतीय रुपहले पर्दे पर आज ही नहीं पहले भी हसीनाओं को किस-किस तरह के जोकर (यहां संदर्भ बंगाल के लाल विश्‍वजीत से है) जीतते रहे हैं. सायरा बानो ही नहीं वहीदा रहमान तक ऐसे नमूनों पर फिदा हो जाया करती थीं (बीस साल बाद याद है? हेमंत कुमार जैसे सुरीले सज्‍जन अपना पैसा डालकर यह गंदा खेल करवा रहे थे. बिरेन नाग ऐसे खेल को डायरेक्‍ट भी कर रहे थे. हद्द है.)! सायरा बानो का तो फिर भी ठीक है लेकिन वहीदा रहमान विश्‍वजीत पर अपने डरे-डरे नयन और भरे-भरे ज़ाम लुटाने को कैसे तैयार हो गईं समझना मेरे लिए पहेली है! सायरा को तो, चलो, सुबोध मुखर्जी ने कहा होगा भई, असल मुहब्‍बत की आग में नहीं तपना है सिर्फ़ एप्रिल फ़ूल बनना है सो वही नहीं उनकी अम्‍मी नसीम बानो तक तैयार हो गईं (फिल्‍म में बेटी को सजाने-संवारने का जिम्‍मा यानी कॉस्‍ट्यूम अम्‍मीं जान ही हैंडल कर रही थीं).

विश्‍वजीत ने तब की थी अब जीतू भैया खेल रहे हैं. पता नहीं ज़माने ने जिसको ऐसा विरूप बनाया है, या ज़माने को जो विरूप बनाने पर तुला हुआ है, सुबह से नारद पर बुश का बसाता कलैंडर चढ़ाये हुए हैं. देबू भैया एनडीटीवी के बहाने अविनाश के मोहल्‍ले पर कंकड़ (यानी अप्रैल का फूल) फेंक रहे हैं. दूसरी ओर एक अभय तिवारी हैं जिन्‍होंने किसी और को बनाने का मौका न देकर खुदी को आज फ़ूल का शूल दे लिया है. कॉरपोरेशन वाले भी खूब ठिल्‍ल-ठिल्‍ल हो रहे होंगे कि तिवारी जी ने उनके खिलाफ़ अपना स्‍कूप आज के शुभ दिन ही सार्वजनिक किया. पब्लिक यही समझेगी नहीं समझ रही है कि कंपनी-पिशाच का कच्‍चा-चिट्ठा नहीं, अप्रैल वाला फूल बरस रहा है.

आप सुबह से बने हैं या नहीं? कैसे नहीं बने हैं? रवीश कुमार ने फोन करके आपको किसी राष्‍ट्रीय दुर्घटना से अवगत नहीं कराया? अरे, फिर इंडियन एक्‍सप्रैस में हिंदी ब्‍लॉगिंग वाली ख़बर खोजते-खोजते आप अपने पर कुढ़ने के बाद किसी और पर भी चिढ़े हांगे! वो भी नहीं? तो चलिये, आपका अरमान पूरा कर ही दिया जाए. वहां पहुंचिये जहां हम जा रहे हैं. और बनने की बजाय अगर अरमान बनाने वाला है तो हमारे पीछे लाईन में आकर खड़े हो जाईये. अंदर से हम विश्‍वजीत, जितेंद्र, राजकुमार वाला सफेद शर्ट, सफेद पैंट, सफेद जूता-सूता डाट कर विश्‍व को जीतनेवाला रूप ले लें. डेढ़-दो घंटे में नहीं लौटा तो समझियेगा परफ्यूम की प्रचुरता के असर में बेहोश हो गया हूं, या फिर आप शुद्ध रूप से बने हैं. एप्रिल वाला फ़ूल.

2 comments:

अफ़लातून said...

" मेरा क्‍या क़सूर, ज़माने का क़सूर, जिसने इसे बनाया " नहीं " जिसने दस्तूर बनाया"।"जिसने इसे बनाया" तो मोहम्मद रफ़ी के इसी गोत्र के 'तारीफ़ करूँ क्या उसकी,..' में आता है ।
ऐसा हल्ला रफ़ी साहब 'कभी-कभी' नहीं कई बार करते थे। जैसे, 'नदिया के पानी में जवानी देखो आग लगाती है, बदन मल-मल के नहाती है' तथा 'लड़की १९७० की,...१९७० की' आदि ।

azdak said...

धन्‍यवाद, भाई.