4/05/2007

सामयिक यूरोप का असुविधाजनक टिकट

टिकेट्स (2005), निर्देशक त्रयी: ओल्‍मी, क्‍यारोस्‍तामी, लोच

एक घंटे पचास मिनट की फिल्‍म. इंटरसिटी रेल के सुविधा-संपन्‍न व उतने आरामदेह नहीं डिब्‍बे. इंस्‍ब्रुक से रोम तक आज के यूरोप की अस्थिरता, बेचैनियों से भरा सफर. और इस सफर के अलग-अलग पड़ावों पर एक बिंदु से कथा उठाकर दूसरे बिंदु तक उसे छोड़ आने को तीन अलग-अलग निर्देशक. ओरमान्‍नो ओल्‍मी (इटली), अब्‍बास क्‍यारोस्‍तामी (ईरान) और केन लोच (यूके). मैं फिल्‍म की कहानी के विस्‍तार में जाकर शब्‍द नहीं खाऊंगा. कहानी यहां सामयिक यूरोप की परतों को दर्शाने का जरिया भर है. एक बुज़ुर्ग प्रोफेसर के गुज़रे ज़माने की कोमलता वर्तमान के भय व आशंकाओं के बीच अपने भावभीनेपन को जिलाये रखने की छोटी कोशिशें करती है. उसके स्‍वायत्‍त, सुखी संसार की तकलीफ़ बुढ़ापा उतनी नहीं जितनी शहरी जीवन को लगातार घेरते असुरक्षा के खतरे और रोज़-बरोज़ के जीवन की हिंसा है. असहनशीलता है. वृहत्‍तर पैमाने का सामाजिक कटाव है (यह सेगमेंट सिनेमा के पुराने माहिर हाथ ओल्‍मी ने हैंडल किया है). अगली कड़ी एक अपेक्षाकृत लेड-बेक और उदासीन नौजवान और उसकी जबर जीना हराम करती मां के बारे में है. धीरे-धीरे हम इस रिश्‍ते, और सामयिक समाज के तनावों की और गहरी पेचिदगियां खुलता देखते हैं. निरपेक्ष बने हुए लगातार स्‍तंभित करते रहने की यहां परिचित क्‍यारोस्‍तामी का कमाल हमारे हाथ लगता चलता है. केन लोच की आखिरी कड़ी रोम में अपनी टीम का मैच देखने जा रहे तीन सेल्टिक लड़कों की अपनी छोटी सीमित दुनिया की पहचान और फिर एक अल्‍बानियन शरणार्थी परिवार के दुखों में हिस्‍सेदार होकर वृहत्‍तर यथार्थ से जुड़ने की मानवीय बेचैनी है. आज का इंप्रेसनिस्टिक सिनेमा अपने डेंस लेयर्स में हमें अभी भी काफी कुछ देता रह सकता है, टिकेट्स उसका बेहतर व मर्मस्‍पर्शी उदाहरण है.

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